यीशु का जीवन और सेवकाई
और ज़्यादा सुधारक सलाह
कफरनहूम में उस घर में जब थे, तब प्रेरितों की बहस के अलावा, कि कौन सबसे बड़ा है, कुछ और बातों पर विचार किया जाता है। यह घटना भी कफरनहूम को लौटते समय घटी होगी, जब यीशु व्यक्तिगत रूप से वहाँ उपस्थित न था। प्रेरित यूहन्ना रिपोर्ट करता है: “हम ने एक मनुष्य को तेरे नाम से दुष्टात्माओं को निकालते देखा और हम उसे मना करने लगे, क्योंकि वह हमारे साथ नहीं था।”
प्रत्यक्षतः यूहन्ना प्रेरितों को अच्छा कर देनेवालों का एक विशिष्ट, स्वत्वाधिकार रखनेवाला दल मानता है। इसलिए उसे लगता है कि वह मनुष्य अनुचित रूप से सामर्थ के काम कर रहा था, क्योंकि वह उनके समूह का भाग न था।
परन्तु, यीशु सलाह देता है: “उस को मत मना करो; क्योंकि ऐसा कोई नहीं जो मेरे नाम से सामर्थ का काम करे, और जल्दी से मुझे बुरा कह सके। क्योंकि जो हमारे विरोध में नहीं, वह हमारी ओर है। जो कोई एक कटोरा पानी तुम्हें इसलिए पिलाए कि तुम मसीह के हो तो मैं तुम से सच कहता हूँ कि वह अपना प्रतिफल किसी रीति से न खोएगा।”
यीशु के पक्ष में होने के लिए इस मनुष्य को सशरीर उसके पीछे हो लेने की ज़रूरत नहीं थी। मसीही कलीसिया अब तक स्थापित नहीं हुई थी, इसलिए उसका उनके समूह का हिस्सा न होने का मतलब यह नहीं था कि वह किसी अलग कलीसिया का हिस्सा था। इस मनुष्य को यीशु के नाम में सचमुच ही विश्वास था और इस प्रकार वह दुष्टात्माओं को निकालने में सफ़ल रहा। वह जो कर रहा था उसकी उन बातों से अनुकूल तुलना हुई, जो यीशु ने कहा प्रतिफल के योग्य थीं। ऐसा करने के लिए, यीशु दिखाता है, वह अपना प्रतिफल नहीं खोएगा।
परन्तु अगर उस मनुष्य ने प्रेरितों के शब्दों और कार्यों से ठोकर खाया, तब क्या? यह तो बहुत गंभीर बात होगी! यीशु कहता है: “जो कोई इन छोटों में से जो मुझ पर विश्वास करते हैं, किसी को ठोकर खिलाए, तो उसके लिए भला यह है कि एक बड़ी चक्की का पाट, उस तरह का जो गधा चलाता है, उसके गले में लटकाया जाए और उसे समुद्र में डाल दिया जाए।”
यीशु कहता है कि उसके अनुयायियों को अपनी ज़िन्दगी में से ऐसी कोई भी चीज़ हटा देनी चाहिए जो उसी तरह प्रिय है जैसे हाथ, पैर, या आँख, जिसके कारण वे शायद ठोकर खाएँ। बेहतर है कि इस प्रिय वस्तु के बग़ैर हों और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करें, बजाय इसके कि उसको पकड़े रहकर गेहेन्ना (यरूशलेम के पास एक जलता हुआ कचरे का ढेर) में डाल दिए जाएँ, जो अनन्त विनाश का प्रतीक है।
यीशु यह चेतावनी भी देता है: “देखो, तुम इन छोटों में से किसी को तुच्छ न जानना; क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ, कि स्वर्ग में उनके दूत मेरे स्वर्गीय पिता का मुँह सदा देखते हैं।” वह फिर इन “छोटों” की क़ीमत दर्शाता है उस आदमी के बारे में बताकर जिसकी १०० भेड़ें हैं लेकिन एक खो जाती है। यीशु समझाता है कि वह आदमी उन ९९ भेड़ों को छोड़कर उस एक गुम भेड़ की खोज में जाएगा, और उसे ढूँढ़ निकालने पर उन ९९ भेड़ों से ज़्यादा इस एक भेड़ के कारण आनन्द करेगा। “ऐसा ही,” यीशु फिर समाप्त करता है, “तुम्हारे पिता की जो स्वर्ग में है यह इच्छा नहीं, कि इन छोटों में से एक भी नाश हो।”
संभवतः अपने प्रेरितों की बहस के बारे में सोचकर, यीशु प्रोत्साहित करता है: “अपने में नमक रखो, और आपस में मेल मिलाप से रहो।” फीके पदार्थों में नमक डालकर उन्हें रुचिकर बनाया जाता है। इस प्रकार, प्रतीकात्मक नमक के होने से जो कुछ कोई व्यक्ति कहता है, उसे स्वीकार करना ज़्यादा आसान बन जाता है। ऐसे नमक के होने से शान्ति बनाए रखने में मदद होगी।
लेकिन मानवीय अपरिपूर्णता के कारण, कभी-कभी गंभीर विवाद घटित होंगे। उनसे निपटने के लिए भी यीशु निर्देश देता है। “यदि तेरा भाई अपराध करे,” यीशु कहता है, “तो जा और अकेले में बातचीत करके उसे समझा; यदि वह तेरी सुने तो तू ने अपने भाई को पा लिया।” अगर वह नहीं सुनता, तो यीशु सलाह देता है, “एक दो जन को अपने साथ ले जा, कि हर एक बात दो या तीन गवाहों के मुँह से ठहराई जाए।”
यीशु कहता है, मामले को “कलीसिया” तक सिर्फ़ आख़िर में ही ले जाना, यानी, मण्डली के ज़िम्मेदार अध्यक्षों को बता देना, जो एक न्यायिक निर्णय दे सकते हैं। अगर अपराधी उनके निर्णय को मान नहीं लेता, तो यीशु निर्णय देता है, “तू उसे अन्यजाति और महसूल लेनेवाले के जैसा जान।”
ऐसा निर्णय करने में, अध्यक्षों को यहोवा के वचन में पाए गए आदेशों का निकट रूप से पालन करना चाहिए। इस प्रकार, जब वे किसी व्यक्ति को दोषी और दण्ड के योग्य पाते हैं, तो न्यायदण्ड ‘पहले ही स्वर्ग में बन्धा जा चुका होगा।’ और जब वे ‘पृथ्वी पर खोलते हैं,’ यानी, किसी को निर्दोष पाते हैं, तो यह पहले ही ‘स्वर्ग में खोला जा चुका होगा।’ यीशु कहता है कि ऐसे न्यायिक विचार-विमर्शों में, “जहाँ दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं, वहाँ मैं उन के बीच में होता हूँ।”— मत्ती १८:६-२०; मरकुस ९:३८-५०, न्यू.व.; लूका ९:४९, ५०.
◆ यीशु के समय में उसके साथ जाना क्यों ज़रूरी न था?
◆ किसी छोटे जन को ठोकर खिलाने की बात कितनी गंभीर है, और यीशु ने इन छोटों के महत्त्व को किस तरह दर्शाया?
◆ प्रेरितों को अपने में नमक रखने के लिए यीशु का प्रोत्साहन संभवतः किस बात से प्रेरित हुआ होगा?
◆ ‘बान्धने’ और ‘खोलने’ का मतलब क्या है?