धार्मिकता मौखिक परंपराओं के ज़रिए नहीं
“यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे।” —मत्ती ५:२०.
१, २. यीशु के अपने पर्वत के उपदेश देने से कुछ देर पहले क्या हुआ?
यीशु ने रात पहाड़ पर ही गुज़ारी थी। ऊपर दूर-दूर तक फैला हुआ तारों से सजा आकाश था। झाड़ियों में रात के छोटे जानवर सरसरा रहे थे। पूरब की ओर गलील सागर के किनारे पर लहरों की हल्की लप-लप सुनायी दे रही थी। पर यीशु को अपनी इर्द-गिर्द की सुकून-भरी, शान्ति पैदा करनेवाली ख़ूबसूरती के बारे में सिर्फ़ धुँधले रूप से ही बोध रहा होगा। उसने अपने स्वर्ग के पिता, यहोवा से प्रार्थना करने में सारी रात गुज़ारी थी। उसे अपने पिता के मार्गदर्शन की ज़रूरत थी। आनेवाला दिन निर्णायक था।
२ पूरब में आकाश का रंग हल्का होने लगा। परिन्दे धीमे से चीं-चीं करते हुए अपनी डालियों पर हिलने लगे। समीर के बहने से जंगली फूल झूलने लगे। जैसे ही सूरज की पहली किरनें क्षितिज को लाँघ कर आयीं, यीशु ने अपने शिष्यों को पास बुला लिया और उन में से १२ जन को अपने प्रेरित होने के लिए चुन लिया। फिर, उन सब के साथ, वह पहाड़ पर से नीचे उतरने लगा। अब से ही गलील, सूर और सैदा, यहूदिया और यरूशलेम में से बड़ी भीड़ आती दिखायी दे रही थी। वे अपनी बीमारियों से ठीक किए जाने के लिए आए हुए थे। यहोवा की तरफ़ से मिली ताक़त यीशु से निकल रही थी, जब अनेकों ने उसे छूआ और अच्छे हो गए। वे उनके शब्दों को भी सुनने आए थे जो उनके परेशान दिलों पर ठीक कर देनेवाले मरहम के जैसे था।—मत्ती ४:२५; लूका ६:१२-१९.
३. जब यीशु बोलने लगा, तब शिष्य और भीड़ प्रत्याशा क्यों कर रहे थे?
३ ज़्यादा औपचारिक रूप से सिखाते समय, रब्बियों को बैठने की आदत थी, और सामान्य युग ३१ की बसन्त ऋतु में, इस सुबह यीशु ने प्रत्यक्ष रूप से पर्वत के एक ज़्यादा ऊँचे सपाट जगह पर यही किया। जब उसके शिष्यों और भीड़ ने यह देख लिया, वे समझ गए कि कोई ख़ास बात होनेवाली थी, इसलिए वे बड़ी प्रत्याशा से उसके इर्द-गिर्द आकर बैठ गए। जब वह बोलने लगा, वे उसके शब्दों की प्रत्याशा कर रहे थे; और जब कुछ देर बाद उसने समाप्त किया, उन्हें सुनी हुई बातों से ताज्जुब हुआ। आइए देखें क्यों।—मत्ती ७:२८.
दो तरह की धार्मिकता
४. (अ) कौनसी दो तरह की धार्मिकताओं पर विचार हो रहा था? (ब) मौखिक परंपराओं का मक़सद क्या था, और क्या यह पूरा हुआ?
४ अपने पर्वत के उपदेश में, जिसका विवरण दोनों मत्ती ५:१-७:२९ में और लूका ६:१७-४९ में किया गया है, यीशु ने सुस्पष्ट रूप से दो वर्गों के बीच विषमता दिखायी: शास्त्री और फ़रीसी तथा जनता, जिन्हें वे दबाते थे। उसने दो तरह की धार्मिकताओं के बारे में कहा, फ़रीसियों की पाखण्डी धार्मिकता और परमेश्वर की सच्ची धार्मिकता। (मत्ती ५:६, २०) फ़रीसियों के आत्म-धर्माभिमान की जड़ें मौखिक परंपराओं में जमी हुई थीं। इन्हें “व्यवस्था की चारों ओर दीवार” बनने के लिए सामान्य युग पूर्व की दूसरी सदी में प्रवर्तित किया गया था, ताकि इसे यूनानी संस्कृति की हानि से सुरक्षित रख सके। इन्हें व्यवस्था का एक हिस्सा माना जाने लगा। दरअसल, शास्त्रियों ने मौखिक परंपराओं को लिखित व्यवस्था से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण माना। मिशना (Mishnah, यहूदियों के मौखिक नियम) में कहा गया है: “लिखित नियम के शब्दों के पालन से भी ज़्यादा, शास्त्रियों के शब्दों [उनके मौखिक परंपराओं] के पालन पर ज़्यादा सख़्ती लागू होती है।” इसलिए, उसकी सुरक्षा के लिए “व्यवस्था की चारों ओर की दीवार” होने के बजाय, उनके परंपराओं ने व्यवस्था को कमज़ोर किया और उसे व्यर्थ बना दिया, उसी तरह जैसे यीशु ने कहा था: “तुम अपनी रीतियों को मानने के लिए परमेश्वर की आज्ञा कैसी अच्छी तरह टाल देते हो!”—मरकुस ७:५-९; मत्ती १५:१-९.
५. (अ) यीशु को सुनने आए हुए जनसाधारण लोगों की आध्यात्मिक हालत क्या थी, और शास्त्री तथा फ़रीसी उनका विचार किस तरह करते थे? (ब) मौखिक परंपराएँ वेतनभोगियों के कन्धों पर ऐसा भारी बोझ किस तरह बन गयीं?
५ यीशु को सुनने के लिए जो जनसाधारण लोग जमा हो गए थे, वे आध्यात्मिक रूप से दरिद्र हो गए थे, चूँकि वे “उन भेड़ों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, व्याकुल और भटके हुए से थे।” (मत्ती ९:३६) हेकड़ घमण्ड से शास्त्री और फ़रीसी उनका तिरस्कार करते, उन्हें ʽआमहा·ʼआʹरेट्स (भूमि के लोग) कहा करते, और चूँकि वे मौखिक परंपराओं का पालन नहीं करते, इसलिए उन्हें पुनरुत्थान पाने के अयोग्य, अशिक्षित और शापित पापियों के तौर से तुच्छ सुमझते थे। यीशु के समय तक वे परंपराएँ इतनी ज़्यादा बढ़ गयी थीं और क़ानूनी नुक़ताचीनी की ऐसी अत्याचारी दलदल बन गयी थीं—समय-नाशक रैतिक विधियों से इतनी ज़्यादा भरी हुईं—कि यह संभव ही न था कि कोई भी वेतनभोगी इन्हें रखें। तो फिर कोई ताज्जुब की बात नहीं कि यीशु ने उन परंपराओं की निन्दा की, कि ये ‘मनुष्यों के कन्धों पर भारी बोझ’ थीं।—मत्ती २३:४; यूहन्ना ७:४५-४९.
६. यीशु के प्रारंभिक उद्घोषण में चौंका देनेवाली बात क्या थी, और इस से उसके शिष्यों और शास्त्री तथा फ़रीसियों के लिए क्या परिवर्तन सूचित हुआ?
६ इसलिए जब यीशु पर्वत की ढाल पर बैठ गया, तब जो लोग पास आकर बैठ गए, वे उसके शिष्य थे और आध्यात्मिक रूप से भूखी भीड़ थी। इन लोगों ने उसके प्रारंभ के उद्घोषण चौंका देनेवाले पाए होंगे, ‘धन्य हैं ग़रीब, धन्य हैं भूखे, धन्य हैं वे जिनसे लोग बैर करते हैं।’ पर कौन है जिससे बैर किया जाए और जो ग़रीब, भूखे, रोते होकर भी खुश रह सके? और उन लोगों पर हाय सुनायी गयी जो अमीर, तृप्त, हँसते हुए थे और जिन्हें भला कहा जाता था! (लूका ६:२०-२६) कुछ ही शब्दों में, यीशु ने सारे रिवाजी मूल्यों और स्वीकृत मानवीय मानदण्डों को उलटा कर दिया। यह स्थितियों में एक प्रभावशाली उलटाव था, जो यीशु के बादवाले शब्दों के अनुसार था: “जो कोई अपने आप को बड़ा बनाएगा, वह छोटा किया जाएगा; और जो अपने आप को दीन बनाएगा, वह बड़ा किया जाएगा।”—लूका १८:९-१४, न्यू.व.
७. यीशु के आध्यात्मिक रूप से भूखे सुननेवालों पर उस के प्रारंभिक शब्दों का कैसा असर रहा होगा?
७ आत्म-संतुष्ट शास्त्रियों और फ़रीसियों से विपरीत, इस सुबह जो लोग यीशु के पास आ रहे थे, वे अपनी दुःखी आध्यात्मिक हालत के बारे में अवगत थे। उसके प्रारंभिक शब्दों से उन में उम्मीद जगा दी गयी होगी: “धन्य हैं वे, जो अपनी आत्मिक ज़रूरत के बारे में अवगत हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।” और उनका मन कितना प्रफुल्ल हो उठा होगा, जब उसने आगे कहा: “धन्य हैं वे, जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, क्योंकि वे तृप्त किए जाएँगे”! (मत्ती ५:३, ६, न्यू.व.; यूहन्ना ६:३५; प्रकाशितवाक्य ७:१६, १७) हाँ, धार्मिकता से तृप्त किए जाएँगे, लेकिन फ़रीसियों के छाप वाली धार्मिकता से नहीं।
‘मनुष्यों के सामने धर्मी’ होना काफ़ी नहीं
८. उनकी धार्मिकता किस तरह शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से बढ़कर होगी, ऐसा कुछ लोग क्यों सोचते, फिर भी उसे बढ़कर क्यों होना था?
८ “यदि तुम्हारी धार्मिकता शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता से बढ़कर न हो, तो तुम स्वर्ग के राज्य में कभी प्रवेश करने न पाओगे।” (मत्ती ५:१७-२०; और मरकुस २:२३-२८; ३:१-६; ७:१-१३ देखें।) कुछ लोगों ने सोचा होगा: ‘फ़रीसियों की धार्मिकता से बढ़कर? वे तो उपवास और प्रार्थना करते हैं, दशमांश कर देते हैं और भिक्षा देते हैं और अपनी सारी ज़िन्दगी व्यवस्था का अभ्यास करने में बिताते हैं। हमारी धार्मिकता किस तरह उन की धार्मिकता से बढ़ सकेगी?’ लेकिन इन की धार्मिकता को उनकी धार्मिकता से बढ़कर होना था। फ़रीसी मनुष्यों की नज़र में अत्यन्त सम्मानित रहे होंगे, लेकिन परमेश्वर की नज़र में नहीं। एक और अवसर पर, यीशु ने इन फ़रीसियों से कहा: “तुम तो मनुष्यों के सामने अपने आप को धर्मी ठहराते हो: परन्तु परमेश्वर तुम्हारे मन को जानता है, क्योंकि जो वस्तु मनष्यों की दृष्टि में महान है, वह परमेश्वर के निकट घृणित है।”—लूका १६:१५.
९-११. (अ) शास्त्रियों और फ़रीसियों की सोच के मुताबिक़, परमेश्वर के सामने एक धर्मी स्थिति पाने का एक तरीक़ा क्या था? (ब) वह दूसरा तरीक़ा क्या था, जिसके ज़रिए उन्होंने धार्मिकता पाने की उम्मीद रखी? (क) उन्होंने कौनसे तीसरे तरीक़े पर भरोसा रखा, और प्रेरित पौलुस के अनुसार इसका असफ़ल होना किस बात से नियत था?
९ रब्बियों ने धार्मिकता हासिल करने के लिए अपने ही नियम बनाए थे। एक था इब्राहीम की वंशावली से आने से प्राप्त योग्यता: “हमारे पिता इब्राहीम के शिष्य इस दुनिया का आनन्द लेते हैं और आनेवाली दुनिया के वारिस बनते हैं।” (मिशना) संभव है कि इसी परंपरा का प्रतिकार करने के लिए बपतिस्मा देनेवाले यूहन्ना ने उन फ़रीसियों को चेतावनी दी: “सो मन फिराव के योग्य फल लाओ। और अपने अपने मन में यह न सोचो, कि ‘हमारा पिता इब्राहीम है [मानो यही काफ़ी था]।’”—मत्ती ३:७-९; और यूहन्ना ८:३३-३९ भी देखें।
१० उन्होंने कहा कि धार्मिकता हासिल करने का दूसरा तरीक़ा भिक्षा-दान के ज़रिए था। सा.यु.पू. की दूसरी सदी में धर्मपरायण यहूदियों द्वारा लिखे गए दो संदिग्धलेखीय किताबें पारंपारिक नज़रिए को प्रतिबिंबित करती हैं। एक वाक्य तोबित में प्रकट होता है: “भिक्षा-दान व्यक्ति को मौत से बचाता है और हर प्रकार के पाप का प्रायश्चित करता है।” (१२:९, द न्यू अमेरिकन् बाइबल, The New American Bible या NAB) सिराख की किताब (एक्क्लीज़िएस्टिकस्) इस से सहमत है: “पानी से धधकती आग बुझ जाती है, और भिक्षा से पापों का प्रायश्चित होता है।”—३:२९, NAB.
११ उनका धार्मिकता पाने का तीसरा तरीक़ा व्यवस्था के कर्म करने के ज़रिए था। उनकी मौखिक परंपराओं में सिखाया गया था कि अगर इन्सान के कर्म ज़्यादातर अच्छे होते, तो वह बच जाता। न्यायदण्ड “ज़्यादा से ज़्यादा कर्मों के ज़रिए है, चाहे ये अच्छे हों या बुरे।” (मिशना) अनुकूल न्यायदण्ड पाने के लिए, उनकी दिलचस्पी “ऐसी योग्यताएँ पाने में थी, जो पापों से ज़्यादा भारी होतीं।” अगर किसी आदमी के अच्छे कर्म उसके बुरे कर्मों से ज़्यादा होते, चाहे एक ही कर्म से ज़्यादा, तो भी वह बच जाता—मानो परमेश्वर उनकी छोटी-मोटी गतिविधियों की गणना करने से इन्साफ़ करते थे! (मत्ती २३:२३, २४) सही नज़रिए को पेश करते हुए, पौलुस ने लिखा: “व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी [परमेश्वर] के सामने धर्मी नहीं ठहरेगा।” (रोमियों ३:२०) बेशक, मसीही धार्मिकता को फ़रीसियों की धार्मिकता से बढ़कर होना चाहिए!
“तुम सुन चुके हो कि कहा गया था”
१२. (अ) अपने पर्वत के उपदेश में यीशु ने इब्रानी शास्त्रों के उल्लेखों को पेश करने में अपने सामान्य तरीक़े से कौनसा परिवर्तन किया, और क्यों? (ब) “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था,” इस अभिव्यक्ति के छठे प्रयोग से हम क्या सीखते हैं?
१२ जब यीशु ने इस से पूर्व इब्रानी शास्त्रों में से उद्धरण किया था, उसने कहा: “लिखा है।” (मत्ती ४:४, ७, १०) लेकिन पर्वत के उपदेश में छः बार, “कहा गया था,” इन शब्दों से उसने ऐसी बातें पेश कीं जो इब्रानी शास्त्रों में से कथन लगते थे। (मत्ती ५:२१, २७, ३१, ३३, ३८, ४३) क्यों? इसलिए कि वह उन शास्त्रपदों का उल्लेख कर रहा था जिनका अर्थ फ़रीसियों की परंपराओं के अनुसार लगाया गया था, और जो परमेश्वर के आदेशों के विपरीत थे। (व्यवस्थाविवरण ४:२; मत्ती १५:३) यह इस श्रृंखला में यीशु के छठे और आख़री उल्लेख से ज़ाहिर होता है: “तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; कि ‘अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर।’” लेकिन मूसा की व्यवस्था में एक भी नियम ऐसा न था जिस में कहा गया, “अपने बैरी से बैर रखना।” यह शास्त्रियों और फ़रीसियों ने कहा था। वह उनकी अपने पड़ोसी से प्रेम रखने के नियम की व्याख्या थी—अपने यहूदी पड़ोसी से ही प्रेम रखना, और किसी से नहीं।
१३. यीशु किस तरह ऐसे बरताव के ख़िलाफ़ चेतावनी देता है जिसके परिणामस्वरूप हत्या वास्तविक तौर से की जा सकती है?
१३ छः कथानों की इस श्रृंखला के पहले कथन पर ग़ौर करें। यीशु ने कहा: “तुम सुन चुके हो, कि पूर्वकाल के लोगों से कहा गया था कि ‘हत्या न करना, और जो कोई हत्या करेगा वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा।’ परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई अपने भाई से क्रुद्ध रहेगा, वह कचहरी में दण्ड के योग्य होगा।” (मत्ती ५:२१, २२, न्यू.व.) दिल में नाराज़गी रखने के परिणामस्वरूप अपमानजनक भाषा निकल सकती है और उस से दण्डात्मक फ़ैसले हो सकते हैं, और आख़िर यह हत्या के कर्म में ही परिणत हो सकता है। दिल में बहुत समय से पली हुई नाराज़गी घातक हो सकती है: “जो कोई अपने भाई से बैर रखता है, वह हत्यारा है।”—१ यूहन्ना ३:१५.
१४. यीशु हमें व्यभिचार में परिणत होनेवाले रास्ते पर शुरू ही न होने के लिए किस तरह सलाह देता है?
१४ यीशु ने आगे कहा: “तुम सुन चुके हो कि कहा गया था, कि ‘व्यभिचार न करना।’ परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि जो कोई किसी स्त्री पर कुदृष्टि डालकर उसे देखता रहे जिस से उसके मन में कामवासना पैदा हो, वह अपने मन में उस से व्यभिचार कर चुका।” (मत्ती ५:२७, २८, न्यू.व.) आप व्यभिचार नहीं करनेवाले हैं? तो फिर उस पर विचार करके उस रास्ते पर शुरू ही न हों। अपने मन की रक्षा करें, जो ऐसे विचारों का मूल स्रोत है। (नीतिवचन ४:२३; मत्ती १५:१८, १९) याकूब १:१४, १५ में चेतावनी दी गयी है: “प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर, और फँसकर परीक्षा में पड़ता है। फिर अभिलाषा गर्भवती होकर पाप को जनती है और पाप जब बढ़ जाता है तो मृत्यु को उत्पन्न करता है।” लोग कभी-कभी कहते हैं: ‘ऐसा कुछ भी शुरू ही न करो जिसे तुम पूरा न कर सको।’ लेकिन इस मामले में हमें कहना चाहिए: ‘ऐसा कुछ भी शुरू ही न करो जिसे तुम रोक न सको।’ कुछ लोग जो फायरिंग स्क्वॉड से मौत के घाट उतार दिए जाने के ख़तरे के सम्मुख भी विश्वसनीय रह चुके हैं, बाद में वे यौन-संबंधी अनैतिकता के कपटपूर्ण आकर्षण का शिकार हो गए हैं।
१५. तलाक़ पर यीशु की स्थिति किस तरह यहूदियों के मौखिक परंपराओं में बतायी गयी स्थिति से पूर्ण रूप से अलग थी?
१५ अब हम यीशु के तीसरे कथन पर विचार करते हैं। उसने कहा: “यह भी कहा गया था, कि ‘जो कोई अपनी पत्नी को त्याग दे तो उसे त्यागपत्र दे।’ परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ कि जो कोई अपनी पत्नी को व्यभिचार के सिवा किसी और कारण से छोड़ दे, तो वह उस से व्यभिचार करवाता है, और जो कोई उस त्यागी हुई से ब्याह करे [जिसका तलाक़ यौन-संबंधी अनैतिकता के सिवा किसी और कारण से हुआ हो], वह व्यभिचार करता है।” (मत्ती ५:३१, ३२) कुछ यहूदियों ने अपनी पत्नी के साथ विश्वासघात किया और तुच्छ से तुच्छ कारणों से उन्हें तलाक़ दे दिया। (मलाकी २:१३-१६; मत्ती १९:३-९) मौखिक परंपराओं में आदमी को अपनी पत्नी को तलाक़ देने की इजाज़त थी, “तब भी अगर इसने उसके लिए बनाए किसी पक़वान को बिगाड़ दिया हो,” या “अगर उसे इस से सुन्दर औरत मिल गयी हो।”—मिशना.
१६. कौनसी यहूदी प्रथा से शपथ खाना निरर्थक बन गया था, और यीशु ने कौनसी स्थिति ली?
१६ इसी ढंग से, यीशु ने आगे कहा: “फिर तुम सुन चुके हो, कि पूर्वकाल के लोगों से कहा गया था कि ‘झूठी शपथ न खाना’ . . . परन्तु मैं तुम से कहता हूँ, कि कभी शपथ न खाना।” इस समय तक यहूदी शपथों का दुरुपयोग कर रहे थे और तुच्छ बातों के बारे में शपथ ले रहे थे पर उन्हें पूरा नहीं कर रहे थे। लेकिन यीशु ने कहा: “कभी शपथ न खाना . . . परन्तु तुम्हारी बात हाँ की हाँ, या नहीं की नहीं हो।” उसका नियम सरल था: हर समय सत्यवादी रहो, ताकि शपथ खाकर अपने शब्दों की गारंटी न देनी पड़े। महत्त्वपूर्ण मामलों में ही शपथ लो।—मत्ती ५:३३-३७; और २३:१६-२२ से तुलना करें।
१७. यीशु ने “आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत” से बेहतर कौनसा रास्ता सिखाया?
१७ यीशु ने आगे कहा: “तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था, कि ‘आँख के बदले आँख, और दाँत के बदले दाँत।’ परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि बुरे का सामना न करना; परन्तु जो कोई तेरे दहिने गाल पर थप्पड़ मारे, उस की ओर दूसरा भी फेर दे।” (मत्ती ५:३८-४२) यीशु यहाँ चोट पहुँचाने के हेतु किसी घूँसे का ज़िक्र नहीं कर रहा था लेकिन हाथ के पृष्ठभाग से लगाए गए एक अपमानजनक थप्पड़ से था। एक दूसरे का अपमान करके अपना दरजा मत घटाओ। बुराई के बदले बुराई करने से साफ़ इन्कार करो। उलटा, भलाई करें और इस तरह “भलाई से बुराई को जीत लो।”—रोमियों १२:१७-२१.
१८. (अ) यहूदियों ने अपने पड़ोसी से प्रेम रखने के नियम को कैसे बदल डाला, लेकिन यीशु ने इसे किस तरह प्रभावहीन कर दिया? (ब) “पड़ोसी” शब्द के अनुप्रयोग को सीमित करना चाह रहे एक व्यवस्थापक को यीशु का जवाब क्या था?
१८ छठी और आख़री मिसाल में, यीशु ने स्पष्ट रूप से दिखाया कि मूसा की व्यवस्था रब्बियों की परंपरा से किस तरह कमज़ोर की गयी थी: “तुम सुन चुके हो, कि कहा गया था; कि ‘अपने पड़ोसी से प्रेम रखना, और अपने बैरी से बैर।’ परन्तु मैं तुम से यह कहता हूँ, कि अपने बैरियों से प्रेम रखो और अपने सतानेवालों के लिए प्रार्थना करो।” (मत्ती ५:४३, ४४) मूसा की लिखित व्यवस्था में प्रेम पर कोई प्रतिबन्ध न था: “एक दूसरे से अपने ही समान प्रेम रखना।” (लैव्यव्यवस्था १९:१८) वे फ़रीसी ही थे जो इस आदेश का पालन करने से जी चुराते थे, और इस से बच निकलने के लिए उन्होंने “पड़ोसी,” इस शब्द को उन्हीं लोगों तक सीमित रखा जो परंपराओं का पालन करते थे। इसीलिए जब यीशु ने बाद में एक व्यवस्थापक को ‘अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखने’ के नियम की याद दिला दी, उस आदमी ने बात को टालकर आपत्ति की: “तो मेरा पड़ोसी कौन है?” यीशु ने भले सामरी का दृष्टान्त देकर जवाब दिया—अपने आप को उस व्यक्ति का पड़ोसी बनाओ जिसे तुम्हारी ज़रूरत हो।—लूका १०:२५-३७.
१९. यीशु ने यहोवा का कौनसा कार्य उपयुक्त बताया जो उन्होंने बुरे लोगों के लिए किया?
१९ अपने उपदेश को जारी रखकर, यीशु ने घोषित किया कि ‘परमेश्वर ने बुरे लोगों से भी प्रेम रखा। उन्होंने उन पर सूर्य उदय किया और मेंह बरसाया। अपने से प्रेम रखनेवालों से प्रेम रखना कोई असाधारण बात नहीं। बुरे लोग भी तो वही करते हैं। उस में प्रतिफल पाने का कोई कारण नहीं। अपने आप को परमेश्वर के पुत्र साबित करो। उनका अनुकरण करो। खुद को हर एक का पड़ोसी बनाओ और अपने पड़ोसी से प्रेम रखो। और इस प्रकार, “सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वर्गीय पिता सिद्ध है।”’ (मत्ती ५:४५-४८) यह क्या ही चुनौती-भरा मानदण्ड है जिसके अनुसार हमें आचरण करना है! और इस से दिखायी देता है कि शास्त्रियों और फ़रीसियों की धार्मिकता कितनी कम है!
२०. मूसा की व्यवस्था को छोड़ने के बजाय, यीशु ने उसके प्रभाव को ज़्यादा विस्तृत और गहरा बनाकर उसे एक और भी ज़्यादा ऊँचे स्तर पर कैसे रखा?
२० इसलिए जब यीशु ने व्यवस्था के कुछ हिस्सों का ज़िक्र किया और कहा, “परन्तु मैं तुम से कहता हूँ,” वह मूसा की व्यवस्था को छोड़कर उसकी जगह में कुछ और नहीं ला रहा था। नहीं, पर वह उसके पीछे की मनोवृत्ति दिखाकर उसकी ताक़त को और अधिक गहरा और विस्तृत बना रहा था। भाईचारे के एक ज़्यादा ऊँचे नियम में निरन्तर दुर्भावना को हत्या ही माना जाता है। शुद्धता के एक ज़्यादा ऊँचे नियम के अनुसार निरन्तर आनेवाले हवस-भरे विचारों को व्यभिचार ही माना जाता है। विवाह के एक ज़्यादा ऊँचे नियम से छिछोरे रूप से किए गए तलाक़ ठुकरा दिए जाते हैं क्योंकि इन की वजह से व्यभिचारी पुनर्विवाह होते हैं। सच्चाई के एक ज़्यादा ऊँचे नियम से दिखायी देता है कि बार-बार शपथ खाना फ़ुज़ूल है। कोमलता के एक ज़्यादा ऊँचे नियम का पालन करने से बदले की भावना को निकाल दिया जाता है। प्रेम के एक ज़्यादा ऊँचे नियम से एक ऐसा ईश्वरीय प्रेम आवश्यक हो जाता है जिसकी कोई सीमा नहीं।
२१. यीशु के प्रबोधन से रब्बियों के आत्म-धर्माभिमान के बारे में क्या प्रकट हुआ, तथा भीड़ और क्या-क्या सीखती?
२१ ऐसे अनसुने प्रबोधन से उन लोगों पर कैसा गहरा असर हुआ होगा, जिन्होंने इन्हें पहली बार सुना! इन से रब्बियों की परंपराओं की ग़ुलामी करने से प्राप्त पाखण्ड आत्म-धर्माभिमान कैसे संपूर्ण रूप से बेकार बन गया! लेकिन जैसे यीशु ने अपने पर्वत के उपदेश को जारी रखा, परमेश्वर की धार्मिकता के लिए भूखी-प्यासी भीड़ स्पष्ट रूप से सीखनेवाली थी कि वे इसे किस तरह हासिल कर सकते थे, जैसा कि अगले लेख में बताया गया है।
पुनर्विचार के सवाल
◻ यहूदियों ने अपनी मौखिक परंपराएँ क्यों बनायीं?
◻ शास्त्रियों और फ़रीसियों तथा जनसाधारण से संबद्ध यीशु ने कौनसा महत्त्वपूर्ण उलटाव किया?
◻ शास्त्री और फ़रीसी किस तरह परमेश्वर के सामने एक धर्मी स्थिति हासिल करने की अपेक्षा कर रहे थे?
◻ यीशु ने अनुसार अनूढ़ागमन और व्यभिचार से बचे रहने का तरीक़ा क्या है?
◻ मूसा की व्यवस्था के पीछे की मनोवृत्ति दिखाकर, यीशु ने कौनसे ज़्यादा ऊँचे मानदण्ड स्थापित किए?