यहोवा हमारे हर दिन की ज़रूरतें पूरी करता है
‘तुम सन्देह न करो। क्योंकि तुम्हारा पिता जानता है, कि तुम्हें इन वस्तुओं की आवश्यकता है।’—लूका 12:29, 30.
1. यहोवा जानवरों के पालन-पोषण का इंतज़ाम कैसे करता है?
क्या आपने कभी किसी गौरैया या और पक्षी को यूँ ही मिट्टी में चोंच मारते देखा है? उसे देखकर शायद आपने सोचा होगा, सिर्फ मिट्टी में चोंच मारने से इस पंछी को खाने के लिए क्या मिलेगा। यीशु ने अपने पहाड़ी उपदेश में सिखाया कि यहोवा जिस तरह पक्षियों को खिलाता है उससे हम एक सबक सीख सकते हैं। उसने कहा: “आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; तौभी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन को खिलाता है; क्या तुम उन से अधिक मूल्य नहीं रखते”? (मत्ती 6:26) यहोवा बड़े अद्भुत तरीकों से अपने बनाए हुए सभी प्राणियों को आहार देता है।—भजन 104:14, 21; 147:9.
2, 3. हम इस बात से कौन-से आध्यात्मिक सबक सीख सकते हैं कि यीशु ने हमें अपनी दिन भर की रोटी के लिए प्रार्थना करना सिखाया?
2 तो फिर, यीशु ने अपनी आदर्श प्रार्थना में यह बिनती क्यों शामिल की: “हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे”? (मत्ती 6:11) इस सीधी-सी गुज़ारिश से गहरे आध्यात्मिक सबक सीखे जा सकते हैं। पहला, यह हमें याद दिलाती है कि यहोवा महान अन्नदाता है। (भजन 145:15, 16) इंसान तो सिर्फ बीज बोकर उसकी देखभाल कर सकता है, मगर परमेश्वर ही है जो उसे बढ़ाता है, फिर चाहे वह आध्यात्मिक फसल हो या खेत की। (1 कुरिन्थियों 3:7) हम जो खाते-पीते हैं वह सब परमेश्वर का वरदान है। (प्रेरितों 14:17) जब हम उससे अपनी हर दिन की ज़रूरतें पूरी करने के लिए बिनती करते हैं तो हम दिखाते हैं कि उससे मिलनेवाली हर चीज़ के लिए हम उसके एहसानमंद हैं और उन्हें तुच्छ नहीं समझते। बेशक, ऐसी बिनती करने का मतलब यह नहीं कि हम हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहें जबकि हमारे पास काम करने की ताकत है।—इफिसियों 4:28; 2 थिस्सलुनीकियों 3:10.
3 दूसरा, “दिन भर की रोटी” माँगने का मतलब है कि हमें भविष्य के बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। यीशु ने आगे कहा: “तुम चिन्ता करके यह न कहना, कि हम क्या खाएंगे, या क्या पीएंगे, या क्या पहिनेंगे? क्योंकि अन्यजाति इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, और तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएं चाहिए। इसलिये पहिले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी। सो कल के लिये चिन्ता न करो, क्योंकि कल का दिन अपनी चिन्ता आप कर लेगा।” (मत्ती 6:31-34) “दिन भर की रोटी” के लिए प्रार्थना करने से हम यह सीखते हैं कि हमें “सन्तोष सहित भक्ति” के साथ सादगी भरा जीवन बिताना चाहिए।—1 तीमुथियुस 6:6-8.
हर दिन का आध्यात्मिक भोजन
4. यीशु और इस्राएलियों की ज़िंदगी की कौन-सी घटनाएँ आध्यात्मिक भोजन लेते रहने की अहमियत पर ज़ोर देती हैं?
4 हर दिन की रोटी के लिए हमारी प्रार्थना से हमें यह भी याद आना चाहिए कि हमें हर दिन आध्यात्मिक भोजन की ज़रूरत है। कई दिनों के उपवास के बाद यीशु बहुत भूखा था, मगर जब शैतान ने उसे पत्थरों को रोटी बनाने के लिए लुभाया तब उसने इनकार करते हुए कहा: “लिखा है कि मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है जीवित रहेगा।” (मत्ती 4:4) यीशु ने यहाँ भविष्यवक्ता मूसा का हवाला दिया, जिसने इस्राएलियों से कहा था: “[यहोवा] ने तुझ को नम्र बनाया, और भूखा भी होने दिया, फिर वह मन्ना, जिसे न तू और न तेरे पुरखा ही जानते थे, वही तुझ को खिलाया; इसलिये कि वह तुझ को सिखाए कि मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीवित रहता, परन्तु जो जो वचन यहोवा के मुंह से निकलते हैं उन ही से वह जीवित रहता है।” (व्यवस्थाविवरण 8:3) यहोवा जिस तरह इस्राएलियों को मन्ना देता था, उससे उन्हें न सिर्फ शरीर के लिए भोजन मिलता था बल्कि आध्यात्मिक सबक सीखने को भी मिलते थे। एक सबक यह था कि उन्हें सिर्फ “प्रतिदिन का भोजन इकट्ठा” करना था। अगर वे एक दिन के लिए जितना ज़रूरी था उससे ज़्यादा मन्ना इकट्ठा करते, तो बचे हुए मन्ना से बदबू आने लगती और उसमें कीड़े पड़ जाते थे। (निर्गमन 16:4, 20) मगर, ऐसा छठे दिन नहीं होता था जब उन्हें सब्त के लिए बाकी दिनों से दुगना मन्ना इकट्ठा करना होता था। (निर्गमन 16:5, 23, 24) तो फिर, मन्ना के इंतज़ाम ने उनके मन में यह बात बिठा दी कि उन्हें परमेश्वर का आज्ञाकारी होना है और यह कि उनकी ज़िंदगी का दारोमदार केवल रोटी पर नहीं बल्कि “जो जो वचन यहोवा के मुंह से निकलते हैं” उस पर है।
5. यहोवा हमें हर दिन का आध्यात्मिक भोजन कैसे देता है?
5 उसी तरह हमें भी यहोवा से मिलनेवाला आध्यात्मिक भोजन हर दिन लेना चाहिए जो वह अपने बेटे के ज़रिए मुहैया कराता है। इसके लिए, यीशु ने विश्वास के घराने को “समय पर भोजन” देने के लिए “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” को ठहराया है। (मत्ती 24:45) यह विश्वासयोग्य दास वर्ग हमें बाइबल का अध्ययन करने में मदद देनेवाली किताबों-पत्रिकाओं के ज़रिए न सिर्फ भरपूर आध्यात्मिक भोजन देता है, बल्कि हमें हर दिन बाइबल की पढ़ाई करने के लिए भी उकसाता है। (यहोशू 1:8; भजन 1:1-3) यीशु की तरह, अगर हम भी हर दिन यहोवा की इच्छा जानने और उसे पूरा करने के लिए कड़ी मेहनत करेंगे, तो हम आध्यात्मिक रूप से तरो-ताज़ा बने रहेंगे।—यूहन्ना 4:34.
पापों की माफी
6. हमें किस कर्ज़ के लिए माफी माँगने की ज़रूरत है और यहोवा किन शर्तों पर यह कर्ज़ माफ करने के लिए तैयार है?
6 आदर्श प्रार्थना में अगली बिनती यह है: “जिस तरह हम ने अपने क़र्ज़दारों को मुआफ़ किया है तू भी हमारे क़र्ज़ मुआफ़ कर।” (मत्ती 6:12, हिन्दुस्तानी बाइबल) यीशु यहाँ रुपए-पैसे के कर्ज़ की बात नहीं कर रहा था। वह हमारे पापों की माफी के बारे में बोल रहा था। लूका ने आदर्श प्रार्थना की इस गुज़ारिश को यूँ लिखा: “हमारे गुनाह मुआफ़ कर क्योंकि हम भी अपने हर क़र्ज़दार को मुआफ़ करते हैं।” (लूका 11:4, हिन्दुस्तानी बाइबल) इसलिए, हम कह सकते हैं कि जब हम पाप करते हैं तो मानो यहोवा के कर्ज़दार हो जाते हैं। लेकिन, अगर हम सच्चे दिल से पश्चाताप करें, उसके पास ‘लौट आएं’ और मसीह के छुड़ौती बलिदान पर विश्वास रखकर उससे माफी माँगें, तो प्यार करनेवाला हमारा परमेश्वर, उस कर्ज़ को ‘मिटाने’ या माफ करने के लिए तैयार होता है।—प्रेरितों 3:19; 10:43; 1 तीमुथियुस 2:5, 6.
7. हमें हर दिन अपनी प्रार्थना में माफी क्यों माँगनी चाहिए?
7 यहोवा की धार्मिकता के स्तरों पर जब हम पूरे नहीं उतर पाते या उनसे चूक जाते हैं, तब भी हम पाप करते हैं। विरासत में मिले पाप की वजह से, हम सभी अपनी बातचीत, कामों और विचारों से पाप करते हैं या जो हमें करना चाहिए वह नहीं करते। (सभोपदेशक 7:20; रोमियों 3:23; याकूब 3:2; 4:17) इसलिए, चाहे हमें ऐसा लगे कि दिन भर में हमने कोई पाप नहीं किया है, फिर भी हमें अपनी रोज़ की प्रार्थनाओं में अपने पापों की माफी ज़रूर माँगनी चाहिए।—भजन 19:12; 40:12.
8. माफी के लिए प्रार्थना करने से हमें क्या करने की प्रेरणा मिलनी चाहिए और इसका कौन-सा अच्छा नतीजा निकलेगा?
8 माफी के लिए प्रार्थना करने के बाद हमें ईमानदारी से अपनी जाँच करनी चाहिए। उसके बाद पश्चाताप करके, मसीह के बहाए गए लहू की पापों से छुड़ाने की शक्ति पर विश्वास करते हुए अपने पाप स्वीकार करने चाहिए। (1 यूहन्ना 1:7-9) यह साबित करने के लिए कि हमने प्रार्थना में जो कहा वही सच्चाई है, हम माफी की गुज़ारिश करने के साथ-साथ “मन फिराव के योग्य काम” भी करेंगे। (प्रेरितों 26:20) तब हम इस बात का यकीन रख सकते हैं कि यहोवा हमारे पापों को माफ करने के लिए तैयार होगा। (भजन 86:5; 103:8-14) इस वजह से हमें मन की ऐसी अनोखी शांति मिलती है, “परमेश्वर की शान्ति, जो समझ से बिलकुल परे है,” और जो “[हमारे] हृदय और [हमारे] विचारों को मसीह यीशु में सुरक्षित रखेगी।” (फिलिप्पियों 4:7) मगर यीशु की आदर्श प्रार्थना यह भी बताती है कि अपने पापों की माफी पाने के लिए हमें और क्या करना चाहिए।
माफी पाने के लिए पहले हमें माफ करना होगा
9, 10. (क) यीशु ने आदर्श प्रार्थना में खासतौर पर किस बात को समझाया और इस तरह उसने किस बात पर ज़ोर दिया? (ख) यीशु ने किस कहानी के ज़रिए दूसरों को माफ करने की ज़रूरत समझायी?
9 गौर करने लायक बात है कि यह बिनती “जिस तरह हम ने अपने क़र्ज़दारों को मुआफ़ किया है तू भी हमारे क़र्ज़ मुआफ़ कर,” आदर्श प्रार्थना का एक ही ऐसा हिस्सा है जिसके बारे में यीशु ने आगे और समझाया। प्रार्थना खत्म करने के बाद उसने कहा: “यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा।” (मत्ती 6:14, 15) यह कहकर यीशु ने साफ-साफ ज़ाहिर कर दिया कि यहोवा का हमारे पापों को माफ करना इस बात पर निर्भर करता है कि हम दूसरों को माफ करते हैं या नहीं।—मरकुस 11:25.
10 एक और मौके पर, यीशु ने यह दिखाने के लिए एक दृष्टांत दिया कि अगर हम उम्मीद करते हैं कि यहोवा हमें माफ करे तो ज़रूरी है कि हम भी दूसरों को माफ करें। उसने एक राजा की कहानी बतायी जिसने दरियादिली दिखाकर अपने एक दास का बहुत बड़ा कर्ज़ माफ किया। इस राजा ने बाद में इसी दास को कड़ी सज़ा दी क्योंकि इस दास ने अपने एक साथी का कर्ज़ माफ करने से इनकार कर दिया था जिसने उसके कर्ज़ के मुकाबले बहुत ही मामूली रकम उससे उधार ली थी। यीशु ने यह कहानी खत्म करते हुए कहा: “इसी प्रकार यदि तुम में से हर एक अपने भाई को मन से क्षमा न करेगा, तो मेरा पिता जो स्वर्ग में है, तुम से भी वैसा ही करेगा।” (मत्ती 18:23-35) सबक बिलकुल साफ है: यहोवा ने हममें से हरेक के पापों का जो कर्ज़ माफ किया है वह उस अपराध से कहीं ज़्यादा है जो किसी ने हमारे खिलाफ किया होगा। इतना ही नहीं, यहोवा हमें हर दिन माफ करता है। तो फिर, हम भी अपने खिलाफ कभी-कभार किए गए पापों को बेशक माफ कर सकते हैं।
11. अगर हम उम्मीद करते हैं कि यहोवा हमें माफ करे, तो प्रेरित पौलुस की किस सलाह को हम मानेंगे और इसके क्या बढ़िया नतीजे निकलेंगे?
11 प्रेरित पौलुस ने लिखा: “एक दूसरे पर कृपाल, और करुणामय हो, और जैसे परमेश्वर ने मसीह में तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी एक दूसरे के अपराध क्षमा करो।” (इफिसियों 4:32) एक-दूसरे को माफ करने से मसीही अपने बीच शांति बनाए रख सकते हैं। पौलुस ने आगे गुज़ारिश की: “परमेश्वर के चुने हुओं की नाईं जो पवित्र और प्रिय हैं, बड़ी करुणा, और भलाई, और दीनता, और नम्रता, और सहनशीलता धारण करो। और यदि किसी को किसी पर दोष देने का कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो। और इन सब के ऊपर प्रेम को जो सिद्धता का कटिबन्ध है बान्ध लो।” (कुलुस्सियों 3:12-14) यह सब उस प्रार्थना में शामिल है जो यीशु ने हमें सिखायी: “जिस तरह हम ने अपने क़र्ज़दारों को मुआफ़ किया है तू भी हमारे क़र्ज़ मुआफ़ कर।”
लुभाए जाते वक्त हिफाज़त पाना
12, 13. (क) आदर्श प्रार्थना की अगली बिनती का क्या मतलब नहीं हो सकता? (ख) परीक्षा में डालनेवाला सबसे बड़ा धूर्त कौन है, और हमारी इस प्रार्थना का क्या मतलब है कि हमें परीक्षा में न ला?
12 यीशु की आदर्श प्रार्थना में अगली गुज़ारिश यह है: “हमें परीक्षा में न ला।” (मत्ती 6:13) क्या यीशु का मतलब यह है कि हम यहोवा से कहें कि वह हमारी परीक्षा न ले? नहीं, इसका यह मतलब नहीं हो सकता क्योंकि शिष्य याकूब ने ईश्वर-प्रेरणा से लिखा: “जब किसी की परीक्षा हो, तो वह यह न कहे, कि मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है; क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” (याकूब 1:13) इसके अलावा, भजनहार ने लिखा: “हे याह, यदि तू अधर्म के कामों का लेखा ले, तो हे प्रभु कौन खड़ा रह सकेगा?” (भजन 130:3) यहोवा इस इंतज़ार में नहीं रहता कि हम कहाँ गलती करें और वह हमें कहाँ पकड़े, ना ही हमें फँसाने के लिए फंदा लगाता है। तो फिर, आदर्श प्रार्थना के इस भाग का क्या मतलब है?
13 जो हमें फंदा लगाकर फँसाना चाहता है, अपनी धूर्त युक्तियों से गिराना चाहता है यहाँ तक कि हमें फाड़ खाना चाहता है वह शैतान यानी इब्लीस है यहोवा नहीं। (इफिसियों 6:11) हमें परीक्षा में डालनेवाला वही सबसे बड़ा धूर्त है। (1 थिस्सलुनीकियों 3:5) जब हम प्रार्थना करते हैं कि हमें परीक्षा में न ला, तो हम यहोवा से बिनती करते हैं कि परीक्षा के वक्त, वह ऐसे हालात पैदा होने की इजाज़त न दे जिनमें हम गिर जाएँ। हम उससे गुज़ारिश करते हैं कि वह हमारी मदद करे ताकि “शैतान का हम पर दांव न चले,” और हम परीक्षाओं में हार न मानें। (2 कुरिन्थियों 2:11) हमारी प्रार्थना है कि हम “परमप्रधान के छाए हुए स्थान” में रहें, और ऐसी आध्यात्मिक हिफाज़त पाएँ जो ऐसे लोगों को मिलती है जो अपने हर काम में यहोवा की हुकूमत के लिए अधीनता दिखाते हैं।—भजन 91:1-3.
14. प्रेरित पौलुस कैसे हमें यकीन दिलाता है कि अगर हम परीक्षा के वक्त यहोवा पर भरोसा रखें तो वह हमें नहीं छोड़ेगा?
14 अगर हमारी दिली तमन्ना यही है जो हमने अपनी प्रार्थनाओं और कामों में ज़ाहिर की है, तो हम यकीन रख सकते हैं कि यहोवा हमें कभी नहीं छोड़ेगा। प्रेरित पौलुस ने हमें यकीन दिलाया: “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, बरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।”—1 कुरिन्थियों 10:13.
‘हमें उस दुष्ट से बचा’
15. आज यह सबसे ज़्यादा ज़रूरी क्यों है कि हमें उस दुष्ट से बचाया जाए?
15 मसीही यूनानी शास्त्र की सबसे भरोसेमंद हस्तलिपियों के मुताबिक, यीशु की आदर्श प्रार्थना का अंत इन शब्दों से होता है: ‘हमें उस दुष्ट से बचा।’a (मत्ती 6:13, NHT, फुटनोट) अंत के इस समय में शैतान से बचाए जाने की हमें सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। शैतान और उसकी साथी दुष्टात्माएँ बचे हुए उन अभिषिक्त जनों के संग जो “परमेश्वर की आज्ञाओं को मानते, और यीशु की गवाही देने पर स्थिर हैं” और उनके साथी, “बड़ी भीड़” के साथ युद्ध कर रहे हैं। (प्रकाशितवाक्य 7:9; 12:9, 17) प्रेरित पतरस ने मसीहियों को आगाह किया: “सचेत हो, और जागते रहो, क्योंकि तुम्हारा विरोधी शैतान गर्जनेवाले सिंह की नाईं इस खोज में रहता है, कि किस को फाड़ खाए। विश्वास में दृढ़ होकर, . . . उसका साम्हना करो।” (1 पतरस 5:8, 9) शैतान गवाही देने के हमारे काम को रोकना चाहता है और इस धरती पर धर्म, व्यापार और राजनीति में अपने दूतों के ज़रिए वह हमें डराना-धमकाना चाहता है। लेकिन, अगर हम दृढ़ खड़े रहें तो यहोवा हमें बचाएगा। शिष्य याकूब ने लिखा: “परमेश्वर के आधीन हो जाओ; और शैतान का साम्हना करो, तो वह तुम्हारे पास से भाग निकलेगा।”—याकूब 4:7.
16. यहोवा के जो सेवक परीक्षाओं से गुज़र रहे हैं, उनकी मदद करने का यहोवा के पास क्या ज़रिया है?
16 यहोवा ने अपने बेटे को परीक्षाओं से गुज़रने दिया। मगर जब यीशु ने परमेश्वर के वचन की ढाल से खुद की हिफाज़त की और शैतान का सामना किया, तो उसके बाद यहोवा ने अपने स्वर्गदूतों को भेजकर उसकी हिम्मत बढ़ायी। (मत्ती 4:1-11) उसी तरह, अगर हम विश्वास से प्रार्थना करते हैं और यहोवा की शरण लेते हैं, तो वह हमारी मदद करने के लिए अपने दूतों को इस्तेमाल करता है। (भजन 34:7; 91:9-11) प्रेरित पतरस ने लिखा: “प्रभु भक्तों को परीक्षा में से निकाल लेना और अधर्मियों को न्याय के दिन तक दण्ड की दशा में रखना भी जानता है।”—2 पतरस 2:9.
हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा नज़दीक है
17. हमें आदर्श प्रार्थना देकर, यीशु ने कैसे बताया कि कौन-सी बातें ज़्यादा अहमियत रखती हैं?
17 आदर्श प्रार्थना में, यीशु ने बताया कि कौन-सी बातें ज़्यादा अहमियत रखती हैं। हमारी सबसे बड़ी चिंता, यहोवा के महान और पावन नाम को पवित्र करने की होनी चाहिए। इस काम को पूरा करने का ज़रिया मसीहाई राज्य है, इसलिए हम इस राज्य के आने और सभी असिद्ध, इंसानी राज्यों या सरकारों को मिटाने के लिए प्रार्थना करते हैं। और यह भी कि इस राज्य की निगरानी में धरती पर भी परमेश्वर की इच्छा हर मायने में पूरी होगी, वैसे ही जैसे स्वर्ग में पूरी होती है। फिरदौस में हमेशा की ज़िंदगी की हमारी आशा का दारोमदार यहोवा के नाम के पवित्र किए जाने और सारे विश्व में उसकी धर्मी हुकूमत के बुलंद किए जाने पर है। इन सबसे अहम मामलों के बारे में प्रार्थना करने के बाद, हम अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों, पापों की माफी, और परीक्षाओं से और उस दुष्ट, शैतान इब्लीस की धूर्त चालों से बचाए जाने के लिए प्रार्थना कर सकते हैं।
18, 19. यीशु की आदर्श प्रार्थना कैसे हमें सचेत रहने और अपने भरोसे पर “अन्त तक दृढ़ता से स्थिर” रहने में मदद करती है?
18 वह घड़ी पास आ रही है जब दुष्ट शैतान और उसकी इस भ्रष्ट दुनिया से जल्द ही हमेशा-हमेशा के लिए छुटकारा मिलेगा। वह यह अच्छी तरह जानता है कि उसका “थोड़ा ही समय और बाकी है” जिसमें वह “बड़े क्रोध” के साथ धरती पर, खासकर यहोवा के वफादार सेवकों पर कहर ढा सकता है। (प्रकाशितवाक्य 12:12, 17) यीशु ने जब “रीति-व्यवस्था के अन्त” (NW) का कई पहलुओंवाला चिन्ह दिया, तो उसने कई हैरतअँगेज़ घटनाओं की भविष्यवाणी की, जिनमें से कुछ अभी भविष्य में होनी हैं। (मत्ती 24:3, 29-31) जब हम ये घटनाएँ घटते देखेंगे, उद्धार के लिए हमारी आशा और भी उज्ज्वल होती जाएगी। यीशु ने कहा: “जब ये बातें होने लगें, तो सीधे होकर अपने सिर ऊपर उठाना; क्योंकि तुम्हारा छुटकारा निकट होगा।”—लूका 21:25-28.
19 यीशु ने अपने चेलों को चंद शब्दों में जो आदर्श प्रार्थना सिखायी, वह हमें मार्गदर्शन देती है कि जैसे-जैसे अंत पास आ रहा है हमें अपनी प्रार्थनाओं में क्या-क्या शामिल करना चाहिए। हम इस बात का भरोसा रखें कि अंत आने तक यहोवा हमारी हर दिन की ज़रूरतों को पूरा करता रहेगा, चाहे वे आध्यात्मिक हों या शारीरिक। प्रार्थना में लगे रहने से ही, “हम अपने प्रथम भरोसे पर अन्त तक दृढ़ता से स्थिर” रहने के काबिल हो सकेंगे।—इब्रानियों 3:14; 1 पतरस 4:7.
[फुटनोट]
a कुछ पुरानी बाइबलों में, जैसे कि हमारी द होली बाइबल हिन्दी—ओ.वी. में प्रभु की प्रार्थना का अंत स्तुतिगान (परमेश्वर के लिए स्तुति के शब्दों) से होता है: “राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही है। आमीन।” द जॆरोम बिब्लिकल कमेन्ट्री कहती है: “यह स्तुतिगान . . . उन [हस्तलिपियों] में नहीं पाया जाता जिन पर सबसे ज़्यादा भरोसा किया जाता है।”
दोहराने के लिए
• जब हम “दिन भर की रोटी” के लिए प्रार्थना करते हैं तो उसका क्या मतलब होता है?
• “जिस तरह हम ने अपने क़र्ज़दारों को मुआफ़ किया है तू भी हमारे क़र्ज़ मुआफ़ कर,” इस बिनती का मतलब समझाइए।
• जब हम यहोवा से कहते हैं कि हमें परीक्षा में न ला तो इसका क्या मतलब होता है?
• ‘हमें उस दुष्ट से बचा,’ यह प्रार्थना करने की ज़रूरत क्यों है?
[पेज 15 पर तसवीरें]
अगर हम परमेश्वर से माफी चाहते हैं तो हमें दूसरों को माफ करना होगा
[पेज 13 पर चित्र का श्रेय]
Lydekker