‘ऐसा काम करनेवाला’ बनने की कोशिश “जिस को शर्मिंदा होना न पड़े।”
आन्द्रे सॉपा की ज़बानी
दूसरा विश्व युद्ध पूरे ज़ोरों पर था। इस युद्ध के दौरान इतनी मार-काट हुई और इसके बाद हर तरफ ऐसी मायूसी छा गई जिसका बयान नहीं किया जा सकता। जर्मन नौसेना, नॉर्वे में नार्विक बंदरगाह के पास तैनात थी और मैं नौसेना में सिगनलमैन का काम करता था। इसलिए मैं खुलेआम देख सकता था कि इंसान एक दूसरे के साथ कितनी बेरहमी से पेश आते हैं। रात के वक्त जब मैं चट्टानों से घिरे समुद्र के किनारे पर बैठकर उत्तरी ध्रुव के आसमान में चमकनेवाली ज्योतियों का खूबसूरत नज़ारा देखा करता तो मैं ज़िंदगी के मकसद के बारे में सोचने लगता। मुझे पूरा यकीन था कि ऐसी खूबसूरत चीज़ों का बनानेवाला परमेश्वर युद्ध के पागलपन के लिए ज़िम्मेदार नहीं हो सकता।
मैं १९२३ में चेकोस्लोवाकिया सीमा के पास लासॉत (जो अब पोलैंड में है) के एक छोटे-से गाँव में पैदा हुआ था। फार्म पर रहनेवाले एक गरीब परिवार में मेरी परवरिश हुई थी। मेरे माता-पिता कैथोलिक धर्म को बहुत मानते थे इसलिए हमारी ज़िंदगी में धर्म की बहुत बड़ी अहमियत थी। फिर भी, बचपन से ही मेरे मन में अपने धर्म के बारे में सवाल उठने लगे थे। हमारे गाँव में तीन प्रोटेस्टेंट परिवार थे जिनसे कैथोलिक समुदाय बहुत ही बुरा सलूक करता था। मुझे समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्यों होता है। स्कूल में हमें अपने धर्म के बारे में सिखाया जाता था। पर एक दिन जब मैंने पादरी से त्रियेक के बारे में समझाने को कहा तो जवाब में मुझे दस बेंत खाने पड़े। लेकिन जब मैं १७ साल का था तब कुछ ऐसी बात हुई जिससे चर्च के बारे में मेरी राय सही निकली। मेरे नाना और नानी दोनों की मौत के दरमियान एक ही महीने का फासला था पर चर्च में दोनों की अंत्येष्टि का खर्च उठाने के लिए मेरी माँ के पास पैसा नहीं था। इसलिए उसने पादरी से पूछा कि क्या वह बाद में उसे पैसा दे सकती है। पादरी ने जवाब दिया, “तुम्हारे माता-पिता के पास कुछ सम्पत्ति थी, है ना? उसे बेचकर अंत्येष्टि के लिए पैसा दो।”
यह सब होने के कुछ साल पहले, १९३३ में जब हिटलर सत्ता में आया तब हमें पोलिश भाषा में बात करने से मना किया गया था, हमें सिर्फ जर्मन भाषा में बात करने की इज़ाज़त थी। जिन्होंने ऐसा करने से इंकार किया या जो जर्मन भाषा सीख नहीं सके वे धीरे-धीरे गायब होते गए, हमें बाद में बताया गया कि उन्हें कॉन्सनट्रेशन कैम्प भेज दिया गया। हमारे गाँव को भी एक जर्मन नाम, ग्रूनफ्लीस दिया गया। मैंने १४ साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया। मेरे लिए नौकरी पाना बहुत मुश्किल था क्योंकि मैं हिटलर यूथ ऑरगनाइज़ेशन का सदस्य नहीं था। आखिरकार, मुझे एक अप्रेंटिस के तौर पर लोहार का काम मिला। युद्ध शुरू होते ही चर्च में हिटलर और जर्मन सेना के लिए प्रार्थनाएँ की जाने लगीं। मैं सोचता था कि क्या हमारे दुश्मन भी जीत के लिए ऐसी ही प्रार्थनाएँ कर रहे होंगे।
जर्मन नौसेना में काम
दिसंबर १९४१ में मैं जर्मन नौसेना में भर्ती हो गया और १९४२ की शुरूआत में मुझे नॉर्वे के तट पर भेजा गया ताकि मैं वहाँ दुश्मनों की जासूसी करनेवाले एक जहाज़ पर काम करूँ। हमें त्रानहेम और ऑज़्लो के तटवर्ती इलाकों के बीच ऐसे जहाज़ों का पहरा देने और उन्हें सही-सलामत पहुँचाने का काम दिया गया था जो सैनिक, हथियार या माल ले जा रहे थे। जहाज़ पर काम करते वक्त ही मैंने जहाज़ के दो चालकों को बाइबल में बताए गए इस दुनिया के अंत के बारे में बात करते हुए सुना। वे इस बारे में खुलेआम बात करने से डर रहे थे पर उन्होंने मुझे यह बताया कि उनके माता-पिता यहोवा के साक्षी थे लेकिन वे अपने माता-पिता की मिसाल पर नहीं चले। यह पहली बार था जब मैंने यहोवा के साक्षियों के बारे में सुना।
युद्ध खत्म होने पर ब्रिटिश सैनिकों ने हमें कैद करके अमरीकियों के हवाले कर दिया ताकि हमें वापस जर्मनी भेज दिया जाए। हममें से जिनके घर अब सोवियत के इलाके में थे उन्हें उत्तरी फ्रांस में लीएवाँ के एक जेल में भेजा गया जहाँ हम कोयले के खान में काम करनेवाले थे। यह अगस्त १९४५ की बात है। मुझे याद है कि मैंने अपने एक फ्रैंच पहरेदार से पूछा था कि वह किस धर्म को मानता है। उसने कहा, “कैथोलिक।” मैं भी एक कैथोलिक था इसलिए मैंने उससे पूछा कि हम क्यों एक-दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं? उसका जवाब था, “इसे समझने की कोशिश करना बेकार है। यह तो दुनिया का दस्तूर है।” मेरी समझ में यह बात बिल्कुल गलत थी कि एक ही धर्म के लोग आपस में लड़कर एक दूसरे को मार रहे हैं।
कोयले की अँधियारी खान में एक किरण
वहीं के लोगों के साथ खान में काम करते वक्त, पहले दिन ऐवन्ज़ एम्यॉट नाम के एक आदमी ने अपने साथ लाए हुए सैंडविच मुझे भी खाने को दिए। वह असल में अमरीका के ओहायो का रहनेवाला था पर कई सालों से वह फ्रांस में था। उसने मुझसे एक ऐसी दुनिया के बारे में बात की जहाँ युद्ध नहीं होगा। उसकी भलाई देखकर मैं हैरान हो गया। हालाँकि मैं एक जर्मन था और वह एक अमरीकी पर उसके मन में मेरे लिए ज़रा-सा भी बैर-भाव नहीं था। इसके बाद १९४८ तक हमारी मुलाकात नहीं हुई। उस साल की शुरूआत में उसने मुझे एक बुकलेट दिया जिसका नाम था “द प्रिंस ऑफ पीस।” अब जाकर कहीं मैंने जाना कि परमेश्वर भला है और युद्ध से नफरत करता है, वैसे ही जैसे मैंने सोचा था जब मैं उत्तरी ध्रुव की चमचमाती ज्योतियों को देखा करता था। मैंने ठान लिया कि मैं उस धर्म को ढूँढ़कर ही रहूँगा जो इस परमेश्वर के बारे में सिखाता है। लेकिन मैं ऐवन्ज़ से नहीं मिल सका क्योंकि वह खान के दूसरे हिस्से में काम करता था। उस जेल के कैंप में जितने भी धर्म के लोग रहते थे उन सबके पास मैं गया, यह जानने कि लिए कि क्या उन्हें इस बुकलेट के बारे कुछ पता है, पर काम नहीं बना।
आखिरकार, अप्रैल १९४८ में मुझे जेल से रिहा किया गया और अब मैं आज़ाद रहकर काम कर सकता था। मुझे बहुत ताज्जुब हुआ जब अगले ही रविवार को सड़क पर घंटी बजने की आवाज़ सुनाई दी। ऐवन्ज़ को देखकर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा! वह यहोवा के साक्षियों के एक दल के साथ था जो अपने आगे-पीछे एक-एक बोर्ड लगाए हुए थे जिस पर जन भाषण का विषय लिखा हुआ था। घंटी बजानेवाला साक्षी मारसो लरवा था। वह अब फ्रांस की ब्रांच कमेटी का एक सदस्य है। जर्मन भाषा बोलनेवाले पोलैंड के एक निवासी, योज़ैफ कूलचाक से मेरा परिचय कराया गया। उसे अपने विश्वास की खातिर कॉन्सनट्रेशन कैंपों में तकलीफ सहनी पड़ी। उसने मुझे उस शाम मीटिंग आने का निमंत्रण दिया। मीटिंग में बतायी गयी बहुत सारी बातें मेरी समझ में नहीं आयीं पर जब वहाँ मौजूद सब लोग अपना हाथ ऊपर उठाने लगे तो मैंने बगल में बैठे व्यक्ति से पूछा कि उन्होंने हाथ ऊपर क्यों उठाया। उसने जवाब दिया: “ये लोग वे हैं जो अगले हफ्ते डन्कर्क टाउन जाकर प्रचार करने को तैयार हैं।” मैंने पूछा, “क्या मैं भी आ सकता हूँ?” उसका जवाब था, “क्यों नहीं!” सो अगले रविवार मैंने घर-घर जाकर प्रचार किया। हमने जिनसे मुलाकात की उनमें से हरेक ने तो हमारी बात नहीं मानी पर मुझे बहुत मज़ा आया और मैं जल्द ही नियमित रूप से प्रचार करने लगा।
अपने गुस्से पर काबू करना सीखना
इसके कुछ ही समय बाद, साक्षी बैरकों में जाकर प्रचार करने लगे जहाँ रिहा किये गये जर्मन कैदी रहते थे। मेरे लिए वहाँ प्रचार करना आसान नहीं था क्योंकि वहाँ के सब लोग जानते थे कि मैं गर्म-मिज़ाज का हूँ। जब कोई मेरा मज़ाक उड़ाता तो मैं उसे यह कहकर धमकाता: “अगर तुम नहीं सुनोगे तो अच्छा नहीं होगा।” एक बार खान में काम करते वक्त जब किसी ने यहोवा के नाम की खिल्ली उड़ायी तो मैंने उसे घूँसा मार दिया।
बहरहाल, यहोवा की मदद से मैं खुद को बदल सका। एक बार जब हम इन बैरकों में प्रचार कर रहे थे तो कुछ आदमी जिन्होंने बहुत ज़्यादा पी रखी थी, साक्षियों को परेशान कर रहे थे। हमारे भाई जानते थे कि मैं बहुत जल्द गुस्सा हो जाता हूँ इसलिए उन्होंने मुझे बीच में आने से रोका। लेकिन पीये हुए आदमियों में से एक मुझे धमकाते हुए आगे बढ़ा और अपनी जैकेट उतारने लगा। मैं अपनी साइकिल से नीचे उतरा, उसी आदमी को साइकिल पकड़ा दी और फिर जेब में अपने हाथ डालकर खड़ा हो गया। वह यह देखकर इतना हैरान हुआ कि उसने मेरी बात सुनी। मैंने उसे घर जाकर सो जाने और फिर जन भाषण सुनने के लिए मीटिंग आने को कहा। और ऐसा ही हुआ, वह दोपहर को तीन बजे भाषण सुनने आ पहुँचा! आगे चलकर, जो पहले कैदी थे उनमें से करीब २० लोगों ने सच्चाई स्वीकार की। और मैंने सितंबर १९४८ में बपतिस्मा ले लिया।
व्यस्त लेकिन संतुष्टि-भरा जीवन
मुझे ऐसे इलाकों की देखरेख करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी जहाँ हमें प्रचार करना था और ऐसी जगहें ढूँढ़नी थीं जहाँ हम जन भाषण दे सकें। यह सब करने के लिए मुझे अपनी छोटी मोटरसाइकिल पर करीब ५० किलोमीटर सफर करना पड़ता था और मैं रात की शिफ्ट में खान में काम करता। और फिर सप्ताह के अंत में हम जन भाषण देनेवाले भाई के साथ दो-चार प्रकाशकों को उस इलाके तक बस में छोड़ आते थे। बड़े-बड़े नगरों में, सही जगह मिलने पर हम अपने सूटकेसों को एक के ऊपर एक रखकर उन्हें स्पीकर स्टैंड के तौर पर इस्तेमाल करते थे। लोगों को जिस जन भाषण के लिए हम आमंत्रित करते, उसका विषय बतानेवाले बोर्ड हम अपने आगे-पीछे लटका लेते थे ताकि सबको इसकी खबर हो जाए।
सन् १९५१ में मेरी मुलाकात जैनट शौफूर नाम की एक साक्षी से हुई जो रीम्ज़ की रहनेवाली थी। पहली नज़र में ही हमें एक-दूसरे से प्यार हो गया और फिर एक साल बाद मई १७, १९५२ में हमारी शादी हो गई। हम डुए के पास पेकाँकूर नाम के एक नगर में बस गए जहाँ खानें थीं। लेकिन कुछ ही समय बाद मेरी सेहत खराब होने लगी। खान में काम करने की वज़ह से मुझे सिलिकोसिस नाम की बीमारी हो गई जिससे मुझे सांस लेने में तकलीफ होती थी। लेकिन मुझे किसी और किस्म की नौकरी भी नहीं मिली। इसलिए १९५५ में जर्मनी के न्युरमबर्ग में हुए अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जब हमें राइन नदी के पास केल नाम के एक औद्योगिक शहर की छोटी-सी कलीसिया की मदद करने के लिए कहा गया तो हम वहाँ जाने को तैयार हो गए। उस वक्त कलीसिया में सिर्फ ४५ प्रकाशक थे। इस कलीसिया के साथ अगले सात साल जो हमने काम किया उस दौरान प्रकाशकों की गिनती बढ़कर ९५ हो गई।
सेवा करने के और भी सुअवसर
जब हमने देखा कि कलीसिया मजबूत हो गई है तो हमने सोसाइटी को कहा कि वह हमें स्पेशल पायनियर बनाकर फ्रांस भेज दे। जब हमें पैरिस में पायनियर काम करने को कहा गया तो हम खुशी से हैरान रह गए। हमने वहाँ जो आठ महीने गुज़ारे वे बहुत ही खुशियों भरे थे। मुझे और जैनट को कुल मिलाकर ४२ बाइबल स्टडियाँ चलाने की आशीष मिली। हमने जिनके साथ स्टडी की उनमें से पाँच का बपतिस्मा तो हमारे रहते ही हो गया, बाद में और ११ लोग सच्चाई में आ गए।
हमारा घर लैटिन क्वार्टर में था जहाँ सॉरबॉन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और स्टूडेन्ट रहते थे इसलिए प्रोफेसरों से अकसर हमारी मुलाकात हुआ करती थी। तत्वज्ञान सिखानेवाला एक रिटायर्ड प्रोफेसर, विश्वास द्वारा चंगाई का काम करता था। उसने बाइबल का सच्चा ज्ञान लिया और यहोवा का एक साक्षी बन गया। एक दिन मैंने एक सिविल इंजीनियर के साथ बाइबल पर चर्चा शुरू की। इस आदमी की जैसुइट धर्म सिखानेवालों से अच्छी जान-पहचान थी। वह दोपहर तीन बजे हमारे घर आया और रात को दस बजे वापस गया। हमें ताज्जुब हुआ जब सिर्फ डेढ़ घंटे बाद वह फिर हमारे दरवाज़े पर मौजूद था। उसने एक जैसुइट से बात की जो बाइबल भविष्यवाणी के बारे में उसके सवालों का जवाब नहीं दे सका था। रात को एक बजे वह अपने घर वापस तो गया पर सुबह सात बजे फिर हमारे घर आया। बाद में वह भी यहोवा का एक साक्षी बन गया। सच्चाई के लिए उसकी ऐसी प्यास देखकर मेरा और मेरी पत्नी का हौसला और भी बढ़ा।
पैरिस में सेवा करने के बाद मुझे पूर्वी फ्रांस में सफरी ओवरसियर के तौर पर सेवा करने को कहा गया। फ्रैंच और जर्मन भाषा बोलनेवाली अलग-अलग कलीसियाओं में हर हफ्ते जाने और भाइयों का हौसला बढ़ाने से हमें सचमुच बहुत खुशी मिलती थी। जब मैंने लोरैन इलाके की रॉम्बास कलीसिया की विज़िट की तब मेरी मुलाकात स्टानीसवास आम्ब्रोशचाक से हुई। वह पोलैंड का रहनेवाला था। वह युद्ध के दौरान नॉर्वे के समुद्री इलाके में युरोपीय देशों की तरफ से लड़ा था। हम एक ही इलाके में थे पर फिर भी एक-दूसरे के दुश्मन थे। अब हम भाई-भाई थे और साथ मिलकर अपने परमेश्वर यहोवा की सेवा कर रहे थे। एक और मौके पर पैरिस में एक सम्मेलन के दौरान मैंने किसी को देखा और उसे पहचान लिया। वह कोई और नहीं पर उत्तरी फ्रांस के जिस कैंप में मैं कैदी था उसी कैंप का कमान्डर था। अधिवेशन में साथ मिलकर काम करने में हम कितने खुश थे! परमेश्वर के वचन में कितनी शक्ति है कि यह दुश्मनों को भी भाई-भाई और जिगरी दोस्त बना सकता है!
अफसोस की बात है कि १४ साल सफरी काम करने के बाद मुझे यह काम छोड़ना पड़ा क्योंकि मेरी सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। मगर हम, पति-पत्नी दोनों ने तय कर लिया था कि हम अपनी पूरी ताकत लगाकर यहोवा की सेवा करते रहेंगे। इसलिए पूर्वी फ्रांस के मलूज़ नगर में हमने एक घर ढूँढ़ लिया, फिर नौकरी भी मिल गई और हम पायनियर (पूर्ण समय के सेवक) बन गए।
एक और खुशी की बात है कि बीते सालों में किंगडम हॉल बनाने के काम में भी मेरा हाथ रहा। १९८५ में मुझे पूर्वी फ्रांस के लिए एक कन्सट्रक्शन टीम बनाने को कहा गया। कुशल कारीगरों को लेकर और सीखने के लिए तैयार भाइयों को ट्रेनिंग देकर हमने एक टीम बनाई। इस टीम ने ८० से ज़्यादा हॉल बनाए या उनकी मरम्मत की है और उन्हें इस लायक बनाया है कि उनमें यहोवा की उपासना की जा सके। और १९९३ में दक्षिण अमरीका के फ्रैंच गयाना में एक असैम्बली हॉल और पाँच किंगडम हॉल बनाने में हाथ बँटाकर मुझे कितनी खुशी हुई!
मुसीबतों के बावजूद आगे बढ़ना
मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि यहोवा की सेवा में बीते पिछले ५० से भी ज़्यादा साल मेरी ज़िंदगी के सुनहरे पल थे। इस दौरान मैंने बहुत खुशियाँ पाईं और मुझे यहोवा की सेवा करने के कई बढ़िया मौके मिले। दुख की बात है कि दिसंबर १९९५ में मेरी प्यारी पत्नी, जिसके साथ मैंने ४३ साल बिताये थे, गुज़र गई। उस वक्त मुझे जो दुख हुआ मैं उसका बयान नहीं कर सकता। और आज भी मुझे उसके जाने का गम है पर यहोवा मुझे शक्ति देता है और आध्यात्मिक भाई-बहनों से मिले प्यार और मदद की वज़ह से वक्त के गुज़रते-गुज़रते मेरा दर्द कुछ कम हुआ है।
सन् १९६३ में म्यूनिक, जर्मनी में हुए सम्मेलन में एक अभिषिक्त भाई के कहे शब्द मुझे अब तक याद हैं। उसने कहा था, “आन्द्रे, सच्चाई की राह से कभी मत हटना। कॉन्सनट्रेशन कैंप में हमारे भाई बहुत सारी यातनाएँ सहकर भी काम करते रहे। अब हमें यह काम करते रहना चाहिए। हमें त्याग की भावना दिखानी चाहिए। सो बढ़ते चले जाओ!” मैंने हमेशा इस बात को मन में रखा है। अब मैं पहले की तरह काम नहीं कर पाता हूँ क्योंकि मेरी सेहत खराब है और उम्र भी ढल रही है। लेकिन इब्रानियों ६:१० के शब्दों से मुझे हमेशा तसल्ली मिलती है: “परमेश्वर अन्यायी नहीं, कि तुम्हारे काम, और उस प्रेम को भूल जाए, जो तुम ने उसके नाम के लिये . . . दिखाया।” जी हाँ, यहोवा की सेवा करना ही ज़िंदगी की सबसे बड़ी आशीष है। बीते ५० साल से मेरी यह कोशिश रही है कि मैं ‘ऐसा काम करनेवाला’ बनूं “जिस को शर्मिंदा होना न पड़े।”—२ तीमुथियुस २:१५, हिन्दुस्तानी बाइबल।
[पेज 22 पर तसवीर]
नॉर्वे समुद्र-तट के पास ऐसी ही एक नाव पर मैं काम करता था
[पेज 23 पर तसवीर]
उत्तरी फ्रांस में साइकिल से प्रचार करते हुए
[पेज 23 पर तसवीर]
सूटकेसों का ढेर जो जन भाषण के लिए स्पीकर स्टैंड का काम देता था
[पेज 24 पर तसवीर]
१९५२ में अपनी पत्नी जैनट के साथ, हमारी शादी के वक्त