आपकी प्रार्थनाएँ कितनी अर्थपूर्ण हैं?
“मैं ने सारे मन से प्रार्थना की है, हे यहोवा, मेरी सुन लेना।”—भजन संहिता ११९:१४५.
१, २. (अ) यीशु की कौनसी दृष्टांत कथा प्रार्थना से संबंधित थी? (ब) दोनों प्रार्थनाओं से यीशु ने क्या निष्कर्ष निकाला, और वह हमें क्या दिखाना चाहिए?
सृजनहार, यहोवा परमेश्वर, किस तरह की प्रार्थनाएँ सुनता है? यीशु मसीह की बतायी एक दृष्टांत कथा परमेश्वर का प्रार्थनाओं को उत्तर देने के एक आधारभूत शर्त को सूचित करती है। यीशु ने कहा कि दो आदमी यरूशलेम के मंदिर में प्रार्थना कर रहे थे। एक बहुत ही सम्मानित फरीसी था, और दूसरा तिरस्कृत चुंगी लेनेवाला। उस फरीसी ने प्रार्थना की: “हे परमेश्वर मैं तेरा धन्यवाद करता हूँ कि मैं और मनुष्यों की नाई, . . . और न इस चुंगी लेनेवाले के समान हूँ। मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ, मैं अपनी सब कमाई का दसवाँ अंश भी देता हूँ।” लेकिन दीन-हीन चुंगी लेनेवाले ने “अपनी छाती पीट-पीटकर कहा, ‘हे परमेश्वर मुझ पापी पर दया कर।’”—लूका १८:९-१३.
२ इन दो प्रार्थनाओं पर टीका करते हुए, यीशु ने कहा: “मैं तुम से कहता हूँ, कि वह दूसरा [फरीसी] नहीं, परंतु यही मनुष्य [चुंगी लेनेवाला] धर्मी ठहराया जाकर अपने घर गया; क्योंकि जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो अपने आप को दीन बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।” (लूका १८:१४; न्यू.व.) स्पष्टतः, यीशु ने दिखाया कि अपने स्वर्गीय पिता से सिर्फ प्रार्थना करना काफ़ी नहीं। हम किस तरह से प्रार्थना करते हैं—हमारी मानसिक अभिवृत्ति—भी महत्त्वपूर्ण है।
३. (अ) प्रार्थना को नियंत्रित करनेवाले कुछेक आधारभूत नियमों का उद्धरण करें। (ब) प्रार्थना कौन-कौनसे रूप धारण कर सकती है?
३ प्रार्थना वास्तव में एक अनमोल, भारी, गंभीर विशेषाधिकार है, और सभी जानकार मसीही उसे नियंत्रित करनेवाले नियमों से सुपरिचित हैं। प्रार्थनाएँ एकमात्र सच्चे परमेश्वर, यहोवा को संबोधित होनी चाहिए। वे उसके पुत्र, यीशु मसीह के नाम में कहे जाने चाहिए। स्वीकार किए जाने के लिए, उन्हें विश्वास से दिए जाने चाहिए। जी हाँ, “परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए कि वह है।” इसके अतिरिक्त, अपनी प्रार्थनाएँ परमेश्वर के इच्छानुसार होने चाहिए। (इब्रानियों ११:६; भजन संहिता ६५:२; मत्ती १७:२०; यूहन्ना १४:६, १४; १ यूहन्ना ५:१४) और धर्मशास्त्रीय उदाहरणों से, हम सीखते हैं कि प्रार्थनाएँ स्तुति, धन्यवाद, बिनती और निवेदन का रूप ले सकती हैं।—लूका १०:२१; इफिसियों ५:२०; फिलिप्पियों ४:६; इब्रानियों ५:७.
अर्थपूर्ण प्रार्थनाओं के उदाहरण
४. (अ) मूसा और यहोशू ने अर्थपूर्ण प्रार्थनाओं के कौनसे उदाहरण प्रस्तुत किए? (ब) दाऊद और राजा हिजकिय्याह ने कौनसे उदाहरण दिए? (क) इन में की अनेक प्रार्थनाओं में कौनसी सामान्य विशेषता थी?
४ जब महत्त्वपूर्ण समस्याओं का सामना करना हो, गंभीर निर्णय लेने हों, बड़ी ग़लतियाँ की गयी हों, या हमारी जानें ख़तरे में हों, तब हमारी प्रार्थनाएँ विशेष रूप से गांभीर्य ग्रहण करके अर्थपूर्ण बन जाती हैं। दस अविश्वसनीय भेदियों के नकारात्मक रिपोर्ट सुनने के बाद चूँकि इस्राएलियों ने विद्रोह किया था, यहोवा ने मूसा को बताया कि वे लोग विध्वंस किए जाने के योग्य थे। एक गंभीर तथा अर्थपूर्ण प्रार्थना में, मूसा ने यहोवा से यह कार्य न करने की विनती की इसलिए कि उसका नाम उस में अंतर्ग्रस्त था। (गिनती १४:११-१९) आकान की लोभ की वजह से जब इस्राएल को ऐ में पराजित किया गया, यहोशू के मुख से एक बहुत ही भावपूर्ण प्रार्थना निकली, जो उसी प्रकार यहोवा के नाम के आधार पर थी। (यहोशू ७:६-९) दाऊद के अनेक भजन गंभीर प्रार्थनाओं के रूप में हैं, और एक विशेषतः प्रभावी उदाहरण भजन ५१ है। अश्शूरी राजा सन्हेरीब के यहूदा के आक्रमण के समय राजा हिजकिय्याह की प्रार्थना, अर्थपूर्ण प्रार्थना का एक और बढ़िया उदाहरण है, और फिर से यहोवा का नाम अंतर्ग्रस्त था।—यशायाह ३७:१४-२०.
५. हमारे पास यहोवा के कुछ सेवकों द्वारा कहे अर्थपूर्ण प्रार्थनाओं के कौनसे अन्य उदाहरण हैं?
५ विलापगीत की किताब को यिर्मयाह की अपने लोगों के पक्ष में की गयी एक लंबी, गंभीर प्रार्थना कही जा सकती है, इसलिए कि उस में यहोवा को बारंबार संबोधित किया गया है। (विलापगीत १:२०; २:२०; ३:४०-४५, ५५-६६; ५:१-२२) एज्रा और दानिय्येल ने भी अपनी जाति की ग़लतियाँ स्वीकार करके क्षमा याचना करते हुए अपने लोगों के पक्ष में अर्थपूर्ण प्रार्थनाएँ की। (एज्रा ९:५-१५; दानिय्येल ९:४-१९) और हम निश्चित हो सकते हैं कि जब योना बड़ी मछली के पेट में था, तब जो प्रार्थना उसने की, वह गंभीर और अर्थपूर्ण रही होगी।—योना २:१-९.
६. (अ) यीशु ने हमें अर्थपूर्ण प्रार्थनाओं के कौनसे उदाहरण दिए? (ब) हमारी प्रार्थनाओं को अर्थपूर्ण बनाने के लिए कौनसा मूलभूत तत्त्व ज़रूरी है?
६ १२ प्रेरितों को चुनने से पहले, यीशु ने सारी रात प्रार्थना करने में बीतायी ताकि चुनाव करने में अपने पिता की इच्छा हो। (लूका ६:१२-१६) और फिर, उसके विश्वासघात की रात पर की गयी यीशु की वह अर्थपूर्ण प्रार्थना भी है, जैसे यूहन्ना अध्याय १७ पर लेखबद्ध है। ये सभी प्रार्थनाएँ यहोवा परमेश्वर के साथ उस बढ़िया संबंध की परिचायक गवाही देती हैं जिसका अनुभव उनके कहनेवालों ने किया। इस में कोई शक नहीं कि, अगर हमारी प्रार्थनाएँ अर्थपूर्ण होनी हैं तो यह हमारी प्रार्थनाओं का एक मूलभूत तत्त्व होना चाहिए! और अगर उन्हें यहोवा परमेश्वर के साथ ‘प्रभावी’ होना है तो उनका उत्साही और अर्थपूर्ण होना आवश्यक है।—याकूब ५:१६, द जेरूसलेम बाइबल.
मानवी असिद्धता के कारण दोष
७. हमारी प्रार्थनाओं के संबंध में हम अपने आप को कौनसे प्रश्न पूछ सकते हैं?
७ जैसे ग़ौर किया गया है, तनावभरे परिस्थितियों में हमारी प्रार्थनाएँ संभवतः विशेष रूप से गंभीर और अर्थपूर्ण होंगे। पर हमारी प्रतिदिन की प्रार्थनाओं का क्या? क्या वे उस दिली, घनिष्ठ रिश्ते का प्रमाण देती हैं, जो हम महसूस करते हैं कि हमें अपने स्वर्गीय पिता, यहोवा के साथ है? यह अच्छी तरह से कहा गया है: “अगर परमेश्वर के नज़रों में हमारी प्रार्थना का कुछ भी महत्त्व होना चाहिए, तो इसे हमारी नज़रों में भी कुछ महत्त्व रखना चाहिए।” क्या हम अपनी प्रार्थनाओं को उनके योग्य विचार देते हैं और यह निश्चित करते हैं कि वे सचमुच हमारे प्रतीकात्मक हृदय से आते हैं?
८. मानवी असिद्धता के कारण हमारी प्रार्थनाओं में कौनसे दोष होंगे?
८ इस विषय में अपनी प्रार्थनाओं को बिगड़ने देना आसान है। हमारे विरासत में पाए असिद्ध प्रवृत्तियों की वजह से, हमारे हृदय हमें आसानी से घोखा दे सकते हैं, और इस तरह हमारी प्रार्थनाओं को ऐसे गुणों से वंचित कर सकते हैं जो हमारी प्रार्थनाओं में होने चाहिए। (यिर्मयाह १७:९) यदि प्रार्थना करने से पहले हम रुककर नहीं सोचते, अधिकांश स्थितियों में, हम शायद पाएँगे कि प्रवृत्ति यह है कि हमारी प्रार्थनाएँ मशीन की तरह अविचारित, घिसेपिटे, और सामान्य बन जाते हैं। या वे पुनरुक्तियुक्त बन सकते हैं, जो ‘प्रार्थना करते समय अन्यजातियों के’ अनुचित रीति के बारे में यीशु ने जो कहा, उसका स्मरण दिलाता है। (मत्ती ६:७, ८) या हमारी प्रार्थनाएँ शायद सुनिश्चित मामलों या व्यक्तियों के विषय होने के बजाय सिर्फ सामान्य बातों के बारे में होंगी।
९. हमारी प्रार्थनाओं से संबंधित और कौनसे ख़तरे उत्पन्न हो सकते हैं, और बेशक इन ख़तरों का एक कारण क्या है?
९ कभी-कभी हम शायद अपनी प्रार्थनाओं को जल्दबाज़ी से ख़त्म करने के लिए प्रवृत्त होंगे। लेकिन यह कथन ध्यान देने योग्य है: “यदि तुम प्रार्थना करने के लिए अति व्यस्त हो, तो तुम वाक़ई व्यस्त हो।” हमें कुछ निश्चित शब्द कंठस्थ करके उन्हें हर बार प्रार्थना करते समय दोहराना नहीं चाहिए; और न ही यह आवश्यक होना चाहिए कि यहोवा का कोई गवाह अपनी प्रार्थना पढ़कर सुनाए, जैसे कि एक आम सभा में। बेशक ये सभी, या कम से कम अंशतः ख़तरे इस तथ्य से उत्पन्न होते हैं, कि हम शारीरिक रूप से यहोवा को नहीं देख पाते, वह व्यक्ति जिस से हम प्रार्थना करते हैं। परन्तु, हम यह प्रत्याशा नहीं कर सकते कि वह ऐसी प्रार्थनाओं से खुश होगा, और न ही उन्हें रटने से हमें कोई फ़ायदा होता है।
दोषों पर क़ाबू पाना
१०. (अ) कौनसी अभिवृत्ति प्रार्थना के महत्त्व के लिए क़दर की एक कमी प्रकट करेगी? (ब) कौनसे धर्मशास्त्रीय उदाहरण पर ग़ौर किया गया है?
१० हम पूर्वोक्त ख़तरों की इस हद तक चौकसी कर सकते हैं कि हम अपने प्रतिदिन की प्रार्थनाओं के महत्त्व की क़दर करके हमारे स्वर्गीय पिता, यहोवा, से एक अच्छा रिश्ता क़ायम करें। एक बात तो यह है कि, ऐसी क़दर हमें अपनी प्रार्थनाओं को जल्दबाज़ी से ख़त्म करने, मानों हमें ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बातों को निपटने की ज़रूरत हो, इसके विषय चौकस रहने की मदद करेगी। विश्वव्यापी सर्वश्रेष्ठ, यहोवा परमेश्वर के साथ बातें करने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और कोई बात नहीं हो सकती। यह सच है कि ऐसे प्रसंग होंगे जब समय सीमित हो। उदाहरणार्थ, जब राजा अर्तक्षत्र ने अपने पियाऊ नहेमायाह से पूछा, “फिर तू क्या माँगता है?” नहेमयाह ने ‘तुरंत स्वर्ग के परमेश्वर से प्रार्थना की।’ (नहेमयाह २:४) चूँकि राजा एक तुरंत जवाब की प्रत्याशा कर रहा था, नहेमायाह उस प्रार्थना में ज़्यादा देर विलंब न कर सका। पर हम निश्चित हो सकते हैं कि वह अर्थपूर्ण थी और उसके हृदय से आयी, क्योंकि यहोवा ने उसका फ़ौरन जवाब दिया। (नहेमायाह २:५, ६) परंतु, ऐसे असाधारण प्रसंगों के अतिरिक्त, हमें अपनी प्रार्थनाओं के लिए समय लेना चाहिए और अन्य बातों को रुकने देना चाहिए। अगर हमारी प्रार्थनाएँ जल्दबाज़ हों, तो हम प्रार्थनाओं के महत्त्व की क़दर पूरी तरह से नहीं करते।
११. हमें और कौनसे ख़तरे से चौकसी करनी चाहिए, और इस संबंध में यीशु ने कौनसा बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किया?
११ एक और ख़तरा जिस से दूर रहना ज़रूरी है, वह सामान्य बातों का दोहराना है। ऐसी प्रार्थनाएँ भी प्रार्थना करने के हमारे अनमोल विशेषाधिकार को सही महत्त्व प्रतिपादित करने में असमर्थ रहता है। उसकी आदर्श प्रार्थना में, यीशु ने इस विषय में हमारे लिए एक उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने सात सुस्पष्ट निवेदनों का उल्लेख किया: धार्मिकता के विजय से संबंधित तीन, हमारे दैनिक शारीरिक ज़रूरतों से संबंधित एक, और तीन जो हमारे आत्मिक हित से संबंधित हैं।—मत्ती ६:९-१३.
१२. हमारी प्रार्थनाओं में सुनिश्चित होने के बारे में पौलुस ने कौनसे बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किए?
१२ इस विषय में पौलुस ने भी हमारे लिए एक बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत किया। उसने माँगा कि अन्य उसके लिए प्रार्थना करें कि ‘उसे निडरता से बोलने की क्षमता दी जाए।’ (इफिसियों ६:१८-२०) दूसरों के पक्ष में अपने खुद की प्रार्थनाओं में वह उतना ही सुनिश्चित था। “मैं यह प्रार्थना करता हूँ,” पौलुस ने कहा, “कि तुम्हारा प्रेम, यथार्थ ज्ञान और पूर्ण विवेक-बुद्धि सहित और भी बढ़ता जाए; कि तुम ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बातों को पक्का कर लो, ताकि तुम बेएब हो और मसीह के दिन तक दूसरों को ठोकर न दिलाओ, और उस धार्मिकता के फल से जो यीशु मसीह के द्वारा होते हैं, भरपूर होते जाओ जिस से परमेश्वर की महिमा और स्तुति होती रहे।”—फिलिप्पियों १:९-११; न्यू.व.
१३. यहोवा को दी हमारी सेवा के विभिन्न प्रकारों के संबंध में हम अर्थपूर्ण प्रार्थनाएँ किस तरह कह सकते हैं?
१३ जी हाँ, हमारी प्रार्थनाएँ सुनिश्चित बातों से संबंध रखनी चाहिए, और यह आवश्यक करता है कि हम अपनी प्रार्थनाओं पर विचार करें। (तुलना नीतिवचन १५:२८ से करें) क्षेत्र सेवकाई में काम करते समय, हम परमेश्वर से न केवल अपनी कोशिशों पर उसका आशीर्वाद माँग सकते हैं, लेकिन बुद्धि, शऊर, उदारता, व्याख्यान में आज़ादी, या गवाही देने में बाधा-डालनेवाली कमज़ोरियों से निपटने की मदद के लिए भी माँग सकते हैं। इसके अतिरिक्त, क्या हम धार्मिकता के भूखे-प्यासों तक ले चलने के लिए परमेश्वर से माँग नहीं कर सकते? आम भाषण देने से पहले, या सेवकाई सभा या फिर थियोक्रॅटिक मिनिस्ट्री स्कूल में कोई हिस्सा लेने से पहले, हम यहोवा से उसके पवित्र आत्मा को हम में पूर्णरूप से वास करने के लिए बिनती कर सकते हैं। क्यों? ताकि हम में आत्म-विश्वास और सौम्यता हो, और उत्साह तथा दृढ़-धारणा से बात करें, इस उद्देश्य से कि परमेश्वर के नाम को सम्मान लाएँ और अपने भाइयों को प्रोत्साहित करें। ऐसी सभी प्रार्थनाएँ हमारे बोलते समय सही मनःस्थिति प्राप्त होने के लिए सहायक है।
१४. शारीरिक कमज़ोरियाँ, जिन पर विजय पाना कठिन हो, उनके संबंध में हमारी अभिवृत्ति क्या होनी चाहिए?
१४ क्या हमें एक ऐसी शारीरिक कमज़ोरी है जो हमारी आत्मिकता से संघर्ष करती है और वशीभूत करने के लिए कठिन लगती है? हमें अपनी प्रार्थनाओं में उसे सुनिश्चित रूप से निपट लेना चाहिए। और दुःसाहित होना तो दूर, हमें विनम्रता और गांभीर्य से परमेश्वर को हमारी मदद करने और हमें माफ़ करने के लिए पूछने से भी कभी थकना नहीं चाहिए। जी हाँ, ऐसी परिस्थितियों में, कठिनाई में अपने पिता के पास जानेवाले एक बच्चे के जैसे, हमें यहोवा के पास जाने की चाहत होनी चाहिए, और कोई परवाह नहीं कि वही कमज़ोरी के बारे में हम बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। अगर हम सच्चे दिल के हैं, यहोवा हमारी मदद करेगा और यह समझ भी देगा कि उसने हमें माफ़ कर दिया है। इन परिस्थितियों में, हम प्रेरित पौलुस की स्वीकृति, कि उसे एक समस्या थी, उस से भी सांत्वना प्राप्त कर सकते हैं।—रोमियों ७:२१-२५.
अर्थपूर्ण प्रार्थना करने में सहायक
१५. हमें कौनसी मानसिक वृत्ति से प्रार्थना में यहोवा परमेश्वर के पास जाना चाहिए?
१५ हमारी प्रार्थनाओं को सचमुच ही अर्थपूर्ण होने के लिए, हमें सारे बाहरी विचारों को बर्ख़ास्त करने और इस तथ्य पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश करनी चाहिए कि हम महान परमेश्वर, यहोवा की मौजूदगी में आ रहे हैं। हमें बड़े आदर से, उसकी विस्मयकारिता की क़दर करते हुए, उसके पास जाना चाहिए। जैसा कि यहोवा ने मूसा से कहा, कि मनुष्य परमेश्वर के मुख का दर्शन करके जीवित नहीं रह सकता। (निर्गमन ३३:२०) तो हमें यहोवा परमेश्वर के पास उचित दीनता और शालीनता से जाना चाहिए, एक ऐसी तत्व की बात जिस पर यीशु ने अपनी फरीसी और चुंगी लेनेवाले की दृष्टांत कथा में ज़ोर डाला। (मीका ६:८; लूका १८:९-१४) यहोवा हमारे लिए बहुत ही वास्तविक होना चाहिए। हमें वही मानसिक वृत्ति होनी चाहिए जो मूसा में थी। “वह अनदेखे को मानो देखता हुआ दृढ़ रहा।” (इब्रानियों ११:२७) ऐसी विशेषताएँ गवाही देते हैं कि हमें अपने स्वर्गीय पिता के साथ एक अच्छा संबंध है।
१६. अर्थपूर्ण प्रार्थनाएँ करने में हमारे हृदय क्या भाग लेते हैं?
१६ हमारी प्रार्थनाएँ अर्थपूर्ण होगी अगर हम यहोवा के पास प्रेम-भरे दिलों और स्नेह लिए आएँगे। उदाहरणार्थ, भजनकार दाऊद ने भजन २३ और १०३ में यहोवा परमेश्वर के लिए क़दर और प्रेम किस तरह अभिव्यक्त किए! दाऊद का अपने बड़े चरवाहे, यहोवा परमेश्वर के साथ एक बढ़िया संबंध होने के बारे में कोई संदेह की बात नहीं। थियोक्रॅटिक मिनिस्ट्री स्कूल में, हमें सलाह दी जाती है कि हमें सहृदयता और भावना से बोलना चाहिए। यह खास तौर से तब होना चाहिए जब हम शास्त्रपद पढ़ रहे हों, और उस से भी कई ज़्यादा जब हम अपने स्वर्गीय पिता से प्रार्थना कर रहे हों। जी हाँ, हमें उसी तरह से महसूस करना है जिस तरह दाऊद ने महसूस किया जब उसने प्रार्थना की: “हे यहोवा, अपने मार्ग मुझ को दिखला, अपने पथ मुझे बता दे। मुझे अपने सत्य पर चला और शिक्षा दे, क्योंकि तू मेरा उद्धार करनेवाला परमेश्वर है।” और हमें किस तरह से महसूस करना चाहिए, इसका सूचक एक और भजनकार के ये शब्द पेश हैं: “मैं ने सारे मन से प्रार्थना की है, हे यहोवा मेरी सुन लेना!—भजन संहिता २५:४, ५; ११९:१४५.
१७. हम अपनी प्रार्थनाओं को पुनरावर्ती बनने से किस तरह बचा सकते हैं?
१७ हमारी प्रार्थनाओं को अर्थपूर्ण रखने और उन्हें पुनरावर्ती बनाने से बचने के लिए, यह अच्छा है जब हम उनके विषय सूची को विविध रूप से अभिव्यक्त करते हैं। दिन के बाइबल शास्त्रपद या कोई मसीही प्रकाशन, जिसे हम पढ़ रहे हैं, शायद एक विचार उपलब्ध कराएगा। प्रहरीदुर्ग अध्ययन, या आम भाषण, या जिस सभा या सम्मेलन में हम उपस्थित हुए हैं, उसका मुख्य विषय शायद ऐसा उद्देश्य पूरा करेगा।
१८. हमारी प्रार्थनाओं को अर्थपूर्ण बनाने के लिए बाइबलीय शब्द और उदाहरणों के अनुसार हम क्या कर सकते हैं?
१८ हमें प्रार्थना की भावदशा ज़्यादा ग्रहण करने के लिए और अपनी प्रार्थनाओं को ज़्यादा अर्थपूर्ण बनाने के लिए, हमारे शारीरिक आसन को बदलना अच्छा है। सार्वजनिक प्रार्थनाओं के लिए, हम साधारणतः अपने सिर झुकाते हैं। लेकिन ज़्यादा निजी प्रार्थनाओं के लिए, कुछेकों ने पाया है कि व्यक्तिगत रूप से या एक परिवार के तौर से प्रार्थना करते समय यहोवा के सामने घुटने टेकना अच्छा है, क्योंकि वे पाते हैं कि वह आसन उनका एक दीन मानसिक वृत्ति प्राप्त करने में सहायक है। भजन ९५:६ पर हमें आग्रह किया जाता है: “आओ हम झुककर दण्डवत् करें; और अपने कर्ता यहोवा के सामने घुटने टेकें!” यहोवा के मंदिर के समर्पण के मौक़े पर सुलैमान ने घुटने टेके, और दानिय्येल ने प्रार्थना करते वक्त घुटने टेकने की आदत डाली।—२ इतिहास ६:१३; दानिय्येल ६:१०.
१९. जिन लोगों को सार्वजनिक प्रार्थनाओं की ज़िम्मेदारी है, उन्हें कौनसे तथ्य ध्यान में रखने चाहिए?
१९ प्रार्थना के महत्त्व को नज़र में रखते हुए, नियुक्त प्राचीनों को सद्विवेक इस्तेमाल करना चाहिए उन व्यक्तियों के बारे में जिन्हें वे मण्डली के पक्ष में सार्वजनिक प्रार्थना देने के लिए बुलाते हैं। मण्डली का प्रतिनिधित्व कर रहे बपतिस्मा प्राप्त पुरुष को एक प्रौढ़ मसीही सेवक होना चाहिए। उसकी प्रार्थना को यह प्रकट करना चाहिए कि उसे परमेश्वर के साथ एक बढ़िया संबंध है। और जो लोग ऐसी प्रार्थनाएँ करने के विशेषाधिकृत हैं, उन्हें इस विषय विचार करना चाहिए कि वे अपनी आवाज़ सुनाएँ, इसलिए कि वे न केवल अपने लिए, पर मण्डली के लिए भी प्रार्थना कर रहे हैं। वरना, मण्डली के बाक़ी सदस्य प्रार्थना की समाप्ति पर “आमीन” कहकर किस तरह भाग ले सकते हैं? (१ कुरिन्थियों १४:१६) निःसंदेह, बाक़ी लोगों को एक अर्थपूर्ण “आमीन” कह सकने के लिए, उन्हें अपने मन को भटकने नहीं देना चाहिए लेकिन प्रार्थना को सचमुच अपना बनाकर ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। एक और चेतावनी का शब्द जिसे जुड़ा जा सकता है यह है कि चूँकि ऐसी प्रार्थनाएँ यहोवा परमेश्वर को दिए जाते हैं, उन्हें श्रोताओं को प्रचार करने या कुछ पूर्णतया व्यक्तिगत कल्पनाएँ प्रस्तुत करने के एक बहाने के तौर से इस्तेमाल नहीं किए जाने चाहिए।
२०. चूँकि प्रकटतः बोली गयी अर्थपूर्ण प्रार्थनाएँ श्रोताओं को एक आशीर्वाद प्रदान करती हैं, कौनसा सुझाव दिया गया है?
२० जब प्रकटतः कहे जानेवाले हमारी प्रार्थनाएँ सचमुच ही अर्थपूर्ण हों, वे सुननेवालों को एक आशीर्वाद प्रदान करते हैं। इसलिए कि यह ऐसा है, प्रतिदिन कम से कम एक सामान्य प्रार्थना करने से विवाहित दम्पत्ती और परिवार भली-भाँति करेंगे। उस में, एक व्यक्ति, जैसा कि परिवार का मुख्य, दूसरे व्यक्ति या बाक़ी के सदस्यों के लिए बोलेगा।
२१. हमारी प्रार्थनाओं को अर्थपूर्ण होने के लिए, और कौनसा विषय अनुचिंतन के योग्य है?
२१ हमारे प्रार्थनाओं को सचमुच ही अर्थपूर्ण होने के लिए, एक और विषय है जो हमारे ध्यान के योग्य है। यह वह तथ्य है कि हमें अपनी प्रार्थनाओं के संबंध में अनुकूल होना चाहिए, और इसका क्या अर्थ है? यह कि हम अपनी प्रार्थनाओं के अनुकूल जीएँ और जिस बात के लिए हम प्रार्थना करें, उस हेतु से कार्य करें। उत्तरवर्ती लेख में हमारी प्रार्थनाओं के इस पहलू पर ग़ौर किया जाएगा।
आप किस तरह प्रतिक्रिया करते हैं?
◻ धर्मशास्त्रों में लेखबद्ध कुछ अर्थपूर्ण प्रार्थनाओं के कौनसे उदाहरण हैं?
◻ मानवी असिद्धता के कारण, हमारी प्रार्थनाएँ किस तरह दोषी हो सकती हैं?
◻ हमारी प्रार्थनाओं में हम कुछ दोषों पर किस तरह विजय पा सकते हैं?
◻ हमारा अर्थपूर्ण प्रार्थनाएँ करने में कुछ सहायक क्या हैं?