आगे को अपने लिये न जीएँ
“[मसीह] इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं।”—2 कुरिन्थियों 5:15.
1, 2. पहली सदी में, बाइबल की किस आज्ञा ने यीशु के चेलों को खुद से ज़्यादा दूसरों के भले की सोचने के लिए उकसाया?
धरती पर यीशु की वह आखिरी रात थी। कुछ ही घंटों बाद, वह उन लोगों की खातिर अपनी जान कुरबान करता जो उस पर विश्वास रखते। उस रात, यीशु ने अपने वफादार प्रेरितों को बहुत-सी ज़रूरी बातें बतायीं। इनमें एक आज्ञा भी शामिल थी। वह आज्ञा यह थी कि उसके चेले एक-दूसरे से प्रेम करें जिससे उनकी पहचान होती। उसने कहा: “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो।”—यूहन्ना 13:34, 35.
2 सच्चे मसीहियों को एक-दूसरे के लिए ऐसा प्यार दिखाना था जो खुद को दूसरों पर कुरबान कर दे और अपनी ज़रूरतों से ज़्यादा मसीही भाई-बहनों की ज़रूरतों पर ध्यान दे। वक्त आने पर उन्हें “अपने मित्रों के लिये अपना प्राण दे[ने]” से भी पीछे नहीं हटना चाहिए था। (यूहन्ना 15:13) शुरू के मसीहियों ने इस नयी आज्ञा की तरफ कैसा रवैया दिखाया? दूसरी सदी के लेखक टर्टलियन ने अपनी जानी-मानी किताब माफी (अँग्रेज़ी) में बताया कि लोग मसीहियों के बारे में क्या कहते थे: ‘देखो तो वे एक-दूसरे से कितना प्यार करते हैं; और किस तरह एक-दूसरे की खातिर मर-मिटने को भी तैयार हैं।’
3, 4. (क) हमें स्वार्थ की भावना का विरोध क्यों करना चाहिए? (ख) इस लेख में हम किस बात पर चर्चा करेंगे?
3 हमारे लिए भी ज़रूरी है कि हम ‘एक दूसरे के भार उठाएँ, और इस प्रकार मसीह की व्यवस्था पूरी करें।’ (गलतियों 6:2) मगर मसीह की व्यवस्था को मानने और ‘अपने परमेश्वर यहोवा से अपने सारे मन, सारे प्राण, सारी बुद्धि के साथ प्रेम रखने और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखने’ में हमारे आगे एक बड़ी रुकावट है। वह है हमारा स्वार्थ। (मत्ती 22:37-39) असिद्ध होने की वजह से, हम अकसर सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं। इसके अलावा, रोज़मर्रा ज़िंदगी के तनाव, स्कूल या नौकरी की जगह पर एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ और अपनी ज़रूरतें पूरी करने की जद्दोजेहद से हमारे अंदर स्वार्थ की यह पैदाइशी भावना और बढ़ जाती है। लोगों में स्वार्थ की यह भावना आज और भी ज़ोर पकड़ रही है। प्रेरित पौलुस ने चिताया था: “अंतिम दिनों में . . . लोग सिर्फ अपने बारे में सोचनेवाले बन जाएँगे।”—2 तीमुथियुस 3:1, 2, फिलिप्स।
4 जब धरती पर यीशु की सेवा खत्म होने पर थी, तो उसने अपने चेलों को तीन ऐसे कदम बताए जिनसे वे स्वार्थ की भावना पर काबू पाने में कामयाब हो सकते थे। ये कदम क्या थे और हम यीशु की हिदायतों से कैसे फायदा पा सकते हैं?
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5. उत्तरी गलील में प्रचार करते वक्त, यीशु ने अपने चेलों को कौन-सी नयी बात बतायी और इससे चेले बौखला क्यों गए?
5 उत्तरी गलील में कैसरिया फिलिप्पी का शांत और खूबसूरत इलाका, आराम और मौज-मस्ती के लिए बहुत बढ़िया जगह थी। मगर, यीशु ने यहाँ प्रचार करते वक्त चेलों को अपनी इच्छाएँ नकारने की सलाह दी। यही वह जगह थी जहाँ पहली बार यीशु ने चेलों को बताया कि “अवश्य है कि मैं यरूशलेम को जाऊं और प्राचीनों, मुख्य याजकों और शास्त्रियों द्वारा बहुत दुख उठाऊं और मार डाला जाऊं और तीसरे दिन जिलाया जाऊं।” (मत्ती 16:21, NHT) यीशु के चेले यह नयी बात सुनकर कितने बौखला गए होंगे, क्योंकि वे तो यह आस लगाए बैठे थे कि उनका अगुवा इस धरती पर जल्द ही अपना राज शुरू करेगा!—लूका 19:11; प्रेरितों 1:6.
6. यीशु ने पतरस को सख्ती से क्यों डाँटा?
6 पतरस फौरन “[यीशु को] अलग ले जाकर झिड़कने लगा कि हे प्रभु, परमेश्वर न करे [“अपने साथ इतनी ज़्यादती न कर,” NW]; तुझ पर ऐसा कभी न होगा।” यीशु का जवाब क्या था? “उस ने फिरकर पतरस से कहा, हे शैतान, मेरे साम्हने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।” यीशु और पतरस की सोच में कितना फर्क था! यीशु ने बेझिझक त्याग की ज़िंदगी जीना कबूल किया था जो उसके लिए परमेश्वर की मरज़ी थी, जी हाँ, ऐसी ज़िंदगी जिसका कुछ ही महीनों में अंत होता क्योंकि उसे स्तंभ पर चढ़ाकर मार डाला जाता। दूसरी तरफ, पतरस ने उसे आराम की ज़िंदगी जीने की सलाह दी। उसने कहा: “अपने साथ इतनी ज़्यादती न कर।” (NW) बेशक पतरस के इरादे नेक थे। फिर भी, यीशु ने उसे डाँटा क्योंकि उस मौके पर पतरस शैतान के विचार ज़ाहिर कर रहा था। पतरस ‘परमेश्वर की तरह नहीं, लोगों की तरह सोच रहा था।’ (ईज़ी-टू-रीड वर्शन)—मत्ती 16:22, 23.
7. जैसा मत्ती 16:24 में दर्ज़ है, यीशु ने अपने चेलों को कौन-सा रास्ता इख्तियार करने के लिए कहा?
7 आज भी पतरस के ये शब्द बार-बार सुनायी देते हैं। आज की दुनिया अकसर कहती है कि ‘अपने साथ इतनी ज़्यादती न कर’ या ‘ज़िंदगी में जिस राह पर कम-से-कम मुश्किलें आएँ उसी पर चल।’ मगर, यीशु ने बिलकुल अलग सोच रखने की सलाह दी। उसने अपने चेलों से कहा: “यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इन्कार करे और अपना क्रूस उठाए, और मेरे पीछे हो ले।” (मत्ती 16:24) द न्यू इंटरप्रिटर्स बाइबल कहती है: “ये शब्द बाहरवालों के लिए मसीह का चेला बनने का न्यौता नहीं हैं, बल्कि जो मसीह का न्यौता कबूल करके उसके चेले बन चुके हैं उन्हें चेले बनने के मतलब पर ध्यान देने का बुलावा दे रहे हैं।” इस आयत में यीशु ने जो तीन कदम बताए, वे उसके चेलों को उठाने हैं। आइए हर कदम पर अलग से ध्यान दें।
8. समझाइए कि खुद से इनकार करने का क्या मतलब है।
8 सबसे पहले, हमें खुद का इनकार करना है। ‘अपने आप का इन्कार करने’ के लिए इस्तेमाल होनेवाले यूनानी शब्द का मतलब है, स्वार्थी इच्छाओं को या अपने आराम को ठुकराने के लिए तैयार होना। खुद से इनकार करने का मतलब सिर्फ कभी-कभी कुछ किस्म के सुख या आराम को त्यागना नहीं है; ना ही इसका मतलब है कि हम साधु-सन्यासी बन जाएँ या अपने शरीर को मार-कूटकर अपनी जान दे दें। बल्कि इसका यह मतलब है कि अब हम ‘अपने नहीं रहे’ यानी हमने खुशी-खुशी अपनी सारी ज़िंदगी और अपना सबकुछ यहोवा को दे दिया है। (1 कुरिन्थियों 6:19, 20) अब हम सिर्फ अपने बारे में सोचने के बजाय परमेश्वर की सेवा करने और उसकी आज्ञा मानने के बारे में सोचते हैं। खुद से इनकार करने का मतलब यह भी है कि अब हमने परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की ठान ली है, फिर चाहे ऐसा करने के लिए हमें अपने पापी स्वभाव के खिलाफ क्यों न जाना पड़े। जब हम समर्पण करके बपतिस्मा लेते हैं, तब हम दिखाते हैं कि हम सिर्फ परमेश्वर के हैं। इसके बाद से हम बाकी ज़िंदगी अपने समर्पण के मुताबिक जीने की कोशिश करते हैं।
9. (क) जब यीशु धरती पर था, तब क्रूस या स्तंभ किस बात की निशानी था? (ख) हम किस तरह अपना स्तंभ उठाते हैं?
9 दूसरा कदम यह है कि हमें अपना क्रूस या यातना स्तंभ उठाना है। पहली सदी में यातना स्तंभ, तकलीफें झेलकर शर्मनाक मौत मरने की निशानी हुआ करता था। आम तौर पर, सिर्फ अपराधियों को स्तंभ पर मारा जाता था या उन्हें मार डालने के बाद उनकी लाशें स्तंभ पर लटकायी जाती थीं। इन शब्दों से यीशु ने दिखाया कि एक मसीही को ज़ुल्म, बेइज़्ज़ती, यहाँ तक कि मौत झेलने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि वह इस संसार का नहीं है। (यूहन्ना 15:18-20) अपने मसीही स्तरों की वजह से हम बाकी लोगों से अलग हैं, इसलिए हो सकता है कि दुनिया हमें ‘बुरा भला कहे।’ (1 पतरस 4:4) ऐसा स्कूल में, नौकरी की जगह या परिवार में भी हो सकता है। (लूका 9:23) चाहे जो भी हो, हम दुनिया की नफरत बरदाश्त करने के लिए तैयार हैं क्योंकि अब हम अपने लिए नहीं जीते। यीशु ने कहा: “धन्य हो तुम, जब मनुष्य मेरे कारण तुम्हारी निन्दा करें, और सताएं और झूठ बोल बोलकर तुम्हारे विरोध में सब प्रकार की बुरी बात कहें। आनन्दित और मगन होना क्योंकि तुम्हारे लिये स्वर्ग में बड़ा फल है।” (मत्ती 5:11, 12) वाकई, परमेश्वर का अनुग्रह पाना सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है।
10. यीशु के पीछे चलने में क्या-क्या शामिल है?
10 तीसरा, यीशु मसीह ने कहा कि हमें उसके पीछे हो लेना है। डब्ल्यू. ई. वाइन की ऐन एक्सपॉज़िट्री डिक्शनरी ऑफ न्यू टॆस्टमेंट वर्ड्स के मुताबिक पीछे हो लेने का मतलब है साथी बनना, या “एक ही राह पर साथ चलना।” पहला यूहन्ना 2:6 के मुताबिक, “जो कोई यह कहता है, कि मैं [परमेश्वर] में बना रहता हूं, उसे चाहिए, कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह [मसीह] चलता था।” यीशु कैसे चला? अपने स्वर्गीय पिता के लिए और अपने चेलों के लिए यीशु के दिल में इतना गहरा प्यार था कि उसमें स्वार्थ की रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं थी। पौलुस ने लिखा: “मसीह ने अपने आप को प्रसन्न नहीं किया।” (रोमियों 15:3) यीशु अपनी भूख-प्यास और थकान भूलकर दूसरों की ज़रूरतों पर पहले ध्यान देता था। (मरकुस 6:31-34) यीशु ने राज्य का प्रचार करने और सिखाने में जी-जान से मेहनत भी की। हमें भी यह काम मिला है कि हम ‘सब जातियों के लोगों को चेला बनाएँ और उन्हें वे सब बातें जिनकी यीशु ने आज्ञा दी है, मानना सिखाएँ।’ तो इस काम को पूरा करने के लिए क्या हमारे अंदर यीशु जैसा जज़्बा नहीं होना चाहिए? (मत्ती 28:19,20) मसीह ने अपने हर काम से हमारे लिए एक आदर्श रखा और हमें ‘उसके पद-चिन्हों पर चलना’ चाहिए।—1 पतरस 2:21, NHT.
11. यह क्यों ज़रूरी है कि हम खुद का इनकार करें, अपना स्तंभ उठाएँ और यीशु मसीह के पीछे हो लें?
11 यह बेहद ज़रूरी है कि हम खुद का इनकार करें, अपना स्तंभ उठाएँ और अपने आदर्श यीशु के पीछे चलते जाएँ। ऐसी ज़िंदगी जीकर हम स्वार्थ के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते, जी हाँ उसी स्वार्थ के लिए जो दूसरों पर कुरबान हो जानेवाला प्यार दिखाने में बहुत बड़ी रुकावट होता है। इसके अलावा, यीशु ने कहा था: “जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा। यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले में क्या देगा?”—मत्ती 16:25, 26.
हम दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकते
12, 13. (क) यीशु से सलाह माँगनेवाले नौजवान हाकिम को क्या चिंता सता रही थी? (ख) यीशु ने उस नौजवान को क्या सलाह दी और क्यों?
12 जब यीशु ने अपने चेलों को बताया कि उन्हें खुद से इनकार करने की ज़रूरत है, उसके कुछ महीनों बाद, एक अमीर नौजवान हाकिम उसके पास आया और उससे पूछा: “हे गुरु; मैं कौन सा भला काम करूं, कि अनन्त जीवन पाऊं?” यीशु ने उससे कहा, “आज्ञाओं को माना कर” और फिर उसने कुछ आज्ञाओं का हवाला दिया। उस नौजवान ने कहा: “इन सब को तो मैं ने माना है।” ज़ाहिर है कि यह नौजवान सच्चे दिल से व्यवस्था की आज्ञाएँ मानने के लिए अपनी तरफ से हर मुमकिन कोशिश कर रहा था। इसलिए उसने पूछा: “अब मुझ में किस बात की घटी है?” जवाब में यीशु ने यह कहकर उस नौजवान को एक अनोखा न्यौता दिया: “यदि तू सिद्ध [“पूर्ण,” नयी हिन्दी बाइबिल] होना चाहता है; तो जा, अपना माल बेचकर कंगालों को दे; और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा; और आकर मेरे पीछे हो ले।”—मत्ती 19:16-21.
13 यीशु ने यह समझा कि अगर इस नौजवान को तन-मन से यहोवा की सेवा करनी है, तो ज़रूरी है कि वह अपनी ज़िंदगी से उस चीज़ को हटा दे जो उसका ध्यान भटका सकती है, यानी उसकी दौलत। मसीह का सच्चा चेला दो स्वामियों के लिए काम नहीं कर सकता। वह ‘परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकता।’ (मत्ती 6:24) ज़रूरी है कि उसकी “आंख निर्मल हो,” जो आध्यात्मिक बातों पर टिकी रहे। (मत्ती 6:22) अपना साज़ो-सामान गरीबों में बाँट देना एक बड़ी कुरबानी है। धन-दौलत की इस कुरबानी के बदले में, यीशु ने उस नौजवान हाकिम को स्वर्ग में खज़ाना इकट्ठा करने का अनमोल मौका दिया—जी हाँ, एक ऐसा खज़ाना जिससे उसे भविष्य में हमेशा की ज़िंदगी मिलती और मसीह के साथ स्वर्ग में राज करने की उम्मीद भी पूरी होती। मगर यह नौजवान खुद से इनकार करने के लिए तैयार नहीं था। “वह जवान यह बात सुन उदास होकर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।” (मत्ती 19:22) मगर, यीशु के दूसरे चेलों ने इस न्यौते का अलग तरीके से जवाब दिया।
14. यीशु के पीछे हो लेने का न्यौता मिलने पर चार मछुवारों ने क्या किया?
14 लगभग दो साल पहले, यीशु ने पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्ना नाम के चार मछुवारों को यही न्यौता दिया था। इनमें से दो मछुवारे उस वक्त मछली पकड़ रहे थे और बाकी दो अपने जाल ठीक करने में लगे हुए थे। यीशु ने उनसे कहा: “मेरे पीछे चले आओ, तो मैं तुम को मनुष्यों के पकड़नेवाले बनाऊंगा।” उन चारों ने बाद में मछुवाई का व्यापार छोड़ दिया और वे अपनी बाकी ज़िंदगी यीशु के पीछे चलते रहे।—मत्ती 4:18-22.
15. आज के ज़माने की यहोवा की एक साक्षी ने यीशु के पीछे हो लेने के लिए कैसी कुरबानी दी?
15 आज बहुत-से मसीही उस अमीर नौजवान हाकिम के बजाय उन चार मछुवारों की मिसाल पर चलते हैं। उन्होंने यहोवा की सेवा करने के लिए इस दुनिया की दौलत को ठोकर मारी है और शोहरत कमाने के बढ़िया मौके हाथ से जाने दिए हैं। डॆबरा कहती है: “जब मैं 22 साल की थी, तब मुझे एक बहुत बड़ा फैसला करना था।” वह समझाती है: “मैंने करीब छः महीने बाइबल का अध्ययन किया था और मैं अपनी ज़िंदगी यहोवा को समर्पित करना चाहती थी, मगर मेरा परिवार इसके सख्त खिलाफ था। वे अरबपति थे और उन्हें लगा कि मेरे साक्षी बनने से समाज में उनकी नाक कट जाएगी। उन्होंने मुझे यह फैसला करने के लिए 24 घंटे दिए कि मैं ऐशो-आराम की ज़िंदगी चाहती हूँ या सच्चाई को अपनाना चाहती हूँ। अगर मैं साक्षियों से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ूँगी, तो मेरा परिवार मुझे बेदखल कर देगा। यहोवा ने मुझे सही फैसला करने में मदद दी और इस फैसले के मुताबिक कदम उठाने की हिम्मत भी दी। मैंने पिछले 42 साल पूरे समय की सेवा में बिताए हैं और मैंने जिस तरह अपनी ज़िंदगी बितायी है उस पर मुझे कभी रत्ती भर भी अफसोस नहीं हुआ है। अपने लिए जीने और मौज-मस्ती में डूबे रहने की ज़िंदगी को ठुकराकर, मैं उस खालीपन और दुःख से बच पायी हूँ जो मैं आज अपने परिवार के दूसरे लोगों में देखती हूँ। अपने पति के साथ, मैंने सौ से ज़्यादा लोगों को सच्चाई सीखने में मदद दी है। ये आध्यात्मिक बच्चे मेरे लिए दुनिया की तमाम दौलत से कहीं ज़्यादा कीमती हैं।” यहोवा के लाखों और साक्षी ऐसा ही महसूस करते हैं। और आप?
16. हम कैसे दिखा सकते हैं कि आगे को हम अपने लिए नहीं जीते?
16 आगे को अपने लिए न जीने की इच्छा ने हज़ारों यहोवा के साक्षियों को उभारा कि वे पायनियरों या पूरे समय राज्य का प्रचार करनेवालों की हैसियत से सेवा करें। कुछ और साक्षी जो हालात की वजह से पूरे समय की सेवा नहीं कर पाते, वे पायनियरों जैसा जोश दिखाते हैं और जहाँ तक मुमकिन हो, राज्य के प्रचार काम में हाथ बँटाते हैं। माता-पिता भी ऐसा ही जोश दिखाते हैं जब वे अपना ज़्यादातर वक्त अपने बच्चों को आध्यात्मिक तालीम देने में लगाते हैं, फिर चाहे इसके लिए उन्हें अपना आराम और सुख कुरबान क्यों न करना पड़े। किसी-न-किसी तरीके से हम सभी दिखा सकते हैं कि राज्य का काम हमारी ज़िंदगी में सबसे पहले आता है।—मत्ती 6:33.
किसका प्रेम हमें विवश कर देता है?
17. क्या बात हमें कुरबानियाँ देने को विवश करती है?
17 ऐसा प्यार दिखाना हरगिज़ आसान नहीं है जिससे हम खुद को दूसरों के लिए कुरबान कर दें। मगर, ज़रा सोचिए कि क्या बात हमें ऐसा प्यार दिखाने को विवश कर देती है? पौलुस ने लिखा: “मसीह का प्रेम हमें विवश कर देता है; इसलिये कि हम यह समझते हैं, कि . . . एक सब के लिये मरा . . . और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा।” (2 कुरिन्थियों 5:14, 15) मसीह का प्रेम हमें विवश या मजबूर करता है कि हम आगे को अपने लिए न जीएँ। इस प्रेम की ताकत कितनी बड़ी है! अब जब मसीह हमारे लिए मरा, तो क्या हमारा फर्ज़ नहीं बनता कि हम उसी के लिए जीएँ? परमेश्वर और मसीह के इसी गहरे प्रेम को पाकर हम उनके एहसान से दब गए और इसी एहसानमंदी ने हमें विवश किया कि हम अपनी ज़िंदगी परमेश्वर को समर्पित करें और मसीह के चेले बनें।—यूहन्ना 3:16; 1 यूहन्ना 4:10, 11.
18. ऐसी ज़िंदगी जीना क्यों फायदेमंद है जो अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए हो?
18 आगे को अपने लिए न जीने का क्या कोई फायदा है? उस नौजवान अमीर हाकिम ने जब मसीह के न्यौते को ठुकरा दिया और चला गया, तब पतरस ने यीशु से कहा: “देख, हम तो सब कुछ छोड़ के तेरे पीछे हो लिए हैं: तो हमें क्या मिलेगा?” (मत्ती 19:27) पतरस और दूसरे प्रेरितों ने सही मायनों में खुद से इनकार किया था। उन्हें इसका क्या इनाम मिलता? यीशु ने पहले बताया कि उन्हें स्वर्ग में उसके साथ राज करने का सुनहरा मौका मिलेगा। (मत्ती 19:28) बाद में उसी मौके पर, यीशु ने ऐसी आशीषों का ज़िक्र किया जो उसके हर चेले को मिलतीं। उसने कहा: “ऐसा कोई नहीं जिसने मेरे और सुसमाचार के कारण घर या भाइयों या बहिनों, या माता या पिता या बच्चों या खेतों को छोड़ दिया हो, और वह वर्तमान समय में . . . सौ गुना अधिक न पाए . . . तथा आने वाले युग में अनन्त जीवन।” (मरकुस 10:29, 30, NHT) हमने जो कुरबानी दी है उससे कहीं ज़्यादा हमने पाया है। राज्य की खातिर हम जो कुछ छोड़ चुके हैं, उससे कहीं ज़्यादा कीमती क्या हमारे आध्यात्मिक माता-पिता, भाई-बहन और बच्चे नहीं हैं? किसकी ज़िंदगी सबसे ज़्यादा सफल थी—पतरस की या उस अमीर नौजवान हाकिम की?
19. (क) सच्ची खुशी कैसे मिलती है? (ख) अगले लेख में हम किस बात पर चर्चा करेंगे?
19 यीशु ने अपनी तालीम और अपने कामों से दिखाया कि दूसरों को देने और उनकी सेवा करने से ही खुशी मिलती है, न कि अपना स्वार्थ पूरा करने से। (मत्ती 20:28; प्रेरितों 20:35) जब हम अपने लिए नहीं बल्कि मसीह के लिए जीते हैं और उसी के पीछे चलते रहते हैं, तो हमें आज ज़िंदगी में बड़ा संतोष मिलता है और आगे के लिए हमारे सामने हमेशा की ज़िंदगी की आशा रहती है। बेशक, जब हम खुद से इनकार करते हैं तो यहोवा हमारा मालिक हो जाता है। इस तरह हम परमेश्वर के गुलाम बन जाते हैं। मगर इस गुलामी से हमें फायदा ही होता है। कैसे? इसका हमारी ज़िंदगी के फैसलों पर कैसा असर होता है? अगले लेख में इन सवालों पर चर्चा की जाएगी।
क्या आपको याद है?
• हमें अपनी स्वार्थी इच्छाओं का क्यों विरोध करना चाहिए?
• खुद से इनकार करने, अपना स्तंभ उठाने और यीशु के पीछे हो लेने का क्या मतलब है?
• क्या बात हमें आगे को अपने लिए न जीने को उकसाती है?
• अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए जीना क्यों फायदेमंद है?
[पेज 11 पर तसवीर]
“हे प्रभु, अपने साथ इतनी ज़्यादती न कर”
[पेज 13 पर तसवीर]
नौजवान हाकिम को यीशु के पीछे चलने से किस चीज़ ने रोका?
[पेज 15 पर तसवीरें]
प्यार, यहोवा के साक्षियों को उकसाता है कि वे पूरे जोश के साथ राज्य का प्रचार करें