हमारे बच्चे—एक अनमोल विरासत
“देखो, लड़के यहोवा के दिए हुए भाग [“विरासत,” NW] हैं, गर्भ का फल उसकी ओर से प्रतिफल है।”—भजन 127:3.
1. इंसान के पहले बच्चे का जन्म कैसे हुआ?
यहोवा परमेश्वर ने जिस तरीके से पहले पुरुष और पहली स्त्री की रचना की, गौर कीजिए कि उससे कैसे-कैसे हैरतअँगेज़ काम मुमकिन हुए। पिता आदम और माँ हव्वा के अंश मिले और एक कोशिका बनी जो हव्वा की कोख में बढ़ती गयी और एक नए इंसान का रूप लिया। यही थी इंसान की पहली संतान। (उत्पत्ति 4:1) जीवन का गर्भ में शुरू होना और एक बच्चे का जन्म लेना, आज भी इंसान के लिए एक हैरतअँगेज़ घटना है और कई लोग इसे सचमुच एक चमत्कार मानते हैं।
2. आप क्यों कहते हैं कि एक गर्भवती स्त्री के गर्भ में जो होता है, वह एक चमत्कार है?
2 माँ और पिता के संगम से, माँ के गर्भ में जो पहली कोशिका बनती है वह लगभग 270 दिन बढ़ने के बाद एक शिशु का आकार लेती है जिसका शरीर खरबों कोशिकाओं से बना होता है। उस पहली कोशिका के अंदर, 200 अलग-अलग किस्म की कोशिकाएँ तैयार करने की हिदायतें लिखी होती हैं। ये लाजवाब हिदायतें इंसान की समझ से परे हैं, मगर इन हिदायतों को मानते हुए ये जटिल कोशिकाएँ बिलकुल सही क्रम से बढ़ती चली जाती हैं और एक नया इंसान वजूद में आता है!
3. सूझ-बूझ रखनेवाले बहुत-से लोग क्यों इस बात को मानते हैं कि परमेश्वर एक जीते-जागते, नए इंसान को वजूद में लाने के लिए ज़िम्मेदार है?
3 आपके हिसाब से असल में इस शिशु का बनानेवाला कौन है? बेशक, वही जिसने सबसे पहले ज़िंदगी की शुरूआत की। बाइबल के भजनहार ने यह गीत गाया: “निश्चय जानो, कि यहोवा ही परमेश्वर है! उसी ने हम को बनाया, न कि हम अपने को।” (भजन 100:3, फुटनोट) माता-पिताओ, आप बखूबी जानते हैं कि इस बेशकीमती, हँसती-खेलती नन्ही-सी जान को पैदा करने में आपकी काबिलीयत या हुनर का कोई हाथ नहीं है। सिर्फ अगम बुद्धि का मालिक परमेश्वर ही इस चमत्कार के लिए ज़िम्मेदार है, जिसमें एक जीते-जागते, नए इंसान की रचना होती है। हज़ारों सालों से, सूझ-बूझ रखनेवालों ने माँ के गर्भ में शिशु के रचे जाने का श्रेय, महान सिरजनहार को दिया है। क्या आप भी देते हैं?—भजन 139:13-16.
4. इंसान में ऐसी क्या खामी है जो यहोवा में कभी नहीं हो सकती?
4 मगर, क्या यहोवा ऐसा पत्थर-दिल सिरजनहार है जिसने स्त्री-पुरुष के शरीर को इस काबिल बनाया कि वे संतान पैदा कर सकें और फिर उन्हें छोड़ दिया? कुछ इंसान पत्थर-दिल होते हैं, मगर यहोवा ऐसा बिलकुल नहीं है। (भजन 78:38-40) बाइबल, भजन 127:3 में कहती है: “देखो, लड़के [और लड़कियाँ भी] यहोवा के दिए हुए भाग [“विरासत,” NW] हैं, गर्भ का फल उसकी ओर से प्रतिफल है।” आइए इस बात पर गौर करें कि एक विरासत क्या होती है और यह किस बात का सबूत है।
एक विरासत और प्रतिफल
5. बच्चे एक विरासत क्यों हैं?
5 विरासत, एक तोहफा होती है। माता-पिता अकसर ज़िंदगी-भर कड़ी मेहनत करते हैं ताकि अपने पीछे बच्चों के लिए विरासत छोड़ जाएँ। यह विरासत पैसा, जायदाद या कोई बेशकीमती चीज़ हो सकती है। विरासत में चाहे जो भी दिया जाए, वह बच्चों के लिए माता-पिता के प्यार का सबूत होता है। बाइबल कहती है कि परमेश्वर ने माता-पिता को उनके बच्चे विरासत में दिए हैं। ये बच्चे उसकी तरफ से एक प्यार-भरा तोहफा हैं। अगर आप माता-पिता हैं, तो क्या आपके व्यवहार से ज़ाहिर होता है कि आप अपने बच्चों को इस विश्व के सिरजनहार की तरफ से मिला तोहफा मानते हैं?
6. इंसान को बच्चे पैदा करने की शक्ति देने में परमेश्वर का क्या उद्देश्य था?
6 यहोवा ने इंसान को यह तोहफा इसलिए दिया ताकि पृथ्वी आदम और हव्वा की संतानों से आबाद हो जाए। (उत्पत्ति 1:27, 28; यशायाह 45:18) यहोवा ने एक-एक करके करोड़ों स्वर्गदूत बनाए थे, मगर उसने इंसान को इस तरह नहीं बनाया। (भजन 104:4; प्रकाशितवाक्य 4:11) इसके बजाय, परमेश्वर ने इंसान को संतान पैदा करने की शक्ति दी, जो कई बातों में अपने माता-पिता जैसी होती। वाकई माता-पिता को एक नए इंसान को इस दुनिया में लाने और उसकी देखभाल करने का अनोखा मौका मिलता है! माता-पिता होने के नाते, क्या आप यहोवा का एहसान मानते हैं कि उसने आपके लिए ऐसी अनमोल विरासत पाना मुमकिन किया?
यीशु की मिसाल से सीखिए
7. कुछ माँ-बाप जो करते हैं उससे बिलकुल अलग, यीशु ने कैसे “मनुष्यों” में दिलचस्पी ली और उनके लिए सच्चा प्यार दिखाया?
7 दुःख की बात है कि सभी माता-पिता, बच्चों को एक प्रतिफल या इनाम नहीं समझते। बहुत-से माँ-बाप को तो अपने बच्चों से ज़रा भी लगाव नहीं होता। ऐसे माता-पिता यहोवा या उसके बेटे जैसा रवैया नहीं दिखाते। (भजन 27:10; यशायाह 49:15) गौर कीजिए यीशु बच्चों में किस कदर दिलचस्पी लेता था जो दिखाता है कि वह ऐसे माँ-बाप से बिलकुल अलग था। इंसान बनकर इस धरती पर आने से पहले, जब वह स्वर्ग में एक शक्तिशाली आत्मिक प्राणी था, बाइबल कहती है कि तब से ही उसका “सुख मनुष्यों . . . से होता था।” (नीतिवचन 8:31) इंसानों के लिए उसका प्यार इतना गहरा था कि उसने अपनी मरज़ी से छुड़ौती के रूप में अपनी जान दे दी ताकि हमें हमेशा की ज़िंदगी मिले।—मत्ती 20:28; यूहन्ना 10:18.
8. यीशु ने माता-पिता के लिए कैसे एक उम्दा मिसाल रखी?
8 जब यीशु धरती पर था, तब उसने माता-पिता के लिए खास तौर पर एक उम्दा मिसाल रखी। गौर कीजिए उसने क्या किया। उसने बच्चों के लिए तब भी वक्त निकाला जब वह बहुत-से कामों में उलझा हुआ था और तनाव से गुज़र रहा था। वह बाज़ारों में उन्हें खेलता हुआ देखता और उनके स्वभाव की कुछ बातें उसने अपनी शिक्षाओं में भी इस्तेमाल कीं। (मत्ती 11:16, 17) यीशु जब आखिरी बार यरूशलेम जा रहा था, तो उस वक्त वह जानता था कि उसे सताया जाएगा और आखिर में मार डाला जाएगा। इसलिए जब लोग अपने नन्हे-मुन्नों को यीशु के पास लाने लगे, तो उसके चेलों ने यह सोचकर उन्हें लौटाना चाहा कि इससे यीशु का तनाव और बढ़ेगा। मगर यीशु ने अपने चेलों को ऐसा करने के लिए डाँटा। यीशु ने कहा: “बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो।” (मरकुस 10:13, 14) यह दिखाता है कि उसे इन नन्हे-मुन्नों से “सुख” मिलता है।
9. क्यों हमारे काम हमारे शब्दों से ज़्यादा अहमियत रखते हैं?
9 हम यीशु की मिसाल से कुछ सीख सकते हैं। हम चाहे ढेरों कामों में उलझे हुए हों, जब बच्चे हमारे पास आते हैं, तब हम उनके साथ कैसे पेश आते हैं? यीशु की तरह? बच्चों को खासकर अपने माता-पिता से जो चाहिए, वही सब यीशु उन्हें देने को तैयार था, यानी अपना समय और ध्यान। बेशक, अपने बच्चों से यह कहना कि “तुम मेरे प्यारे बच्चे हो” ज़रूरी है। मगर, करनी कथनी से ताकतवर होती है। आपका प्यार आपके शब्दों से ज़्यादा आपके कामों से ज़ाहिर होता है। आप अपने नन्हे-मुन्नों को जितना वक्त देते हैं, और जिस तरह उन पर ध्यान देते और उनकी देखभाल करते हैं, उससे आपका प्यार ज़ाहिर होता है। मगर इतना सब करने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि कुछ अच्छा नतीजा निकलता हुआ नज़र आए, कम-से-कम उतनी जल्दी नहीं जितनी जल्दी की आपने उम्मीद की थी। आपको सब्र रखने की ज़रूरत है। हम सब्र रखना सीख सकते हैं अगर हम भी उसी तरह पेश आएँ जिस तरह यीशु अपने चेलों के साथ पेश आया था।
यीशु का सब्र और स्नेह
10. यीशु ने अपने चेलों को नम्रता का सबक कैसे सिखाया, और क्या पहली बार में उसे कामयाबी मिली?
10 यीशु जानता था कि उसके चेलों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ लगी हुई थी। एक दिन, अपने चेलों के साथ कफरनहूम पहुँचने के बाद उसने उनसे पूछा: “रास्ते में तुम किस बात पर विवाद करते थे? वे चुप रहे, क्योंकि मार्ग में उन्हों ने आपस में यह वाद-विवाद किया था, कि हम में से बड़ा कौन है?” यीशु ने कठोरता से उन्हें फटकारने के बजाय, बड़े सब्र के साथ उन्हें एक बच्चे की मिसाल दी ताकि उन्हें नम्रता का सबक सिखा सके। (मरकुस 9:33-37) क्या इससे यीशु को मनचाहा नतीजा मिला? फौरन तो नहीं। इस वाकये के लगभग छः महीने बाद, याकूब और यूहन्ना ने अपनी माँ को यीशु के पास भेजा ताकि वह उससे उन्हें अपने राज्य में बड़े पदों पर बिठाने की बिनती करे। एक बार फिर, यीशु ने उनकी सोच को सुधारा।—मत्ती 20:20-28.
11. (क) यीशु के साथ ऊपर के कमरे में आने पर उसके प्रेरित दस्तूर के मुताबिक कौन-सा काम करने से चूक गए? (ख) यीशु ने क्या किया और क्या उसकी ये कोशिशें उस वक्त कामयाब हुईं?
11 बहुत जल्द सा.यु. 33 का फसह का पर्व आया और यीशु सिर्फ अपने चेलों के संग इसे मनाने के लिए उनके साथ इकट्ठा हुआ। ऊपर के कमरे में आने पर, 12 प्रेरितों में से किसी ने भी दस्तूर के मुताबिक दूसरों के पैर नहीं धोए। इस्राएल में अकसर मेहमानों के मिट्टी से सने पैरों को घर का नौकर या कोई स्त्री धोया करती थी। (1 शमूएल 25:41; 1 तीमुथियुस 5:10) यीशु को यह देखकर कितना दुःख हुआ होगा कि उसके चेले अब भी बड़े ओहदे या पद के पीछे भाग रहे हैं! इसलिए यीशु ने खुद हर प्रेरित के पैर धोए और फिर उनसे दिल से गुज़ारिश की कि दूसरों की सेवा करने में वे उसकी मिसाल पर चलें। (यूहन्ना 13:4-17) क्या वे चले? बाइबल कहती है कि बाद में उसी शाम को “उन में यह बाद-विवाद भी हुआ; कि हम में से कौन बड़ा समझा जाता है?”—लूका 22:24.
12. माता-पिता अपने बच्चों को तालीम देने की कोशिशों में कैसे यीशु जैसे बन सकते हैं?
12 माता-पिताओ, जब आपके बच्चे आपका कहना नहीं मानते, तब क्या आप महसूस कर सकते हैं कि यीशु को अपने चेलों की कमियों के बारे में कैसा लगा होगा? गौर कीजिए कि यीशु ने अपने चेलों की मदद करना नहीं छोड़ा, हालाँकि वे अपनी कमियों को सुधारने में काफी ढीले थे। उसके सब्र का आखिरकार अच्छा नतीजा निकला। (1 यूहन्ना 3:14, 18) माता-पिताओ, आपको यीशु जैसा प्रेम और सब्र दिखाना चाहिए और अपने बच्चों को तालीम देने की कोशिश में कभी हार नहीं माननी चाहिए।
13. माता/पिता को अपने बच्चों के सवाल रुखाई से क्यों नहीं टालने चाहिए?
13 बच्चों को यह एहसास कराना ज़रूरी है कि उनके माता-पिता उनसे प्यार करते हैं और उनमें दिलचस्पी लेते हैं। यीशु जानना चाहता था कि उसके चेले क्या सोच रहे हैं, इसलिए जब वे सवाल पूछते थे तो यीशु उनकी बात ध्यान से सुनता था। यहाँ तक कि उसने कुछ मामलों में उनकी राय भी पूछी। (मत्ती 17:25-27) जी हाँ, अच्छी तरह सिखाने में ध्यान से सुनना और सच्ची दिलचस्पी लेना भी शामिल है। जब बच्चा कुछ पूछता है, तो शायद माता/पिता का मन करे कि उसे टाल दे या रुखाई से कहे, “जाओ यहाँ से! देखते नहीं मैं काम कर रहा/ही हूँ?” मगर उसे इस भावना को ज़ब्त करना चाहिए। अगर माता/पिता सचमुच व्यस्त है, तो बच्चे को बताना ज़रूरी है कि इस बारे में मैं बाद में बात करूँगा/गी। और फिर वह इस बात का ध्यान रखेगा/गी कि बच्चे से इस मामले पर बात ज़रूर करे। इस तरीके से, बच्चे को यह एहसास होगा कि माता/पिता को उसमें सच्ची दिलचस्पी है और फिर वह आगे भी अपने दिल की बात उनसे ज़्यादा आसानी से कह सकेगा।
14. अपने बच्चों को प्यार और ममता दिखाने के बारे में, माता-पिता यीशु से क्या सीख सकते हैं?
14 क्या यह सही होगा कि माता-पिता बच्चों को अपनी बाँहों में भरकर और गले लगाकर अपना प्यार दिखाएँ? इस मामले में भी माता-पिता यीशु से सीख सकते हैं। बाइबल कहती है कि उसने “उन्हें गोद में लिया, और उन पर हाथ रखकर उन्हें आशीष दी।” (मरकुस 10:16) आपके हिसाब से बच्चों ने ऐसा प्यार पाकर क्या किया होगा? बेशक उनके दिल भी प्यार से भर उठे होंगे और वे यीशु की ओर खिंचे चले आए होंगे! अगर आपमें अपने बच्चों के लिए सच्ची ममता और प्यार है, तो जब आप बच्चों को ताड़ना देने या सिखाने की कोशिश करेंगे तब वे आपकी बात ज़्यादा अच्छी तरह सुनेंगे।
बच्चों को कितना समय देने का मसला
15, 16. बच्चों की परवरिश के मामले में कौन-सी धारणा बहुत मशहूर रही है, और किस बात ने इस धारणा को जन्म दिया?
15 कुछ लोग यह नहीं मानते कि बच्चों को अपने माता-पिता से ज़्यादा-से-ज़्यादा वक्त और ध्यान मिलना चाहिए। बच्चों की परवरिश के मामले में एक धारणा को बड़ी होशियारी से बढ़ावा दिया गया है, वह है उम्दा समय। इस धारणा के हिमायती दावा करते हैं कि बच्चों को माता-पिता का बहुत ज़्यादा वक्त नहीं चाहिए। मगर हाँ, बच्चों के साथ जो थोड़ा-सा समय बिताया जाए उससे उन्हें फायदा होना चाहिए, उस समय का बहुत सोच-समझकर और तैयारी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उम्दा समय की यह धारणा क्या सही है और बच्चों की भलाई को ध्यान में रखकर बनायी गयी है?
16 एक लेखक जिसने कई बच्चों से बात की थी, उससे बच्चों ने कहा कि “हम सबसे बढ़कर चाहते हैं कि मम्मी-डैडी हमारे साथ ज़्यादा वक्त बिताएँ,” और “हम पर पूरा-पूरा ध्यान दें।” गौर कीजिए कि कॉलेज के एक प्रोफेसर ने कहा: “[उम्दा समय की] यह धारणा दरअसल ऐसे माता-पिताओं के लिए पैदा की गयी है, जो बच्चों को कम समय देने के कसूरवार हैं। लोग अपने बच्चों के साथ कम वक्त बिताने को सही ठहराना चाहते थे।” तो फिर माता-पिता को अपने बच्चों के साथ कितना समय बिताना चाहिए?
17. बच्चों को अपने माता-पिता से किस चीज़ की खास ज़रूरत होती है?
17 बाइबल इस बारे में कुछ नहीं कहती। मगर, इस्राएली माता-पिता को उकसाया गया था कि वे अपने बच्चों के साथ घर के अंदर, राह चलते, बैठते, लेटते-उठते हर वक्त बात करें। (व्यवस्थाविवरण 6:7) इसका साफ-साफ मतलब यही है कि माता-पिताओं को अपने बच्चों के साथ ज़्यादा-से-ज़्यादा वक्त गुज़ारना चाहिए और उन्हें हर दिन सिखाते रहना चाहिए।
18. यीशु ने अपने चेलों को तालीम देने के मौकों का कैसे फायदा उठाया, और माता-पिता इससे क्या सीख सकते हैं?
18 यीशु ने अपने चेलों के साथ खाना खाते, सफर करते, यहाँ तक कि आराम करते वक्त भी उन्हें तालीम दी जिसके अच्छे नतीजे निकले। उसने चेलों को सिखाने के हर मौके का बढ़िया तरीके से इस्तेमाल किया। (मरकुस 6:31, 32; लूका 8:1; 22:14) उसी तरह, मसीही माता-पिता को चौकन्ना रहना चाहिए ताकि हर मौके का फायदा उठाकर वे अपने बच्चों के साथ अच्छी बातचीत करें और ऐसा लगातार करते रहें और उन्हें यहोवा के मार्गों पर चलने की तालीम दें।
क्या और कैसे सिखाएँ
19. (क) बच्चों के साथ वक्त बिताने के अलावा और किस चीज़ की ज़रूरत है? (ख) माता-पिता को बच्चों को सबसे पहले क्या सिखाना चाहिए?
19 बच्चों की अच्छी परवरिश करने के लिए उनके साथ वक्त बिताना और उन्हें कुछ-न-कुछ सिखाते रहना ही काफी नहीं है। इस बात का भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि आप उन्हें क्या सिखाते हैं। गौर कीजिए, बाइबल कैसे ज़ोर देकर बताती है कि क्या-क्या सिखाया जाना चाहिए। यह कहती है: “ये आज्ञाएं जो मैं आज तुझ को सुनाता हूं . . . तू इन्हें अपने बालबच्चों को समझाकर सिखाया करना।” ये “आज्ञाएं” क्या हैं जो बच्चों को सिखाना ज़रूरी है? ज़ाहिर है कि ये वही आज्ञाएँ थीं जिनका ज़िक्र अभी-अभी किया गया था, जैसे: “तू अपने परमेश्वर यहोवा से अपने सारे मन, और सारे जीव, और सारी शक्ति के साथ प्रेम रखना।” (व्यवस्थाविवरण 6:5-7) यीशु ने कहा कि परमेश्वर की सभी आज्ञाओं में सबसे बड़ी यही थी। (मरकुस 12:28-30) माता-पिता को सबसे पहले बच्चों को यहोवा के बारे में सिखाना चाहिए कि क्यों सिर्फ उसी से हमें तन-मन से प्यार करना चाहिए और भक्ति देनी चाहिए और क्यों वही इसका हकदार है।
20. परमेश्वर ने सदियों पहले माता-पिताओं को अपने बच्चों को क्या सिखाने की आज्ञा दी थी?
20 लेकिन, “ये आज्ञाएं” जिन्हें अपने बच्चों को सिखाने की गुज़ारिश माता-पिता से की गयी है, सिर्फ तन-मन से परमेश्वर से प्रेम करने के बारे में नहीं हैं। आपने गौर किया होगा, व्यवस्थाविवरण के पिछले अध्याय में मूसा दस आज्ञाओं को दोहराता है, जिन्हें परमेश्वर ने पत्थर की पटियाओं पर लिखकर उसे दिया था। इन आज्ञाओं में ये कानून शामिल थे कि झूठ न बोलें, चोरी, हत्या और व्यभिचार न करें। (व्यवस्थाविवरण 5:11-22) इन कानूनों से, उस वक्त के माता-पिताओं को यह बात अच्छी तरह समझायी गयी थी कि वे अपने बच्चों को सही-गलत की तालीम दें। आज के मसीही माता-पिताओं को भी अपने बच्चों को इसी तरह की हिदायतें देनी होंगी, ताकि वे अपने बच्चों को अपना आनेवाला कल सँवारने और उसमें खुशियाँ पाने में मदद करें।
21. इस हिदायत का मतलब क्या था कि माता-पिता अपने बच्चों को परमेश्वर की आज्ञाएँ ‘समझाकर सिखाएं’?
21 गौर कीजिए कि माता-पिता को बताया गया था कि “ये आज्ञाएं” या कानून अपने बच्चों को कैसे सिखाने हैं: “तू इन्हें अपने बालबच्चों को समझाकर सिखाया करना।” ‘समझाकर सिखाने’ का मतलब है “बार-बार दोहराने या फटकारने से सिखाना और दिल पर छाप बिठाना: बार-बार बोलकर मन में बिठा देना।” तो, परमेश्वर दरअसल माता-पिताओं से कह रहा है कि बच्चों को बाइबल सिखाने का एक कार्यक्रम तैयार करें जिसका खास मकसद होना चाहिए, बच्चों के मन पर आध्यात्मिक बातों की छाप छोड़ना।
22. इस्राएली माता-पिता को अपने बच्चों को सिखाने के लिए क्या करने को कहा गया था, और इसका क्या मतलब था?
22 बच्चों को इस तरह बाकायदा सिखाने के लिए ज़रूरी है कि माता-पिता मेहनत करें और पक्का इरादा रखें। बाइबल कहती है: “इन्हें [परमेश्वर की ‘इन आज्ञाओं को’] अपने हाथ पर चिन्हानी करके बान्धना, और ये तेरी आंखों के बीच टीके का काम दें। और इन्हें अपने अपने घर के चौखट की बाजुओं और अपने फाटकों पर लिखना।” (व्यवस्थाविवरण 6:8, 9) इसका यह मतलब नहीं कि माता-पिता को सचमुच परमेश्वर के कानून अपने घर की चौखट और फाटकों पर लिखने हैं। इनकी एक नकल अपने बच्चों के हाथों पर बाँधनी है और दूसरी आँखों के बीच टीके की तरह लगानी है। इसके बजाय, इस आयत का मतलब यह है कि माता-पिता अपने बच्चों को हर घड़ी परमेश्वर की शिक्षाएँ याद दिलाते रहें। बच्चों को इस तरह की शिक्षा, इस हद तक लगातार और बार-बार देते रहें मानो परमेश्वर की शिक्षाएँ हर पल बच्चों के सामने रहती हैं।
23. अगले हफ्ते के लेख में क्या चर्चा की जाएगी?
23 ऐसी कौन-सी अहम बातें हैं जो माता-पिता को अपने बच्चों को सिखानी चाहिए? यह क्यों बेहद ज़रूरी है कि बच्चों को अपनी रक्षा खुद करनी सिखायी जाए और इसकी तालीम दी जाए? माता-पिता अपने बच्चों को असरदार तरीके से सिखा सकें इसके लिए अब उनके पास कैसी मदद मौजूद है? माता-पिता को चिंता में डालनेवाले ऐसे और इनके जैसे दूसरे सवालों पर हम अगले लेख में चर्चा करेंगे।
आप कैसे जवाब देंगे?
• माता-पिता को अपने बच्चे बेशकीमती क्यों मानने चाहिए?
• माता-पिता और दूसरे लोग यीशु से क्या सीख सकते हैं?
• माता-पिता को अपने बच्चों को कितना समय देना चाहिए?
• बच्चों को क्या सिखाया जाना चाहिए, और कैसे?
[पेज 10 पर तसवीर]
माता-पिता, यीशु के सिखाने के तरीके से क्या सीख सकते हैं?
[पेज 11 पर तसवीरें]
इस्राएली माता-पिता को अपने बच्चों को कब और कैसे सिखाने की आज्ञा दी गयी थी?
[पेज 12 पर तसवीरें]
माता-पिता को परमेश्वर की शिक्षाएँ अपने बच्चों के सामने रखनी चाहिए