परमेश्वर के साथ-साथ चलना—शुरुआत के कुछ कदम
“परमेश्वर के निकट आओ, तो वह भी तुम्हारे निकट आएगा।” —याकूब ४:८.
१, २. आप ऐसा क्यों कहेंगे कि यहोवा की सेवा करना दुनिया का सबसे बड़ा वरदान है?
बरसों तक यह आदमी जेल में सड़ता रहा। लेकिन फिर उसे उस देश के सम्राट के सामने हाज़िर होने के लिए बुलाया गया। फिर कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी। अचानक, यह मामूली-सा कैदी उस वक्त दुनिया की बेताज हुकूमत के सबसे ताकतवर बादशाह के सामने था और उसका कर्मचारी बन गया। कल तक जो कैदी कहलाता था आज उसे बड़ा ओहदा दिया गया और उसे बेशुमार इज़्ज़त मिली। यूसुफ—बेड़ियों में चलनेवाला यह आदमी आज राजा के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रहा था!—उत्पत्ति ४१:१४, ३९-४३; भजन १०५:१७, १८.
२ लेकिन आज इंसानों के पास उस हस्ती के कर्मचारी बनने का मौका है जिसके सामने मिस्र का फिरौन कुछ भी नहीं। इस पूरे विश्व-मंडल का मालिक और महाराजाधिराज हमें खुद बुला रहा है कि हम उसके सेवक बनें। ज़रा सोचिए, हम सर्वशक्तिमान, यहोवा परमेश्वर के पास आ सकते हैं, उसकी सेवा कर सकते हैं और उससे एक नज़दीकी रिश्ता बना सकते हैं। दुनिया में इससे बढ़कर और कुछ भी नहीं! बाइबल यहोवा के बारे में बताती है कि वह महासामर्थी, महाप्रतापी है और उसके पास अथाह शांति, अतिसुंदरता और मनोहरता है। (यहेजकेल १:२६-२८; प्रकाशितवाक्य ४:१-३) प्रेम उसके हर काम में समाया हुआ है। (१ यूहन्ना ४:८) वह कभी-भी झूठ नहीं बोलता। (गिनती २३:१९) और यहोवा कभी-भी अपने वफादार लोगों को निराश नहीं करता। (भजन १८:२५) उसकी धर्मी माँगों को पूरा करने से हम अभी सुखी रहेंगे और हमारी ज़िंदगी में एक मकसद होगा और हमारे पास भविष्य के लिए हमारी अनंत जीवन की आशा होगी। (यूहन्ना १७:३) दुनिया का कोई भी राजा ऐसा कुछ नहीं दे सकता जो इन सब आशीषों और वरदानों का रत्ती-भर भी मुकाबला कर सके।
३. किस मायने में नूह ‘परमेश्वर के साथ साथ चला’?
३ बहुत समय पहले, कुलपिता नूह ने परमेश्वर की इच्छा और मकसद के मुताबिक ज़िंदगी बिताने का फैसला किया। उसके बारे में बाइबल कहती है: “नूह धर्मी पुरुष और अपने समय के लोगों में खरा था, और नूह परमेश्वर ही के साथ साथ चलता रहा।” (उत्पत्ति ६:९) सच है कि नूह सचमुच में परमेश्वर के साथ नहीं घूमा करता था, क्योंकि किसी भी इंसान ने “परमेश्वर को . . . कभी नहीं देखा।” (यूहन्ना १:१८) इसके बजाय, नूह के परमेश्वर के साथ-साथ चलने का मतलब है कि नूह ने वही किया जो परमेश्वर ने उसे बताया था। यहोवा की इच्छा पूरी करने में अपनी ज़िंदगी लगाने की वज़ह से उसका सर्वशक्तिमान परमेश्वर के साथ एक नज़दीकी और गहरा रिश्ता बन चुका था। नूह की तरह लाखों लोग यहोवा की सलाहों और हिदायतों के मुताबिक ज़िंदगी बिताकर ‘परमेश्वर के साथ साथ’ चल रहे हैं। लेकिन एक इंसान इस राह पर शुरुआत के कदम कैसे रखता है?
सही ज्ञान बेहद ज़रूरी है
४. यहोवा अपने लोगों को कैसे हिदायतें देता है?
४ यहोवा के साथ-साथ चलने से पहले हमें उसे जानना चाहिए। भविष्यवक्ता यशायाह ने भविष्यवाणी की थी: “अन्त के दिनों में ऐसा होगा कि यहोवा के भवन का पर्वत सब पहाड़ों पर दृढ़ किया जाएगा, और सब पहाड़ियों से अधिक ऊंचा किया जाएगा; और हर जाति के लोग धारा की नाईं उसकी ओर चलेंगे। और बहुत देशों के लोग आएंगे, और आपस में कहेंगे: आओ, हम यहोवा के पर्वत पर चढ़कर, याकूब के परमेश्वर के भवन में जाएं; तब वह हमको अपने मार्ग सिखाएगा, और हम उसके पथों पर चलेंगे। क्योंकि यहोवा की व्यवस्था सिय्योन से, और उसका वचन यरूशलेम से निकलेगा।” (यशायाह २:२, ३) जी हाँ, हम इस बात का पूरा यकीन रख सकते हैं कि जितने भी लोग यहोवा के मार्ग पर चलना चाहते हैं यहोवा उन सब को ज़रूर सिखाएगा। यहोवा ने अपना वचन, बाइबल दिया है और वह इसे समझने में हमारी मदद करता है। ऐसी मदद देने का उसका एक ज़रिया है, “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास।” (मत्ती २४:४५-४७) बाइबल पर आधारित किताबों, मसीही सभाओं और बाइबल अध्ययन के ज़रिये आध्यात्मिक हिदायतें देने के लिए यहोवा ‘विश्वासयोग्य दास’ का इस्तेमाल करता है। अपनी पवित्र आत्मा के ज़रिए भी परमेश्वर अपने लोगों को अपना वचन समझाता है।—१ कुरिन्थियों २:१०-१६.
५. बाइबल की सच्चाई बेशकीमती क्यों है?
५ हालाँकि हम बाइबल सच्चाई के लिए पैसे नहीं देते फिर भी यह बेशकीमती है। जब हम परमेश्वर का वचन पढ़ते हैं तो हम खुद उसके बारे में, उसके नाम, उसके व्यक्तित्व, उसके उद्देश्य के बारे में सीखते हैं। हम यह भी सीखते हैं कि वह इंसानों के साथ कैसा बर्ताव करता है। हम इस ज़िंदगी के कुछ बुनियादी सवालों का बेहतरीन जवाब पाते हैं, जैसे: हम यहाँ क्यों हैं? परमेश्वर ने दुःख को इज़ाज़त क्यों दे रखी है? भविष्य में क्या होगा? हम क्यों बूढ़े होते और मरते हैं? क्या मरने के बाद भी ज़िंदगी है? सबसे बढ़कर हम यह सीखते हैं कि हमारे लिए परमेश्वर की इच्छा क्या है, यानी कि हमें कैसी चाल चलनी चाहिए ताकि हम उसको पूरी तरह खुश कर सकें। हम सीखते हैं कि उसकी माँगें जायज़ हैं और जब हम उन्हें पूरा करते हैं तो हमें उनके फायदों को देखकर ताज्जुब होगा। परमेश्वर के सिखाए बिना हम कभी-भी यह समझ नहीं सकते थे।
६. बाइबल का सही-सही ज्ञान हमें किस रास्ते पर चलने के योग्य बनाता है?
६ बाइबल की सच्चाई बहुत ताकत रखती है और अपनी ज़िंदगी में परिवर्तन लाने के लिए हमारे दिल को उभार सकती है। (इब्रानियों ४:१२) बाइबल का ज्ञान पाने से पहले हम सिर्फ “इस संसार की रीति” के मुताबिक ही चल सकते थे। (इफिसियों २:२) लेकिन परमेश्वर के वचन से मिला सही-सही ज्ञान हमें मार्गदर्शन देता है जिससे ‘हमारा चाल-चलन प्रभु के योग्य बने, और हम सब प्रकार से उसे प्रसन्न करते रहें।’ (कुलुस्सियों १:१०) यहोवा के साथ चलने में अपने पहले कदम उठाना हमारे लिए कितने आनंद की बात है। उस परमेश्वर के साथ साथ चलने के लिए जो पूरे विश्वमंडल में सबसे प्रतापी और महान है!—लूका ११:२८.
दो ज़रूरी कदम—समर्पण और बपतिस्मा
७. जब हम परमेश्वर के वचन का अध्ययन करते हैं तब इंसानों की अगुवाई के बारे में कौन-सी हकीकत हमारे सामने आती है?
७ जब हमें बाइबल का और ज़्यादा ज्ञान मिलता है तब हम दुनिया के मामलों को और खुद अपने जीवन को बाइबल की नज़रों से जाँचने लगते हैं। और इस तरह हमें एक हकीकत का पता चलता है। इस हकीकत को बहुत समय पहले भविष्यवक्ता यिर्मयाह ने बताया था। उसने लिखा: “हे यहोवा, मैं जान गया हूं, कि मनुष्य का मार्ग उसके वश में नहीं है, मनुष्य चलता तो है, परन्तु उसके डग उसके अधीन नहीं हैं।” (यिर्मयाह १०:२३) दुनिया में हर इंसान को—हम सभी को—परमेश्वर के मार्गदर्शन की ज़रूरत है।
८. (क) परमेश्वर को समर्पण करने के लिए लोगों को क्या बात प्रेरित करती है? (ख) मसीही समर्पण क्या है?
८ जब हम इस अहम सच्चाई को समझ जाते हैं तब यह हमें यहोवा से मार्गदर्शन पाने के लिए प्रेरित करती है। और परमेश्वर के लिए हमारा प्रेम हमें उकसाता है कि हम अपनी ज़िंदगी परमेश्वर को समर्पित करें। परमेश्वर को समर्पण करने का मतलब है उससे प्रार्थना में यह वायदा करना कि अब से हम अपनी ज़िंदगी को उसकी सेवा करने और वफादारी से उसके मार्ग पर चलते रहने में इस्तेमाल करेंगे। ऐसा करने से हम यीशु के उदाहरण पर चलते हैं जिसने यहोवा की इच्छा पूरी करने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ खुद को उसके सामने पेश किया।—इब्रानियों १०:७.
९. लोग यहोवा को अपना जीवन क्यों समर्पित करते हैं?
९ यहोवा परमेश्वर समर्पण के लिए किसी भी इंसान के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करता, ना ही वह उन पर कोई दबाव डालता है। (२ कुरिन्थियों ९:७ से तुलना कीजिए।) इससे भी बढ़कर, परमेश्वर यह नहीं चाहता कि कोई इंसान जोश में आकर या भावना में बहकर उसे अपना समर्पण करे। बपतिस्मा लेने से पहले ही एक व्यक्ति को चेला होना चाहिए, और इसके लिए ज्ञान लेने के लिए कड़ी मेहनत करना बेहद ज़रूरी है। (मत्ती २८:१९, २०) और जिनका बपतिस्मा हो चुका था उनसे पौलुस ने मिन्नत की: “अपने शरीरों को जीवित, पवित्र, और परमेश्वर को स्वीकार्य बलिदान के रूप में चढ़ाओ, अर्थात् अपनी तर्क-शक्ति सहित पवित्र सेवा।” (रोमियों १२:१, NW) इसी तरह अपनी तर्क-शक्ति का इस्तेमाल करके हम परमेश्वर यहोवा को समर्पण करते हैं। इसमें क्या-क्या शामिल है यह सीखने और उन पर ध्यान से विचार करने के बाद हम स्वेच्छा से और पूरे आनंद के साथ परमेश्वर को अपना जीवन समर्पित करते हैं।—भजन ११०:३.
१०. समर्पण का बपतिस्मे से क्या संबंध है?
१० परमेश्वर से अकेले में यह प्रार्थना करने के बाद कि हम उसकी राह पर चलने का दृढ़ संकल्प करते हैं हम अगला कदम उठाते हैं। पानी में बपतिस्मा लेने से हम सभी लोगों को अपने समर्पण का सबूत देते हैं। यह लोगों के सामने इस बात का अंगीकार होता है कि हमने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की शपथ खायी है। यीशु ने पृथ्वी पर अपनी सेवा का काम शुरू करते वक्त यूहन्ना से बपतिस्मा लिया और इस तरह उसने हमारे लिए एक उदाहरण रखा। (मत्ती ३:१३-१७) बाद में यीशु ने अपने अनुयायियों को चेला बनाने और उन्हें बपतिस्मा देने का काम सौंपा। इसलिए जो कोई यहोवा के साथ-साथ चलने की इच्छा रखता है उसके लिए समर्पण और बपतिस्मा ज़रूरी कदम हैं।
११, १२. (क) बपतिस्मे की तुलना शादी के साथ कैसे की जा सकती है? (ख) यहोवा के साथ हमारे रिश्ते और एक पति-पत्नी के बीच रिश्ते में क्या समानता देखी जा सकती है?
११ यीशु मसीह के समर्पित और बपतिस्मा पाए हुए चेले बनना शादी करने की तरह है। कई देशों में शादी के दिन से पहले बहुत से कदम उठाए जाते हैं। एक लड़का लड़की आपस में मिलते हैं, जान-पहचान बढ़ती है, और एक-दूसरे को प्यार करने लगते हैं। उसके बाद सगाई होती है। शादी उस फैसले का सबके सामने इज़हार होता है जो अकेले में किया गया था, यानी शादी करना और उसके बाद ज़िंदगी भर पति-पत्नी बनकर साथ-साथ रहना। शादी इस खास रिश्ते की शुरुआत का सबके सामने इज़हार है। वह तारीख शादी-शुदा ज़िंदगी की शुरुआत होती है। इसी तरह बपतिस्मे से उस ज़िंदगी की शुरुआत होती है जो यहोवा के नाम की गई है और जिसमें एक इंसान यहोवा के साथ-साथ चलने के लिए समर्पित होता है।
१२ एक और समानता पर ध्यान दीजिए। शादी के दिन के बाद पति-पत्नी के बीच प्यार को और गहरा होना चाहिए और उसे और फलना-फूलना चाहिए। एक दूसरे के और ज़्यादा नज़दीक आने के लिए पति-पत्नी दोनों को अपना स्वार्थ छोड़कर शादी के रिश्ते को और ज़्यादा मज़बूत करने लिए मेहनत करनी चाहिए। हालाँकि हमारी परमेश्वर के साथ शादी तो नहीं होती, लेकिन बपतिस्मे के बाद हमें यहोवा के और नज़दीक आने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। जब हम उसकी मरज़ी पूरी करने की और उसके पास आने की कोशिश करते हैं तो वह देखता है और बहुत खुश होता है। शिष्य याकूब ने लिखा “परमेश्वर के निकट आओ, तो वह भी तुम्हारे निकट आएगा।”—याकूब ४:८.
यीशु के पद-चिन्हों पर चलना
१३. परमेश्वर के साथ-साथ चलने के लिए हमें किसके उदाहरण पर चलना चाहिए?
१३ यहोवा के साथ-साथ चलने के लिए हमें उस मिसाल पर पूरी तरह चलना चाहिए जो यीशु ने कायम की। प्रेरित पतरस ने लिखा: “तुम इसी के लिये बुलाए भी गए हो क्योंकि मसीह भी तुम्हारे लिये दुख उठाकर, तुम्हें एक आदर्श दे गया है, कि तुम भी उसके चिन्ह पर चलो।” (१ पतरस २:२१) यीशु सिद्ध था मगर हम असिद्ध हैं इसलिए ऐसा होना मुश्किल है कि उसके उदाहरण पर चलते हुए हमसे कोई भी गलती ना हो। फिर भी यहोवा चाहता है कि हमसे जितना हो सकता है हम पूरी मेहनत से उतना करें। आइए हम यीशु की ज़िंदगी और प्रचार के काम की पाँच खास बातों पर ध्यान दें जिन पर चलने के लिए समर्पित मसीहियों को पूरी कोशिश करनी चाहिए।
१४. परमेश्वर के वचन को जानने में क्या बात शामिल है?
१४ यीशु को परमेश्वर के वचन का एकदम सही और पूरा-पूरा ज्ञान था। अपने सेवा के काम में यीशु ने बार-बार इब्रानी शास्त्र से हवाले दिए। (लूका ४:४, ८) यह सही है कि उस वक्त के दुष्ट धर्मगुरुओं ने भी शास्त्र के हवाले दिए थे। (मत्ती २२:२३, २४) फर्क यह था कि यीशु को इस बात की समझ थी कि असल में शास्त्र क्या कह रहा है और उसने उसे अपनी ज़िंदगी में भी लागू किया। वह ना केवल व्यवस्था के नियमों को जानता था बल्कि उसके असली मकसद को जानता था और उसे इस व्यवस्था की अंदरूनी समझ थी। मसीह के उदाहरण पर चलते हुए, हमें भी परमेश्वर के वचन को समझने, उसके असली मकसद जानने या अंदरूनी समझ लेने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए। ऐसा करने से हम परमेश्वर के ग्रहणयोग्य सेवक ठहरेंगे जो ‘सत्य के वचन को ठीक रीति से काम में ला’ सकते हैं।—२ तीमुथियुस २:१५.
१५. यीशु ने परमेश्वर के बारे में बात करने में कैसे एक अच्छा उदाहरण रखा?
१५ मसीह यीशु ने अपने स्वर्गीय पिता के बारे में दूसरों को बताया। यीशु ने परमेश्वर के वचन का ज्ञान अपने तक ही नहीं रखा। उसके दुश्मनों ने भी उसे “हे गुरु” कहकर पुकारा, क्योंकि वह जहाँ कहीं जाता था वहाँ यहोवा और उसके उद्देश्यों के बारे में दूसरों को बताता था। (मत्ती १२:३८) यीशु ने मंदिर के आस-पास, आराधनालयों में, नगरों में, और गाँवों में सरेआम प्रचार किया। (मरकुस १:३९; लूका ८:१; यूहन्ना १८:२०) उसने सिखाते वक्त करुणा और भलाई दिखाई और जिन लोगों की वह मदद कर रहा था उनके साथ प्यार से व्यवहार किया। (मत्ती ४:२३) जो लोग यीशु के उदाहरण पर चलते हैं वे भी यहोवा परमेश्वर और उसके शानदार उद्देश्यों के बारे में सिखाने के अनेक मौके और तरीके निकाल लेते हैं।
१६. यहोवा की उपासना करनेवाले संगी उपासकों के साथ यीशु का कितना गहरा रिश्ता था?
१६ जो कोई यहोवा की उपासना करता था यीशु उसके साथ अपना एक गहरा रिश्ता महसूस करता था। जब एक बार यीशु भीड़ को सिखा रहा था, तब उसकी माँ और अविश्वासी भाई उससे बात करने वहाँ आए। बाइबल का वृत्तांत कहता है: “देख तेरी माता और तेरे भाई बाहर खड़े हैं, और तुझ से बातें करना चाहते हैं। यह सुन उस ने कहनेवाले को उत्तर दिया; कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई? और अपने चेलों की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा; देखो; मेरी माता और मेरे भाई ये हैं। क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई और बहिन और माता है।” (मत्ती १२:४७-५०) इसका मतलब यह नहीं है कि यीशु ने अपने परिवार से नाता तोड़ लिया था, क्योंकि बाद की घटनाएँ दिखाती हैं कि उसने ऐसा नहीं किया। (यूहन्ना १९:२५-२७) मगर, यह वृत्तांत उस प्रेम पर ज़ोर देता है जो यीशु को अपने संगी विश्वासियों के लिए था। उसी तरह आज भी, जो लोग परमेश्वर के साथ-साथ चलना चाहते हैं वे यहोवा के दूसरे सेवकों की दोस्ती चाहते हैं और दिल से उनसे प्रेम करने लगते हैं।—१ पतरस ४:८.
१७. अपने स्वर्गीय पिता की इच्छा पूरी करने के बारे में यीशु कैसा महसूस करता था और इसका असर हम पर कैसे होना चाहिए?
१७ परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के द्वारा, यीशु ने अपने स्वर्गीय पिता के लिए प्रेम दिखाया। यीशु ने सब बातों में यहोवा की आज्ञा मानी। उसने कहा: “मेरा भोजन यह है, कि अपने भेजनेवाले की इच्छा के अनुसार चलूं और उसका काम पूरा करूं।” (यूहन्ना ४:३४) मसीह ने यह भी कहा: “मैं सर्वदा वही काम करता हूं, जिस से [परमेश्वर] प्रसन्न होता है।” (यूहन्ना ८:२९) यीशु अपने स्वर्गीय पिता से इतना प्यार करता था कि उसने “अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली।” (फिलिप्पियों २:८) बदले में, यहोवा ने यीशु को आशीष दी और उसे अधिकार और सम्मान का ऐसा पद दिया जो सिर्फ यहोवा परमेश्वर के अधिकार से नीचे था, किसी और के नहीं। (फिलिप्पियों २:९-११) यीशु की तरह, हम परमेश्वर की आज्ञाएँ मानकर और उसकी इच्छा पूरी करने के द्वारा उसके लिए अपना प्रेम ज़ाहिर करते हैं।—१ यूहन्ना ५:३.
१८. यीशु ने प्रार्थना के मामले में कैसे एक अच्छा उदाहरण रखा?
१८ यीशु प्रार्थना में लगा रहनेवाला मनुष्य था। उसने अपने बपतिस्मे के वक्त प्रार्थना की। (लूका ३:२१) अपने १२ प्रेरितों को चुनने से पहले, उसने पूरी रात प्रार्थना करते हुए बितायी। (लूका ६:१२, १३) यीशु ने अपने चेलों को सिखाया कि प्रार्थना कैसे करें। (लूका ११:१-४) अपनी मृत्यु से पहले की रात को उसने अपने चेलों के लिए और चेलों के साथ प्रार्थना की। (यूहन्ना १७:१-२६) प्रार्थना यीशु के जीवन का एक अहम हिस्सा थी और क्योंकि हम उसके चेले हैं इसे हमारे जीवन का भी अहम हिस्सा होना चाहिए। सारी दुनिया के महाराजाधिराज से प्रार्थना में बात करना कितना बड़ा सम्मान है! यही नहीं, यहोवा प्रार्थनाओं का जवाब भी देता है, क्योंकि यूहन्ना ने लिखा: “हमें उसके साम्हने जो हियाव होता है, वह यह है; कि यदि हम उस की इच्छा के अनुसार कुछ मांगते हैं, तो वह हमारी सुनता है। और जब हम जानते हैं, कि जो कुछ हम मांगते हैं वह हमारी सुनता है, तो यह भी जानते हैं, कि जो कुछ हम ने उस से मांगा, वह पाया है।”—१ यूहन्ना ५:१४, १५.
१९. (क) यीशु के किन गुणों को हमें खुद में पैदा करना चाहिए? (ख) यीशु के जीवन और सेवकाई से हम किन तरीकों से लाभ पाते हैं?
१९ यीशु मसीह के पृथ्वी के जीवन और सेवकाई को ध्यान से जाँचने से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं! उसने जो गुण दिखाए उनके बारे में सोचिए: प्रेम, करुणा, दया, जोश, संतुलन, समझदारी, नम्रता, हिम्मत और निःस्वार्थता। हम यीशु के बारे में जितना ज़्यादा सीखते हैं, उतना ज़्यादा हममें उसके वफादार चेले बनने की इच्छा जागती है। यीशु का ज्ञान हमें यहोवा के और करीब ले आएगा। क्यों न हो, यीशु बिलकुल अपने स्वर्गीय पिता जैसा ही तो था। यहोवा के साथ उसका इतना नज़दीकी रिश्ता था कि वह यह कह सका: “जिस ने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है।”—यूहन्ना १४:९.
भरोसा रखिए, परमेश्वर आपको सँभालेगा
२०. हम यहोवा के साथ-साथ चलते वक्त कैसे आत्म-विश्वास हासिल कर सकते हैं?
२० जब बच्चे शुरू-शुरू में चलना सीखते हैं तो उनके कदम लड़खड़ाते हैं। वे आत्म-विश्वास के साथ चलना कैसे सीखते हैं? अभ्यास करते रहने और लगे रहने से ही ऐसा हो सकता है। यहोवा के साथ-साथ चलनेवाले कोशिश करते हैं कि वे आत्म-विश्वास के साथ बिना लड़खड़ाए चलते रहें। इसमें वक्त की और लगे रहने की ज़रूरत है। पौलुस ने परमेश्वर के साथ चलते रहने की अहमियत पर ज़ोर दिया जब उसने लिखा: “निदान, हे भाइयो, हम तुम से बिनती करते हैं, और तुम्हें प्रभु यीशु में समझाते हैं, कि जैसे तुम ने हम से योग्य चाल चलना, और परमेश्वर को प्रसन्न करना सीखा है, और जैसा तुम चलते भी हो, वैसे ही और भी बढ़ते जाओ।”—१ थिस्सलुनीकियों ४:१.
२१. यहोवा के साथ-साथ चलते हुए, हम किन आशीषों का आनंद उठाएँगे?
२१ अगर हम परमेश्वर को पूरी तरह समर्पित हैं, तो वह अपने साथ-साथ चलते रहने के लिए हमारी मदद करेगा। (यशायाह ४०:२९-३१) इस दुनिया के पास देने को ऐसा कुछ नहीं है जो उन आशीषों की रत्ती भर भी बराबरी कर सके जिन्हें परमेश्वर उसके मार्गो पर चलनेवाले लोगों को देता है। वही है ‘जो हमारे लाभ के लिये हमें शिक्षा देता है, और जिस मार्ग से हमें जाना है उसी मार्ग पर ले चलता है। और अगर हम उसकी आज्ञाओं को ध्यान से सुनें, तो हमारी शान्ति नदी के समान और हमारा धर्म समुद्र की लहरों के नाईं होगा।’ (यशायाह ४८:१७, १८) परमेश्वर के साथ-साथ चलने के बुलावे को स्वीकार करने से और वफादारी से उसके साथ-साथ चलने से, हम अनंतकाल तक उसके साथ शांति का आनंद उठाएँगे।
आप कैसे जवाब देंगे?
◻ सच्चे परमेश्वर के साथ-साथ चलना सम्मान की बात क्यों है?
◻ अध्ययन, समर्पण और बपतिस्मा यहोवा के साथ-साथ चलने में पहले कदम क्यों हैं?
◻ हम यीशु के पदचिन्हों पर कैसे चल सकते हैं?
◻ हम कैसे जानते हैं कि यहोवा साथ-साथ चलते वक्त हमें सँभालेगा?
[पेज 13 पर तसवीर]
अध्ययन, समर्पण और बपतिस्मा परमेश्वर के साथ-साथ चलने के लिए पहले कदम हैं