नीतिवचन
8 देख, बुद्धि आवाज़ लगा रही है,
पैनी समझ ज़ोर-ज़ोर से पुकार रही है।+
6 मेरी सुनो क्योंकि मैं ज़रूरी बातें बता रही हूँ,
मैं जो कहूँगी सही कहूँगी।
7 मैं सच्चाई की बातें धीमे-धीमे बोलती हूँ,
मेरे होंठ दुष्ट बातों से घिन करते हैं।
8 मेरी कही सारी बातें नेकी की हैं,
उनमें कोई छल-कपट या उलट-फेर नहीं।
9 समझ रखनेवाले ये बातें साफ-साफ समझ जाते हैं,
ज्ञान पानेवालों को ये सीधी और सच्ची लगती हैं।
10 चाँदी को नहीं, मेरी शिक्षा को चुन लो,
बढ़िया सोने को नहीं, मेरे ज्ञान को ले लो,+
11 क्योंकि बुद्धि का मोल मूंगों* से बढ़कर है,
सारी कीमती चीज़ें भी इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं।
13 यहोवा का डर मानना, बुराई से नफरत करना है।+
गुरूर, घमंड,+ बुरी राह और झूठी ज़बान से मुझे नफरत है।+
16 मेरी मदद से हाकिम राज करते हैं,
ऊँचे अधिकारी सच्चाई से न्याय करते हैं।
18 मेरे पास धन और आदर है,
कभी न मिटनेवाली दौलत और नेकी है।
19 मेरे दिए तोहफे सोने से, हाँ, शुद्ध सोने से बढ़कर हैं,
मैं जो देती हूँ वह बढ़िया चाँदी से अच्छा है।+
20 मैं नेकी की राह पर चलती हूँ,
इंसाफ की डगर के बीचों-बीच जाती हूँ।
25 पहाड़ों को अपनी जगह स्थिर करने से पहले,
पहाड़ियों से भी पहले, मुझे रचा गया।
26 उस वक्त उसने न तो धरती न इसके मैदान,
न ही मिट्टी का पहला ढेला बनाया था।
गहरे सागर में सोते बनाए,
29 जब उसने समुंदर की हद ठहरायी
कि वह उसका हुक्म न तोड़े,+
जब उसने धरती की नींव रखी,
उसे हर दिन मुझसे बहुत खुशी मिलती थी+
और मैं हर वक्त उसके सामने मगन रहती थी।+
31 जब मैंने इंसानों के रहने के लिए धरती देखी,
तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।
इंसानों से मुझे गहरा लगाव था।
34 सुखी है वह इंसान जो मेरी सुनता है,
जो हर दिन मेरे दरवाज़े पर सुबह-सुबह आता है,
चौखट के पास खड़ा मेरा इंतज़ार करता है।