मिशना और मूसा को दी गयी परमेश्वर की व्यवस्था
“शुरूआत से ही हमें ऐसा लगता है कि हम उस बातचीत में शामिल हो रहे हैं जो काफ़ी पहले से चल रही है और ऐसे विषयों पर है जो हमारी समझ में कभी नहीं आ सकते . . . हमें . . . लगता है मानो हम किसी दूर हवाई अड्डे के प्रतीक्षा कक्ष में हों। हमें लोगों के शब्द तो समझ आते हैं, लेकिन उनके अर्थ और चिंताओं से, ख़ासकर उनकी आवाज़ों की उतावली से हम चकरा जाते हैं।” मिशना को पहली बार पढ़ने पर पाठकों में जो भावना उठ सकती है उसका वर्णन यहूदी विद्वान जेकब नॉइसनर इस प्रकार करता है। और नॉइसनर आगे कहता है: “मिशना की शुरूआत अटपटी है। और यह बीच में ही ख़त्म हो जाती है।”
यहूदीवाद का इतिहास (अंग्रेज़ी) में, डैनियल जॆरमी सिल्वर मिशना को “रबीनी यहूदीवाद का मुख्य पाठ” कहता है। असल में, वह आगे टिप्पणी करता है: “मिशना ने चालू [यहूदी] शिक्षा के मुख्य पाठ्यक्रम के रूप में बाइबल की जगह ले ली।” ऐसी दुर्बोध शैली की पुस्तक इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों बनती?
इसका आंशिक उत्तर मिशना में की गयी इस टिप्पणी में है: “मूसा को सीनै पर तोराह मिली और उसने इसे यहोशू को दे दिया, यहोशू ने इसे प्राचीनों को, और प्राचीनों ने इसे भविष्यवक्ताओं को दे दिया। और भविष्यवक्ताओं ने इसे महा सभा के पुरुषों को दे दिया।” (एवोत १:१) मिशना का दावा है कि इसमें वह जानकारी है जो सीनै पर्वत पर मूसा को दी गयी थी—इस्राएल को दी गयी परमेश्वर की व्यवस्था का अलिखित भाग। महा सभा (बाद में सैनहॆडरिन कहलायी) के पुरुषों को बुद्धिमान विद्वानों या ज्ञानियों की एक लंबी श्रंखला की कड़ी समझा जाता था, जिन्होंने अमुक शिक्षाओं को पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक रूप से आगे बढ़ाया जब तक कि ये अंततः मिशना में न लिख ली गयीं। लेकिन क्या यह सच है? असल में मिशना को किसने लिखा और क्यों लिखा? क्या इसमें दी गयी जानकारी सीनै पर मूसा को मिली थी? क्या इसका आज हमारे लिए कोई अर्थ है?
मंदिर के बिना यहूदीवाद
जब ईश्वर-प्रेरणा के अधीन शास्त्र का लेखन हो रहा था तब यह विश्वास नहीं था कि मूसा की लिखित व्यवस्था के अतिरिक्त एक ईश्वरीय मौखिक व्यवस्था भी दी गयी है।a (निर्गमन ३४:२७) कई सदियों बाद यहूदीवाद के बीच फरीसियों के समूह ने इस धारणा को विकसित किया और फैलाया। सामान्य युग प्रथम शताब्दी में, सदूकियों और अन्य यहूदियों ने इस ग़ैर-बाइबलीय शिक्षा का विरोध किया। लेकिन जब तक यरूशलेम का मंदिर यहूदी उपासना का केंद्र था, तब तक मौखिक व्यवस्था का वादविषय गौण था। मंदिर में उपासना ने हर यहूदी के अस्तित्त्व को रूप और कुछ हद तक स्थिरता दी।
लेकिन सा.यु. ७० में, यहूदी जाति पर धार्मिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा। रोमी सेना ने यरूशलेम का नाश कर दिया और दस लाख से अधिक यहूदी मारे गये। मंदिर, जो उनके आध्यात्मिक जीवन का केंद्र था, नहीं रहा। मूसा की व्यवस्था के अनुसार जीना, जिसकी यह माँग थी कि मंदिर में बलि चढ़ायी जाए और याजकीय सेवा की जाए, अब असंभव था। यहूदीवाद की आधारशिला टूट गयी थी। तलमूदी विद्वान एडन स्टाइनसॉल्ट्स लिखता है: “सा.यु. ७० में हुए . . . विनाश ने धार्मिक जीवन के समस्त ढाँचे का पुनर्निर्माण करना एक अतिशीघ्र अत्यावश्यकता बना दिया था।” और उन्होंने इसका पुनर्निर्माण किया भी।
मंदिर के नाश होने से पहले ही, फरीसी नेता हिलेल के एक प्रतिष्ठित शिष्य, योहानान बॆन ज़ाकाई ने यहूदीवाद के आध्यात्मिक केंद्र को और सैनहॆडरिन को यरूशलेम से जाबनॆह स्थानांतरित करने की अनुमति वॆसपेज़ीयन (जल्द ही सम्राट बननेवाला था) से ले ली थी। जैसा स्टाइनसॉल्ट्स समझाता है, यरूशलेम के विनाश के बाद, योहानान बॆन ज़ाकाई “के सामने लोगों के लिए एक नया केंद्र स्थापित करने और उन्हें नयी परिस्थितियों के हिसाब से मेल बिठाने में मदद देने की चुनौती थी। अब जबकि मंदिर नहीं था धार्मिक उत्साह का रुख़ किसी दूसरे केंद्र बिंदु की तरफ़ किया जाना था।” वह नया केंद्र बिंदु था मौखिक व्यवस्था।
मंदिर तहस-नहस हो गया था, सदूकियों और अन्य यहूदी संप्रदायों ने कोई ठोस विकल्प नहीं पेश किया। फरीसी लोग यहूदी मुख्यधारा बन गये और विरोधी गुटों को अपने साथ ले लिया। एकता पर ज़ोर देकर, मुख्य रब्बियों ने अपने आपको फरीसी कहना छोड़ दिया, क्योंकि इस पद में सांप्रदायिक और पक्षपाती भाव भरा हुआ था। वे रब्बी, “इस्राएल के ज्ञानी” नाम से जाने जाने लगे। ये ज्ञानी अपनी मौखिक व्यवस्था की धारणा को जगह देने के लिए एक ढाँचा बनाते। वह एक आध्यात्मिक भवन होता जिस पर मंदिर के जितनी आसानी से मनुष्य द्वारा हमला नहीं हो सकता था।
मौखिक व्यवस्था का समेकन
हालाँकि जाबनॆह (यरूशलेम से ४० किलोमीटर पश्चिम) में रबीनी अकादमी अब मुख्य केंद्र थी, फिर भी पूरे इस्राएल में और बाबुल तथा रोम जैसे दूर-दूर स्थानों में भी मौखिक व्यवस्था सिखानेवाली अन्य अकादमियाँ खुलने लगीं। लेकिन, इसने एक समस्या खड़ी कर दी। स्टाइनसॉल्ट्स बताता है: “जब तक सभी ज्ञानी एकसाथ थे और विद्वता का मुख्य कार्य [यरूशलेम में] पुरुषों के एक समूह द्वारा किया जा रहा था, तब तक परंपरा की एकरूपता सुरक्षित थी। लेकिन शिक्षकों के एकाएक बढ़ने और अलग-अलग स्कूल स्थापित होने से अभिव्यक्ति के अनेकोंनेक रूप और तरीक़े बन गये।”
मौखिक व्यवस्था के शिक्षकों को तानाइम कहा जाता था। यह नाम एक अरामी मूल से लिया गया था जिसका अर्थ है “अध्ययन करना,” “दोहराना,” या “सिखाना।” इसने बार-बार दोहराने और रटने के द्वारा मौखिक व्यवस्था को सीखने और सिखाने के उनके तरीक़े पर ज़ोर दिया। मौखिक परंपराओं को रटने में मदद देने के लिए, हर नियम या परंपरा को छोटा करके एक संक्षिप्त, लघु सूक्ति बना दिया गया था। जितने कम शब्द होते, उतना अच्छा होता। रूढ़, काव्यात्मक शैली का प्रयोग करने की कोशिश की जाती थी और सूक्तियों का प्रायः जाप किया जाता, अथवा उन्हें गाया जाता था। लेकिन, ये नियम अव्यवस्थित थे और अलग-अलग शिक्षकों के बहुत ही अलग-अलग नियम थे।
अनेक भिन्न मौखिक परंपराओं को निश्चित रूप और आकार देनेवाला पहला रब्बी था अकिवा बॆन जोज़फ (लगभग सा.यु. ५०-१३५)। उसके बारे में स्टाइनसॉल्ट्स लिखता है: “उसके समकालिकों ने उसके काम की तुलना एक ऐसे मज़दूर के काम के साथ की जो खेत में जाता है और जो कुछ पाता है उसे बिना देखे-भाले अपनी टोकरी में भर लेता है, फिर वह घर लौटता है और अलग-अलग क़िस्म की चीज़ों को अलग-अलग रखता है। अकिवा ने कई अव्यवस्थित विषयों का अध्ययन किया था और उन्हें अलग-अलग वर्गों में डाला था।”
सामान्य युग दूसरी शताब्दी में—यरूशलेम के विनाश के ६० से अधिक साल बाद—बार कॉखबा ने रोम के विरुद्ध दूसरे महा यहूदी विद्रोह का नेतृत्व किया। एक बार फिर, विद्रोह विपत्ति लाया। लगभग दस लाख यहूदी हताहतों में अकिवा और उसके अनेक शिष्य भी थे। मंदिर के पुनर्निर्माण की यदि कोई आशा थी भी तो वह अब चूर हो गयी, क्योंकि रोमी सम्राट हेड्रियन ने घोषित कर दिया कि यहूदी लोग मंदिर के विनाश की बरसी को छोड़, और किसी समय यरूशलेम में नहीं जा सकते।
अकिवा के बाद आये तानाइम ने यरूशलेम के मंदिर को कभी नहीं देखा था। लेकिन मौखिक व्यवस्था की परंपराओं में सुगठित अध्ययन क्रम उनका “मंदिर,” या उपासना का केंद्र बन गया। अकिवा और उसके शिष्यों ने मौखिक व्यवस्था के इस ढाँचे को मज़बूत बनाने के लिए जो काम शुरू किया था उसका बीड़ा आख़िरी तानाइम, जूडाह ह-नसी ने उठाया।
मिशना की विषय-वस्तु
जूडाह ह-नसी हिलेल और गमलीएल का वंशज था।b वह बार कॉखबा के विद्रोह की अवधि में जन्मा था और सा.यु. दूसरी शताब्दी के अंत और तीसरी शताब्दी के आरंभिक समय में वह इस्राएल में यहूदी समुदाय का प्रमुख बना। ह-नसी उपाधि का अर्थ है “राजकुमार,” जो दिखाता है कि अपने संगी यहूदियों की नज़रों में उसका क्या ओहदा था। अकसर उसका ज़िक्र बस रब्बी कहकर किया गया है। जूडाह ह-नसी स्वयं अपनी अकादमी का और सैनहॆडरिन का प्रमुख था, पहले बॆत शॆएरिम में, और बाद में सफ़ॉरस, गलील में।
यह समझते हुए कि रोम के साथ भावी संघर्ष मौखिक व्यवस्था के संचारण को ख़तरे में डाल सकते हैं, जूडाह ह-नसी ने इसे एक ऐसा रूप देने का निश्चय किया जो इसे सुरक्षित रख पाता। उसने अपनी अकादमी में अपने समय के सबसे बड़े विद्वानों को एकत्र किया। मौखिक व्यवस्था के हर मुद्दे और परंपरा पर तर्क-वितर्क किया गया। इन चर्चाओं के निष्कर्षों को काव्यात्मक इब्री गद्य के सख़्त नमूने का अनुसरण करते हुए, बहुत ही संक्षिप्त सूक्तियों में पिरोया गया।
मुख्य विषयों के अनुसार, इन निष्कर्षों को छः प्रमुख भागों या वर्गों में व्यवस्थित किया गया। जूडाह ने इन्हें ६३ खंडों या प्रबंधों में विभाजित किया। अब आध्यात्मिक भवन तैयार हो गया था। इस समय तक, ऐसी परंपराओं को हमेशा मौखिक रूप से संचारित किया गया था। लेकिन अतिरिक्त सुरक्षा के तौर पर, अंतिम क्रांतिकारी क़दम उठाया गया—वह यह था कि सब कुछ लिखित में रखा जाए। मौखिक व्यवस्था के इस प्रभावशाली नये लिखित रूप को मिशना कहा गया। नाम मिशना इब्रानी मूल शानाह से आता है जिसका अर्थ है “दोहराना,” “अध्ययन करना,” या “सिखाना।” यह अरामी तेना का समतुल्य है, जिससे मिशना के शिक्षकों के लिए प्रयोग किया गया नाम, तानाइम आता है।
मिशना का उद्देश्य यह नहीं था कि एक निश्चित नियमावली स्थापित करे। यह मानते हुए कि पाठक मूल सिद्धांत जानता ही है, इसमें अधिकतर अपवाद दिये गये थे। असल में, जूडाह ह-नसी के समय में रबीनी अकादमियों में जिन बातों पर चर्चा की जाती थी और जो सिखाया जाता था, इसमें उसका सार था। मिशना को और तर्क-वितर्क के लिए मौखिक व्यवस्था की एक रूपरेखा होना था, एक ख़ाका या मूल ढाँचा होना था, जिस पर निर्माण किया जाता।
मिशना सीनै पर्वत पर मूसा को दी गयी कोई भी जानकारी नहीं प्रकट करती। इसके बजाय, यह मौखिक व्यवस्था के विकास की, उस धारणा की अंतर्दृष्टि देती है जो फरीसियों से शुरू हुई। मिशना में अभिलिखित जानकारी मसीही यूनानी शास्त्र में किये गये कथनों पर और यीशु मसीह तथा फरीसियों के बीच हुई अमुक चर्चाओं पर कुछ प्रकाश डालती है। लेकिन, सतर्कता की ज़रूरत है क्योंकि मिशना में दिये गये विचार सा.यु. दूसरी शताब्दी के यहूदी विचारों को दर्शाते हैं। मिशना द्वितीय मंदिर अवधि और तलमूद के बीच की कड़ी है।
[फुटनोट]
a अतिरिक्त जानकारी के लिए, वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित ब्रोशर, क्या कभी युद्ध बिना एक संसार होगा? (अंग्रेज़ी), में पृष्ठ ८-११ देखिए।
b जुलाई १५, १९९६ की प्रहरीदुर्ग में “गमलीएल—उसने तारसी शाऊल को सिखाया” लेख देखिए।
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मिशना के भाग
मिशना छः वर्गों में विभाजित है। इनमें ६३ छोटी पुस्तकें, या प्रबंध हैं, जो अध्यायों और मिशनायोत, या अनुच्छेदों में (आयतों में नहीं) विभाजित हैं।
१. ज़िराइम (कृषि कानून)
इन प्रबंधों में भोजन के समय और खेती के संबंध में की गयी प्रार्थनाओं पर चर्चाएँ सम्मिलित हैं। इनमें दशमांश, याजकीय हिस्सा, बिनाई, और सब्त के सालों के बारे में नियम भी सम्मिलित हैं।
२. मोएद (पवित्र अवसर, त्योहार)
इस वर्ग में दिये गये प्रबंध सब्त, प्रायश्चित्त दिन, और अन्य त्योहारों से संबंधित नियमों की चर्चा करते हैं।
३. नाशिम (स्त्रियाँ, विवाह कानून)
ये प्रबंध विवाह और तलाक़, शपथ, नाज़ीर, और कथित व्यभिचार के मामलों की चर्चा करते हैं।
४. नज़िकिन (क्षतिपूर्ति और दीवानी कानून)
इस वर्ग के प्रबंधों में दीवानी और संपत्ति कानून, अदालतों और सज़ाओं, सैनहॆडरिन के कार्य, मूर्तिपूजा, शपथ, और गुरुओं के नैतिक नियमों से संबंधित विषयों पर चर्चा की गयी है। (एवोत)।
५. कोडाशिम (बलि)
ये प्रबंध पशु और अन्न भेंटों, साथ ही मंदिर के पहलुओं से संबंधित नियमों पर चर्चा करते हैं।
६. तोहारोत (शुद्धीकरण रीतियाँ)
इस वर्ग के प्रबंध रैतिक शुद्धता, स्नान, हाथ धोना, त्वचा रोग, और भिन्न वस्तुओं की अशुद्धता की चर्चा करते हैं।
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मिशना और मसीही यूनानी शास्त्र
मत्ती १२:१, २: “उस समय यीशु सब्त के दिन खेतों में से होकर जा रहा था, और उसके चेलों को भूख लगी, सो वे बालें तोड़ तोड़कर खाने लगे। फरीसियों ने यह देखकर उस से कहा, देख, तेरे चेले वह काम कर रहे हैं, जो सब्त के दिन करना उचित नहीं।” यीशु के चेलों ने जो किया उसकी मनाही इब्रानी शास्त्र नहीं करता। लेकिन मिशना में हमें ऐसे ३९ कार्यों की सूची मिलती है जो रब्बियों ने सब्त के दिन करने को मना किये थे।—शाबात ७:२.
मत्ती १५:३: “[यीशु] ने उन को उत्तर दिया, कि तुम भी अपनी रीतों के कारण क्यों परमेश्वर की आज्ञा टालते हो?” मिशना इस मनोवृत्ति की पुष्टि करती है। (सैनहॆडरिन ११:३) हम पढ़ते हैं: “शास्त्रियों के शब्दों [के पालन] में उससे अधिक सख़्ती बरती जानी चाहिए जितनी कि [लिखित] व्यवस्था के शब्दों [के पालन] में बरती जाती है। यदि एक मनुष्य कहे, ‘तावीज़ें पहनने की कोई बाध्यता नहीं’ जो कि व्यवस्था के शब्दों का उल्लंघन हुआ, तो वह दोषी नहीं है; [लेकिन यदि वह कहे], ‘उनमें पाँच भाग होने चाहिए’, जो कि शास्त्रियों के शब्दों में जोड़ना हुआ, तो वह दोषी है।”—मिशना, हर्बर्ट डैनबी द्वारा, पृष्ठ ४००.
इफिसियों २:१४: “वही [यीशु] हमारा मेल है, जिस ने दोनों को एक कर लिया: और अलग करनेवाली दीवार को जो बीच में थी, ढा दिया।” मिशना कहती है: “मंदिर टीले के अंदर एक झँझरीदार जँगला (सोरॆग) था, जो दस हाथ ऊँचा था।” (मिडोत २:३) अन्यजातियों को इसके आगे जाने और अंदर के आँगनों में प्रवेश करने की मनाही थी। प्रेरित पौलुस ने सा.यु. ६० या ६१ में इफिसियों को लिखते समय शायद लाक्षणिक रूप से इस दीवार की ओर संकेत किया हो, जो उस समय तक ढही नहीं थी। लाक्षणिक दीवार व्यवस्था वाचा थी, जिसने लंबे अरसे से यहूदियों को अन्यजातियों से अलग किया हुआ था। लेकिन, सा.यु. ३३ में मसीह की मृत्यु के आधार पर, वह दीवार ढा दी गयी।