यीशु का जीवन और सेवकाई
कौन सचमुच आनंदित हैं?
हर कोई आनंदित होना चाहता है। यह समझते हुए, यीशु सचमुच ही आनंदित लोगों का वर्णन करके अपना पहाड़ी उपदेश शुरु करता है। जैसा हम कल्पना कर सकते हैं, यह उसके विशाल श्रोतागण का ध्यान फ़ौरन आकृष्ट करता है। और फिर भी, उसके प्रारंभिक शब्द अनेकों को अवश्य प्रतिकूल लगते होंगे।
अपने चेलों को अपने शब्द निर्दिष्ट करते हुए, यीशु शुरु करता है: “धन्य हो तुम, जो दीन हो, क्योंकि परमेश्वर का राज्य तुम्हारा है। धन्य हो तुम, जो अब भूखे हो, क्योंकि तृप्त किए जाओगे। धन्य हो तुम, जो अब रोते हो, क्योंकि हँसोगे। धन्य हो तुम, जब मनुष्य के पुत्र के कारण लोग तुम से बैर करेंगे . . . उस दिन आनंदित होकर उछलना, क्योंकि देखो, तुम्हारे लिए स्वर्ग में बड़ा प्रतिफल है।”
यह लूका का यीशु के उपदेश के प्रस्तावना का विवरण है। पर मत्ती के विवरण के अनुसार, यीशु कहता है कि जो लोग नम्र, दयावन्त, मेल करनेवाले और जिनके मन शुद्ध है, वे आनंदिन हैं। यीशु ग़ौर करता है कि ये इसलिए आनंदित हैं कि वे पृथ्वी के अधिकारी होंगे, उन पर दया की जाएगी, वे परमेश्वर को देखेंगे, और परमेश्वर के पुत्र कहलाएँगे।
परंतु, आनंदित होने से यीशु का मतलब, केवल खुशमिज़ाज या उल्लासपूर्ण होना नहीं है, जैसा कि जब कोई व्यक्ति मज़ा करता है। सच्ची खुशी अधिक गहरी होती है जिसके अर्थ में तृप्ति, संतोष का एक एहसास और जीवन में परितोष के विचार का समावेश है।
तो यीशु दिखाता है कि जो सचमुच आनंदित हैं, वे लोग अपनी आत्मिक ज़रूरत को पहचानकर अपनी पापपूर्ण अवस्था से दुःखी हैं, और परमेश्वर को जानकर उसकी सेवा करने लगते हैं। फिर, अगर परमेश्वर की इच्छानुसार करने के लिए उनसे द्वेष या उन्हें उत्पीड़ित भी किया जाए, तो भी वे आनंदित हैं क्योंकि वे जानते हैं कि वे परमेश्वर को प्रसन्न कर रहे हैं और उसके अनंत जीवन का प्रतिफल प्राप्त करेंगे।
परंतु, यीशु के अनेक श्रोता यह मानते हैं, उसी तरह जैसे आज कुछ लोग मानते हैं, कि समृद्ध होना और सुख-विलास के मज़े लूटना ही किसी व्यक्ति हो आनंदित बनाता है। यीशु जानता है कि यह इससे विपरीत है। एक ऐसा वैषम्य दिखलाते हुए, जो निश्चय ही उसके श्रोताओं के अनेकों को अवश्य आश्चर्य करेगा, वह कहता है:
“हाय, तुम पर, जो धनवान हो, क्योंकि तुम अपनी शान्ति पा चुके। हाय, तुम पर, जो अब तृप्त हो क्योंकि भूखे होगे। हाय, तुम पर, जो अब हँसते हो, क्योंकि शोक करोगे और रोओगे। हाय, तुम पर, जब सब मनुष्य तुम्हें भला कहें क्योंकि उन के बाप-दादे झूठे भविष्यद्वक्ताओं के साथ भी ऐसा ही किया करते थे।”
यीशु का क्या मतलब है? ऐसा क्यों है कि धन-संपत्ति का होना, हँसते हँसते सुख-विलास में लगे रहना, और मनुष्यों की प्रशंसा में आनंद करना विपत्ति लाता है? यह इसलिए है कि जब किसी व्यक्ति के पास ये चीज़ें होती हैं या वह इन्हें मूल्यवान समझता है, तब परमेश्वर के प्रति सेवा, जो अकेले सच्ची खुशी ला सकती है, उसके जीवन से अलग रखी जाती है। उसके साथ-साथ यीशु का यह मतलब न था कि मात्र ग़रीब, भूख़ा, और शोकपूर्ण होना ही किसी व्यक्ति को आनंदित बनाता है। परंतु, अक़्सर ऐसे असुविधा-प्राप्त व्यक्ति शायद यीशु के उपदेशों के अनुकूल प्रतिक्रिया दिखाएँगे, और इस प्रकार वे सच्चे आनंद से आशीर्वाद प्राप्त किए जाते हैं।
फिर, अपने चेलों को संबोधित करते हुए, यीशु कहता है: “तुम पृथ्वी के नमक हो।” निःसंदेह, उसका यह मतलब नहीं कि वे अक्षरशः नमक हैं। बल्कि, नमक एक परिरक्षक पदार्थ है। यहोवा के मंदिर में वेदी के पास नमक का एक बड़ा ढेर रखा था, और अनुष्ठान करनेवाले याजकों ने अर्पणों को नमक लगाने के लिए उसे इस्तेमाल किया।
यीशु के चेले इस अर्थ से “पृथ्वी के नमक हैं” कि लोगों पर उनका एक परिरक्षणात्मक प्रभाव है। वास्तव में, जो संदेश वे लेकर आते हैं, वह उन सब के जीवन का परिरक्षण करेगा, जो उसके अनुकूल प्रतिक्रिया करते हैं। ऐसे लोगों के ज़िंदगी में यह स्थायित्व, वफ़ादारी और विश्वसनीयता के गुणों को उत्पन्न करेगा, और इस प्रकार उन में किसी भी प्रकार की आत्मिक या नैतिक सड़न को रोकेगा।
“तुम जगत की ज्योति हो,” यीशु अपने चेलों से कहता है। एक दीए को किसी टोकरी के नीचे नहीं पर एक दीवट पर रखा जाता है, इसलिए यीशु कहता है: “उसी प्रकार तुम्हारा उजियाला मनुष्यों के सामने चमके।” यीशु के चेलें उनके सरेआम गवाही देने के कार्य के द्वारा, और उसके साथ साथ बाइबल सिद्धांतों के अनुरूप होनेवाले आचरण के दीप्तिमान आदर्शों के तौर से सेवा करने के ज़रिए ऐसा करते हैं। लूका ६:२०-२६; मत्ती ५:३-१६.
◆ कौन सचमुच आनंदित हैं, और क्यों?
◆ किस पर विपत्ति आती है, और क्यों?
◆ यीशु के चेले “पृथ्वी के नमक” और “जगत की ज्योति” किस प्रकार हैं?