अध्याय चार
“जहाँ तू जाएगी, वहाँ मैं भी जाऊँगी”
1, 2. (क) रूत और नाओमी का सफर कैसा था और वे दोनों क्यों दुखी थीं? (ख) उनके सफर में क्या फर्क था?
रूत, नाओमी के साथ उस रास्ते पर चल रही थी जो मोआब के खुले मैदानों से होकर गुज़रता था। उन दोनों के सिवा उस पूरे इलाके में दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था। शाम ढलनेवाली थी। रूत अपनी सास की तरफ देखकर सोच रही होगी कि अब उन्हें रात गुज़ारने के लिए कोई जगह ढूँढ़ लेनी चाहिए। वह नाओमी से बहुत प्यार करती थी और उसकी देखभाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी।
2 उन दोनों औरतों का दिल दुख से भारी था। कई साल पहले नाओमी के पति की मौत हो चुकी थी और कुछ समय से उसका दुख और बढ़ गया था क्योंकि उसने अपने दोनों बेटों, महलोन और किलयोन को भी मौत में खो दिया था। रूत महलोन की पत्नी थी, इसलिए वह भी बहुत दुखी थी। रूत और नाओमी बेतलेहेम जा रही थीं जो इसराएल देश का एक शहर था। हालाँकि उनकी मंज़िल एक थी, मगर उनके सफर में फर्क था। नाओमी अपने घर लौट रही थी, जबकि रूत एक अनजान जगह जा रही थी। रूत अपने रिश्तेदारों, अपने देश और वहाँ के रीति-रिवाज़ों, यहाँ तक कि देवताओं को भी छोड़कर एक ऐसी जगह जा रही थी जो उसके लिए बिलकुल नयी थी।—रूत 1:3-6 पढ़िए।
3. किन सवालों के जवाब जानने से हम रूत के विश्वास की मिसाल पर चलना चाहेंगे?
3 किस बात ने उस जवान औरत को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए उभारा? रूत को एक नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करने और नाओमी की देखभाल करने की हिम्मत कहाँ से मिली? इन सवालों के जवाब जानने से हम मोआबी रूत के बारे में ऐसी बहुत-सी बातें सीखेंगे जिससे हम उसके विश्वास की मिसाल पर चलना चाहेंगे। (यह बक्स भी देखें, “एक छोटी-सी मगर बेमिसाल रचना।”) लेकिन आइए सबसे पहले देखें कि उन दोनों औरतों को बेतलेहेम के उस लंबे सफर पर जाने की ज़रूरत क्यों पड़ी।
मौत ने परिवार पर कहर ढाया
4, 5. (क) नाओमी का परिवार मोआब में क्यों रहने लगा? (ख) मोआब में नाओमी ने किन चुनौतियों का सामना किया?
4 रूत मोआब में पली-बढ़ी थी, जो मृत सागर के पूरब में एक छोटा-सा देश था। इस देश का ज़्यादातर इलाका एक ऊँचा पठार था जहाँ बीच-बीच में तंग घाटियाँ थीं और कहीं-कहीं वीराना था। ‘मोआब का इलाका’ उपजाऊ था और जब इसराएल में अकाल पड़ता था तब भी यहाँ अकसर अच्छी पैदावार होती थी। दरअसल इसराएल में आए अकाल की वजह से ही रूत की मुलाकात महलोन और उसके परिवार से हुई।—रूत 1:1.
5 जब इसराएल में अकाल पड़ा तो नाओमी के पति एलीमेलेक को मजबूर होकर फैसला करना पड़ा कि वह अपनी पत्नी और दोनों बेटों को लेकर मोआब जाए और वहाँ परदेसी बनकर रहे। वहाँ रहने की वजह से परिवार के हर सदस्य के विश्वास की परख हुई होगी, क्योंकि इसराएलियों को नियम दिया गया था कि वे उपासना के लिए उस पवित्र जगह जाया करें जो यहोवा ने तय की थी। (व्यव. 16:16, 17) नाओमी ने किसी तरह अपना विश्वास मज़बूत बनाए रखा। फिर भी जब उसके पति की मौत हो गयी तो वह बहुत दुखी हुई।—रूत 1:2, 3.
6, 7. (क) जब नाओमी के बेटों ने मोआबी लड़कियों से शादी की तो वह क्यों निराश हुई होगी? (ख) नाओमी ने अपनी बहुओं के साथ जैसा व्यवहार किया वह क्यों काबिले-तारीफ था?
6 बाद में जब नाओमी के बेटों ने मोआबी लड़कियों से शादी की, तो एक बार फिर वह निराश हो गयी होगी। (रूत 1:4) वह जानती थी कि इसराएलियों के पुरखे अब्राहम ने कितनी मेहनत से अपने बेटे इसहाक के लिए अपने लोगों में से यानी यहोवा की उपासना करनेवालों में से एक लड़की ढूँढ़ी थी। (उत्प. 24:3, 4) फिर मूसा के कानून में भी इसराएलियों को खबरदार किया गया था कि वे अपने बेटे-बेटियों की शादी परदेसियों से न कराएँ, क्योंकि परदेसी उन्हें मूर्तिपूजा की तरफ बहका सकते हैं।—व्यव. 7:3, 4.
7 इसके बावजूद महलोन और किलयोन ने मोआबी लड़कियों से शादी की। नाओमी को भले ही इससे काफी चिंता या निराशा हुई होगी, फिर भी ऐसा लगता है कि उसने अपनी बहुओं के साथ अच्छा रिश्ता रखा। उसने रूत और ओरपा पर सच्ची कृपा की और उन्हें प्यार दिया। शायद नाओमी को उम्मीद थी कि एक दिन वे भी उसकी तरह यहोवा की उपासना करने लगेंगी। हालाँकि नाओमी की भावनाओं के बारे में बाइबल कुछ नहीं बताती, फिर भी यह साफ है कि रूत और ओरपा उससे बहुत प्यार करती थीं। इसी अच्छे रिश्ते की वजह से उन्हें ज़िंदगी का गम सहने में मदद मिली। इन दोनों औरतों के बच्चे भी नहीं हुए थे कि वे विधवा हो गयीं।—रूत 1:5.
8. रूत शायद किस वजह से यहोवा की तरफ खिंची चली आयी?
8 रूत को अपना गम सहने में क्या उसके धार्मिक विश्वास से कोई मदद मिली? शायद नहीं। मोआबी लोग बहुत-से देवी-देवताओं को पूजते थे, जिनमें सबसे बड़ा देवता कमोश था। (गिन. 21:29) ऐसा लगता है कि उन दिनों दूसरे कई धर्मों की तरह मोओबी लोगों के धर्म में भी ऐसे-ऐसे काम होते थे जो बहुत ही भयानक और क्रूर थे, जैसे बच्चों की बलि चढ़ाना। इसलिए जब रूत ने महलोन या नाओमी से यह सीखा होगा कि इसराएल का परमेश्वर प्यार करनेवाला और दयालु है तो उसे साफ नज़र आया होगा कि यहोवा दूसरे देवी-देवताओं से बहुत अलग है। यहोवा चाहता है कि लोग उससे प्यार करने की वजह से उसकी बात मानें, न कि उससे डरकर। (व्यवस्थाविवरण 6:5 पढ़िए।) उस दर्दनाक समय में रूत, बुज़ुर्ग नाओमी के और भी करीब आ गयी होगी। जब नाओमी ने उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर यहोवा और उसके लाजवाब कामों के बारे में बताया और यह भी कि वह अपने लोगों के साथ कैसे प्यार और दया से पेश आया था, तो रूत ने खुशी-खुशी उसकी बातें सुनी होगी।
9-11. (क) नाओमी, रूत और ओरपा ने क्या फैसला किया? (ख) उन तीनों पर आयी मुसीबत से हम क्या सीखते हैं?
9 नाओमी यह सुनने के लिए तरस रही थी कि अब उसके देश का क्या हाल है। एक दिन उसे खबर मिली कि इसराएल में अकाल खत्म हो चुका है। शायद उसे यह खबर वहाँ से आए किसी सौदागर से मिली होगी। यहोवा ने अब अपने लोगों पर ध्यान दिया था। बेतलेहेम एक बार फिर अपने नाम पर खरा उतरा था, जिसका मतलब था “रोटी का घर।” इसलिए नाओमी ने अपने देश लौटने का फैसला किया।—रूत 1:6.
10 रूत और ओरपा ने क्या किया? (रूत 1:7) अपने-अपने पति को खोने का गम सहते वक्त वे दोनों नाओमी के और करीब आ गयी थीं। ऐसा मालूम पड़ता है कि खासकर रूत को नाओमी की कृपा और यहोवा पर उसका अटल विश्वास भा गया था। इसलिए वे तीनों साथ मिलकर यहूदा के लिए निकल पड़ीं।
11 रूत का वाकया दिखाता है कि मुसीबत किसी पर भी आ सकती है और अज़ीज़ों को खोने का गम किसी को भी सहना पड़ सकता है, फिर चाहे वे अच्छे इंसान हों या बुरे। (सभो. 9:2, 11) यह वाकया यह भी दिखाता है कि जब हमारे किसी अपने की मौत होती है और हमारा दुख बरदाश्त से बाहर हो जाता है, तो ऐसे में दिलासा पाने के लिए दूसरों के पास जाना बुद्धिमानी होगी। हमें खासकर उनके पास जाना चाहिए जो यहोवा परमेश्वर में शरण लेते हैं, जिसकी नाओमी भी उपासना करती थी।—नीति. 17:17.
रूत का प्यार अटल था
12, 13. (क) नाओमी ने रूत और ओरपा को अपने घर लौटने के लिए क्यों कहा? (ख) रूत और ओरपा ने पहले क्या किया?
12 वे तीनों चलते-चलते मोआब से मीलों दूर पहुँच गयीं और इस दौरान नाओमी को एक और चिंता सताने लगी। वह अपनी जवान बहुओं के बारे में सोचने लगी जिन्होंने उसे और उसके बेटों को बहुत प्यार दिया था। अगर वे अपना देश छोड़कर उसके साथ बेतलेहेम चली आएँगी तो वहाँ वह उनकी कुछ मदद नहीं कर पाएगी। इससे उनका दुख और बढ़ जाएगा, जो नाओमी हरगिज़ नहीं चाहती थी।
13 इसलिए नाओमी ने उनसे कहा, “अपने-अपने मायके लौट जाओ। जैसे तुमने मेरे और मेरे बेटों के लिए जो अब नहीं रहे, अपने अटल प्यार का सबूत दिया है, वैसे ही यहोवा तुम्हें अपने अटल प्यार का सबूत दे।” उसने यह भी कहा कि यहोवा की आशीष से उनका घर दोबारा बस जाए। इसके बाद “नाओमी ने अपनी बहुओं को चूमा और वे फूट-फूटकर रोने लगीं।” नाओमी दिल की बहुत अच्छी थी और उसमें कोई स्वार्थ नहीं था, इसलिए ताज्जुब नहीं कि रूत और ओरपा को उससे गहरा लगाव था। वे नाओमी से बार-बार कहने लगीं, “हम तुझे छोड़कर नहीं जाएँगे। हम तेरे साथ तेरे लोगों के पास चलेंगे।”—रूत 1:8-10.
14, 15. (क) ओरपा किसके पास लौट गयी? (ख) नाओमी ने रूत को कैसे समझाने की कोशिश की?
14 नाओमी उनकी बात मानने को तैयार नहीं थी। उसने उन्हें बहुत समझाया कि इसराएल में वह उनकी कुछ मदद नहीं कर पाएगी, क्योंकि अब न रोटी कमाने के लिए उसका पति रहा और न ही उसके कोई बेटे थे जिनसे वे शादी कर पातीं। यहाँ तक कि उसे फिर से शादी करके बच्चे पैदा करने की भी कोई उम्मीद नहीं थी। उसने कहा कि उसे इस बात का बहुत दुख है कि वह उन दोनों की देखभाल नहीं कर सकती। ओरपा नाओमी की मजबूरी समझ गयी। ओरपा का घर-परिवार मोआब में था और उसकी एक माँ भी थी जिनके सहारे वह जी सकती थी। उसे लगा कि मोआब में रह जाना ही बेहतर होगा। उसने दिल पर पत्थर रखकर नाओमी को चूमा, उसे अलविदा कहा और फिर अपने घर लौट गयी।—रूत 1:11-14.
15 रूत ने क्या किया? नाओमी ने दोनों को एक ही बात समझायी थी। “मगर रूत ने नाओमी का साथ नहीं छोड़ा।” शायद नाओमी उन्हें समझाने के बाद कुछ कदम आगे चली गयी और फिर उसने देखा कि रूत उसके पीछे-पीछे आ रही है। नाओमी ने उसे रोकते हुए कहा, “देख, तेरी देवरानी अपने लोगों और अपने देवताओं के पास लौट गयी है। तू भी उसके साथ चली जा।” (रूत 1:15) नाओमी के इन शब्दों से हमें एक अहम जानकारी मिलती है। वह यह कि ओरपा न सिर्फ अपने लोगों के पास बल्कि “अपने देवताओं” के पास भी लौट गयी थी। उसने सोच लिया कि वह कमोश और दूसरे झूठे देवताओं की ही उपासना करती रहेगी। क्या रूत की भी यही सोच थी?
16-18. (क) रूत ने अपने अटल प्यार का सबूत कैसे दिया? (ख) हम रूत से अटल प्यार के बारे में क्या सीख सकते हैं? (रूत और नाओमी की तसवीरें भी देखें।)
16 उस सुनसान रास्ते पर अब रूत और नाओमी अकेली रह गयीं। रूत के दिल में कोई शक नहीं था कि उसे क्या करना है। उसका दिल नाओमी के लिए और उसके परमेश्वर के लिए प्यार से उमड़ रहा था। इसलिए रूत ने कहा, “मुझे वापस जाने के लिए मत कह, अपने साथ आने से मत रोक। क्योंकि जहाँ तू जाएगी, वहाँ मैं भी जाऊँगी। और जहाँ तू रात गुज़ारेगी, वहीं मैं भी रात गुज़ारूँगी। तेरे लोग मेरे लोग होंगे और तेरा परमेश्वर मेरा परमेश्वर होगा। जहाँ तू मरेगी वहाँ मैं भी मरूँगी और दफनायी जाऊँगी। सिर्फ मौत ही मुझे तुझसे अलग कर सकती है। अगर किसी और वजह से मैं तुझसे अलग हुई, तो यहोवा मुझे कड़ी-से-कड़ी सज़ा दे।”—रूत 1:16, 17.
17 रूत ने कितनी बढ़िया बात कही! आज 3,000 साल बाद भी उसकी बात लोगों की याद में ताज़ा है। उसकी बात साफ दिखाती है कि उसमें एक अनमोल गुण था, अटल प्यार। रूत का प्यार इतना गहरा और अटल था कि वह नाओमी का साथ कभी नहीं छोड़ती फिर चाहे नाओमी जहाँ भी जाती। सिर्फ मौत ही उन दोनों को जुदा कर सकती थी। नाओमी के लोग रूत के अपने लोग होते क्योंकि रूत मोआब में अपना सबकुछ छोड़ने को तैयार थी, यहाँ तक कि वहाँ के देवताओं को भी। वह ओरपा जैसी नहीं थी। रूत पूरे दिल से कह पायी कि वह भी नाओमी के परमेश्वर यहोवा को अपना परमेश्वर मानती है।a
18 इसलिए वे दोनों साथ-साथ चलती गयीं। बेतलेहेम जानेवाले उस लंबे रास्ते पर सिर्फ वे दोनों ही थीं। अंदाज़ा लगाया गया है कि वह सफर करीब एक हफ्ते का रहा होगा। इसमें कोई शक नहीं कि उन दोनों ने अपना गम सहने में एक-दूसरे की मदद की होगी।
19. हम रूत की तरह कैसे दिखा सकते हैं कि परिवारवालों, दोस्तों और मंडली के भाई-बहनों के लिए हमारा प्यार अटल है?
19 आज दुनिया में ऐसे बहुत-से लोग हैं जो दुख सहते हुए ज़िंदगी जी रहे हैं। बाइबल बताती है कि यह ‘संकटों से भरा वक्त’ है, इसलिए हमें हर तरह का नुकसान सहना पड़ता है और दुख झेलने पड़ते हैं। (2 तीमु. 3:1) ऐसे में वह गुण दिखाना और भी ज़रूरी हो जाता है जो रूत ने दिखाया था, यानी अटल प्यार। इस प्यार में गहरा लगाव होता है और यह कभी साथ नहीं छोड़ता। यह प्यार इस अँधेरी दुनिया में भले काम करने की ज़बरदस्त प्रेरणा देता है। पति-पत्नी के बीच, परिवार में, दोस्तों के बीच और मंडली में भी ऐसा प्यार होना बेहद ज़रूरी है। (1 यूहन्ना 4:7, 8, 20 पढ़िए।) जब हम अपने अंदर ऐसा प्यार बढ़ाते हैं तो हम रूत की अनोखी मिसाल पर चल रहे होते हैं।
रूत और नाओमी बेतलेहेम में
20-22. (क) मोआब में रहते नाओमी की ज़िंदगी कैसी हो गयी थी? (ख) वह अपनी दुख-तकलीफों के बारे में क्या मान बैठी थी? (याकूब 1:13 भी देखें।)
20 यह कहना काफी नहीं कि मेरा प्यार अटल है, हमें अपने कामों से भी दिखाना चाहिए। रूत के सामने अब यह दिखाने का मौका था कि न सिर्फ नाओमी के लिए बल्कि यहोवा के लिए भी उसका प्यार अटल था, जिसे उसने अपना परमेश्वर माना था।
21 दोनों औरतें आखिरकार बेतलेहेम पहुँच गयीं, जो यरूशलेम से करीब 10 किलोमीटर दूर दक्षिण में था। ऐसा मालूम पड़ता है कि नाओमी और उसका परिवार उस छोटे-से शहर में काफी जाने-माने थे क्योंकि नाओमी के लौटने की खबर पूरे शहर में फैल गयी। वहाँ की औरतें उसे देखकर कहने लगीं, “क्या यह नाओमी है?” ज़ाहिर है कि मोआब में गुज़ारे उन सालों के दौरान नाओमी काफी बदल गयी थी। उसके चेहरे और हाव-भाव से साफ पता चल रहा था कि उसने बरसों से कितने दुख झेले हैं।—रूत 1:19.
22 नाओमी ने अपने रिश्तेदारों और पुराने पड़ोसियों को बताया कि उसका मन कितना कड़वा हो गया है। उसने यहाँ तक कहा कि वे अब से उसे नाओमी नहीं मारा नाम से पुकारें। नाओमी का मतलब था “मेरे मन को भानेवाली,” जबकि मारा का मतलब था “कड़वा।” बेचारी नाओमी! उसने सोचा कि परमेश्वर ही उस पर तकलीफें ले आया है, जैसे बहुत पहले अय्यूब ने सोचा था।—रूत 1:20, 21; अय्यू. 2:10; 13:24-26.
23. (क) रूत अब क्या सोचने लगी? (ख) मूसा के कानून में गरीबों के लिए क्या इंतज़ाम किया गया था? (फुटनोट भी देखें।)
23 रूत और नाओमी धीरे-धीरे बेतलेहेम में बसने लगीं। रूत सोचने लगी कि वह अपने लिए और नाओमी के लिए रोटी का जुगाड़ कैसे करेगी। फिर उसे पता चला कि यहोवा ने इसराएल को जो कानून दिया था उसमें गरीबों के लिए एक प्यार-भरा इंतज़ाम है। जब खेतों में कटाई हो जाती तो बाद में गरीब वहाँ जा सकते थे और गिरी हुई बालें इकट्ठा कर सकते थे और कोनों में छोड़ी गयी फसल काटकर ले जा सकते थे।b—लैव्य. 19:9, 10; व्यव. 24:19-21.
24, 25. (क) जब रूत इत्तफाक से बोअज़ के खेतों में गयी तो उसने क्या किया? (ख) बालें बीनने का काम कैसा था?
24 जौ की कटाई चल रही थी। शायद आज के कैलेंडर के मुताबिक वह अप्रैल का महीना था। रूत यह देखने के लिए खेतों में गयी कि क्या कोई उसे अपने खेत में बालें बीनने की इजाज़त देगा। इत्तफाक से वह बोअज़ नाम के एक अमीर आदमी के खेतों में गयी। बोअज़ एक ज़मींदार था और नाओमी के पति एलीमेलेक का रिश्तेदार भी। हालाँकि कानून के मुताबिक रूत को बीनने का हक था, फिर भी उसने बिना इजाज़त के बीनना शुरू नहीं कर दिया। उसने कटाई करनेवालों पर ठहराए गए जवान आदमी से बालें बीनने की इजाज़त माँगी। जब उस आदमी ने उसे इजाज़त दी तो वह सीधे काम पर लग गयी।—रूत 1:22–2:3, 7.
25 कल्पना कीजिए, मज़दूर कटाई करते-करते आगे बढ़ रहे हैं और उनके पीछे-पीछे रूत बालें बीन रही है। मज़दूर हँसिए से जौ की फसल काटते हुए बटोरते जा रहे हैं और उनसे जो बालें छूट जाती हैं उन्हें रूत उठाकर गट्ठरों में बाँध रही है और एक जगह ले जाकर जमा कर रही है ताकि बाद में उन्हें पीटकर अनाज निकाल सके। यह काम धीरे-धीरे होता था और काफी थकाऊ था। जैसे-जैसे दिन चढ़ता काम और भी मुश्किल हो जाता था। फिर भी रूत लगी रही, सिर्फ अपना पसीने पोंछने और दोपहर को उस “छप्पर” के नीचे बैठकर सादा-सा खाना खाने के लिए रुकती, जो मज़दूरों को छाँव देने के लिए बनाया गया था।
26, 27. बोअज़ कैसा इंसान था और वह रूत के साथ कैसे पेश आया?
26 शायद रूत ने न कभी चाहा न ही कभी उम्मीद की कि कोई उस पर ध्यान दे। मगर बोअज़ ने उस पर ध्यान दिया। जब उसकी नज़र रूत पर पड़ी तो उसने मज़दूरों पर ठहराए गए जवान से पूछा कि वह औरत कौन है। परमेश्वर पर बोअज़ का विश्वास मज़बूत था, इसलिए जब वह अपने मज़दूरों से मिलता तो उन्हें यह कहकर सलाम करता था, “यहोवा तुम्हारे साथ रहे,” इसके बावजूद कि उनमें से कुछ दिहाड़ी के मज़दूर थे और कुछ परदेसी। जवाब में मज़दूर भी उससे इसी तरह दुआ-सलाम करते। बोअज़ परमेश्वर जैसी सोच रखनेवाला इंसान था और एक बुज़ुर्ग था, इसलिए उसने रूत में एक पिता जैसी दिलचस्पी दिखायी।—रूत 2:4-7.
27 बोअज़ ने रूत को “बेटी” कहकर उसे सलाह दी कि वह उसके खेतों में आकर इसी तरह बीना करे और उसके घराने की जवान औरतों के साथ-साथ ही रहे ताकि मज़दूरों में से कोई उसे परेशान न करे। उसने इस बात का भी ध्यान रखा कि दोपहर के वक्त रूत को खाना दिया जाए। (रूत 2:8, 9, 14 पढ़िए।) इससे भी बढ़कर, उसने रूत की तारीफ की और उसकी हिम्मत बँधायी। कैसे?
28, 29. (क) रूत ने कैसा नाम कमाया? (ख) आप रूत की तरह कैसे यहोवा में पनाह ले सकते हैं?
28 जब रूत ने बोअज़ से पूछा कि वह तो एक परदेसी है फिर वह उस पर क्यों इतनी मेहरबानी कर रहा है, तो बोअज़ ने कहा कि उसने सुना था कि रूत ने अपनी सास नाओमी के लिए कितना कुछ किया है। नाओमी ने बेतलेहेम की औरतों से बात करते वक्त अपनी प्यारी रूत की तारीफ की होगी और यह बात बोअज़ तक पहुँची। वह यह भी जानता था कि रूत यहोवा की उपासना करने लगी है, तभी उसने रूत से कहा, “यहोवा तुझे आशीष दे और इसराएल के परमेश्वर यहोवा से तुझे पूरा इनाम मिले, जिसके पंखों तले तूने पनाह ली है।”—रूत 2:12.
29 उन शब्दों से रूत को कितनी हिम्मत मिली होगी! उसने फैसला किया था कि वह यहोवा परमेश्वर के पंखों तले पनाह लेगी, ठीक जैसे एक चिड़िया के पंखों तले उसका बच्चा छिपकर महफूज़ रहता है। उसने बोअज़ का धन्यवाद किया कि उसने उसकी हिम्मत बँधायी। फिर वह शाम तक मेहनत करती रही।—रूत 2:13, 17.
30, 31. हम रूत से काम करने की आदत, कदरदानी और अटल प्यार के बारे में क्या सीखते हैं?
30 रूत उन सबके लिए एक अच्छी मिसाल है जिन्हें आज दो वक्त की रोटी कमाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उसने ऐसा नहीं सोचा कि वह एक विधवा है, इसलिए दूसरों का फर्ज़ बनता है कि वे उसकी मदद करें। इसके बजाय, उसे जो भी दिया गया उसने एहसान-भरे दिल से उसे कबूल किया। उसने मज़दूरों की तरह देर तक कड़ी मेहनत करने में शर्मिंदा महसूस नहीं किया क्योंकि वह अपनी प्यारी सास नाओमी की देखभाल करना चाहती थी। जब उसे सलाह दी गयी कि वह काम की जगह कैसे एहतियात बरते और अच्छे लोगों के साथ रहे तो उसने खुशी-खुशी वह सलाह मानी। सबसे बढ़कर वह कभी नहीं भूली कि उसे सच्ची पनाह कहाँ मिल सकती है, अपने पिता यहोवा परमेश्वर के साए में रहकर।
31 अगर रूत की तरह हमारा प्यार भी अटल होगा और हम उसकी तरह नम्र, मेहनती और एहसानमंद रहेंगे तो हमारा विश्वास दूसरों के लिए एक मिसाल बन जाएगा। मगर अब सवाल है कि यहोवा ने रूत और नाओमी की देखभाल कैसे की? इस बारे में हम अगले अध्याय में चर्चा करेंगे।
a यह बात गौर करने लायक है कि रूत ने न सिर्फ “परमेश्वर” कहा बल्कि उसके नाम “यहोवा” का भी इस्तेमाल किया, जबकि परदेसी शायद सिर्फ परमेश्वर कहते। दी इंटरप्रेटर्स बाइबल बताती है, “इस तरह लेखक ज़ोर देकर कहता है कि यह परदेसी औरत सच्चे परमेश्वर को मानती थी।”
b वह बहुत ही बढ़िया कानून था। रूत के देश मोआब में शायद ही ऐसा कानून रहा होगा। पुराने ज़माने में पूरब के उन देशों में विधवाओं के साथ बुरा सलूक किया जाता था। एक किताब बताती है, “पति की मौत के बाद आम तौर पर एक विधवा अपने बेटों के सहारे जीती थी। लेकिन अगर उसका कोई बेटा नहीं होता तो उसके सामने सिर्फ यही चारा था कि वह खुद को बेचकर गुलाम बन जाए या वेश्या बन जाए या फिर खुदकुशी कर ले।”