अय्यूब
9 अय्यूब ने जवाब दिया,
2 “मैं अच्छी तरह जानता हूँ, परमेश्वर अन्यायी नहीं,
तो भला अदना इंसान उसके सामने कैसे सही ठहर सकता है?+
4 परमेश्वर बुद्धिमान* और बहुत शक्तिशाली है।+
ऐसा कौन है जो उसके खिलाफ जाकर सही-सलामत बच जाए?+
11 वह मेरे पास से गुज़र जाता है और मैं उसे देख नहीं पाता,
मेरे सामने से निकल जाता है और मैं उसे पहचान नहीं पाता।
12 अगर वह कुछ लेना चाहे, तो कौन उसे रोक सकता है?
कौन उससे कह सकता है, ‘यह तू क्या कर रहा है?’+
14 अगर ऐसा है तो जब मुझे उसे जवाब देना होगा,
दलीलें पेश करनी होंगी, तो सोच-समझकर बोलना होगा।
15 चाहे मैं सही भी क्यों न हूँ, तब भी उसे पलटकर जवाब न दूँगा।+
मैं अपने न्यायी* के आगे सिर्फ दया की भीख माँग सकता हूँ।
16 लेकिन अगर मैं उसे पुकारूँ तो क्या वह मुझे जवाब देगा?
मुझे नहीं लगता वह मेरी सुनेगा भी।
17 वह तो मुसीबतों का तूफान लाकर मुझे तोड़ डालता है,
बिना कुछ कहे-सुने ज़ख्म-पर-ज़ख्म देता है।+
18 वह मुझे साँस भी नहीं लेने देता,
पल-पल मुझ पर तकलीफें लाता है।
19 अगर सवाल ताकत का है, तो उसके जैसा शक्तिशाली कोई नहीं,+
अगर सवाल न्याय का है, तो वह खुद कहता है, ‘कौन मुझसे जवाब-तलब कर* सकता है?’
20 चाहे मैं सही भी हूँ, तब भी मेरी बातें मुझे गुनहगार ठहराएँगी,
चाहे मैं निर्दोष बना रहूँ, तो भी वह मुझे दोषी* ठहराएगा।
21 अब तो मुझे भी शक होने लगा है कि मैं निर्दोष हूँ या नहीं,
लानत है ऐसी ज़िंदगी पर!
22 बात तो एक ही है। इसलिए मैं कहता हूँ,
‘वह दुष्ट और निर्दोष दोनों का नाश कर देता है।’
23 जब कोई सैलाब अचानक कई ज़िंदगियाँ बहा ले जाता है,
तब वह मासूमों की बेबसी पर हँसता है।
अगर यह उसने नहीं किया, तो फिर किसने किया?
26 वे ऐसे उड़ जाते हैं मानो नरकट की नाव हवा से बातें कर रही हो,
हाँ, उसी फुर्ती से, जिस फुर्ती से उकाब अपने शिकार पर झपटता है।
27 अगर मैं कहूँ, ‘मैं अपना गम भुला दूँगा,
चेहरे की उदासी मिटाकर खुश रहूँगा,’
29 जब मुझे दोषी* ही ठहराया जाना है,
तो खुद को निर्दोष साबित करने की कोशिश क्यों करूँ?+