तनाव से राहत पाने का कारगर उपाय
“हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।”—मत्ती 11:28.
1, 2. (क) बाइबल में ऐसा क्या बताया गया है जो ज़िंदगी के भारी तनाव को कम करने में हमारी मदद करता है? (ख) यीशु की शिक्षाएँ कितनी असरदार थीं?
इस बात से आप ज़रूर सहमत होंगे कि हद-से-ज़्यादा तनाव न सिर्फ नुकसानदेह होता है बल्कि यह हमारे जीवन को दुःखदायी बना सकता है। बाइबल हमें समझाती है कि पूरी मानवजाति ज़िंदगी के बोझ तले इतनी दब चुकी है कि आज बहुत-से लोग अपनी परेशानियों से छुटकारा पाने के लिए तरस रहे हैं। (रोमियों 8:20-22) लेकिन बाइबल में यह भी बताया गया है कि आज हम ज़िंदगी की बहुत-सी चिंताओं से कैसे राहत पा सकते हैं। यह राहत हमें तब मिलेगी, जब हम उस नौजवान की सलाह मानेंगे और उसकी राह पर चलेंगे जो आज से करीब 2,000 साल पहले रहता था। हालाँकि वह एक बढ़ई था, लेकिन उसके दिल में लोगों के लिए गहरा प्यार था। उसकी बातें लोगों के दिल में उतर जाती थीं, वह उनकी ज़रूरतें बहुत अच्छी तरह जानता था। उसने गिरे हुओं को उठाया, दुखियों को चैन दिया और सबसे बढ़कर, उसने लोगों को यह सिखाया कि उनकी आध्यात्मिक ज़रूरतें क्या हैं और वे उन्हें पूरा करके कैसे खुशी पा सकते हैं। यही वजह है कि वे अपनी ज़िंदगी के भारी तनाव से राहत पा सके। उनकी तरह आप भी ज़िंदगी के तनाव से राहत पा सकते हैं।—लूका 4:16-21; 19:47,48; यूहन्ना 7:46.
2 वह नौजवान, यीशु नासरी था। उसने अपने ज़माने के दुनियावी ज्ञान का सहारा नहीं लिया, जिसे पाने के लिए लोग रोम, अथेने और सिकंदरिया जैसी जगहों पर जाते थे। इसके बावजूद उसकी शिक्षाएँ आज तक मशहूर हैं। उसने जो भी शिक्षा दी, उनका निचोड़ यह था: परमेश्वर ऐसी सरकार लाएगा जो धरती पर सही तरह से शासन करने में कामयाब होगी। यीशु ने लोगों को जीने के ऐसे बुनियादी उसूल भी समझाए जो आज के ज़माने के लिए वाकई अनमोल हैं। उसकी शिक्षाओं को सुननेवाले और उन्हें लागू करनेवाले फौरन इसके अच्छे नतीजों को अपनी ज़िंदगी में देख सकते हैं जिनमें से एक है, भारी तनाव से राहत। क्या आप यह राहत नहीं चाहते?
3. यीशु ने प्यार से क्या बुलावा दिया?
3 लेकिन आपको शायद इस बात पर यकीन करना मुश्किल लगे और आप पूछें: ‘सदियों पहले जीनेवाले एक इंसान से भला आज मुझे कैसे लाभ हो सकता है?’ अगर आप ऐसा सोचते हैं तो सुनिए कि यीशु प्यार से क्या बुलावा देता है: “हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।” (मत्ती 11:28-30) आखिर यीशु क्या कहना चाहता था? आइए हम उसके इन शब्दों की जाँच करें और देखें कि ये हमें नुकसानदेह तनाव से राहत पाने का क्या उपाय बताते हैं।
4. यीशु ने किन लोगों को बुलावा दिया और उनसे जो माँग की जाती थी, उसे पूरा करना उनके लिए मुश्किल क्यों था?
4 यीशु ने यह बुलावा ऐसे ढेरों लोगों को दिया जो परमेश्वर के नियमों पर चलने की जी-तोड़ कोशिश तो करते थे, मगर वे “बोझ से दबे हुए” थे क्योंकि यहूदी अगुवों ने धर्म को एक कष्टदायी बोझ बना दिया था। (मत्ती 23:4) इन धर्म-गुरुओं ने ज़िंदगी के तकरीबन सभी मामलों में बेहिसाब कायदे-कानून बना रखे थे और हमेशा उन्हीं का पालन करने पर तूल देते थे। ज़रा सोचिए, क्या यह सुन-सुनकर आपके नाक में दम नहीं आ जाएगा, “तुम ऐसा नहीं कर सकते, वैसा नहीं कर सकते”? लेकिन, यीशु इनसे बिलकुल अलग था। उसकी शिक्षाएँ लोगों को सच्चाई और धार्मिकता से भरी खुशहाल ज़िंदगी जीने का बुलावा देती थीं। जी हाँ, सच्चे परमेश्वर को जानने का यही तरीका है कि हम यीशु मसीह के जीवन पर ध्यान दें। यीशु की जीती-जागती मिसाल से उस वक्त के लोग और आज हम भी यह देख सकते हैं कि यहोवा असल में कैसा है। यीशु ने कहा था: “जिस ने मुझे देखा है उस ने पिता को देखा है।”—यूहन्ना 14:9.
क्या आपकी ज़िंदगी में हद-से-ज़्यादा तनाव है?
5, 6. यीशु के ज़माने और आज के ज़माने के काम और मज़दूरी के बारे में क्या कहा जा सकता है?
5 इस विषय में शायद आपको खास दिलचस्पी हो, क्योंकि हो सकता है आप अपनी नौकरी या परिवार के हालात को लेकर काफी तनाव में हैं। या शायद दूसरी कुछ ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते आप घबरा गए हैं। अगर ऐसा है, तो आपकी परिस्थिति भी यीशु के समय के उन सीधे-सादे लोगों की तरह है, जिनकी उसने मदद की थी। मिसाल के लिए, रोज़ी-रोटी कमाने की ही बात लीजिए। आज यह कितनी बड़ी मुसीबत बन चुका है। इसे पाने के लिए लोगों को एड़ियाँ रगड़नी पड़ती हैं और यीशु के दिनों में भी लोगों की यही हालत थी।
6 आम तौर पर उस ज़माने में लोगों को हफ्ते में छः दिन काम करना पड़ता था और दिन में 12 घंटों की सख्त मेहनत के बाद सिर्फ एक दीनार मिलती थी। (मत्ती 20:2-10) इसके मुकाबले आज आपको या आपके दोस्तों को कितना वेतन मिलता है? यह सच है कि पुराने ज़माने के और आज के वेतन की तुलना करना आसान नहीं। लेकिन इसकी तुलना करने का एक तरीका है, पैसे की कीमत आँकना। एक विद्वान के मुताबिक यीशु के दिनों में चार कटोरी आटे से बनी रोटी की कीमत एक घंटे की मज़दूरी के बराबर थी। और दूसरे विद्वान के मुताबिक एक प्याले उत्तम दाखरस की कीमत दो घंटे की मज़दूरी के बराबर थी। इससे आप समझ सकते हैं कि उस वक्त के लोगों को सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए कैसे घंटों तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। बेशक, हमारी तरह उनका मन भी राहत और चैन पाने के लिए तरसता होगा। अगर आप नौकरी करते हैं, तो हो सकता है आप से बहुत ज़्यादा काम लिया जाता हो, जिससे आप दबाव महसूस करते हों और आपको सोच-समझकर सही फैसले करने का वक्त न मिलता हो। ऐसी हालत से आप ज़रूर राहत पाना चाहते होंगे।
7. यीशु का बुलावा सुनकर लोगों को कैसा लगा होगा?
7 ज़ाहिर है कि यीशु ने ‘परिश्रम करनेवालों और बोझ से दबे हुए’ सब लोगों को जो बुलावा दिया, वह लोगों के मन को ज़रूर भाया होगा। (मत्ती 4:25; मरकुस 3:7,8) और याद कीजिए कि यीशु ने उस बुलावे के साथ यह वादा भी किया था: “मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।” आज भी वह हमसे यही वादा कर रहा है। इसलिए अगर हम ‘परिश्रम करनेवाले और बोझ से दबे हुए’ हैं तो हम भी उसके पास आकर विश्राम पा सकते हैं। और हमारी जैसी हालत में रहनेवाले हमारे अज़ीज़ भी विश्राम पा सकते हैं।
8. बच्चों की परवरिश और बुढ़ापे की समस्याओं ने आज लोगों की ज़िंदगी को कैसे तनाव से भर दिया है?
8 और भी ऐसी कई चिंताएँ हैं, जिनके तले लोग दबा हुआ महसूस करते हैं। मसलन, बच्चों की परवरिश करना एक बड़ी चुनौती बन गया है। बच्चों को भी कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। और हर उम्र के ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग मानसिक और शारीरिक बीमारियों से पीड़ित हैं। आज लोग पहले से कहीं ज़्यादा साल जीते ज़रूर हैं, लेकिन बुढ़ापा अपने साथ ऐसी खास समस्याएँ लाता है जिनका समाधान आधुनिक चिकित्सा के पास भी नहीं है।—सभोपदेशक 12:1.
जूआ उठाना
9, 10. पुराने ज़माने में जूआ किस बात की निशानी था और यीशु ने लोगों को उसका जूआ उठाने का बुलावा क्यों दिया?
9 क्या आपने गौर किया कि मत्ती 11:28,29 में यीशु ने यह भी कहा था: “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो; और मुझ से सीखो।” उस ज़माने में आम इंसान की ज़िंदगी इतनी बोझिल थी कि उसे हर वक्त ऐसा लगता था मानो वह जूआ उठाए हुए है। प्राचीन समय से ही जूआ, गुलामी या दासत्व की निशानी रहा है। (उत्पत्ति 27:40; लैव्यव्यवस्था 26:13; व्यवस्थाविवरण 28:48) यीशु की मुलाकात जिन मज़दूरों से हुई उनमें से ज़्यादातर लोग अपने कंधों पर जूआ रखकर भारी बोझ ढोते थे। कुछ जूए आरामदायक होते थे, जबकि कुछ जूओं से गर्दन और कंधे छिल जाते थे। यीशु खुद एक बढ़ई था, इसलिए उसने भी जूए बनाए होंगे और वह शायद जानता था कि जूए को कैसा आकार देने से उसे उठाना “सहज” हो जाता है। साथ ही जूए को ज़्यादा-से-ज़्यादा आरामदायक बनाने के लिए वह उस हिस्से पर कपड़ा या चमड़ा भी लगाता होगा जिसे गर्दन और कंधे पर रखा जाता था।
10 “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो” यह कहकर यीशु, शायद अपनी तुलना एक ऐसे आदमी से कर रहा था जो बढ़िया किस्म के जूए बनाता है और जिन्हें उठाने पर एक मज़दूर की गर्दन और कंधों को “सहज” महसूस होता। इसीलिए यीशु ने आगे कहा: “मेरा बोझ हलका है।” यह दिखाता है कि यीशु के जूए का डंडा कष्टदायक नहीं था, ना ही उसके नीचे काम करनेवालों के साथ गुलामों की तरह सलूक किया जाता। बेशक, यीशु ने लोगों से यह वादा नहीं किया था कि अगर वे उसका जूआ उठाएँगे, तो उन्हें उस ज़माने में हर तरह के ज़ुल्म से फौरन छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन उसने लोगों को जो नज़रिया रखने की शिक्षा दी, उसे मानने से काफी हद तक उनके मन को विश्राम मिल सकता था। अपनी ज़िंदगी में और काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाना भी उन्हें काफी राहत दे सकता था। लेकिन सबसे अहम बात यह थी कि भविष्य के बारे में यीशु ने जो सच्ची और पक्की आशा दी, उससे उन्हें ज़िंदगी का तनाव कम करने में मदद मिल सकती थी।
आप भी विश्राम पा सकते हैं
11. यह क्यों कहा जा सकता है कि यीशु, सिर्फ जूओं की अदला-बदली करने की बात नहीं कर रहा था?
11 गौर करनेवाली बात है, यीशु यह नहीं कह रहा था कि लोग उसका जूआ लेकर अपना पिछला जूआ उतारकर फेंक सकते हैं। उसका जूआ उठाने के बाद भी उन पर रोमी सरकार की हुकूमत चलती रहती, जैसे आज के मसीहियों पर भी उनके देश की सरकारों की हुकूमत चलती है। पहली सदी के उन लोगों से रोमी सरकार, कर वसूल करना जारी रखती। बीमारियाँ और आर्थिक समस्याएँ बनी रहतीं। साथ ही, असिद्धता और पाप भी उनको पीड़ित करना नहीं छोड़ते। लेकिन अगर वे यीशु की शिक्षाओं को मानते, तो इन सारी समस्याओं के बावजूद वे विश्राम पा सकते थे और आज हम भी पा सकते हैं।
12, 13. यीशु के मुताबिक किस काम को ज़िंदगी में पहला स्थान देने पर विश्राम मिलता और उसकी बात सुनकर कुछ लोगों ने क्या किया?
12 यह ज़ाहिर हो गया था कि यीशु ने जूए का जो दृष्टांत बताया वह चेले बनाने के काम पर खास तरह से लागू होता है। इस बात में कोई शक नहीं कि यीशु का खास काम दूसरों को सिखाना था और उसने परमेश्वर के राज्य पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया। (मत्ती 4:23) इसलिए जब वह कह रहा था कि “मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो” तो इसका यह मतलब भी था कि यीशु का जूआ उठानेवालों को उसकी मिसाल पर चलते हुए दूसरों को सिखाने का काम करना था। सुसमाचार की किताबें दिखाती हैं कि यीशु ने कई नेक दिल आदमियों को अपना पेशा बदलने के लिए प्रेरित किया, जिनमें से ज़्यादातर की ज़िंदगी में उनका पेशा ही सबसे बड़ी चिंता रहती थी। याद कीजिए कि उसने पतरस, अन्द्रियास, याकूब और यूहन्ना को क्या बुलावा दिया: “मेरे पीछे चले आओ; मैं तुम को मनुष्यों के मछुवे बनाऊंगा।” (मरकुस 1:16-20) यीशु ने उन मछुआरों को दिखाया कि अगर वे भी उसकी तरह सिखाने के काम को ज़िंदगी में पहला स्थान देंगे और उसकी हिदायतों पर चलते हुए और उसकी मदद से यह काम करेंगे, तो उन्हें कितना आनंद मिलेगा।
13 यीशु की बात सुननेवाले कुछ यहूदी समझ गए कि उन्हें क्या करना है और फिर उन्होंने ऐसा ही किया। मिसाल के लिए, लूका 5:1-11 में बताए गए दृश्य की कल्पना कीजिए जो समुद्र किनारे घटी थी। चार मछुए रात भर कठिन परिश्रम करते हैं, मगर उनके हाथ कुछ नहीं लगता। लेकिन फिर अचानक वे देखते हैं कि उनके जाल में ढेरों मछलियाँ फँस गयी हैं! यह सब अपने आप नहीं हुआ बल्कि इसके पीछे यीशु का हाथ है। फिर इन मछुओं ने देखा कि समुद्र के किनारे लोगों की एक भीड़ है जिसे यीशु की शिक्षाएँ सुनने में गहरी दिलचस्पी थी। तब उन चारों मछुओं को यीशु की इस बात का मतलब समझ आ गया: ‘अब से तुम मनुष्यों को जीवता पकड़ा करोगे।’ तब उन्होंने क्या किया? “वे नावों को किनारे पर ले आए और सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए।”
14. (क) आज हम विश्राम कैसे पा सकते हैं? (ख) यीशु ने आनंद देनेवाला कौन-सा सुसमाचार सुनाया था?
14 आप भी चाहें तो यीशु के चेलों जैसा नज़रिया दिखा सकते हैं। लोगों को बाइबल की सच्चाई सिखाने का काम आज भी किया जा रहा है। आज संसार भर में करीब 60 लाख यहोवा के साक्षी यह काम कर रहे हैं। उन्होंने यीशु का न्यौता स्वीकार करके “[उसका] जूआ अपने ऊपर उठा” लिया है और वे “मनुष्यों के पकड़नेवाले” बन गए हैं। (मत्ती 4:19) उनमें से कुछ पूरा समय यह काम करते हैं जबकि बाकी लोग जितना हो सके, उतना करते हैं। उन सभी को इस काम से विश्राम मिलता है इसलिए वे अपनी ज़िंदगी में कम तनाव महसूस करते हैं। लोगों को खुशखबरी यानी “राज्य का सुसमाचार” सुनाना ऐसा काम है जिससे उन्हें बहुत आनंद मिलता है। (मत्ती 4:23) किसी को खुशखबरी सुनाना हमेशा बड़े आनंद की बात होती है और राज्य की खुशखबरी सुनाने में तो खास आनंद मिलता है। बाइबल में वह बुनियादी जानकारी पायी जाती है जिसकी मदद से हम दूसरों को भी यकीन दिला सकते हैं कि उनकी ज़िंदगी में तनाव कम हो सकता है।—2 तीमुथियुस 3:16,17.
15. ज़िंदगी के बारे में यीशु की शिक्षाओं से लाभ पाने के लिए आपको क्या करना होगा?
15 यहाँ तक कि जिन लोगों ने हाल ही में परमेश्वर के राज्य के बारे में सीखना शुरू किया है, उन्होंने भी ज़िंदगी से जुड़ी यीशु की शिक्षाओं से काफी लाभ पाया है। आज कई लोग इस बात की गवाही दे सकते हैं कि इन शिक्षाओं की मदद से कैसे उन्हें सचमुच विश्राम मिला है और कैसे उनकी ज़िंदगी की कायापलट हुई है। अगर आप बाइबल में और खासकर मत्ती, मरकुस और लूका की किताबों में दी गयी यीशु की जीवनी और सेवकाई का ब्यौरा पढ़ेंगे और उनमें बताए गए जीने के उसूलों की खुद जाँच करेंगे, तो आप भी इसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं।
विश्राम पाने का उपाय
16, 17. (क) यीशु की कुछ खास शिक्षाएँ आप कहाँ पा सकते हैं? (ख) यीशु की शिक्षाओं पर अमल करने और विश्राम पाने के लिए क्या करने की ज़रूरत है?
16 सामान्य युग 31 के वसंत में यीशु ने एक ऐसा भाषण दिया, जो आज तक संसार भर में मशहूर है। यह आम तौर पर पहाड़ी उपदेश के नाम से जाना जाता है। इसे मत्ती के 5 से 7वें अध्याय और लूका के 6ठे अध्याय में दर्ज़ किया गया है और यह यीशु की बहुत-सी शिक्षाओं का निचोड़ है। यीशु की बाकी शिक्षाओं के बारे में आप सुसमाचार की किताबों के दूसरे अध्यायों में पढ़ सकते हैं। उसकी ज़्यादातर शिक्षाओं को समझना बहुत आसान है, मगर हाँ उन पर चलना ज़रा मुश्किल हो सकता है। क्यों न आप उन अध्यायों को ध्यान से पढ़ें और उन पर गहराई से सोचें? ऐसा करने से यीशु की शिक्षाओं का आपके सोच-विचार और नज़रिए पर असर पड़ेगा।
17 वैसे तो यीशु की शिक्षाओं को कई समूहों में बाँटा जा सकता है लेकिन आइए हम उसकी खास शिक्षाओं को एक समूह में इस तरह रखें, ताकि हम महीने के हर दिन किसी एक शिक्षा पर अमल करने की कोशिश कर पाएँ। यह कैसे किया जा सकता है? उन पर सरसरी नज़र डालकर आगे मत बढ़ जाइए। उस धनवान सरदार को याद कीजिए जिसने यीशु मसीह से यह सवाल किया था: “अनन्तजीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?” जवाब में जब यीशु ने बताया कि उसे परमेश्वर की व्यवस्था के किन खास नियमों का पालन करना है, तो इस पर उसने जवाब दिया कि वह इन नियमों को पहले से मानता आया है। फिर भी उसे यह एहसास था कि उसे और भी कुछ करने की ज़रूरत है। यीशु ने बताया कि उसे परमेश्वर के सिद्धांतों पर चलने की और भी जी-तोड़ कोशिश करनी है यानी यीशु का चेला बनना है। लेकिन वह आदमी इस हद तक जाने को तैयार नहीं था। (लूका 18:18-23) इसलिए आज जो लोग यीशु से सीखना चाहते हैं, उन्हें याद रखने की ज़रूरत है कि यीशु की शिक्षाओं से सहमत होना एक बात है मगर पूरे जोश के साथ उन पर सचमुच अमल करना दूसरी बात है। लेकिन अमल करना ही तनाव दूर करने का राज़ है।
18. उदाहरण देकर समझाइए कि आप बक्स में दी गयी सलाह पर चलकर कैसे लाभ पा सकते हैं?
18 यीशु की शिक्षाओं की जाँच करने और उन पर अमल करने के लिए, सबसे पहले इस लेख के साथ दिए गए बक्स में मुद्दा 1 देखिए। यह मत्ती 5:3-9 का हवाला देता है। देखा जाए तो हममें से हरेक जन इन आयतों में दी गयी बढ़िया सलाह पर गहराई से सोचने के लिए काफी वक्त बिता सकता है। मोटे तौर पर, आपकी राय में ये सारी आयतें कैसा नज़रिया पैदा करने का बढ़ावा देती हैं? अगर आप सचमुच भारी तनाव से राहत पाना चाहते हैं तो कौन-सी बात आपकी मदद कर सकती है? आध्यात्मिक बातों पर ज़्यादा ध्यान देने और हमेशा उन्हीं से अपने दिमाग को भरने से आपके हालात और बेहतर कैसे हो सकते हैं? क्या ऐसी कोई बात है, जिसकी चिंता में हमेशा डूबने के बजाय, आपको आध्यात्मिक बातों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है? अगर आप इन सलाहों पर अमल करेंगे, तो आपकी खुशी बढ़ सकती है।
19. और भी गहरी समझ हासिल करने के लिए आप क्या कर सकते हैं?
19 ऐसी जाँच करने के बाद, आप एक और कदम उठा सकते हैं। क्यों न इन आयतों के बारे में किसी और मसीही के साथ चर्चा करें? आप अपने जीवन-साथी, किसी नज़दीकी रिश्तेदार, दोस्त या किसी भाई या बहन के साथ चर्चा कर सकते हैं। (नीतिवचन 18:24; 20:5) याद कीजिए कि उस धनवान सरदार ने ज़िंदगी के एक अहम सवाल का जवाब पाने के लिए दूसरे व्यक्ति से यानी यीशु से पूछा था। अगर उसने यीशु के जवाब के मुताबिक काम किया होता, तो उसे आगे चलकर बहुत-सी खुशियाँ और हमेशा की ज़िंदगी भी मिल सकती थी। यह सच है कि आप उन आयतों के बारे में जिस भाई या बहन से चर्चा करेंगे, वह ठीक यीशु के जैसे विचार नहीं बता सकता। मगर फिर भी यीशु की शिक्षाओं के बारे में आपस में चर्चा करने से आप दोनों को लाभ होगा। इसलिए जल्द-से-जल्द ऐसी चर्चा करने की कोशिश कीजिए।
20, 21. यीशु की शिक्षाओं के बारे में सीखने के लिए आप किस कार्यक्रम का पालन कर सकते हैं और आप अपनी तरक्की का जायज़ा कैसे ले सकते हैं?
20 “आपकी मदद करनेवाली शिक्षाएँ,” इस बक्स पर दोबारा नज़र डालिए। इन शिक्षाओं को अलग-अलग समूहों में ऐसे बाँटा गया है ताकि आप दिन में कम-से-कम एक शिक्षा पर अमल कर सकें। सबसे पहले आप उन आयतों को पढ़कर देखिए कि उनमें यीशु ने क्या कहा। फिर उसके शब्दों पर सोचिए। इसके बाद मनन कीजिए कि आप उन आयतों को अपनी ज़िंदगी में कैसे लागू कर सकते हैं। अगर आपको लगता है कि आप उन्हें पहले से लागू कर रहे हैं, तो गहराई से सोचिए कि आप परमेश्वर की उस शिक्षा पर और अच्छी तरह चलने के लिए क्या कर सकते हैं। उस सलाह को पूरे दिन के दौरान लागू करने की कोशिश कीजिए। अगर आपको उसे समझना बहुत मुश्किल लगता है या आप नहीं देख पाते कि उसे कैसे अमल करना चाहिए तो अगले दिन भी उसी पर मनन कीजिए। लेकिन याद रखिए कि दूसरी शिक्षा की तरफ बढ़ने के लिए आपको पहली शिक्षा पर चलने में महारत हासिल कर लेने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए अगले दिन दूसरी शिक्षा पर गौर कीजिए। और हफ्ते के आखिर में, आप एक बार सोच सकते हैं कि आप यीशु की चार या पाँच शिक्षाओं पर चलने में कितने कामयाब हुए हैं। ऐसे ही दूसरे हफ्ते में भी, हर दिन एक-एक शिक्षा पर अमल कीजिए। अगर आप किसी शिक्षा पर चलने में चूक जाते हैं, तो निराश मत होइए। ऐसा हर मसीही के साथ होता है। (2 इतिहास 6:36; भजन 130:3; सभोपदेशक 7:20; याकूब 3:8) फिर तीसरे और चौथे हफ्ते भी ऐसा करना जारी रखिए।
21 एक महीने के बीतने पर या उसके आस-पास, आप बक्स में दिए गए सभी 31 मुद्दों पर अमल कर चुके होंगे। अगर आप सभी मुद्दों पर अमल नहीं कर पाते हैं, तो भी आप कैसा महसूस करेंगे? क्या आप पहले से ज़्यादा खुश और शांत महसूस नहीं करेंगे? अगर आपकी हालत में ज़्यादा सुधार न आए, तो भी आप ज़रूर पहले से कम तनाव महसूस करेंगे, या कम-से-कम तनाव पर काबू पाने में पहले से ज़्यादा काबिल होंगे और आप ऐसी कोशिश जारी रखने का तरीका सीख चुके होंगे। याद रखिए कि यीशु की शिक्षाओं में ऐसे और भी बहुत-से बढ़िया मुद्दे हैं, जो इस बक्स में नहीं दिए गए हैं। क्यों न उनकी भी जाँच करने और उन पर अमल करने की कोशिश करें?—फिलिप्पियों 3:16.
22. यीशु की शिक्षाओं पर अमल करने का क्या नतीजा हो सकता है, लेकिन और कौन-सी बात ध्यान दिए जाने के लायक है?
22 आप देख सकते हैं कि यीशु का जूआ वज़नदार होने के बावजूद वाकई सहज है। उसकी शिक्षाओं को मानने और उसका शिष्य होने का भार हलका है। यीशु का जूआ उठाने में 60 साल का तजुर्बा रखनेवाला उसका गहरा दोस्त, प्रेरित यूहन्ना इस नतीजे पर पहुँचा था: “परमेश्वर का प्रेम यह है, कि हम उस की आज्ञाओं को मानें; और उस की आज्ञाएं कठिन नहीं।” (1 यूहन्ना 5:3) आप भी यही यकीन रख सकते हैं। आप यीशु की शिक्षाओं पर जितना ज़्यादा अमल करेंगे, उतना ही आप पाएँगे कि जिन समस्याओं को लेकर दूसरे लोग भारी तनाव महसूस करते हैं, वे आपके लिए इतनी चिंता का कारण नहीं हैं। आप पाएँगे कि आपने काफी हद तक तनाव से राहत पा ली है। (भजन 34:8) लेकिन, यीशु के सहज जूए से ताल्लुक रखनेवाली एक और बात है जिस पर आपको ध्यान देने की ज़रूरत है। यीशु ने जूए का ज़िक्र करते वक्त यह भी कहा था: “मैं नम्र और मन में दीन हूं।” यीशु से सीखने और उसके आदर्श पर चलने में इस बात की क्या अहमियत है? इस बारे में हम अगले लेख में चर्चा करेंगे।—मत्ती 11:29.
आपका जवाब क्या है?
• भारी तनाव से राहत पाने के लिए हमें यीशु की मदद क्यों लेनी चाहिए?
• जूआ किस बात की निशानी था और क्यों?
• यीशु ने लोगों को यह न्यौता क्यों दिया कि वे उसका जूआ अपने ऊपर उठाएँ?
• आप आध्यात्मिक विश्राम कैसे पा सकते हैं?
[पेज 14 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
सन् 2002 के दौरान, यहोवा के साक्षियों का सालाना पाठ यह होगा: “मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा।”—मत्ती 11:28.
[पेज 12, 13 पर बक्स/तसवीर]
आपकी मदद करनेवाली शिक्षाएँ
मत्ती के 5 से लेकर 7वें अध्याय में आप कौन-सी अच्छी बातें सीख सकते हैं? इन अध्यायों में महान शिक्षक, यीशु की वे शिक्षाएँ दर्ज़ हैं जो उसने गलील में एक पहाड़ी ढलान पर बैठकर सिखायी थीं। कृपया नीचे दी गयी आयतों को अपनी बाइबल से पढ़िए और उनसे जुड़े सवाल खुद से पूछिए।
1. 5:3-9 इन आयतों के मुताबिक मेरा नज़रिया कैसा है? मैं अपनी खुशी बढ़ाने के लिए क्या कर सकता हूँ? मैं अपनी आध्यात्मिक ज़रूरतों की तरफ ज़्यादा ध्यान कैसे दे सकता हूँ?
2. 5:25,26 ज़्यादातर लोगों की तरह झगड़ालू बनने के बजाय क्या करना बेहतर होगा?—लूका 12:58,59.
3. 5:27-30 लैंगिक विचारों में डूबे रहने के बारे में यीशु ने कौन-सी कड़ी सलाह दी? ऐसे विचारों को मन से निकालने पर मेरी खुशी और मन की शांति कैसे बढ़ सकती है?
4.5:38-42 इस दुनिया का रवैया अपनाने से मुझे क्यों दूर रहना चाहिए, जो गुस्सैल होने का बढ़ावा देता है?
5. 5:43-48 अगर मैं ऐसे लोगों से जान-पहचान बढ़ाने की कोशिश करूँगा, जिनसे मैं पहले शायद नफरत करता था, तो मुझे क्या लाभ होगा? यह तनाव को कम करने या उससे पूरी तरह छुटकारा पाने में कैसे मददगार हो सकता है?
6. 6:14,15 अगर मैं दूसरों को माफ करना कभी-कभी बहुत मुश्किल पाता हूँ, तो क्या इसकी असली वजह यह है कि मेरे अंदर जलन या नाराज़गी की भावना है? ऐसी भावनाओं पर मैं कैसे काबू पा सकता हूँ?
7. 6:16-18 क्या मैं अपने व्यक्तित्व से ज़्यादा रंग-रूप की चिंता करता हूँ? मुझे किस बात की ज़्यादा फिक्र करनी चाहिए?
8. 6:19-32 अगर मैं पैसे और धन-संपत्ति की हद-से-ज़्यादा फिक्र करने लगूँ, तो क्या अंजाम हो सकता है? किस बात पर मन लगाने से मैं इस मामले में सही नज़रिया बनाए रख सकता हूँ?
9. 7:1-5 जब मैं ऐसे लोगों के बीच होता हूँ जो हमेशा दूसरों का खंडन करते और उनकी नुक्ताचीनी करते हैं, तो मुझे कैसा लगता है? खुद ऐसी आदत डालने से बचना मेरे लिए क्यों ज़रूरी है?
10. 7:7-11 अगर परमेश्वर से बिनती करने में लगन दिखाना मेरे लिए ज़रूरी है, तो ज़िंदगी के दूसरे मामलों के बारे में क्या?—लूका 11:5-13.
11. 7:12 हालाँकि मैं सुनहरा नियम जानता हूँ, लेकिन दूसरों के साथ पेश आते वक्त मैं किस हद तक इस पर अमल करता हूँ?
12. 7:24-27 मैं अपनी ज़िंदगी जिस तरह बिता रहा हूँ, इसके लिए मैं खुद ज़िम्मेदार हूँ, इसलिए ज़िंदगी में आनेवाली ढेरों मुसीबतों और तकलीफों का सामना करने के लिए मैं कैसे तैयार हो सकता हूँ? इस बारे में मुझे अभी से क्यों सोचकर रखना चाहिए?—लूका 6:46-49.
कुछ और शिक्षाएँ जिन पर मैं ध्यान दे सकता हूँ:
13. 8:2,3 मैं बेसहारा लोगों पर कैसे दया दिखा सकता हूँ, जैसे यीशु अकसर दिखाता था?
14. 9:9-38 मैं किस हद तक दूसरों पर तरस खाता हूँ और यह गुण मैं और ज़्यादा कैसे दिखा सकता हूँ?
15. 12:19 यीशु के बारे में की गयी भविष्यवाणी से सीखकर, क्या मैं झगड़े और बहस से दूर रहने की कोशिश करता हूँ?
16. 12:20,21 अगर मैं अपनी बातों या अपने व्यवहार से दूसरों को न कुचलूँ, तो इससे क्या फायदा होगा?
17. 12:34-37 आम-तौर पर मैं कैसे विषयों पर बात करता हूँ? मैं जानता हूँ कि अगर मैं संतरे को निचोड़ूं तो संतरे का ही रस निकलेगा। तो क्यों न मैं इस बात पर गहराई से सोचूँ कि मेरे हृदय में कैसी बातें भरी हैं?—मरकुस 7:20-23.
18. 15:4-6 यीशु के शब्दों से, मैं बुज़ुर्गों की प्यार से देखभाल करने के बारे में क्या सीखता हूँ?
19. 19:13-15 मुझे किस काम के लिए वक्त निकालने की ज़रूरत है?
20. 20:25-28 अपने स्वार्थ के लिए दूसरों पर अधिकार जताना क्यों गलत होगा? इस मामले में मैं यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकता हूँ?
कुछ और विचार, जिन्हें मरकुस ने दर्ज़ किया था:
21. 4:24,25 मैं दूसरों के साथ कैसे पेश आता हूँ, यह कितना मायने रखता है?
22. 9:50 अगर मैं मनभावनी बातें और अच्छे काम करूँगा, तो कौन-से अच्छे नतीजे मिलेंगे?
आखिर में, लूका की किताब में दी गयी कुछ शिक्षाएँ:
23. 8:11,14 अगर मैं चिंता, धन के लालच या मनोरंजन को अपनी ज़िंदगी पर हावी होने दूँ, तो क्या अंजाम क्या हो सकता है?
24. 9:1-6 हालाँकि यीशु के पास बीमारों को चंगा करने की शक्ति थी, फिर भी उसने किस काम को पहला स्थान दिया?
25. 9:52-56 क्या मैं जल्दी बुरा मान जाता हूँ? क्या मैं बदले की भावना पर काबू पाने की कोशिश करता हूँ?
26. 9:62 परमेश्वर के राज्य की गवाही देने की अपनी ज़िम्मेदारी के बारे में मुझे कैसा नज़रिया रखना चाहिए?
27. 10:29-37 मैं यह कैसे साबित कर सकता हूँ कि मैं एक मददगार इंसान हूँ, बेलिहाज़ नहीं?
28. 11:33-36 अपनी ज़िंदगी में सादगी लाने के लिए, मैं कैसे बदलाव कर सकता हूँ?
29. 12:15 ज़िंदगी और धन-दौलत के बीच क्या संबंध है?
30. 14:28-30 अगर मैं सोच-समझकर फैसले करूँ, तो मैं किस अंजाम से बच सकता हूँ और मुझे क्या फायदा होगा?
31. 16:10-12 बाइबल में बताए गए खराई के मार्ग पर चलने से मुझे क्या लाभ मिल सकते हैं?
[पेज 10 पर तसवीरें]
यीशु का जूआ उठाकर ज़िंदगियाँ बचाने का काम करने से विश्राम मिलता है