अध्याय 16
परमेश्वर के साथ चलते हुए ‘न्याय से काम कर’
1-3. (क) हम क्यों यहोवा के एहसान से दबे हुए हैं? (ख) हमें बचानेवाला प्यारा परमेश्वर हमसे बदले में क्या चाहता है?
मान लीजिए कि आप एक डूबते जहाज़ में फँसे हुए हैं। आपको कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही, मगर तभी अचानक आपको बचाने के लिए कोई वहाँ आ पहुँचता है और आपको वहाँ से निकाल लेता है। एक महफूज़ जगह पर ले जाने के बाद वह आपसे कहता है: “अब आप खतरे से बाहर हैं।” यह सुनकर आप कितनी राहत महसूस करते हैं! क्या आप उस इंसान का एहसान नहीं मानेंगे? आपकी यह ज़िंदगी उसकी दी हुई अमानत है।
2 कुछ हद तक, यह मिसाल दर्शाती है कि यहोवा ने हमारे लिए क्या किया है। बेशक, हम सभी उसके एहसान से दबे हुए हैं। क्योंकि उसी ने तो छुड़ौती का इंतज़ाम किया है, जिसकी वजह से हमारे लिए पाप और मौत के शिकंजे से बचना मुमकिन हो सका है। यह जानकर कि उस अनमोल छुड़ौती बलिदान पर विश्वास रखने से हमारे पाप क्षमा किए जाएँगे और सदा तक जीने की हमारी आशा ज़रूर पूरी होगी, हम सुरक्षित महसूस करते हैं। (1 यूहन्ना 1:7; 4:9) जैसा हमने अध्याय 14 में देखा, छुड़ौती का इंतज़ाम यहोवा के प्रेम और न्याय की सबसे उम्दा मिसाल है। इसलिए हमारा क्या फर्ज़ बनता है?
3 हमें बचानेवाला प्यारा परमेश्वर हमसे बदले में क्या चाहता है, इस बात पर ध्यान देना सही होगा। भविष्यवक्ता मीका के ज़रिए यहोवा हमसे कहता है: “हे मनुष्य, वह तुझे बता चुका है कि अच्छा क्या है; और यहोवा तुझ से इसे छोड़ और क्या चाहता है, कि तू न्याय से काम करे, और कृपा से प्रीति रखे, और अपने परमेश्वर के साथ नम्रता से चले?” (मीका 6:8) ध्यान दीजिए कि यहोवा हमसे जो चाहता है, उनमें एक माँग यह है कि हम ‘न्याय से काम करें।’ यह हम कैसे कर सकते हैं?
“सच्ची धार्मिकता” का पीछा करना
4. हम कैसे जानते हैं कि यहोवा हमसे अपने धर्मी स्तरों के मुताबिक जीने की उम्मीद करता है?
4 यहोवा उम्मीद करता है कि हम सही-गलत के बारे में ठहराए उसके स्तरों के मुताबिक जीएँ। उसके स्तर न्यायसंगत और धर्मी हैं, इसलिए अगर हम उन स्तरों का पालन करें, तो दरअसल हम न्याय और धार्मिकता का पीछा कर रहे होंगे। यशायाह 1:17 (NHT) कहता है: “भलाई करना सीखो; न्याय की खोज करो।” परमेश्वर का वचन हमें “धार्मिकता की खोज” करने को उकसाता है। (सपन्याह 2:3, NHT) उसका वचन हमसे यह अनुरोध भी करता है: “नये मनुष्यत्व को पहिन लो, जो परमेश्वर के अनुसार सत्य की धार्मिकता [“सच्ची धार्मिकता,” नयी हिन्दी बाइबिल], और पवित्रता में सृजा गया है।” (इफिसियों 4:24) सच्ची धार्मिकता यानी सच्चे न्याय में हिंसा, अशुद्धता और अनैतिकता के लिए कोई जगह नहीं होती, क्योंकि इन कामों की वजह से जो पवित्र है वह भ्रष्ट हो जाता है।—भजन 11:5; इफिसियों 5:3-5.
5, 6. (क) यहोवा के स्तरों के मुताबिक जीना हमारे लिए एक बोझ क्यों नहीं है? (ख) बाइबल कैसे दिखाती है कि धार्मिकता का पीछा करना लगातार जारी रहनेवाला काम है?
5 क्या यहोवा के धर्मी स्तरों के मुताबिक जीना हमारे लिए एक बोझ है? बिलकुल नहीं। जिस इंसान के दिल में यहोवा के लिए प्यार हो, वह उसकी माँगों से तंग नहीं आता। हम यहोवा से और उससे जुड़ी हर बात से प्यार करते हैं, हम ऐसा जीवन बिताना चाहते हैं जिससे वह खुश हो। (1 यूहन्ना 5:3) याद कीजिए कि यहोवा “धर्म के ही कामों से प्रसन्न रहता है।” (भजन 11:7) अगर हम सही मायनों में परमेश्वर की तरह न्याय या धार्मिकता का गुण दिखाना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम उन चीज़ों के लिए मन में प्यार पैदा करें जिनसे यहोवा प्यार करता है और उनसे घृणा करें जिनसे वह घृणा करता है।—भजन 97:10.
6 असिद्ध इंसानों के लिए धार्मिकता का पीछा करना आसान नहीं है। ज़रूरी है कि हम पुराने मनुष्यत्व को उसके पापी कामों के साथ उतार फेंकें और नए मनुष्यत्व को धारण करें। बाइबल कहती है कि नया मनुष्यत्व, सही ज्ञान के ज़रिए “नया बनता जाता है।” (कुलुस्सियों 3:9, 10) “नया बनता जाता है,” ये शब्द दिखाते हैं कि नए मनुष्यत्व का पहनना ऐसा काम है जो लगातार जारी रहता है और जिसके लिए कड़ी मेहनत की ज़रूरत होती है। चाहे हम सही काम करने के लिए कितनी ही कोशिश क्यों न करें, ऐसे मौके आ ही जाते हैं जब पापी स्वभाव की वजह से हम अपने विचारों, शब्दों या कामों में चूक कर बैठते हैं।—रोमियों 7:14-20; याकूब 3:2.
7. धार्मिकता का पीछा करने की कोशिशों में अगर हम नाकाम होते हैं, तो इसे किस नज़र से देखना चाहिए?
7 धार्मिकता का पीछा करने में जब हम कई बार नाकाम हो जाते हैं, तो हमें इसे किस नज़र से देखना चाहिए? बेशक, अगर हमसे पाप हुआ है तो हम इसकी गंभीरता को कम नहीं करना चाहेंगे। मगर हम हार भी नहीं मानेंगे, न ही यह सोचेंगे कि अपनी नाकामियों की वजह से अब हम यहोवा की सेवा करने के लायक नहीं रहे। हमारे कृपालु परमेश्वर ने ऐसा इंतज़ाम किया है जिससे सच्चे दिल से पश्चाताप करनेवाला फिर से उसका अनुग्रह पा सके। प्रेरित यूहन्ना के भरोसा दिलानेवाले शब्दों पर गौर कीजिए। उसने पहले लिखा: “मैं ये बातें तुम्हें इसलिये लिखता हूं, कि तुम पाप न करो।” लेकिन, आगे उसने सच्चाई को स्वीकार करते हुए लिखा: “और यदि कोई [विरासत में मिली असिद्धता के कारण] पाप करे, तो पिता के पास हमारा एक सहायक है, . . . यीशु मसीह।” (1 यूहन्ना 2:1) जी हाँ, यहोवा ने यीशु के छुड़ौती बलिदान का इंतज़ाम किया है ताकि हम अपने पापी स्वभाव के बावजूद उस ढंग से उसकी सेवा कर सकें जिसे वह मंज़ूर करता है। क्या यह हमें नहीं उकसाता कि हम यहोवा को खुश करने के लिए अपना जी-जान लगा दें?
सुसमाचार और परमेश्वर का न्याय
8, 9. सुसमाचार का ऐलान कैसे यहोवा का न्याय ज़ाहिर करता है?
8 दूसरों को परमेश्वर के राज्य की खुशखबरी देने के काम में पूरा-पूरा हिस्सा लेकर भी हम न्याय से काम कर सकते हैं—दरअसल, ऐसा करना परमेश्वर की तरह न्याय दिखाना है। लेकिन यहोवा के न्याय और सुसमाचार के बीच क्या रिश्ता है?
9 यहोवा, चेतावनी दिए बिना इस दुष्ट संसार का अंत नहीं करेगा। अंत के समय के दौरान क्या होगा, इस बारे में भविष्यवाणी करते हुए यीशु ने कहा: “अवश्य है कि पहिले सुसमाचार सब जातियों में प्रचार किया जाए।” (मरकुस 13:10; मत्ती 24:3) शब्द “पहिले” का इस्तेमाल दिखाता है कि दुनिया भर में प्रचार किए जाने के बाद दूसरी घटनाएँ घटेंगी। इन घटनाओं में से एक है, भविष्यवाणी में बताया गया भारी क्लेश, जिसमें दुष्टों का विनाश होगा और एक धर्मी नए संसार के आने का रास्ता तैयार होगा। (मत्ती 24:14, 21, 22) बेशक, कोई भी यहोवा पर यह इलज़ाम नहीं लगा सकता कि उसने दुष्टों का अंत करके अन्याय किया है। आज चेतावनी देकर, यहोवा ऐसों को अपने तौर-तरीके बदलने और विनाश से बचने का भरपूर मौका दे रहा है।—योना 3:1-10.
10, 11. सुसमाचार के प्रचार में हिस्सा लेने से हम कैसे परमेश्वर के जैसा न्याय दिखाते हैं?
10 हमारे सुसमाचार प्रचार करने से, परमेश्वर का न्याय कैसे ज़ाहिर होता है? पहली बात, जब उद्धार पाने में दूसरों की मदद करने के लिए हम वह सब करते हैं जो हमारे बस में है, तो इससे बढ़कर सही काम और क्या होगा। आइए एक बार फिर उस डूबते जहाज़ के उदाहरण पर गौर करें। जब आप सही-सलामत लाइफबोट में पहुँच जाते हैं, तो बेशक आप भी दूसरों की मदद करना चाहेंगे जो अभी-भी डूब रहे हैं। उसी तरह, हमारा यह फर्ज़ बनता है कि हम इस दुष्ट संसार के “पानी” में गोते खा रहे लोगों की जान बचाएँ। यह सच है कि बहुत-से लोग हमारे संदेश को ठुकरा देते हैं। मगर जब तक यहोवा धीरज दिखा रहा है, हमारी ज़िम्मेदारी बनती है कि हम इन लोगों को “मन फिराव” करने का मौका दें ताकि वे भी भविष्य में उद्धार पा सकें।—2 पतरस 3:9.
11 हम जिस किसी से मिलते हैं उसे सुसमाचार सुनाकर एक और अहम तरीके से परमेश्वर का न्याय ज़ाहिर करते हैं। वह तरीका है, कोई भेदभाव न दिखाना। याद कीजिए कि “परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।” (प्रेरितों 10:34, 35) अगर हम उसके जैसा न्याय दिखाना चाहते हैं, तो हमें लोगों के बारे में पहले से ही कोई राय कायम नहीं कर लेनी चाहिए। इसके बजाय, हमें हर किसी को सुसमाचार सुनाना चाहिए, फिर चाहे उनकी जाति या समाज में उनका ओहदा कोई भी क्यों न हो, या फिर वे अमीर या गरीब ही क्यों न हों। इस तरह, हम हर इंसान को सुसमाचार सुनने और उसके मुताबिक कदम उठाने का मौका देते हैं।—रोमियों 10:11-13.
दूसरों के साथ हमारा बर्ताव
12, 13. (क) क्यों हमें दूसरों पर दोष लगाने की उतावली नहीं करनी चाहिए? (ख) यीशु की इस सलाह का क्या मतलब है कि “दोष मत लगाओ” और “दोषी न ठहराओ”? (फुटनोट भी देखिए।)
12 न्याय से काम करने का एक और तरीका है, दूसरों के साथ वैसा ही बर्ताव करना जैसा यहोवा हमारे साथ करता है। दूसरों का न्यायी बनकर उनमें दोष निकालना, उनकी कमियों पर नुक्ताचीनी करना और उनके इरादों को शक की नज़र से देखना बहुत आसान है। मगर हममें से कौन चाहेगा कि खुद हमारे साथ यहोवा ज़रा भी दया दिखाए बगैर, हमारे हर इरादे और हमारी हर कमी की जाँच-पड़ताल करे? यहोवा हमारे साथ ऐसा बर्ताव नहीं करता। भजनहार ने कहा: “हे याह, यदि तू अधर्म के कामों का लेखा ले, तो हे प्रभु कौन खड़ा रह सकेगा?” (भजन 130:3) क्या हम इस बात के लिए एहसानमंद नहीं कि हमारा न्यायी और दयालु परमेश्वर हमेशा हमारी कमज़ोरियों के बारे में नहीं सोचता रहता? (भजन 103:8-10) तो फिर, दूसरों के साथ हमारा बर्ताव कैसा होना चाहिए?
13 अगर हम इस बात की अहमियत समझते हैं कि परमेश्वर के न्याय में दया की गहरी भावना है, तो हम उन मामलों में दूसरों पर दोष लगाने की उतावली नहीं करेंगे, जिनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं है या जो ज़्यादा अहमियत नहीं रखते। अपने पहाड़ी उपदेश में यीशु ने चेतावनी दी थी: “दोष मत लगाओ, कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए।” (मत्ती 7:1) लूका के वृत्तांत के मुताबिक, यीशु ने आगे कहा: “दोषी न ठहराओ, तो तुम भी दोषी नहीं ठहराए जाओगे।”a (लूका 6:37) यीशु जानता था कि असिद्ध इंसानों में दूसरों का न्यायी बन बैठने की आदत होती है। इसलिए उसके सुननेवालों में से अगर किसी में दूसरों पर बेरहमी से दोष लगाने की आदत थी, तो उसे यह आदत छोड़नी थी।
14. हमें किन वजहों से दूसरों पर ‘दोष नहीं लगाना’ चाहिए?
14 हमें क्यों दूसरों पर ‘दोष नहीं लगाना’ चाहिए? एक वजह तो यह है कि हमारे अधिकार का दायरा बहुत सीमित है। शिष्य याकूब हमें याद दिलाता है: “व्यवस्था का देने वाला और न्यायी तो एक ही है”—यहोवा। इसलिए याकूब एक सीधा और साफ सवाल पूछता है: “तुम कौन होते हो जो अपने पड़ोसी पर दोष लगाते हो?” (याकूब 4:12, NHT; रोमियों 14:1-4) यही नहीं, अपने पापी स्वभाव की वजह से हम दूसरों के बारे में बहुत आसानी से गलत फैसला कर सकते हैं। हमारा अलग-अलग नज़रिया और हमारे स्वभाव में समायी भावनाएँ—जैसे हमारी एकतरफा राय, या अन्याय सहने की वजह से हमारा ज़ख्मी आत्म-सम्मान या हमारी जलन और खुद को दूसरों से ज़्यादा धर्मी समझने की आदत—इन सबकी वजह से हम अपने संगी-साथियों को गलत नज़र से देखने लगते हैं। हमारी और भी कई सीमाएँ हैं और इनके बारे में सोचने से भी हमें जल्दबाज़ी में दूसरे में कमियाँ ढूँढ़ने से दूर रहना चाहिए। हम लोगों के दिल नहीं पढ़ सकते; न ही पूरी तरह जान सकते हैं कि वे किन हालात से गुज़र रहे हैं। तो फिर, हम कौन होते हैं कि अपने मसीही भाइयों के इरादों पर शक करें या परमेश्वर की सेवा में उनके काम में मीन-मेख निकालें? कितना अच्छा होगा अगर हम यहोवा की तरह बनें और अपने भाई-बहनों में अच्छाइयाँ ढूँढ़ें, न कि उनकी कमियों पर ध्यान दें!
15. परमेश्वर के उपासकों में कैसी बातों और कैसे बर्ताव के लिए कोई जगह नहीं है, और क्यों?
15 हमारे परिवार के सदस्यों के बारे में क्या? दुःख की बात है कि आज की दुनिया में घर सुख-चैन का आशियाना होने के बजाय ऐसी जगह बन गया है जहाँ कड़वे-से-कड़वे शब्दों की बौछार करके एक-दूसरे पर दोष लगाया जाता है। आजकल बुरा सलूक करनेवाले ऐसे पतियों, पत्नियों और माँ-बाप के बारे में सुनना बहुत आम हो गया है, जो हर घड़ी अपनी कड़वी ज़बान या लात-घूंसों से अपने परिवार को दिन-रात “सज़ा” देते हैं। मगर ज़हरीली, जली-कटी बातों और मार-पीट की परमेश्वर के उपासकों के बीच कोई जगह नहीं। (इफिसियों 4:29, 31; 5:33; 6:4) यीशु की यह सलाह कि ‘दोष मत लगाना’ और ‘दोषी न ठहराना’ घर की चार-दीवारी में आकर रद्द नहीं हो जाती। याद कीजिए कि न्याय से काम करने का मतलब है कि हम दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव करें जैसा यहोवा हमारे साथ करता है। हमारा परमेश्वर हमसे कभी-भी कठोरता या बेरहमी से पेश नहीं आता। इसके बजाय, जो उससे प्रेम करते हैं उनसे वह “अत्यन्त करुणा” से पेश आता है। (याकूब 5:11) हमारे लिए क्या ही बढ़िया मिसाल!
“न्यायपूर्वक” सेवा करनेवाले प्राचीन
16, 17. (क) यहोवा, प्राचीनों से क्या उम्मीद करता है? (ख) जब एक पापी सच्चा पश्चाताप नहीं दिखाता तो क्या किया जाना चाहिए, और क्यों?
16 न्याय से काम करने की ज़िम्मेदारी हम सभी की है, मगर मसीही कलीसिया में खास तौर पर प्राचीनों को ऐसा करना चाहिए। ध्यान दीजिए कि यशायाह ने जो भविष्यवाणी दर्ज़ की उसमें “शासक” या प्राचीनों का वर्णन कैसे किया गया है: “देखो, एक राजा धार्मिकता से राज्य करेगा, तथा शासक न्यायपूर्वक राज्य करेंगे।” (यशायाह 32:1, NHT) जी हाँ, यहोवा प्राचीनों से उम्मीद करता है कि वे न्याय के पक्ष में सेवा करें। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं?
17 आध्यात्मिक तौर पर काबिल ये भाई बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि न्याय या धार्मिकता की यह माँग है कि कलीसिया को शुद्ध रखा जाए। कभी-कभी प्राचीनों के लिए गंभीर पाप के मामलों में न्याय करना ज़रूरी हो जाता है। ऐसा करते वक्त वे याद रखते हैं कि परमेश्वर का न्याय इस खोज में रहता है कि जहाँ कहीं मुमकिन हो वहाँ दया दिखायी जाए। इस तरह वे पापी को पश्चाताप की तरफ लाने की पूरी कोशिश करते हैं। लेकिन तब क्या जब पाप करनेवाला, मदद करने की ऐसी कोशिशों के बावजूद सच्चा पश्चाताप नहीं दिखाता? सिद्ध न्याय के मुताबिक, यहोवा का वचन यही कहता है कि ऐसे इंसान के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाए: “कुकर्मी को अपने बीच में से निकाल दो।” इसका मतलब है कलीसिया से उसे बहिष्कृत करना। (1 कुरिन्थियों 5:11-13; 2 यूहन्ना 9-11) हालाँकि प्राचीनों को बड़े दुःख के साथ यह कदम उठाना पड़ता है, मगर वे जानते हैं कि कलीसिया की नैतिक और आध्यात्मिक शुद्धता कायम रखने के लिए यह ज़रूरी है। तब भी, वे यह उम्मीद नहीं छोड़ते कि किसी दिन वह पापी अपने आपे में आएगा और कलीसिया में लौट आएगा।—लूका 15:17, 18.
18. बाइबल के आधार पर सलाह देते वक्त प्राचीन किस बात का ध्यान रखते हैं?
18 ज़रूरत पड़ने पर बाइबल से सलाह देना भी न्याय के पक्ष में सेवा करना है। बेशक, प्राचीन दूसरों में कमियाँ ढूँढ़ते नहीं हैं। ना ही वे इस ताक में रहते हैं कि कब मौका मिले और कब वे दूसरों को नसीहत दें। मगर हो सकता है कि एक भाई या बहन ‘अनजाने में कोई गलत कदम उठाए।’ (NW) ऐसे में अगर प्राचीन यह याद रखें कि परमेश्वर का न्याय न तो क्रूर है ना ही कठोर, तो उन्हें ‘नम्रता के साथ ऐसे को संभालने’ की प्रेरणा मिलेगी। (गलतियों 6:1) इसलिए, प्राचीन गलती करनेवाले को घुड़केंगे नहीं, ना ही तीखे शब्दों का इस्तेमाल करेंगे। इसके बजाय, वे उसे प्यार से सलाह देंगे जिससे उसका हौसला बढ़े। वे सीधे-सीधे ताड़ना देने के मामले में भी, यानी गलती करनेवाले के मूढ़ता भरे कामों के नतीजों के बारे में साफ-साफ समझाते वक्त, इस बात का ध्यान रखते हैं कि यह यहोवा के झुंड की ही एक भेड़ है।b (लूका 15:7) जब ताड़ना या फटकार, प्यार की वजह से और प्यार भरे तरीके से दी जाती है तो गलती करनेवाले के सुधरने की गुंजाइश ज़्यादा रहती है।
19. प्राचीनों को क्या फैसले करने पड़ते हैं, और वे ये फैसले किस आधार पर करते हैं?
19 प्राचीनों को अकसर ऐसे फैसले करने पड़ते हैं जिनका असर उनके संगी विश्वासियों पर होता है। मिसाल के लिए, प्राचीन समय-समय पर अपनी बैठकों में इस बात पर चर्चा करते हैं कि क्या कलीसिया के दूसरे भाई इस काबिल हैं कि उन्हें प्राचीन या सहायक सेवक बनाए जाने की सिफारिश की जाए। प्राचीन जानते हैं कि इस मामले में उनका निष्पक्ष होना कितना ज़रूरी है। इसलिए वे अपनी भावनाओं पर भरोसा करने के बजाय, ज़िम्मेदारी के इन पदों के लिए परमेश्वर की माँगों के आधार पर फैसला करते हैं। इस तरह वे “निष्पक्ष होकर” काम करते हैं, और ‘पक्षपात की आत्मा से कुछ नहीं करते।’—1 तीमुथियुस 5:21, NHT.
20, 21. (क) प्राचीन क्या करने की कोशिश करते हैं, और क्यों? (ख) प्राचीन ‘हताश प्राणियों’ की मदद के लिए क्या कर सकते हैं?
20 प्राचीन दूसरे तरीकों से भी परमेश्वर का न्याय दिखाते हैं। यशायाह ने यह भविष्यवाणी करने के बाद कि प्राचीन “न्यायपूर्वक” सेवा करेंगे, आगे कहा: “हर एक मानो आंधी से छिपने का स्थान, और बौछार से आड़ होगा; या निर्जल देश में जल के झरने, व तप्त भूमि में बड़ी चट्टान की छाया।” (यशायाह 32:2) इसलिए, प्राचीन भरसक कोशिश करते हैं कि वे अपने संगी उपासकों के लिए शांति और ताज़गी का स्रोत बनें।
21 आज, ऐसी ढेरों समस्याएँ हैं जिनसे हमारी हिम्मत टूट जाती है। ऐसे में बहुतों को ज़रूरत है कि कोई उनका हौसला बढ़ाए। प्राचीनो, आप ‘हताश प्राणियों’ की मदद के लिए क्या कर सकते हैं? (1 थिस्सलुनीकियों 5:14, NW) पूरी हमदर्दी दिखाते हुए उनकी सुनिए। (याकूब 1:19) वे अपने “उदास मन” की परेशानियाँ शायद किसी ऐसे इंसान को बताना चाहते हैं जिस पर वे भरोसा कर सकें। (नीतिवचन 12:25) उन्हें यकीन दिलाइए कि यहोवा और उनके भाई-बहनों को उनकी ज़रूरत है, वे उनकी कदर करते हैं और उनसे प्यार करते हैं। (1 पतरस 1:22; 5:6, 7) इसके अलावा, आप ऐसे लोगों के साथ और उनके लिए प्रार्थना कर सकते हैं। किसी प्राचीन को अपने लिए दिल से प्रार्थना करते सुनकर उन्हें सबसे ज़्यादा दिलासा मिल सकता है। (याकूब 5:14, 15) हताश लोगों की प्यार से मदद करने की आप जो कोशिश करेंगे, उसे न्याय का परमेश्वर यहोवा नज़रअंदाज़ नहीं करेगा।
जब प्राचीन निराश लोगों का हौसला बढ़ाते हैं, तो वे यहोवा जैसा न्याय दिखाते हैं
22. हम यहोवा के न्याय की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं, और इसका नतीजा क्या होगा?
22 वाकई यहोवा के न्याय की मिसाल पर चलने से हम उसके और भी करीब आते हैं! जब हम उसके धर्मी स्तरों पर चलते हैं, जब हम जीवन बचानेवाला सुसमाचार प्रचार करते हैं, और जब हम दूसरों की बुराइयों पर ध्यान देने के बजाय उनकी अच्छाइयों पर ध्यान देते हैं, तो हम परमेश्वर का न्याय ज़ाहिर करते हैं। प्राचीनो, जब आप कलीसिया की शुद्धता की हिफाज़त करते हैं, जब आप शास्त्र से हिम्मत बंधानेवाली सलाह देते हैं, जब आप बिना पक्षपात किए फैसले करते हैं, और जब आप निराश लोगों का हौसला बढ़ाते हैं, आप परमेश्वर का न्याय दिखा रहे होते हैं। यहोवा का दिल कितना खुश होता होगा जब वह स्वर्ग से नज़र झुकाकर देखता होगा कि उसके लोग, अपने परमेश्वर के साथ चलते हुए ‘न्याय से काम करने’ की जी-जान लगाकर कोशिश कर रहे हैं!
a मूल भाषा में, बाइबल के लेखकों ने यहाँ एक काम न करने की आज्ञा (निरंतर) वर्तमानकाल में दी है। इसका मतलब है कि वह काम पहले से जारी है, मगर अब उसे बंद होना चाहिए।
b दूसरा तीमुथियुस 4:2 में, बाइबल कहती है कि प्राचीनों को कभी-कभी ‘उलाहना देना, डांटना और समझाना’ पड़ता है। यूनानी शब्द जिसका अनुवाद ‘समझाना’ (पाराकालेओ) किया गया है, उसका मतलब “हौसला बढ़ाना” हो सकता है। इसी शब्द से जुड़ा एक यूनानी शब्द, पाराक्लीटोस है जिसका मतलब है मुकद्दमे की पैरवी करनेवाला एक वकील। इससे ज़ाहिर है कि जब प्राचीन सख्त ताड़ना देते हैं तब भी उन्हें उन लोगों का मददगार होना चाहिए, जिन्हें आध्यात्मिक सहायता की ज़रूरत होती है।