अध्याय 2
परमेश्वर की नज़र में साफ ज़मीर
“अपना ज़मीर साफ बनाए रखो।”—1 पतरस 3:16.
1, 2. (क) एक अनजान जगह में सफर करते वक्त हमारे पास दिशा जानने का ज़रिया क्यों होना चाहिए? (ख) यहोवा ने हमें सही राह दिखाने के लिए क्या दिया है?
मान लीजिए कि आप एक बहुत बड़े रेगिस्तान से होते हुए जा रहे हैं। तेज़ हवाओं की वजह से रेत के टीलों का आकार बदल रहा है और इससे पूरे रेगिस्तान का नक्शा बदलता जा रहा है। अब आप क्या करेंगे? कैसे पता करेंगे कि आप किस दिशा में जाएँ? ऐसे में आपके पास या तो कम्पास, नक्शा या जी.पी.एस. होना चाहिए या फिर आपको सूरज और तारों को देखकर रास्ता पहचानना आना चाहिए। नहीं तो आपके साथ एक ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, जो रेगिस्तानी इलाके के बारे में अच्छी तरह जानता हो। लेकिन अगर आपके पास सही दिशा जानने का कोई ज़रिया न हो, तो आप मुश्किल में पड़ सकते हैं, आपकी जान को भी खतरा हो सकता है।
2 जीवन के सफर में भी हम सबके सामने कई मुश्किलें आती हैं और हम आसानी से रास्ता भटक सकते हैं। लेकिन यहोवा ने सही राह दिखाने के लिए हर इंसान को ज़मीर दिया है। (याकूब 1:17) आइए जानें कि ज़मीर क्या है और यह कैसे काम करता है। उसके बाद हम सीखेंगे कि हम अपने ज़मीर को सही तरह से काम करना कैसे सिखा सकते हैं, हमें दूसरों के ज़मीर का ध्यान क्यों रखना चाहिए और एक साफ ज़मीर होने से हम एक अच्छी ज़िंदगी कैसे जी सकते हैं।
ज़मीर क्या है और यह कैसे काम करता है?
3. ज़मीर क्या होता है?
3 ज़मीर यहोवा की एक देन है। यह हमारे अंदर की आवाज़ है, जो हमें सही-गलत का एहसास दिलाती है। बाइबल में जिस यूनानी शब्द का अनुवाद “ज़मीर” किया गया है, उसका मतलब है, “खुद के बारे में जानकारी।” अगर हमारा ज़मीर सही तरह से काम करता है, तो यह हमें सच-सच बताएगा कि हम अंदर से कैसे इंसान हैं और हमारी सोच या मन की इच्छाएँ कैसी हैं। ज़मीर हमें सही काम करने के लिए उभार सकता है और गलत काम करने से रोक सकता है। जब हम सही फैसला करते हैं, तो ज़मीर हमें एहसास दिलाता है कि हमने सही किया है और हमें खुशी होती है। वहीं जब हम गलत फैसला करते हैं, तो ज़मीर हमें दोषी ठहराता है।—“ज़मीर” देखिए।
4, 5. (क) जब आदम और हव्वा ने अपने ज़मीर की नहीं सुनी, तो क्या हुआ? (ख) बाइबल से कुछ लोगों की मिसाल देकर बताइए कि ज़मीर कैसे काम करता है।
4 यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने ज़मीर की सुनेंगे या नहीं। आदम और हव्वा में भी ज़मीर था। यह हम कैसे कह सकते हैं? जब उन्होंने पाप किया, तो वे शर्मिंदा महसूस करने लगे। मगर अब कोई फायदा नहीं था, क्योंकि वे परमेश्वर की आज्ञा तोड़ चुके थे। (उत्पत्ति 3:7, 8) वे दोनों परिपूर्ण थे और उनके ज़मीर ने उन्हें साफ बताया था कि परमेश्वर की आज्ञा तोड़ना गलत है। फिर भी उन्होंने अपने ज़मीर की बात नहीं मानी।
5 मगर ऐसे कई इंसान रहे हैं, जिन्होंने अपरिपूर्ण होते हुए भी अपने ज़मीर की बात मानी। ऐसा ही एक इंसान था, अय्यूब। उसने सही फैसले किए थे, इसलिए वह कह पाया, “जब तक मैं ज़िंदा हूँ मेरा मन मुझे नहीं धिक्कारेगा।” (अय्यूब 27:6) जब उसने “मन” कहा, तो वह अपने ज़मीर की बात कर रहा था। एक और इंसान था, दाविद। एक बार जब उसने अपने ज़मीर की बात नहीं मानी और यहोवा की आज्ञा तोड़ दी, तो उसे इतना बुरा लगा कि उसका “मन उसे कचोटने लगा।” (1 शमूएल 24:5) दाविद का ज़मीर उसे बता रहा था कि उसने जो किया, वह गलत है। उसने अपने ज़मीर की सुनी और सबक सीखा कि वह ऐसी गलती दोबारा न करे।
6. यह क्यों कहा जा सकता है कि ज़मीर परमेश्वर की एक देन है?
6 जो लोग यहोवा को नहीं जानते, उन्हें भी पता रहता है कि क्या सही है और क्या गलत। बाइबल कहती है, “उनकी खुद की सोच उन्हें या तो कसूरवार ठहराती है या बेकसूर।” (रोमियों 2:14, 15) ऐसे कई लोग हैं, जो जानते हैं कि खून करना और चोरी करना गलत है और वे ऐसे काम नहीं करते। इस तरह अनजाने में वे अपने ज़मीर की बात सुन रहे होते हैं। यहोवा ने उनके अंदर सही-गलत का जो एहसास डाला है, वे उसके मुताबिक काम कर रहे होते हैं। देखा जाए तो वे भी यहोवा के सिद्धांतों को मान रहे हैं, जो उसने इंसानों को सही फैसले करने के लिए दिए हैं।
7. कभी-कभी ज़मीर हमें गलत राह क्यों दिखा सकता है?
7 कभी-कभी हमारा ज़मीर हमें गलत राह दिखा सकता है। इसकी वजह है कि हम सब अपरिपूर्ण हैं और हमारी गलत सोच या बुरी इच्छा हम पर हावी हो सकती है। हमें अपने ज़मीर को प्रशिक्षित करना होगा, क्योंकि यह अपने आप सही तरह से काम नहीं कर सकता। (उत्पत्ति 39:1, 2, 7-12) इसे सही तरह से ढालने के लिए यहोवा ने हमें अपनी पवित्र शक्ति और बाइबल के सिद्धांत दिए हैं। (रोमियों 9:1) आइए देखें कि इनकी मदद से हम अपने ज़मीर को सही तरह काम करना कैसे सिखा सकते हैं।
ज़मीर को कैसे सिखाएँ?
8. (क) हमारे दिल का ज़मीर पर क्या असर हो सकता है? (ख) कोई भी फैसला करने से पहले हमें क्या सोचना चाहिए?
8 कुछ लोग सोचते हैं कि अपने ज़मीर की बात सुनने का मतलब है, अपने दिल की सुनना। वे सोचते हैं कि जो काम उन्हें बुरा नहीं लगता, उसे वे कर सकते हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना है कि पापी होने की वजह से हमारा दिल हमें बहका सकता है। यह हमारे ज़मीर की आवाज़ को दबा सकता है। बाइबल कहती है, “दिल सबसे बड़ा धोखेबाज़ है और यह उतावला होता है। इसे कौन जान सकता है?” (यिर्मयाह 17:9) हो सकता है कि हम ऐसे काम को सही मानने लगें, जो बिलकुल गलत है। पौलुस से भी यही गलती हुई थी। मसीही बनने से पहले वह परमेश्वर के लोगों पर बहुत ज़ुल्म करता था और मानता था कि वह सही कर रहा है। उसकी नज़र में उसका ज़मीर साफ था। मगर बाद में उसे पता चला कि ‘उसकी जाँच-पड़ताल करनेवाला यहोवा है।’ (1 कुरिंथियों 4:4; प्रेषितों 23:1; 2 तीमुथियुस 1:3) उसे एहसास हुआ कि उसके काम यहोवा की नज़र में गलत हैं, इसलिए उसने अपने अंदर बदलाव किए। इन बातों से पता चलता है कि कोई भी फैसला करने से पहले हमें सोचना चाहिए कि यहोवा मुझसे क्या चाहता है, न कि यह सोचना चाहिए कि मेरा दिल क्या कहता है।
9. परमेश्वर का डर मानने से हम क्या नहीं करेंगे?
9 अगर आप किसी से प्यार करते हैं, तो आप उसे दुखी नहीं करना चाहेंगे। हम यहोवा से प्यार करते हैं, इसलिए हम ऐसा कोई काम नहीं करना चाहेंगे, जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता। हम यहोवा को दुखी करने की बात कभी सोच भी नहीं सकते। नहेमायाह के उदाहरण पर गौर कीजिए। वह एक राज्यपाल था और अपने पद का गलत इस्तेमाल करके दौलत कमा सकता था। मगर उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह “परमेश्वर का डर मानता” था। (नहेमायाह 5:15) वह यहोवा की नज़र में कोई गलत काम नहीं करना चाहता था। नहेमायाह की तरह अगर हम भी यहोवा का डर मानें, तो जो काम उसे बुरा लगता है, वह हम नहीं करेंगे। बाइबल पढ़ने से हम जान सकते हैं कि यहोवा किन बातों से खुश होता है।—“परमेश्वर का डर” देखिए।
10, 11. बाइबल के किन सिद्धांतों को ध्यान में रखने से हम शराब के मामले में सही फैसला कर पाएँगे?
10 मिसाल के लिए, शायद किसी मौके पर एक मसीही को फैसला करना पड़े कि वह शराब पीए या नहीं। बाइबल में कुछ सिद्धांत दिए गए हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर वह यह फैसला कर सकता है। जैसे, बाइबल में शराब पीने को गलत नहीं कहा गया है। दाख-मदिरा को परमेश्वर का एक तोहफा बताया गया है। (भजन 104:14, 15) पर इसमें यह भी बताया है कि यीशु ने सलाह दी कि परमेश्वर के लोगों को ‘हद-से-ज़्यादा नहीं पीना’ चाहिए। (लूका 21:34) पौलुस ने भी मसीहियों से कहा कि वे ‘बेकाबू होकर रंगरलियाँ न मनाएँ और शराब के नशे में धुत्त न रहें।’ (रोमियों 13:13) उसने कहा कि शराबी लोग “परमेश्वर के राज के वारिस नहीं होंगे।”—1 कुरिंथियों 6:9, 10.
11 एक मसीही खुद से पूछ सकता है, ‘मैं शराब क्यों पीता हूँ? क्या मैं तनाव दूर करने के लिए पीता हूँ? क्या पीने से मेरा आत्म-विश्वास बढ़ता है? क्या मैं खुद पर काबू रख पाता हूँ ताकि ज़्यादा न पी लूँ और मुझे इसकी लत न लग जाए?a जब मैं अपने दोस्तों के साथ फुरसत के पल बिताता हूँ, तो क्या शराब के बिना मुझे मज़ा नहीं आता?’ हम यहोवा से बिनती कर सकते हैं कि शराब के मामले में सही फैसला करने में वह हमारी मदद करे। (भजन 139:23, 24 पढ़िए।) इस तरह हम अपने ज़मीर को परमेश्वर के सिद्धांतों के मुताबिक काम करना सिखाते हैं। लेकिन इस मामले में फैसला करते वक्त एक और बात पर ध्यान देना ज़रूरी है।
दूसरों के ज़मीर का ध्यान क्यों रखें?
12, 13. (क) हर किसी का ज़मीर एक-जैसा क्यों नहीं होता? (ख) अगर किसी की राय हमसे अलग है, तो हमें क्या करना चाहिए?
12 हर किसी का ज़मीर एक-जैसा नहीं होता। शायद एक का ज़मीर किसी काम को सही माने, तो दूसरे का ज़मीर उस काम को गलत ठहराए। जैसे, शायद आपको शराब पीना सही लगे, जबकि दूसरे को लग सकता है कि उसे नहीं पीना चाहिए। शराब के मामले में इस तरह की अलग-अलग राय क्यों होती है?
13 एक इंसान किस तरह के इलाके में पला-बढ़ा है, उसके परिवार के लोगों की सोच कैसी है और उसे ज़िंदगी में किस तरह के अनुभव हुए हैं, इन्हीं बातों से उसकी सोच ढलती है। हो सकता है कि एक भाई को सच्चाई में आने से पहले शराब की लत थी और उसने बड़ी मुश्किल से वह लत छोड़ी थी, इसलिए उसने ठान लिया कि वह शराब बिलकुल नहीं पीएगा। (1 राजा 8:38, 39) अगर आप उस भाई को शराब दें और वह इनकार करे, तो आप क्या करेंगे? बुरा मान जाएँगे? उसे पिलाने की ज़िद करेंगे? या उससे पूछने लगेंगे कि वह क्यों नहीं ले रहा? ऐसा करना सही नहीं होगा, क्योंकि उस भाई को अपने ज़मीर के मुताबिक फैसला करने का हक है।
14, 15. (क) पौलुस के दिनों में क्या हुआ? (ख) पौलुस ने क्या सलाह दी?
14 गौर कीजिए कि प्रेषित पौलुस के दिनों में क्या हुआ था। बाज़ार में बिकनेवाले कुछ तरह के गोश्त के बारे में मसीहियों की अलग-अलग राय थी। वह गोश्त पहले मूरतों के आगे चढ़ाया जाता था और फिर बाज़ार में बेचा जाता था। (1 कुरिंथियों 10:25) पौलुस का मानना था कि ऐसा गोश्त खाना गलत नहीं है, क्योंकि सबकुछ यहोवा का दिया हुआ है। मगर जो भाई-बहन पहले मूर्तिपूजा करते थे, वे इस तरह नहीं सोचते थे। उनका मानना था कि वह गोश्त खाना गलत है। तो क्या पौलुस ने सोचा, ‘मैं तो खाऊँगा, मेरा ज़मीर मुझे नहीं रोकता। वैसे भी यह मेरा हक है।’
15 पौलुस ने ऐसा नहीं सोचा। वह नहीं चाहता था कि दूसरे भाई-बहनों को ठेस पहुँचे, इसलिए उसने अपने अधिकार का त्याग किया। उसने कहा कि हम सिर्फ ‘खुद को खुश करने की न सोचें। मसीह ने भी खुद को खुश नहीं किया।’ (रोमियों 15:1, 3) यीशु की तरह ही पौलुस खुद से ज़्यादा दूसरों के बारे में सोचता था।—1 कुरिंथियों 8:13; 10:23, 24, 31-33 पढ़िए।
16. दूसरे लोग अपने ज़मीर के मुताबिक जो करते हैं, उस पर हमें उँगली क्यों नहीं उठानी चाहिए?
16 यह भी हो सकता है कि हमें कोई काम गलत लगता है, लेकिन वही काम दूसरे भाई को सही लगता है। तब हमें क्या करना चाहिए? हमें उस पर उँगली नहीं उठानी चाहिए और इस बात पर अड़े नहीं रहना चाहिए कि हम सही हैं और वह गलत। (रोमियों 14:10 पढ़िए।) यहोवा ने हममें से हरेक को ज़मीर इसलिए दिया है कि हम खुद को जाँचें कि हम सही काम कर रहे हैं या नहीं, न कि दूसरों पर नज़र रखने के लिए। (मत्ती 7:1) हमें अपनी राय भाई-बहनों पर नहीं थोपनी चाहिए। इससे मंडली में फूट पड़ सकती है, जबकि हमें मंडली में प्यार और एकता को बढ़ावा देना चाहिए।—रोमियों 14:19.
साफ ज़मीर के फायदे
17. कुछ लोगों के ज़मीर का क्या हाल है?
17 प्रेषित पतरस ने लिखा, “अपना ज़मीर साफ बनाए रखो।” (1 पतरस 3:16) दुख की बात है कि जब कोई बार-बार परमेश्वर के सिद्धांतों के खिलाफ काम करता है, तो कुछ समय बाद उसका ज़मीर उसे बताना छोड़ देता है कि वह जो कर रहा है, वह गलत है। पौलुस ने कहा कि ऐसे लोगों का “ज़मीर सुन्न हो गया है मानो गरम लोहे से दागा गया हो।” (1 तीमुथियुस 4:2) अगर किसी के शरीर का कोई हिस्सा बुरी तरह जल जाए, तो कुछ समय बाद वहाँ दाग पड़ जाता है और वह हिस्सा सुन्न हो जाता है। उसी तरह जब एक इंसान गलत काम करता रहता है, तो उसका ज़मीर भी “सुन्न” हो जाता है और काम करना बंद कर देता है।
18, 19. (क) अगर हमें अपनी गलती पर बुरा लग रहा है, तो इसका क्या मतलब है? (ख) पश्चाताप करने के बाद भी अगर दोष की भावनाएँ हमें सताती हैं, तो हमें क्या करना चाहिए?
18 कोई गलत काम करने पर अगर हमें बुरा लग रहा है, तो इसका मतलब है कि हमारा ज़मीर हमें बता रहा है कि हमने कुछ गलत किया है। तब हमें उसकी आवाज़ को अनसुना नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें फौरन वह काम छोड़ देना चाहिए। हमें अपनी गलतियों से सबक सीखना चाहिए और उन्हें फिर कभी दोहराना नहीं चाहिए। राजा दाविद का उदाहरण लीजिए। जब उसने पाप किया, तो उसके ज़मीर ने उसे दोषी ठहराया। फिर उसने पश्चाताप किया। उसे बहुत बुरा लगा था, इसलिए उसने ठान लिया कि वह फिर कभी यहोवा की आज्ञा नहीं तोड़ेगा। दाविद अपने तजुरबे से कह सका कि यहोवा “भला है और माफ करने को तत्पर रहता है।”—भजन 51:1-19; 86:5; “पश्चाताप” देखिए।
19 हो सकता है कि एक इंसान के पश्चाताप करने के काफी समय बाद भी उसका मन उसे दोषी ठहराता रहे। ऐसी भावनाओं को सहना बहुत मुश्किल होता है और वह खुद को बिलकुल बेकार महसूस कर सकता है। अगर आपको भी कभी ऐसा लगता है, तो याद रखिए कि जो हो चुका है, उसे आप बदल नहीं सकते। चाहे आपने वह गलती जानबूझकर की थी या अनजाने में, यहोवा ने आपको पूरी तरह माफ कर दिया है। उसने वह पाप मिटा दिया है। यहोवा आपको दोषी नहीं समझता और अब तो आप सही काम भी कर रहे हैं। फिर भी अगर आपका दिल आपको धिक्कारता है, तो बाइबल की यह बात याद रखिए कि “परमेश्वर हमारे दिलों से बड़ा है।” (1 यूहन्ना 3:19, 20 पढ़िए।) इसका मतलब है कि चाहे आप कितना भी दोषी या शर्मिंदा महसूस करें, आप यकीन रख सकते हैं कि यहोवा आपकी भावनाएँ समझता है और आपसे इतना प्यार करता है कि उसने आपको पूरी तरह माफ कर दिया है। जब एक इंसान इस बात को समझता है, तो उसका ज़मीर उसे नहीं कचोटता और वह खुशी से परमेश्वर की सेवा कर पाता है।—1 कुरिंथियों 6:11; इब्रानियों 10:22.
20, 21. (क) इस किताब से आप क्या सीखेंगे? (ख) यहोवा ने हमें क्या आज़ादी दी है? (ग) हमें इस आज़ादी का इस्तेमाल कैसे करना चाहिए?
20 इस किताब से आप सीखेंगे कि आप अपने ज़मीर को कैसे प्रशिक्षित कर सकते हैं। फिर आपका ज़मीर आपको गलत काम करने से पहले ही खबरदार करेगा और इन आखिरी दिनों में आनेवाली मुश्किलों का सामना करने में आपकी मदद करेगा। ज़िंदगी के अलग-अलग हालात में आपका प्रशिक्षित ज़मीर बताएगा कि आपको बाइबल के सिद्धांतों के मुताबिक क्या करना चाहिए और क्या नहीं। इस किताब में नियमों की सूची नहीं दी गयी है कि आपको कब क्या करना चाहिए और क्या नहीं। हम “मसीह का कानून” मानते हैं, जिसमें परमेश्वर के सिद्धांत दिए गए हैं। (गलातियों 6:2) पर साथ ही हमें ध्यान रखना है कि अगर किसी मामले में कोई कानून नहीं दिया गया है, तो इसका यह मतलब नहीं कि हमें गलत काम करने की छूट मिल जाती है। (2 कुरिंथियों 4:1, 2; इब्रानियों 4:13; 1 पतरस 2:16) दरअसल परमेश्वर ने हमें ऐसे मामलों में खुद फैसला करने की आज़ादी दी है। हम परमेश्वर से प्यार करते हैं, इसलिए हम उस आज़ादी का सही इस्तेमाल करते हैं।
21 जब हम बाइबल के सिद्धांतों पर मनन करते हैं और उन्हें लागू करते हैं, तो हम “सोचने-समझने की शक्ति” का इस्तेमाल करना सीखते हैं और हमारी सोच यहोवा की तरह होती है। (इब्रानियों 5:14) इस तरह हम अपने ज़मीर को प्रशिक्षित कर रहे होते हैं। फिर यह हमें जीवन के सफर में सही राह दिखाएगा और हम परमेश्वर के प्यार के लायक बने रहेंगे।
a कई डॉक्टर कहते हैं कि जिन्हें शराब की लत है, वे थोड़ी शराब पीकर रुक नहीं सकते, इसलिए अच्छा होगा कि वे शराब को हाथ ही न लगाएँ।