अय्यूब
4 जब मैं लेटता हूँ तो सोचता हूँ, ‘न जाने सुबह कब होगी!’+
पर रात है कि कटती नहीं, भोर तक मैं करवटें बदलता रहता हूँ।
5 मेरे पूरे शरीर में कीड़े पड़ चुके हैं,
जगह-जगह मिट्टी के लोंदे बन गए हैं,+
फोड़ों की पपड़ी फट गयी है और मवाद बहे जा रहा है।+
11 इसलिए मैं चुप नहीं रहूँगा,
मेरे अंदर जितना दर्द छिपा है, उसे उँडेल दूँगा,
अपनी कड़वाहट उगल दूँगा।+
12 क्या मैं सागर हूँ? या कोई बड़ा समुद्री जीव हूँ,
जो तूने मुझ पर पहरा बिठाया है?
13 जब मैं सोचता हूँ, ‘मेरा बिस्तर मुझे आराम पहुँचाएगा,
मेरा पलंग मेरे गम को हलका करेगा,’
14 तब तू मुझे सपने दिखाकर घबरा देता है,
दर्शन दिखाकर मेरे होश उड़ा देता है।
15 काश! मेरा दम घुट जाए,
जीने से अच्छा है कि मुझे मौत आ जाए।+
16 नफरत हो गयी है ज़िंदगी से,+ मैं और जीना नहीं चाहता।
मुझे अकेला छोड़ दो, मेरी ज़िंदगी पल-भर की है।*+
20 इंसान पर नज़र रखनेवाले!+ अगर मैंने पाप किया है, तो इससे तेरा क्या नुकसान हुआ है?
तूने क्यों मुझे अपना निशाना बनाया है?
क्या मैं तुझ पर बोझ बन गया हूँ?
21 मेरे अपराधों को माफ क्यों नहीं कर देता?
मेरे गुनाहों को भुला क्यों नहीं देता?
जल्द ही मैं मिट्टी में मिल जाऊँगा,+
तब ढूँढ़ने पर भी तुझे न मिलूँगा।”