अध्याय 22
आयतों को सही तरीके से लागू करना
जब हम दूसरों को सिखाते हैं, तो आयतों को पढ़ने के अलावा, कुछ और भी ज़रूरी है। प्रेरित पौलुस ने अपने साथी तीमुथियुस को लिखा: “अपने आप को परमेश्वर का ग्रहणयोग्य और ऐसा काम करनेवाला ठहराने का प्रयत्न कर, जो लज्जित होने न पाए, और जो सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाता हो।”—तिरछे टाइप हमारे; 2 तीमु. 2:15.
ऐसा करने का मतलब है कि हम जिस तरीके से आयत को लागू करके समझाते हैं, वह बाइबल की शिक्षाओं से मेल खाना चाहिए। आयत के जो भाग हमें अच्छे लगते हैं, उन्हें चुनकर और उनके साथ अपने विचार जोड़कर बताने के बजाय, यह ज़रूरी है कि हम आस-पास की आयतों पर भी ध्यान दें। यहोवा ने अपने भविष्यवक्ता यिर्मयाह के ज़रिए उन भविष्यवक्ताओं के बारे में लोगों को चेतावनी दी जो दावा तो करते थे कि वे परमेश्वर के मुख की बात बोल रहे हैं, मगर असल में “अपने ही मन की बातें कहते” थे। (यिर्म. 23:16) प्रेरित पौलुस ने भी परमेश्वर के वचन में इंसान के तत्त्वज्ञान की मिलावट करने के खिलाफ मसीहियों को आगाह किया। उसने लिखा: “हम ने लज्जा के गुप्त कामों को त्याग दिया, और न चतुराई से चलते, और न परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं।” उन दिनों, दाखमधु बेचनेवाले बेईमान व्यापारी दाखमधु में पानी मिलाकर उसकी मात्रा बढ़ा देते थे जिससे वह ज़्यादा समय तक चले और इसे बेचकर वे ज़्यादा पैसा कमा सकें। हम परमेश्वर के वचन में इंसानी तत्त्वज्ञान की मिलावट नहीं करते। पौलुस ने कहा: “हम उन बहुतों के समान नहीं, जो परमेश्वर के वचन में मिलावट करते हैं; परन्तु मन की सच्चाई से, और परमेश्वर की ओर से परमेश्वर को उपस्थित जानकर मसीह में बोलते हैं।”—2 कुरि. 2:17; 4:2.
कभी-कभी आप कोई सिद्धांत समझाने के लिए आयत दिखा सकते हैं। पूरी बाइबल, सिद्धांतों से भरी पड़ी है जिनमें तरह-तरह के हालात का सामना करने की एक-से-एक बढ़िया सलाह दी गयी है। (2 तीमु. 3:16, 17) लेकिन आपको इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि आप आयत को जिस तरीके से लागू करते हैं, वह सही है और आप उसका गलत इस्तेमाल नहीं कर रहे जिससे ऐसा लगे कि आप जो कहना चाहते हैं, आयतें भी वही कह रही हैं। (भज. 91:11, 12; मत्ती 4:5, 6) आप जिस तरीके से आयत को लागू करते हैं, वह यहोवा के उद्देश्य के मुताबिक होना चाहिए और पूरी बाइबल से मेल खाना चाहिए।
‘सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में लाने’ का मतलब यह भी है कि बाइबल में जो लिखा है, वह किस भावना से लिखा है यह समझना। यह कोई ऐसा “सोंटा” नहीं जिससे लोगों को डराया-धमकाया जाए। यीशु के ज़माने के धर्मगुरू जो यीशु का विरोध करते थे, वे भी शास्त्र का हवाला देते थे। लेकिन जो बातें ज़्यादा गंभीर थीं, जैसे न्याय, दया और वफादारी जिनकी माँग परमेश्वर भी करता है, उन्हें वे नज़रअंदाज़ कर देते थे। (मत्ती 22:23, 24; 23:23, 24) लेकिन जब यीशु, परमेश्वर का वचन सिखाता था, तो वह दिखाता था कि उसके पिता परमेश्वर की शख्सियत कैसी है। यीशु में सच्चाई के लिए जोश और उन लोगों के लिए प्यार था जिन्हें वह सिखाता था। हमें भी उसकी मिसाल पर चलने की कोशिश करनी चाहिए।—मत्ती 11:28.
हम कैसे जान सकते हैं कि हम बाइबल के किसी वचन को सही तरीके से लागू कर रहे हैं या नहीं? नियमित रूप से बाइबल पढ़ने से हमें यह जानने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, परमेश्वर ने पवित्र आत्मा से अभिषिक्त जनों के निकाय यानी “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” के ज़रिए अपने सभी वफादार सेवकों के लिए आध्यात्मिक भोजन का जो इंतज़ाम किया है, उसके लिए भी हमें कदरदानी दिखाने की ज़रूरत है। (मत्ती 24:45) अगर हम निजी अध्ययन करते रहें और बिना नागा कलीसिया की सभाओं में हाज़िर हों, साथ ही उनमें हिस्सा लें, तो विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास वर्ग से मिलनेवाली हिदायतों से हमें फायदा होगा।
अगर रीज़निंग फ्रॉम द स्क्रिप्चर्स् किताब आपकी भाषा में हो और आप उसका अच्छा इस्तेमाल करना सीख लें, तो आप यह जानकारी चुटकियों में हासिल कर सकते हैं कि प्रचार में अकसर इस्तेमाल होनेवाली सैकड़ों आयतों को सही तरीके से कैसे लागू करें। अगर आप ऐसी आयत इस्तेमाल करने की सोच रहे हैं, जिसके बारे में आपको ज़्यादा ज्ञान नहीं है, तो आप उस पर खोजबीन करते हुए अपनी नम्रता का सबूत दे रहे होंगे। इससे जब आप सिखाएँगे, तो आप परमेश्वर के वचन को ठीक रीति से काम में ला रहे होंगे।—नीति. 11:2.
साफ-साफ समझाइए कि आयत कैसे लागू होती है। दूसरों को सिखाते वक्त इस बात का ध्यान रखिए कि उन्हें आपके विषय और आप जो आयत पढ़ रहे हैं, उनके बीच का संबंध साफ-साफ समझ आए। अगर आप आयत पढ़ने से पहले सवाल पूछते हैं, तो सुननेवालों को आयत पढ़ने से उसका जवाब मिलना चाहिए। कई बार आप अपनी बात की सच्चाई दिखाने के लिए आयत पढ़ते हैं। ऐसे में इस बात का ध्यान रखिए कि सुननेवाला भी यह समझ पाए कि आयत से आपकी बात कैसे सच साबित होती है।
महज़ शास्त्रवचन पढ़ना, चाहे ज़ोर देकर ही पढ़ा जाए, हमेशा काफी नहीं होता। याद रखिए कि एक आम इंसान बाइबल के बारे में नहीं जानता और सिर्फ एक बार शास्त्रवचन पढ़ने से शायद उसे आपकी बात समझ में न आए। इसिलए आयत का जो भाग आपके विषय से सीधे ताल्लुक रखता है, उस पर उनका ध्यान दिलाइए।
आम तौर पर यह ज़रूरी होता है कि आप खास शब्दों को अलग करके उन पर ज़ोर दें। और इसका सबसे आसान तरीका है, उन खास शब्दों को दोहराना। अगर आप किसी एक शख्स से बात कर रहे हैं, तो आप उससे ऐसे सवाल पूछिए जिससे वह खास शब्द आसानी से पहचान सके। लोगों के समूह से बात करते वक्त खास शब्दों पर ज़ोर देने के लिए, कुछ वक्ता उसी अर्थ के और भी कई शब्द इस्तेमाल करते हैं या दूसरे शब्दों में वही बात फिर से कहते हैं। लेकिन अगर आप ऐसा करते हैं, तो ध्यान रहे कि सुननेवाले ये न भूल जाएँ कि आयत में जो शब्द उन्होंने पहले पढ़े वे विषय से कैसे जुड़े हुए हैं।
आयत पढ़ते वक्त खास शब्दों को अलग करके या उन पर ज़ोर देकर आपने एक अच्छी बुनियाद डाल दी है। अब इसी बुनियाद पर आगे काम कीजिए। क्या आपने आयत का परिचय देते वक्त बताया था कि आप यह आयत क्यों पढ़ रहे हैं? अगर हाँ, तो दिखाइए कि सुननेवालों को आपने जिस बात पर गौर करने के लिए कहा था, वह उन शब्दों से कैसे समझ में आती है जिन पर आपने ज़ोर दिया है। और फिर, जो बात आप समझाना चाहते हैं, वह साफ-साफ समझाइए। अगर आपने आयत का परिचय खोलकर ना भी दिया हो, फिर भी यह ज़रूरी है कि आयत पढ़ने के बाद आप अपनी बात साफ-साफ समझाएँ।
फरीसियों ने सोचा कि वे यीशु से बहुत ही मुश्किल सवाल पूछने जा रहे हैं। उन्होंने पूछा: “क्या हर एक कारण से अपनी पत्नी को त्यागना उचित है?” यीशु ने उत्पत्ति 2:24 के आधार पर जवाब दिया। ध्यान दीजिए कि उसने आयत के सिर्फ एक भाग पर ज़ोर दिया और उसने उस भाग को लागू करके उनको जवाब दिया। यह बताने के बाद कि पुरुष और उसकी पत्नी “एक तन” होंगे, यीशु ने यह कहकर अपनी बात खत्म की: “इसलिये जिसे परमेश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग न करे।”—मत्ती 19:3-6.
एक आयत किस तरह लागू होती है, यह आपको किस हद तक समझाना चाहिए? यह इस बात से तय होगा कि आपके सुननेवाले कौन हैं और आप जो कह रहे हैं, वह कितना ज़रूरी है। सरल शब्दों में और सीधे-सीधे अपनी बात कहने का लक्ष्य रखिए।
सीधे शास्त्र से तर्क करना। प्रेरित पौलुस के थिस्सलुनीकिया में प्रचार काम के बारे में प्रेरितों 17:2, 3 कहता है कि वह “पवित्र शास्त्रों से उनके साथ विवाद” करता था। विवाद करना या तर्क करना ऐसा हुनर है जो यहोवा के हर सेवक को अपने अंदर पैदा करना चाहिए। उदाहरण के लिए, पौलुस ने यीशु और उसकी सेवा के बारे में कई बातें बतायीं और दिखाया कि ये बातें पहले ही इब्रानी शास्त्र में लिखी जा चुकी हैं। उसके बाद, उसने अपनी बात बड़े दमदार तरीके से यह कहते हुए खत्म की: “यही यीशु जिस की मैं तुम्हें कथा सुनाता हूं, मसीह है।”
पौलुस ने इब्रानियों को लिखते वक्त बार-बार इब्रानी शास्त्र से हवाले दिए। किसी मुद्दे पर ज़ोर देने के लिए या बात को साफ-साफ समझाने के लिए, वह अकसर एक शब्द या वाक्य के एक हिस्से को अलग कर देता था और फिर उसकी अहमियत समझाता था। (इब्रा. 12:26, 27) जो वृत्तांत इब्रानियों के अध्याय 3 में पाया जाता है, उसमें पौलुस ने भजन 95:7-11 से हवाले दिए। ध्यान दीजिए कि उसने इन शास्त्रवचनों के तीन हिस्सों को विस्तार से समझाया: (1) उसने मन का ज़िक्र किया (इब्रा. 3:8-12), (2) “आज के दिन,” इन शब्दों का अर्थ समझाया (इब्रा. 3:7, 13-15; 4:6-11), और (3) इस वाक्य का मतलब समझाया: “वे मेरे विश्राम में प्रवेश करने न पाएंगे” (इब्रा. 3:11, 18, 19; 4:1-11)। तो आप भी इसी तरह आयत को लागू करने की मिसाल पर चलने की कोशिश कीजिए।
ध्यान दीजिए कि यीशु ने लूका 10:25-37 के वृत्तांत में, कैसे शास्त्रवचनों से तर्क किया। एक व्यवस्थापक ने यीशु से पूछा: “हे गुरु, अनन्त जीवन का वारिस होने के लिये मैं क्या करूं?” जवाब में सबसे पहले तो यीशु ने उस मामले पर खुद उसकी राय पूछी और फिर कहा कि परमेश्वर के वचन में जो लिखा है, उस पर अमल करना ज़रूरी है। जब यह ज़ाहिर हो गया कि वह आदमी यीशु की बात समझ नहीं रहा, तो उसने आयत के एक ही शब्द, “पड़ोसी” के बारे में अच्छी तरह समझाया। उस शब्द की परिभाषा देने के बजाय यीशु ने एक दृष्टांत दिया जिससे वह आदमी खुद सही जवाब तक पहुँच पाया।
इससे पता चलता है कि यीशु जब सवाल का जवाब देता था, तब वह सीधे ऐसी आयतों के हवाले नहीं देता था जिनमें जवाब साफ ज़ाहिर होता था। वह आयत पर बड़े ध्यान से सोचता था और फिर पूछे गए सवाल पर उसे लागू करता था।
जब पुनरुत्थान की आशा पर सदूकियों ने सवाल उठाया, तो यीशु ने उनका ध्यान निर्गमन 3:6 के खास हिस्से पर दिलाया। लेकिन आयत बताने के बाद वह चुप नहीं रहा। उसने तर्क किया और दिखाया कि पुनरुत्थान, परमेश्वर के उद्देश्य का एक हिस्सा है।—मर. 12:24-27.
शास्त्रवचनों की सही-सही समझ देना और असरदार तरीके से उन पर तर्क करना, एक कुशल शिक्षक बनने की तरफ बहुत बड़ा कदम है।