यहोवा—हमारा सबसे अच्छा दोस्त
“[अब्राहम] ‘यहोवा का मित्र’ कहलाया।”—याकू. 2:23.
1. हम परमेश्वर के “स्वरूप” में बनाए गए हैं, इसलिए हमारे अंदर क्या काबिलीयतें हैं?
“जैसा बाप, वैसा बेटा,” यह कहावत हम अकसर सुनते हैं। वाकई, कई बच्चे काफी हद तक अपने माँ-बाप की तरह होते हैं। और क्यों न हो, हर बच्चा जन्म से ही अपने माता-पिता से कुछ गुण पाता है। स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता, यहोवा जीवन देनेवाला परमेश्वर है। (भज. 36:9) और उसके इंसानी बच्चे होने के नाते, हम कई मायनों में उसी की तरह हैं। हम उसके “स्वरूप” में बनाए गए हैं, इसलिए हमारे अंदर तर्क करने, फैसले लेने और करीबी दोस्ती कायम करने की काबिलीयत है।—उत्प. 1:26.
2. यहोवा के साथ दोस्ती करना क्यों मुमकिन है?
2 यहोवा हमारा सबसे अच्छा दोस्त बन सकता है। यह दोस्ती इसलिए मुमकिन है क्योंकि परमेश्वर हमसे प्यार करता है और हम उस पर और उसके बेटे पर विश्वास करते हैं। यीशु ने कहा था: “परमेश्वर ने दुनिया से इतना ज़्यादा प्यार किया कि उसने अपना इकलौता बेटा दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास दिखाता है, वह नाश न किया जाए बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए।” (यूह. 3:16) ऐसे कई लोग हैं, जिनकी यहोवा के साथ करीबी दोस्ती रही है। आइए उनमें से दो लोगों के बारे में चर्चा करें और देखें कि हम उनसे क्या सीख सकते हैं।
“मेरे दोस्त अब्रहाम”
3, 4. अब्राहम की यहोवा के साथ दोस्ती, और इसराएलियों की यहोवा के साथ दोस्ती के बीच क्या फर्क था?
3 यहोवा ने इसराएलियों के कुलपिता का ज़िक्र करते हुए उसे “मेरे दोस्त अब्रहाम” कहा। (यशा. 41:8, उर्दू—ओ.वी.) दूसरा इतिहास 20:7 में भी अब्राहम को परमेश्वर का मित्र कहा गया है। अब्राहम अपने सिरजनहार के साथ इतनी गहरी दोस्ती कैसे कायम कर पाया? अपने मज़बूत विश्वास की वजह से।—उत्प. 15:6; याकूब 2:21-23 पढ़िए।
4 यहोवा अब्राहम के वंशजों का भी, जो आगे चलकर इसराएल राष्ट्र बने, पिता और दोस्त था। लेकिन दुख की बात है कि समय के चलते, वे परमेश्वर के साथ अपनी दोस्ती बरकरार नहीं रख पाए। क्यों? क्योंकि यहोवा के वादों पर से उनका विश्वास उठ गया था।
5, 6. (क) यहोवा के साथ आपकी दोस्ती कैसे हुई? (ख) हमें खुद से कौन-से सवाल पूछने चाहिए?
5 आप यहोवा के बारे में जितना जानेंगे, उतना ही उस पर आपका विश्वास बढ़ेगा, और उसके लिए आपका प्यार गहरा होगा। उस वक्त के बारे में सोचिए, जब आपने पहली बार जाना कि यहोवा एक असल शख्स है और आप उसके करीबी दोस्त बन सकते हैं। आपने सीखा कि आदम के आज्ञा न मानने की वजह से हम सभी को विरासत में पाप मिला है। आपने यह भी जाना कि इंसानों का परमेश्वर के साथ शांति-भरा रिश्ता नहीं है। (कुलु. 1:21) फिर आपको एहसास हुआ कि स्वर्ग में रहनेवाला हमारा पिता, जो हमसे बहुत प्यार करता है, ऐसा शख्स नहीं है जो हमसे बहुत दूर है और हममें दिलचस्पी नहीं लेता। जब हमने सीखा कि यहोवा ने अपने बेटे का बलिदान दिया, और जब हम उसके फिरौती बलिदान पर विश्वास करने लगे, तब परमेश्वर के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत हुई।
6 जब से हम यहोवा को जानने लगे, उस समय को ध्यान में रखते हुए, हमें खुद से पूछना चाहिए: ‘क्या परमेश्वर के साथ मैं अपनी दोस्ती बढ़ा रहा हूँ? क्या यहोवा पर मेरा भरोसा मज़बूत है और क्या उसके लिए मेरा प्यार हर दिन बढ़ रहा है?’ एक और इंसान जिसकी यहोवा के साथ करीबी दोस्ती थी, वह था गिदोन। आइए अब हम उसके बारे में सीखें, ताकि हम उसकी मिसाल पर चल सकें।
“यहोवा शांति है”
7-9. (क) गिदोन को क्या शानदार अनुभव हुआ? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) (ख) इसका नतीजा क्या हुआ? (ग) हम यहोवा के साथ अपनी दोस्ती कैसे मज़बूत कर सकते हैं?
7 न्यायी गिदोन एक ऐसे मुश्किल-भरे दौर में यहोवा की सेवा कर रहा था, जब इसराएली वादा-ए-मुल्क में दाखिल हो चुके थे। उस वक्त इसराएलियों पर मिद्यानियों का खतरा मँडरा रहा था, जिन्होंने कई बार उनके इलाके पर हमला किया था। यही वजह थी कि क्यों गिदोन गेहूँ की कुटाई खुले मैदान में करने के बजाय, दाख रौंदने के एक हौद में कर रहा था, ताकि वह अनाज को फौरन छिपा सके। न्यायियों अध्याय 6 बताता है कि ओप्रा में यहोवा के एक स्वर्गदूत ने गिदोन को दर्शन दिया। जब गिदोन ने उसे देखा, साथ ही, जब स्वर्गदूत ने उसे “शूरवीर सूरमा” कहकर बुलाया, तो गिदोन हैरान रह गया। हालाँकि यहोवा ने इससे पहले मिस्रियों की गुलामी से इसराएलियों को आज़ाद किया था, फिर भी गिदोन को शक हुआ कि क्या यहोवा इस बार उन्हें मिद्यानियों से बचाएगा। यहोवा की तरफ से बात करते हुए, स्वर्गदूत ने उसे यकीन दिलाया कि परमेश्वर उसकी मदद ज़रूर करेगा।
8 गिदोन को हैरानी हो रही थी कि वह कैसे “इस्राएलियों को मिद्यानियों के हाथ से छुड़ाएगा।” यहोवा ने उसे एक सीधा-सीधा जवाब दिया: “निश्चय मैं तेरे संग रहूंगा; सो तू मिद्यानियों को ऐसा मार लेगा जैसा एक मनुष्य को।” (न्यायि. 6:11-16) गिदोन शायद अभी भी सोच रहा था कि यह कैसे होगा, इसलिए उसने परमेश्वर से एक चिन्ह माँगा। गौर कीजिए कि इस बातचीत में गिदोन ने कभी-भी शक नहीं किया कि परमेश्वर असल में है या नहीं।
9 इसके बाद जो हुआ, उससे गिदोन का विश्वास बहुत मज़बूत हुआ और वह परमेश्वर के और करीब आ गया। गिदोन ने खाना तैयार किया और स्वर्गदूत को परोसा। फिर स्वर्गदूत ने खाने को अपनी लाठी से छुआ और चमत्कार करके उसे भस्म कर दिया। जब गिदोन को एहसास हुआ कि वह स्वर्गदूत वाकई परमेश्वर का भेजा हुआ था, तो वह डर गया। उसने कहा: “हाय, प्रभु यहोवा! मैं ने तो यहोवा के दूत को साक्षात देखा है।” (न्यायि. 6:17-22) मगर क्या इस घटना से यहोवा के साथ गिदोन की दोस्ती में दरार आ गयी? बिलकुल नहीं! इसके बजाय, वह यहोवा के साथ शांति-भरा रिश्ता कायम रख पाया। हम ऐसा इसलिए कह सकते हैं, क्योंकि इसके बाद गिदोन ने वहाँ पर एक वेदी बनायी और उसका नाम “यहोवा शालोम” रखा, जिसका इब्रानी में मतलब है, “यहोवा शांति है।” (न्यायियों 6:23, 24 पढ़िए।) अगर हम उन बातों पर मनन करें जो यहोवा हर दिन हमारे लिए करता है, तो हमें एहसास होगा कि वह एक सच्चा दोस्त है। परमेश्वर से लगातार प्रार्थना करने से उसके साथ हमारा शांति-भरा रिश्ता और हमारी दोस्ती मज़बूत होती है।
यहोवा के तम्बू में कौन रहेगा?
10. भजन 15:3, 5 के मुताबिक, जो यहोवा के दोस्त बनना चाहते हैं, उनके लिए यहोवा ने क्या माँगें ठहरायी हैं?
10 जो यहोवा के दोस्त बनना चाहते हैं, उनके लिए यहोवा ने कुछ खास माँगें ठहरायी हैं। भजन 15 में दाविद ने गीत में बताया कि ‘परमेश्वर के तम्बू में रहने,’ यानी उसके दोस्त बनने के लिए हमें क्या करना होगा। (भज. 15:1) आइए अब हम उनमें से दो माँगों पर गौर करें। एक है निंदा करने से दूर रहना और दूसरा ईमानदार होना। दाविद ने कहा कि यहोवा ऐसे इंसान को अपने दोस्त के तौर पर कबूल करता है, “जो अपनी जीभ से निन्दा नहीं करता” और “जो निर्दोष की हानि करने के लिये घूस नहीं लेता।”—भज. 15:3, 5.
11. हमें क्यों दूसरों की निंदा नहीं करनी चाहिए?
11 एक और भजन में दाविद ने खबरदार किया: “अपनी जीभ को बुराई से रोक रख।” (भज. 34:13) अगर हम इस सलाह को नज़रअंदाज़ करें, तो इससे स्वर्ग में रहनेवाले हमारे पिता के साथ हमारी दोस्ती टूट सकती है। दरअसल, निंदा करना तो यहोवा के सबसे बड़े दुश्मन, शैतान इब्लीस की फितरत है। शब्द “इब्लीस” जिस यूनानी शब्द से लिया गया है, उसका मतलब है “निंदा करनेवाला।” जब हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि हम दूसरों के बारे में क्या कहते हैं, तो इससे हमें यहोवा के करीब बने रहने में मदद मिलती है। खास तौर से हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि परमेश्वर ने जिन भाइयों को मंडली में अगुवाई लेने के लिए ठहराया है, उनकी तरफ हमारा रवैया कैसा है।—इब्रानियों 13:17; यहूदा 8 पढ़िए।
12, 13. (क) हमें सब बातों में ईमानदार क्यों होना चाहिए? (ख) हमारी ईमानदारी का दूसरों पर क्या असर हो सकता है?
12 यहोवा के सेवक अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। प्रेषित पौलुस ने लिखा: “हमारे लिए प्रार्थना करते रहो, क्योंकि हमें यकीन है कि हमारा ज़मीर साफ है, इसलिए कि हम सब बातों में ईमानदारी से काम करना चाहते हैं।” (इब्रा. 13:18) हमने ठान लिया है कि ‘हम सब बातों में ईमानदारी से काम करेंगे,’ इसलिए हम अपने मसीही भाइयों के साथ बेईमानी नहीं करते। मिसाल के लिए, अगर वे हमारे लिए काम करते हैं, तो हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि हम उनका नाजायज़ फायदा न उठाएँ और उनके साथ उसी तरह पेश आएँ जैसे दूसरों के साथ पेश आते हैं। हम उन्हें वही तनख्वाह देंगे, जो हमने शुरू में तय की थी। मसीही होने के नाते, हम अपने कर्मचारियों और बाकी सभी लोगों के साथ ईमानदारी से पेश आते हैं। और अगर हम किसी मसीही भाई के लिए काम करते हैं, तो हमें भी उससे यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह हमें दूसरे कर्मचारियों से ज़्यादा रिआयत या सुविधाएँ दे।
13 दुनिया के लोग अकसर यहोवा के साक्षियों की ईमानदारी के लिए उनकी तारीफ करते हैं। उदाहरण के लिए, एक बड़ी कंपनी के निर्देशक ने गौर किया कि यहोवा के साक्षी अपने वादे के पक्के होते हैं। उसने कहा: “आप हमेशा अपनी बात रखते हैं।” (भज. 15:4) इस तरह ईमानदारी दिखाने से हमें मदद मिलती है कि हम यहोवा के दोस्त बने रहें। और इससे स्वर्ग में रहनेवाले हमारे पिता की महिमा भी होती है।
दूसरों को यहोवा के दोस्त बनने में मदद दीजिए
14, 15. प्रचार करते वक्त, हम दूसरों को यहोवा के दोस्त बनने में कैसे मदद दे सकते हैं?
14 हम प्रचार में जिन लोगों से मिलते हैं, हो सकता है उन्हें परमेश्वर के वजूद पर यकीन हो, लेकिन उनमें से ज़्यादातर लोग परमेश्वर को अपना सबसे अच्छा दोस्त नहीं मानते। ऐसे लोगों को हम परमेश्वर के दोस्त बनने में कैसे मदद दे सकते हैं? गौर कीजिए कि यीशु ने अपने 70 चेलों को प्रचार में भेजते वक्त उन्हें क्या हिदायतें दीं: “जहाँ कहीं तुम किसी घर में जाओ तो पहले कहो, ‘इस घर को शांति मिले।’ अगर वहाँ कोई शांति चाहनेवाला हो, तो तुम्हारी शांति उस पर बनी रहेगी। लेकिन अगर न हो तो तुम्हारी शांति तुम्हारे पास लौट आएगी।” (लूका 10:5, 6) अगर हम लोगों के साथ दोस्ताना अंदाज़ में पेश आएँ, तो हो सकता है वे सच्चाई के बारे में और जानना चाहें। जो हमारा विरोध करते हैं, अगर उनके साथ भी हम अच्छी तरह पेश आएँ, तो शायद उनका गुस्सा शांत हो जाए, और किसी दूसरे मौके पर वे सच्चाई के बारे में सुनने के लिए तैयार हो जाएँ।
15 जब हम ऐसे लोगों से मिलते हैं, जो बहुत धार्मिक होते हैं या जो झूठे रीति-रिवाज़ों को मानते हैं, तो हम उनके साथ एक दोस्ताना रवैया और शांति बनाए रखते हैं। हम सभी लोगों को मसीही सभाओं में आने का न्यौता देते हैं, खासकर उन लोगों को जो आज इस दुनिया से ऊब चुके हैं और जो उस परमेश्वर के बारे में सीखना चाहते हैं, जिसकी हम उपासना करते हैं। “ज़िंदगी सँवार देती है बाइबल,” इस श्रृंखला में आनेवाले लेखों में हमें ऐसे कई लोगों के बढ़िया उदाहरण पढ़ने को मिलते हैं।
अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ मिलकर काम करना
16. हम किस तरह यहोवा के “सहकर्मी” और दोस्त बन सकते हैं?
16 जो लोग साथ काम करते हैं, अकसर वे बहुत अच्छे दोस्त बन जाते हैं। जब हम प्रचार करते हैं और चेले बनाते हैं, तब हम स्वर्ग में रहनेवाले अपने पिता के शानदार गुणों के बारे में और भी सीखते हैं। हम देख पाते हैं कि उसकी पवित्र शक्ति खुशखबरी का प्रचार करने में कैसे हमारी मदद करती है। इसलिए यहोवा के समर्पित सेवक होने के नाते, जब हम उसके साथ उसके “सहकर्मी” की तरह काम करते हैं, तब हम उसके और भी करीबी दोस्त बन जाते हैं।—1 कुरिंथियों 3:9 पढ़िए।
17. हमारे सम्मेलनों और अधिवेशनों से कैसे ज़ाहिर होता है कि यहोवा हमारा दोस्त है?
17 जितना ज़्यादा समय हम प्रचार काम में बिताते हैं, उतना ज़्यादा हम यहोवा के करीब महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, हम देख पाते हैं कि जब विरोधी प्रचार काम को रोकते हैं, तब यहोवा कैसे उनकी कोशिशों को नाकाम कर देता है। हम साफ देख पाते हैं कि वह कैसे हमारा मार्गदर्शन कर रहा है। और जिस तरह वह हमें लगातार सभाओं और साहित्यों के ज़रिए सिखा रहा है, उसे देखकर हम हैरान रह जाते हैं। हमारे अधिवेशनों और सम्मेलनों में यह ज़ाहिर होता है कि यहोवा हमारी परेशानियाँ और ज़रूरतें बखूबी समझता है। एक अधिवेशन के बाद, एक परिवार ने लिखा: “इस कार्यक्रम ने सचमुच हमारा दिल छू लिया। हमने महसूस किया कि यहोवा हममें से हरेक से कितना प्यार करता है और चाहता है कि हम उसकी सेवा में कामयाब हों।” आयरलैंड में हुए एक खास अधिवेशन में हाज़िर होने के बाद, जर्मनी से आए एक जोड़े ने अपनी कदरदानी ज़ाहिर की कि कैसे वहाँ उनका प्यार से स्वागत किया गया और उनकी देखभाल की गयी। उन्होंने यह भी कहा: “सबसे ज़्यादा शुक्रिया तो हम यहोवा और उसके राजा यीशु मसीह का करते हैं। उन्होंने हमें न्यौता दिया है कि हम एकता में बंधे यहोवा के लोगों के परिवार का हिस्सा हों। हम ऐसी एकता की सिर्फ बात नहीं करते, बल्कि हर दिन इसका अनुभव भी करते हैं। डब्लिन में हुए खास अधिवेशन में हमने जो अनुभव हासिल किए हैं, वे हमें हमेशा याद दिलाएँगे कि आप सबके साथ मिलकर हमारे महान परमेश्वर की सेवा करने का हमें क्या ही अनमोल सम्मान मिला है।”
दोस्त आपस में बातचीत करते हैं
18. यहोवा के साथ बातचीत करने के मामले में हमें खुद से क्या पूछना चाहिए?
18 अच्छी बातचीत दोस्तों को करीब ले आती है। आज लोग बातचीत करने के लिए सोशल नेटवर्क और एस.एम.एस. का बहुत इस्तेमाल करते हैं। लेकिन उसके मुकाबले, हम अपने सबसे अच्छे दोस्त यहोवा के साथ कितनी बातचीत करते हैं? यह सच है कि वह ‘प्रार्थना का सुननेवाला’ परमेश्वर है। (भज. 65:2) मगर हम उससे बात करने के लिए दिन में कितनी बार समय निकालते हैं?
19. अगर हमें प्रार्थना में यहोवा को अपनी भावनाएँ ज़ाहिर करना मुश्किल लगता है, तो हमारे लिए क्या मदद हाज़िर है?
19 यहोवा के कुछ सेवकों को अपने दिल में छिपी भावनाएँ ज़ाहिर करना आसान नहीं लगता। लेकिन यहोवा हमसे यही चाहता है। वह चाहता है कि उससे प्रार्थना करते वक्त हम अपनी भावनाएँ उसे खुलकर बताएँ। (भज. 119:145; विला. 3:41) अगर हमें अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोना मुश्किल लगता है, तो हमारे लिए मदद हाज़िर है। पौलुस ने रोम में रहनेवाले मसीहियों को लिखा: “समस्या यह है कि जब हमें प्रार्थना करनी चाहिए, तब हम नहीं जानते कि हम क्या प्रार्थना करें। मगर पवित्र शक्ति खुद हमारी दबी हुई आहों के साथ हमारे लिए बिनती करती है। और दिलों को जाँचनेवाला जानता है कि पवित्र शक्ति का क्या मतलब है, क्योंकि यह परमेश्वर की मरज़ी के मुताबिक पवित्र जनों की खातिर बिनती करती है।” (रोमि. 8:26, 27) जब हम अय्यूब, भजन संहिता और नीतिवचन जैसी बाइबल की किताबें पढ़ते हैं, तो हमें अलग-अलग तरीकों से यहोवा को अपने दिल की बात बताने में मदद मिल सकती है।
20, 21. फिलिप्पियों 4:6, 7 में दिए पौलुस के शब्द हमें क्या दिलासा देते हैं?
20 जब हम मुश्किलों का सामना करते हैं, तब आइए हम पौलुस के ये शब्द याद रखें, जो उसने फिलिप्पी की मंडली को लिखे थे: “किसी भी बात को लेकर चिंता मत करो, मगर हर बात में प्रार्थना और मिन्नतों और धन्यवाद के साथ अपनी बिनतियाँ परमेश्वर को बताते रहो।” इस तरह यहोवा से प्रार्थना करने से हमें बहुत दिलासा मिल सकता है। पौलुस ने लिखा: “परमेश्वर की वह शांति जो हमारी समझने की शक्ति से कहीं ऊपर है, मसीह यीशु के ज़रिए तुम्हारे दिल के साथ-साथ तुम्हारे दिमाग की सोचने-समझने की ताकत की हिफाज़त करेगी।” (फिलि. 4:6, 7) आइए हम ‘परमेश्वर की शांति’ के लिए हमेशा शुक्रगुज़ार हों, जिसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती और जो सही मायने में हमारे दिलो-दिमाग की हिफाज़त करती है।
21 प्रार्थना की मदद से हम यहोवा के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा पाते हैं। इसलिए आइए हम ‘लगातार प्रार्थना करते रहें।’ (1 थिस्स. 5:17) हमें परमेश्वर के साथ अपनी दोस्ती को मज़बूत करते जाना चाहिए और वह सब करना चाहिए, जिसकी वह हमसे माँग करता है। और आइए हम उन आशीषों पर मनन करने के लिए वक्त निकालें, जिनका लुत्फ हम इसी वजह से उठा पाते हैं क्योंकि यहोवा सच में हमारा पिता, परमेश्वर और दोस्त है।