आप पर यीशु मसीह का कैसा असर पड़ रहा है?
पिछले लेख में हमने जो पढ़ा, उसे ध्यान में रखते हुए क्या कोई शक रह जाता है कि यीशु की शिक्षाओं का तमाम दुनिया पर ज़बरदस्त असर पड़ा है? लेकिन खुद से यह सवाल पूछना हम सबके लिए ज़रूरी है कि “मुझ पर यीशु की शिक्षाओं का कैसा असर पड़ रहा है?”
यीशु ने अलग-अलग विषयों पर लोगों को सिखाया था। उन शिक्षाओं से जो अनमोल सबक मिलते हैं, उसका आपकी ज़िंदगी के हर पहलू पर असर पड़ सकता है। आइए देखें कि यीशु ने ज़िंदगी में ज़रूरी बातों को पहली जगह देने, परमेश्वर के साथ दोस्ती बढ़ाने, दूसरों के साथ अच्छे रिश्ते बनाने, समस्याओं को निपटाने और हिंसा से दूर रहने के सिलसिले में क्या सिखाया।
ज़िंदगी में ज़रूरी बातों को पहली जगह दीजिए
आज ज़िंदगी की भाग-दौड़ में हम इस कदर उलझ जाते हैं कि जब आध्यात्मिक कामों की बारी आती है, तो उनके लिए न तो हमारे पास वक्त बचता है न ही हमारे अंदर इतनी जान रहती है कि इन्हें पूरा कर सकें। एक आदमी की मिसाल लीजिए जिसे हम जॆरी कहेंगे और जिसकी उम्र 20 से 29 के बीच है। जॆरी को आध्यात्मिक विषयों पर बातचीत करना अच्छा लगता है और वह जो सीखता है उसकी दिल से कदर करता है। मगर वह अफसोस के साथ कहता है: “रोज़-रोज़ ऐसी बातचीत के लिए मेरे पास समय ही नहीं है। मैं हफ्ते में छः दिन काम पर जाता हूँ। सिर्फ रविवार को ही छुट्टी मिलती है। उसी दिन मुझे अपने सारे ज़रूरी काम निपटाने पड़ते हैं। और उन्हें पूरा करते-करते मैं थककर इतना चूर हो जाता हूँ कि कुछ भी करने को दिल नहीं करता।” अगर आपके बारे में भी यह सच है, तो यीशु ने पहाड़ी उपदेश में जो सिखाया उससे आपको ज़रूर फायदा होगा।
यीशु का उपदेश सुनने आयी भीड़ से उसने कहा: “अपने प्राण के लिये यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएंगे? और क्या पीएंगे? और न अपने शरीर के लिये कि क्या पहिनेंगे? क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं? आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; तौभी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन को खिलाता है; क्या तुम उन से अधिक मूल्य नहीं रखते[?] . . . इसलिये तुम चिन्ता करके यह न कहना, कि हम क्या खाएंगे, या क्या पीएंगे, या क्या पहिनेंगे? क्योंकि अन्यजाति इन सब वस्तुओं की खोज में रहते हैं, और तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएं चाहिए। इसलिये पहिले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करो तो ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।” (मत्ती 6:25-33) इससे हम क्या सीखते हैं?
यीशु यह नहीं कह रहा था कि हमें अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ करना चाहिए जैसे रोटी-कपड़े का बंदोबस्त करना। बाइबल कहती है: “यदि कोई अपनों की और निज करके अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्वास से मुकर गया है, और अविश्वासी से भी बुरा बन गया है।” (1 तीमुथियुस 5:8) मगर, यीशु ने वादा किया कि अगर हम ज़रूरी बातों को यानी आध्यात्मिक बातों को पहली जगह देंगे, तो परमेश्वर हमारी बाकी ज़रूरतें भी पूरी करेगा। तो फिर, यीशु के शब्दों से हम यह सबक सीखते हैं कि हमें ज़िंदगी में ज़रूरी बातों को पहली जगह देनी चाहिए। इस सलाह को मानने से हमें खुशियाँ मिलेंगी क्योंकि लिखा गया है: “खुश हैं वे जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत हैं।”—मत्ती 5:3, NW.
परमेश्वर के साथ दोस्ती बढ़ाइए
जो अपनी आध्यात्मिक ज़रूरत के प्रति सचेत रहते हैं, वे जानते हैं कि परमेश्वर के साथ एक अच्छा रिश्ता कायम करना कितना ज़रूरी है। हम किसी के साथ एक अच्छा रिश्ता कैसे कायम करते हैं? क्या हम पहले उस शख्स को अच्छी तरह जानने की कोशिश नहीं करते? बेशक करते हैं। हम उसके सोच-विचार, उसकी काबिलीयतों, कामयाबियों और पसंद-नापसंद से वाकिफ होने के लिए समय निकालते हैं। परमेश्वर के साथ दोस्ती बढ़ाने में भी यही बात शामिल है। उसके बारे में सही ज्ञान लेना ज़रूरी है। यीशु ने परमेश्वर से अपने चेलों के बारे में यह प्रार्थना की: “अनन्त जीवन यह है, कि वे तुझ अद्वैत सच्चे परमेश्वर को और यीशु मसीह को, जिसे तू ने भेजा है, जानें।” (यूहन्ना 17:3) जी हाँ, परमेश्वर के साथ दोस्ती बढ़ाने के लिए सबसे पहले हमें उसे जानना होगा। और उसे जानने का सिर्फ एक ही ज़रिया है, उसका प्रेरित वचन बाइबल। (2 तीमुथियुस 3:16) बाइबल का अध्ययन करने के लिए हमें समय अलग रखना चाहिए।
मगर सिर्फ ज्ञान लेना काफी नहीं है। यीशु ने उसी प्रार्थना में यह भी कहा: “उन्हों ने [उसके चेलों ने] तेरे वचन को मान लिया है।” (यूहन्ना 17:6) हमें परमेश्वर का ज्ञान लेने के साथ-साथ उसके मुताबिक काम भी करना चाहिए। वरना हम परमेश्वर के दोस्त कैसे बन सकते हैं? अगर हम जानबूझकर किसी के विचारों और उसूलों के खिलाफ काम करते हैं, तो क्या हम उसके साथ अपनी दोस्ती बढ़ाने की सोच सकते हैं? इसलिए अगर हम परमेश्वर के साथ अपनी दोस्ती बढ़ाना चाहते हैं, तो हमें ज़िंदगी के हर कदम पर उसके विचारों और उसूलों पर चलने की ज़रूरत है। गौर कीजिए कि कैसे दूसरों के साथ हमारे रिश्ते में परमेश्वर के दो उसूल काम आते हैं।
दूसरों के साथ अच्छा रिश्ता बनाइए
यीशु ने एक मौके पर इंसानी रिश्तों के बारे में अहम सबक सिखाने के लिए एक छोटी कहानी सुनायी। यह एक राजा की कहानी है जो अपने गुलामों से हिसाब चुकता करना चाहता था। उनमें से एक गुलाम पर भारी कर्ज़ था और वह उस कर्ज़ को उतारने की हालत में नहीं था। राजा ने हुक्म दिया कि उस गुलाम के साथ-साथ उसके बीवी-बच्चों को भी बेच दिया जाए और कर्ज़ चुकता किया जाए। गुलाम ने गिड़गिड़ाकर बिनती की: “हे स्वामी, धीरज धर, मैं सब कुछ भर दूंगा।” राजा का दिल पसीज गया और उसने उसका सारा कर्ज़ माफ कर दिया। अब यही गुलाम एक दूसरे गुलाम से मिला जिसने उससे छोटी रकम उधार ली थी और उसने रकम लौटाने की माँग की। दूसरे गुलाम ने दया की भीख माँगी, मगर पहले गुलाम ने उसकी एक न सुनी और उसे कैदखाने में डलवा दिया जब तक कि वह अपना सारा कर्ज़ अदा नहीं करता। जब राजा को इसकी खबर मिली तो वह बहुत बिगड़ा। उसने तकाज़ा किया: “जैसा मैं ने तुझ पर दया की, वैसे ही क्या तुझे भी अपने संगी दास पर दया करना नहीं चाहिए था?” और राजा ने माफ न करनेवाले उस गुलाम को तब तक जेल में बंद रखने का हुक्म दिया जब तक कि वह अपना सारा कर्ज़ चुका न देता। इस कहानी से सबक देते हुए यीशु ने कहा: “इसी प्रकार यदि तुम में से हर एक अपने भाई को मन से क्षमा न करेगा, तो मेरा पिता जो स्वर्ग में है, तुम से भी वैसा ही करेगा।”—मत्ती 18:23-35.
असिद्ध होने की वजह से हमारे अंदर कई खामियाँ हैं। इसलिए परमेश्वर के खिलाफ बार-बार पाप करके हमने कर्ज़ का जो भारी बोझ अपने सिर पर लाद रखा है, उसे कभी-भी चुका नहीं सकेंगे। हम बस इतना कर सकते हैं कि परमेश्वर से अपने पापों की माफी माँगे। और यहोवा परमेश्वर हमारे सारे पापों को माफ करने के लिए तैयार है, बशर्ते हम उन पापों को माफ करें जो हमारे भाइयों ने हमारे खिलाफ किए हैं। है ना यह एक दमदार सबक? यीशु ने अपने चेलों को यह प्रार्थना करना सिखाया: “जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।”—मत्ती 6:12.
समस्याओं को सुलझाने के लिए उनकी जड़ तक जाइए
यीशु इंसानी फितरत को बखूबी समझता था। उसने सलाह दी कि समस्याओं को सुलझाने के लिए उनकी जड़ तक पहुँचना ज़रूरी है। इस बात को समझने के लिए दो उदाहरणों पर गौर कीजिए।
यीशु ने कहा: “तुम सुन चुके हो, कि पूर्वकाल के लोगों से कहा गया था कि हत्या न करना, और जो कोई हत्या करेगा वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा। परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई अपने भाई पर क्रोध करेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा।” (मत्ती 5:21, 22) यीशु ने यहाँ दिखाया कि हत्या की जड़ दरअसल हत्यारे के दिल में होती है, यानी वह किस तरह की सोच अपने अंदर पालता है। अगर यीशु के सुननेवाले अपने अंदर की नाराज़गी और गुस्से को बढ़ने न दें, तो उनके मन में हिंसा का विचार पैदा ही नहीं होता। ज़रा सोचिए, अगर लोग यीशु की इस शिक्षा पर चलते, तो कितना खून-खराबा रोका जा सकता था!
ध्यान दीजिए कि कैसे यीशु एक और समस्या की जड़ तक जाता है जो कई लोगों को गम के सागर में डुबा देती है। उसने भीड़ से कहा: “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था, कि व्यभिचार न करना। परन्तु मैं तुम से यह कहता हूं, कि जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डाले वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका। यदि तेरी दहिनी आंख तुझे ठोकर खिलाए, तो उसे निकालकर अपने पास से फेंक दे।” (मत्ती 5:27-29) यीशु ने सिखाया कि इस समस्या की शुरूआत अनैतिक काम से नहीं बल्कि अनैतिक इच्छाओं से होती है। अगर एक इंसान बुरी लालसाओं के बारे में नहीं सोचता बल्कि उन्हें अपने दिमाग से बाहर ‘फेंक देता’ है, तो वह समस्या को वहीं खत्म कर देता है। और अनैतिक काम में फँसने से बचता है।
“अपनी तलवार काठी में रख ले”
जिस रात यीशु के साथ विश्वासघात किया गया और उसे पकड़वाया गया, उसी रात उसके एक चेले ने उसे बचाने के लिए अपनी तलवार चलायी। मगर यीशु ने उसे आदेश दिया: “अपनी तलवार काठी में रख ले क्योंकि जो तलवार चलाते हैं, वे सब तलवार से नाश किए जाएंगे।” (मत्ती 26:52) अगली सुबह यीशु ने पुन्तियुस पीलातुस से कहा: “मेरा राज्य इस जगत का नहीं, यदि मेरा राज्य इस जगत का होता, तो मेरे सेवक लड़ते, कि मैं यहूदियों के हाथ सौंपा न जाता: परन्तु अब मेरा राज्य यहां का नहीं।” (यूहन्ना 18:36) क्या यह शिक्षा वाकई कारगर है?
यीशु ने हिंसा का रास्ता न अपनाने की जो सीख दी, उसके बारे में शुरू के मसीहियों का कैसा रवैया था? किताब, युद्ध के बारे में शुरू के मसीहियों का रवैया (अँग्रेज़ी) कहती है: “उन्होंने [यीशु की शिक्षाओं ने] हर किस्म की हिंसा और दूसरों को चोट पहुँचाने के रवैए को गलत बताकर उनकी सख्त मनाही की थी, इससे साफ ज़ाहिर है कि युद्ध में हिस्सा लेना गलत था . . . शुरू के मसीहियों ने ठीक वैसा ही किया जैसा यीशु ने हुक्म दिया था और वे अच्छी तरह समझ गए कि यीशु ने कोमल बनने और हिंसा से दूर रहने की जो शिक्षाएँ दीं, उन पर उन्हें सचमुच चलना था। उन्होंने समझा कि उनका धर्म अमन-चैन का बढ़ावा देता है; उन्होंने युद्ध की कड़ी निंदा की क्योंकि उसमें खून की नदियाँ बहायी जातीं।” अगर मसीही होने का दम भरनेवाले सभी ने इस शिक्षा को दिल से माना होता, तो इंसान का इतिहास कितना अलग होता!
यीशु की सारी शिक्षाओं से आपको फायदा हो सकता है
हमने यीशु की जिन शिक्षाओं पर गौर किया है, वे बहुत ही लाजवाब, सरल और दमदार हैं। उसकी शिक्षाओं के बारे में सीखने और उन्हें अमल में लाने से सभी को फायदा हो सकता है।a
यीशु को छोड़ अब तक जीनेवाले किसी भी इंसान ने इतनी बुद्धि-भरी शिक्षाएँ नहीं दी हैं। आप इन शिक्षाओं से कैसे फायदा पा सकते हैं, यह जानने में यहोवा के साक्षी खुशी-खुशी आपकी मदद करने को तैयार हैं। हम आपसे तहेदिल से गुज़ारिश करते हैं कि आप उनसे संपर्क करें या इस पत्रिका के पेज 2 पर दिए पते पर उन्हें लिखें।
[फुटनोट]
a यीशु की सारी शिक्षाओं को सिलसिलेवार ढंग से जाँचने के लिए वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा किताब देखिए। इसे यहोवा के साक्षियों ने प्रकाशित किया है।
[पेज 5 पर तसवीर]
“तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन को खिलाता है”
[पेज 7 पर तसवीर]
यीशु की शिक्षाओं का आपकी ज़िंदगी पर अच्छा असर पड़ सकता है