अय्यूब
6 तब अय्यूब ने कहा,
3 तब वह समुंदर की रेत से भी भारी होती।
इसलिए मेरे मुँह से बेसिर-पैर की बातें निकली हैं।+
4 सर्वशक्तिमान ने ज़हरीले तीरों से मुझे छलनी कर दिया है,
उनका ज़हर मेरी रग-रग में फैल रहा है।
परमेश्वर का कहर मोरचा बाँधे मेरे सामने खड़ा है।
6 क्या बेस्वाद खाना, बिना नमक के गले से नीचे उतरता है?
भला गुलखेर पौधे के रस में कोई स्वाद होता है?
7 ऐसी चीज़ों को मैं हाथ तक नहीं लगाना चाहता,
ये* मेरे लिए सड़े हुए खाने जैसी हैं!
8 काश! मेरी दुआ सुन ली जाए,
परमेश्वर मेरी आरज़ू पूरी कर दे,
9 मुझे मसल दे, अपना हाथ बढ़ाकर मुझे खत्म कर दे।+
10 मुझे इसका कोई गम नहीं होगा,
दर्दनाक हाल में भी हँसकर मौत को गले लगा लूँगा।
क्योंकि मैंने पवित्र परमेश्वर+ की बातों को कभी अनसुना नहीं किया।
11 मुझमें अब और इंतज़ार करने की हिम्मत नहीं।+
जीने के लिए जब कुछ रहा ही नहीं, तो जीकर क्या करूँ?
12 मैं चट्टान जैसा मज़बूत नहीं,
न मेरा शरीर ताँबे का बना है!
16 पिघलती बर्फ से वह मटमैली हो जाती है,
छिपी हिम के गलने से उमड़ पड़ती है,
17 मगर तपती गरमी में वह सूख जाती है, खत्म हो जाती है,
चिलचिलाती धूप में वह अपना दम तोड़ देती है।
18 वह बहते-बहते रेगिस्तान में आती है
और गायब हो जाती है।
20 उस पर भरोसा करके वे शर्मिंदा होते हैं,
उनके हाथ सिर्फ निराशा लगती है।
22 क्या मैंने तुमसे कुछ माँगा?
क्या मैंने कहा, अपनी दौलत से मेरी मदद करो?
23 क्या मैंने कहा, मुझे दुश्मनों के हाथ से बचा लो?
ज़ालिमों के चंगुल से छुड़ा लो?
मगर तुम क्या सोचकर मुझे डाँट रहे हो?+
26 क्या तुम मेरी बातों में नुक्स निकालना चाहते हो?
दुखी इंसान बहुत कुछ कह जाता है,+ मगर हवा उन बातों को उड़ा ले जाती है।
28 अब ज़रा मुड़कर मेरी तरफ देखो,
क्योंकि मैं तुमसे झूठ नहीं बोलूँगा।
30 क्या मैं कुछ गलत कह रहा हूँ?
क्या मुझे नहीं पता मुझ पर क्या बीत रही है?