नए-नए तरीके अपनानेवाले और हालात के मुताबिक खुद को ढालनेवाले सेवक बनना
“मैं सब मनुष्यों के लिये सब कुछ बना हूं, कि किसी न किसी रीति से कई एक का उद्धार कराऊं।”—1 कुरिन्थियों 9:22.
1, 2. (क) किन तरीकों से प्रेरित पौलुस एक कुशल सेवक था? (ख) पौलुस ने सेवा की तरफ अपने रवैये के बारे में क्या बताया?
वह कुलीन, बड़े-बड़े विद्वानों के साथ उतनी ही आसानी से बात कर लेता था जितनी कि तंबू बनानेवाले मामूली इंसानों से। रोम के शाही परिवार से लेकर फ्रूगिया के किसानों तक को वह अपनी दलीलों से कायल कर देता था। उसकी चिट्ठियाँ सबके अंदर जोश भर देती थीं, फिर चाहे वे खुले विचारोंवाले यूनानी हों या दकियानूसी यहूदी। उसके तर्क को कोई काट नहीं सकता था और दूसरों को प्यार से उकसाने का उसका तरीका भी बड़ा ही दमदार था। वह हर किसी के साथ बात करने के लिए कोई ऐसा विषय चुनता जिसमें उन दोनों के विचार एक हों। ऐसा वह इसलिए करता था ताकि कुछ लोगों को मसीह पर विश्वास लाने में मदद दे सके।—प्रेरितों 20:21.
2 यह शख्स था, प्रेरित पौलुस। इसमें शक नहीं कि वह कुशलता से सिखानेवाला और नए-नए तरीकों से सुसमाचार सुनानेवाला सेवक था। (1 तीमुथियुस 1:12) उसे यीशु ने यह ज़िम्मेदारी दी थी कि वह “अन्यजातियों और राजाओं, और इस्राएलियों के साम्हने [मसीह का] नाम प्रगट” करे। (प्रेरितों 9:15) इस काम की तरफ उसने कैसा रवैया दिखाया? उसने कहा: “मैं सब मनुष्यों के लिये सब कुछ बना हूं, कि किसी न किसी रीति से कई एक का उद्धार कराऊं। और मैं सब कुछ सुसमाचार के लिये करता हूं, कि औरों के साथ उसका भागी हो जाऊं।” (1 कुरिन्थियों 9:19-23) हम पौलुस की मिसाल से क्या सीख सकते हैं जो हमें प्रचार करने और सिखाने में अपनी कुशलता बढ़ाने में मदद दे सकता है?
एक बदले हुए इंसान ने चुनौती कबूल की
3. बदलने से पहले, पौलुस मसीहियों के बारे में कैसा महसूस करता था?
3 क्या पौलुस शुरू से ही दूसरों के साथ सब्र से पेश आनेवाला और उनकी भावनाओं का खयाल रखनेवाला इंसान था, और क्या वह शुरू से ही एक काबिल प्रचारक था? हरगिज़ नहीं! पहले शाऊल कहलानेवाला यह पौलुस अपने धर्म को मानने में इतना कट्टर था कि मसीह के चेलों पर बहुत ज़ुल्म ढाता था। जब वह जवान था, तब उसने स्तिफनुस का कत्ल करने में साथ दिया। बाद में, उसने वहशियों की तरह मसीहियों का पीछा करके उन्हें सताया। (प्रेरितों 7:58; 8:1, 3; 1 तीमुथियुस 1:13) वह “प्रभु के चेलों को धमकाने और घात करने की धुन में” लगा रहा। उसे यरूशलेम में मसीहियों पर ज़ुल्म ढाने से तसल्ली नहीं थी, इसलिए वह उत्तर में दमिश्क के मसीहियों को भी सताने के लिए वहाँ तक पहुँच गया।—प्रेरितों 9:1, 2.
4. पौलुस को अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए अपने सोच-विचार में कैसा बदलाव करने की ज़रूरत थी?
4 पौलुस को मसीहियत से इतनी नफरत शायद इसलिए थी, क्योंकि उसका मानना था कि यह नया धर्म अपनी अजीबो-गरीब धारणाओं से यहूदी धर्म में मिलावट करके उसे भ्रष्ट कर देगा। आखिर पौलुस एक “फरीसी” जो था, जिसका मतलब है “अलग किया हुआ।” (प्रेरितों 23:6) तो सोचिए कि पौलुस को कैसा झटका लगा होगा जब उसे बताया गया कि परमेश्वर ने उसे सब लोगों को मसीह के बारे में प्रचार करने के लिए चुना है, यहाँ तक कि गैर-यहूदियों को भी! (प्रेरितों 22:14, 15; 26:16-18) फरीसी ऐसे लोगों के साथ खाना तक नहीं खाते थे जिन्हें वे पापी समझते थे! (लूका 7:36-39) तो बेशक पौलुस को अपना नज़रिया बदलने और परमेश्वर की इस मरज़ी को कबूल करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी कि उद्धार पाने का मौका सब किस्म के लोगों को मिले।—गलतियों 1:13-17.
5. हम अपनी सेवा में पौलुस की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
5 हमें भी शायद पौलुस की तरह अपना नज़रिया बदलने की ज़रूरत पड़े। आज हमारे प्रचार के इलाके में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है जो दूसरे देश से हैं या दूसरी भाषा बोलते हैं। इसलिए हमें खुद की जाँच करनी चाहिए कि क्या दूसरी जाति-भाषा के लोगों की तरफ हमारा नज़रिया सही है, और अगर हम उनके बारे में कोई गलत राय रखते हैं तो उसे अपने अंदर से निकालने की पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए। (इफिसियों 4:22-24) चाहे हमें एहसास हो या नहीं, मगर यह सच है कि हम जिस माहौल में पलते-बढ़ते हैं और जैसी तालीम पाते हैं, उसी के मुताबिक हमारी शख्सियत बनती है। इसलिए हो सकता है दूसरी भाषा के लोगों के बारे में हमारी राय एक-तरफा और गलत हो और हम उसे बदलने के लिए तैयार न हों। लेकिन हमें ऐसी भावनाओं पर काबू पाना चाहिए, तभी हम भेड़ सरीखे लोगों को ढूँढ़ने और उनकी मदद करने में कामयाब होंगे। (रोमियों 15:7) पौलुस ने ऐसा ही किया था। उसने अपनी सेवा का दायरा बढ़ाने की चुनौती स्वीकार की। लोगों के लिए प्यार ने उसे सिखाने का बढ़िया हुनर पैदा करने के लिए उकसाया। हमें भी उसके जैसा हुनर अपने अंदर बढ़ाना चाहिए। “अन्यजातियों के लिये प्रेरित” ठहराए गए पौलुस की सेवा का अध्ययन करने से हम सीखते हैं कि वह प्रचार और सिखाने के काम में दूसरों की ज़रूरत का बहुत खयाल रखता था और उसके मुताबिक खुद को ढालता और सिखाने के नए-नए तरीके अपनाता था।a—रोमियों 11:13.
हालात के मुताबिक अपना तरीका बदलनेवाला
6. किस तरह पौलुस ने अपने सुननेवालों की संस्कृति को ध्यान में रखकर बात की, और इसका नतीजा क्या हुआ?
6 पौलुस अपने सुननेवालों के विश्वास और उनकी संस्कृति को ध्यान में रखकर बात करता था। मिसाल के लिए, जब उसने राजा अग्रिप्पा द्वित्तीय से बात की, तो पहले इस बात को माना कि यह राजा “यहूदियों के सब व्यवहारों और विवादों को जानता है।” इसके बाद, पौलुस को अग्रिप्पा के विश्वास के बारे में जो जानकारी थी, उसका उसने बड़ी कुशलता से इस्तेमाल करके बातचीत को आगे बढ़ाया। और ऐसे मामलों पर चर्चा की जिन्हें राजा अच्छी तरह समझ सकता था। पौलुस ने इतने साफ शब्दों में और यकीन के साथ तर्क पेश किया कि अग्रिप्पा ने उससे कहा: ‘थोड़े ही समय में तू अपनी दलीलों से मुझे मसीही बनने को कायल कर देगा।’ (NW)—प्रेरितों 26:2, 3, 27, 28.
7. पौलुस ने लुस्त्रा में एक भीड़ को प्रचार करते वक्त उनके हिसाब से अपना तरीका कैसे बदला?
7 पौलुस लोगों के मुताबिक अपना तरीका भी बदलता था। ध्यान दीजिए कि जब वह बरनबास के साथ लुस्त्रा शहर गया और लोगों की भीड़ उन दोनों को देवता मानकर पूजने लगी, तो उन्हें रोकने के लिए पौलुस ने कितना अलग तरीका अपनाया। कहा जाता है कि लुस्त्रा के ये लोग लुकाउनिया की भाषा बोलते थे, और कम पढ़े-लिखे थे और उनमें अंधविश्वास बहुत था। प्रेरितों 14:14-18 के मुताबिक, पौलुस ने सृष्टि के बारे में और कुदरत से मिलनेवाले बेशुमार वरदानों के बारे में बताकर साबित किया कि सच्चा परमेश्वर दूसरे देवी-देवताओं से महान है। पौलुस के इस तर्क को वे आसानी से समझ गए और शायद इसी बात ने उन्हें “रोका” कि पौलुस और बरनबास “के लिये बलिदान न करें।”
8. हालाँकि पौलुस को कभी-कभी अपने जज़बात पर काबू पाना मुश्किल लगता था, फिर भी उसने कैसे दिखाया कि वह हालात के हिसाब से खुद को ढालता था?
8 बेशक पौलुस सिद्ध नहीं था, और कभी-कभी अपने जज़बात पर काबू पाना उसे मुश्किल लगता था। मिसाल के लिए, एक बार जब पौलुस पर झूठे इलज़ाम लगाए गए और उसे नीचा दिखाया गया, तो उसे इतना गुस्सा आया कि उसने हनन्याह नाम के एक यहूदी को फटकार दिया। लेकिन जब पौलुस को बताया गया कि हनन्याह महायाजक है, तो उसने अनजाने में उसका अपमान करने के लिए फौरन उससे माफी माँगी। (प्रेरितों 23:1-5) जब वह अथेने गया था, तो शुरू में उस “नगर को मूरतों से भरा हुआ देखकर उसका जी जल गया।” लेकिन जब उसने वहाँ मार्स नाम की पहाड़ी पर भाषण दिया तो ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे उसका गुस्सा ज़ाहिर हो। इसके बजाय, उसने अथेनियों से उन्हीं की एक बैठक में बात की। उनको प्रचार करते वक्त उनकी उस वेदी का ज़िक्र किया जिस पर लिखा था, “अनजाने ईश्वर के लिये” और उनके एक कवि का भी हवाला दिया। इस तरह उसने ऐसे विषयों से बात शुरू की जिसके बारे में वे जानते थे।—प्रेरितों 17:16-28.
9. पौलुस ने किस तरह लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से नए-नए तरीके अपनाए?
9 पौलुस लोगों की ज़रूरतों के हिसाब से नए-नए तरीके खोज निकालने में माहिर था। वह हमेशा अपने सुननेवालों की संस्कृति और उनके माहौल को ध्यान में रखकर बात करता था, क्योंकि यही बातें लोगों के सोच-विचार को ढालती हैं। मिसाल के लिए, रोम के मसीहियों को खत लिखते वक्त, उसने इस बात को ध्यान में रखा कि रोम उस ज़माने की विश्व-शक्ति की राजधानी था। पौलुस की इस चिट्ठी का एक खास मुद्दा यह था कि आदम के पाप में भ्रष्ट करने की जो ताकत है, उसे मसीह की ताकत ने जीत ली है, जो हमें पाप के चंगुल से बचाती है। पौलुस ने रोमी मसीहियों को यह मुद्दा ऐसे शब्दों में समझाया जो उनके दिल को भा जाए।—रोमियों 1:4; 5:14, 15.
10, 11. किस तरह पौलुस ने अपने सुननेवालों के हिसाब से दृष्टांत बताए? (फुटनोट भी देखिए।)
10 पौलुस ने दूसरों को बाइबल की गूढ़ सच्चाइयाँ सिखाने के लिए कौन-सा तरीका अपनाया? पौलुस में यह हुनर था कि वह शास्त्र की मुश्किल बातों को ऐसे दृष्टांत देकर समझाता था, जो बहुत आम थे और आसानी से समझ में आते थे। उदाहरण के लिए, पौलुस को पता था कि रोम के लोग गुलामी के बारे में जानते हैं क्योंकि यह पूरे रोम साम्राज्य में आम थी। पौलुस का खत पढ़नेवाले ज़्यादातर मसीही भी शायद गुलाम थे। इसलिए पौलुस ने गुलामी का दृष्टांत देकर समझाया कि यह चुनाव हर इंसान के हाथ में है कि वह पाप का गुलाम बनना चाहता है या धार्मिकता का। इस दृष्टांत ने उसकी दलीलों को और भी दमदार बना दिया।—रोमियों 6:16-20.
11 एक किताब के मुताबिक “एक रोमी मालिक चाहता तो अपने गुलाम को बिना किसी शर्त के आज़ाद कर सकता था। दूसरी तरफ, एक गुलाम चाहे तो अपने मालिक को रकम चुकाकर अपनी आज़ादी खरीद सकता था। इतना ही नहीं, अगर एक मालिक अपने गुलाम को किसी देवता के हवाले कर देता, तो भी गुलाम आज़ाद हो सकता था।” फिर आज़ाद होने के बाद वह चाहे तो आगे भी अपने मालिक की मज़दूरी करके वेतन पा सकता था। पौलुस शायद इसी रिवाज़ का ज़िक्र कर रहा था जब उसने लिखा कि हर इंसान को फैसला करना है कि वह किस मालिक की आज्ञा मानेगा—पाप की या धार्मिकता की। रोम के मसीहियों को पाप से आज़ाद कराया गया था, और अब परमेश्वर उनका मालिक था। इसलिए वे परमेश्वर की सेवा करने के लिए आज़ाद थे, लेकिन अगर वे चाहते तो अपने पुराने मालिक, पाप की सेवा करने का भी चुनाव कर सकते थे। पौलुस का यह आसान-सा और जाना-माना दृष्टांत सुनने पर रोम के मसीही यह सोचने पर मजबूर हो गए होंगे: ‘मैं किस मालिक की सेवा कर रहा हूँ?’b
पौलुस से सीखना
12, 13. (क) अलग-अलग किस्म के लोगों को प्रचार करते वक्त, उनके दिल तक पहुँचने के लिए हमें कैसी मेहनत करनी पड़ती है? (ख) अलग-अलग संस्कृति के लोगों को प्रचार करते वक्त, आपको कौन-सा तरीका अपनाने से कामयाबी मिली है?
12 जब हम अलग-अलग किस्म के लोगों को संदेश सुनाते हैं, तो पौलुस की तरह हमें भी उन पर ध्यान देना चाहिए, उनके हिसाब से अपनी पेशकश बदलनी चाहिए और नए-नए तरीके ढूँढ़ने चाहिए। तभी हम उनके दिल तक पहुँच सकेंगे। हमारा लक्ष्य है, सुसमाचार की सही समझ पाने में लोगों की मदद करना। इसलिए हम नहीं चाहते कि सिर्फ नाम के वास्ते उनसे मुलाकात करें, पहले से जो सोचकर आए हैं वही पेशकश सुनाएँ या उन्हें बाइबल की कुछ किताबें-पत्रिकाएँ देकर आ जाएँ। हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि लोगों की ज़रूरतें, पसंद-नापसंद क्या हैं, उन्हें किन बातों की चिंता और डर है और वे कैसी गलत धारणाएँ रखते हैं। उनके बारे में यह सब जानने-समझने में बहुत मेहनत लगती है, फिर भी सारी दुनिया में राज्य प्रचारक खुशी-खुशी ऐसा कर रहे हैं। मिसाल के लिए, हंगरी के यहोवा के साक्षियों का शाखा दफ्तर रिपोर्ट करता है: “यहाँ के भाई, दूसरे देशों से आए लोगों के रस्मो-रिवाज़ और रहन-सहन का आदर करते हैं और उनसे यहाँ के रिवाज़ अपनाने की उम्मीद नहीं करते।” बाकी देशों के साक्षी भी यही कोशिश कर रहे हैं।
13 पूर्वी एशिया के एक देश में ज़्यादातर लोग अपनी सेहत, बच्चों की परवरिश और पढ़ाई को लेकर परेशान रहते हैं। इसलिए यहाँ के राज्य प्रचारक, लोगों के साथ इन्हीं विषयों पर चर्चा करते हैं, न कि दुनिया के बिगड़ते हालात या समाज की बड़ी-बड़ी समस्याओं के बारे में। अमरीका के एक बड़े शहर में प्रचारकों ने गौर किया कि वहाँ के एक इलाके में लोग भ्रष्टाचार, जुर्म और ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं को लेकर बहुत चिंतित हैं। इसलिए साक्षी इन विषयों का ज़िक्र करके लोगों के साथ बाइबल पर चर्चा करने में कामयाब हो रहे हैं। बाइबल के कुशल शिक्षक चाहे जो भी विषय चुनें, वे हमेशा ध्यान रखते हैं कि अपने संदेश में अच्छी बातों पर ज़ोर दें, जिससे लोगों में उम्मीद जगाएँ, उनका हौसला बढ़ाएँ। और वे उन्हें ज़ोर देकर बताते हैं कि आज भी बाइबल के सिद्धांतों पर चलने से क्या-क्या फायदे होते हैं और आनेवाले वक्त में परमेश्वर कैसी खुशियों भरी ज़िंदगी देनेवाला है।—यशायाह 48:17, 18; 52:7.
14. समझाइए कि हम लोगों की अलग-अलग ज़रूरतों और उनके हालात के हिसाब से अपना तरीका कैसे बदल सकते हैं।
14 प्रचार में अपना संदेश पेश करने का तरीका भी बदलना हमारे लिए मददगार होगा, क्योंकि लोग जिस संस्कृति के हैं, जितने पढ़े-लिखे हैं और जिस धर्म को मानते हैं उसमें बहुत फर्क होता है। जो लोग मानते हैं कि एक सिरजनहार है, मगर बाइबल पर यकीन नहीं करते, उनके साथ हम जिस तरीके से बात करेंगे, वही तरीका हम नास्तिक लोगों के साथ नहीं अपना सकते। जो लोग मानते हैं कि धर्म की सारी किताबें-पत्रिकाएँ बस प्रचार-प्रसार का ज़रिया हैं, उनसे हम जिस तरीके से बात करेंगे, वही तरीका उनके साथ नहीं अपनाएँगे जो बाइबल को सच मानते हैं। इसके अलावा, लोगों से बात करते वक्त हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि कुछ लोग कम पढ़े-लिखे होंगे तो कुछ ज़्यादा। एक हुनरमंद शिक्षक, वैसी दलीलें और मिसालें पेश करता है जो सामनेवाले के लिए सही लगें।—1 यूहन्ना 5:20.
नए सेवकों की मदद करना
15, 16. आज क्यों नए सेवकों को ट्रेनिंग देने की ज़रूरत है?
15 पौलुस सिर्फ अपनी सिखाने की काबिलीयत को निखारने की कोशिश नहीं करता था। उसने देखा कि तीमुथियुस और तीतुस जैसे जवानों को भी ट्रेनिंग देने और काबिल बनाने की ज़रूरत है, ताकि वे आगे चलकर कुशल सेवक बन सकें। (2 तीमुथियुस 2:2; 3:10, 14; तीतुस 1:4) उसी तरह, आज दूसरों को ट्रेनिंग देने और दूसरों से ट्रेनिंग पाने की बड़ी भारी ज़रूरत है।
16 सन् 1914 में पूरी दुनिया में तकरीबन 5,000 राज्य प्रचारक थे, मगर आज की बात देखें तो हर हफ्ते 5,000 नए लोग बपतिस्मा ले रहे हैं! (यशायाह 54:2, 3; प्रेरितों 11:21) जब नए लोग मसीही कलीसिया के साथ संगति करना शुरू करते हैं और प्रचार करना चाहते हैं, तो उन्हें ट्रेनिंग देने और सिखाने की ज़रूरत है। (गलतियों 6:6) उन्हें सिखाते और ट्रेनिंग देते वक्त अपने स्वामी यीशु के तरीके अपनाना हमारे लिए बेहद ज़रूरी है।c
17, 18. हम नए लोगों की कैसे मदद कर सकते हैं, ताकि उनमें भरोसा पैदा हो कि वे भी प्रचार काम कर सकते हैं?
17 यीशु ने अपने प्रेरितों को ट्रेनिंग कैसे दी? ऐसा नहीं था कि यीशु ने कहीं लोगों की भीड़ देखी और प्रेरितों को उनसे बात करने के लिए यूँ ही भेज दिया। पहले उसने चेलों को समझाया कि प्रचार करना क्यों एक ज़रूरी काम है और उन्हें अपनी सेवा के बारे में लगातार प्रार्थना करने के लिए उकसाया। इसके बाद यीशु ने उनके लिए तीन बुनियादी इंतज़ाम किए: उन्हें एक साथी दिया, प्रचार का इलाका दिया और लोगों को सुनाने के लिए एक संदेश बताया। (मत्ती 9:35-38; 10:5-7; मरकुस 6:7; लूका 9:2, 6) हम भी ऐसा ही कर सकते हैं। चाहे हम प्रचार में अपने बच्चे की मदद कर रहे हों या किसी नए विद्यार्थी की, या किसी ऐसे प्रचारक की जिसने काफी समय से सेवा में हिस्सा नहीं लिया है, ट्रेनिंग देने के लिए यीशु का तरीका अपनाना बिलकुल सही होगा।
18 नए लोगों को अपने अंदर यह भरोसा पैदा करने के लिए काफी मदद की ज़रूरत होती है कि वे भी राज्य का संदेश सुना सकते हैं। क्या आप उन्हें एक आसान-सी और दिलचस्पी जगानेवाली पेशकश तैयार करने और उसका अभ्यास करने में मदद दे सकते हैं? जब आप उनके साथ प्रचार में जाते हैं, तो शुरू के कुछ घरों में आप ही बात कीजिए ताकि वे आपको देखकर सीख सकें। इस तरह आप गिदोन के नमूने पर चल सकते हैं, जिसने अपने साथी सैनिकों से कहा था: “मुझे देखो, और वैसा ही करो।” (न्यायियों 7:17) इसके बाद, नए व्यक्ति को बात करने का मौका दीजिए। नए लोग जो मेहनत करते हैं, उसकी प्यार से तारीफ कीजिए, और जब भी मुनासिब हो, सुधार के लिए छोटे-छोटे सुझाव दीजिए।
19. ‘अपनी सेवा को पूरा करने’ के लिए आपने क्या अटल फैसला किया है?
19 हमारा यह अटल फैसला है कि ‘अपनी सेवा को पूरा करने’ के लिए, हम संदेश पेश करने के तरीके में ज़रूरत के हिसाब से फेर-बदल करेंगे, और नए सेवकों को भी ऐसा करने की ट्रेनिंग देंगे। हमारा लक्ष्य है, लोगों को परमेश्वर का वह ज्ञान पाने में मदद देना जिससे उनका उद्धार हो सकता है। जब हम इस काम की अहमियत समझते हैं, तो हमारा यकीन और पक्का हो जाता है कि ‘सब मनुष्यों के लिये सब कुछ बनने’ में जो मेहनत लगती है वह बेकार नहीं है, क्योंकि ऐसा करने पर ही हम ‘किसी न किसी रीति से कई एक का उद्धार करा सकेंगे।’—2 तीमुथियुस 4:5; 1 कुरिन्थियों 9:22.
[फुटनोट]
a पौलुस ने अपनी सेवा में ऐसे गुण किस तरह दिखाए, यह जानने के लिए प्रेरितों 13:9, 16-42; 17:2-4; 18:1-4; 19:11-20; 20:34; रोमियों 10:11-15; 2 कुरिन्थियों 6:11-13 देखिए।
b उसी तरह, पौलुस ने अपने खत में यह समझाने के लिए कि परमेश्वर और उसके आत्मा से अभिषिक्त ‘पुत्रों’ के बीच एक नया रिश्ता कायम हुआ है, एक ऐसे कानूनी रिवाज़ की मिसाल दी जिससे रोम साम्राज्य के मसीही अच्छी तरह वाकिफ थे। (रोमियों 8:14-17) अँग्रेज़ी किताब संत पौलुस रोम में कहती है: “लेपालकपन या गोद लेने का रिवाज़ दरअसल एक रोमी रिवाज़ था, और रोम के परिवारों में यह बहुत आम था।”
c फिलहाल, यहोवा के साक्षियों की सभी कलीसियाओं में ‘पायनियरों द्वारा सहायता’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इस कार्यक्रम के तहत पूरे समय के प्रचारक, अपने तजुरबे और अपनी ट्रेनिंग का इस्तेमाल करके कम अनुभवी प्रचारकों की मदद करते हैं।
क्या आपको याद है?
• किन तरीकों से हम प्रचार काम में पौलुस की मिसाल पर चल सकते हैं?
• हमें अपनी सोच में कैसा बदलाव करने की ज़रूरत पड़ सकती है?
• हम अपने संदेश में अच्छी बातों पर कैसे ज़ोर दे सकते हैं?
• नए प्रचारकों में भरोसा पैदा करने के लिए क्या ज़रूरी है?
[पेज 29 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
प्रेरित पौलुस प्रचार करते और सिखाते वक्त उनके हिसाब से अपनी पेशकश बदलता और नए-नए तरीके ढूंढ़ निकालता था
[पेज 31 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
यीशु ने अपने चेलों के लिए तीन बुनियादी इंतज़ाम किए: उन्हें एक साथी, प्रचार का इलाका और सुनाने के लिए एक संदेश दिया
[पेज 28 पर तसवीरें]
पौलुस लोगों के हिसाब से अपना तरीका बदलता था, इसीलिए वह उनके दिल तक पहुँचने में कामयाब हुआ
[पेज 30 पर तसवीर]
कुशल प्रचारक, सुननेवाले की संस्कृति को ध्यान में रखकर उससे बात करते हैं
[पेज 31 पर तसवीर]
नए-नए तरीके आज़मानेवाले प्रचारक, नए लोगों को सेवा के लिए तैयार होने में मदद देते हैं