यीशु का जीवन और सेवकाई
प्रार्थना, और परमेश्वर पर भरोसा
जैसे यीशु अपना उपदेश जारी रखता है, वह उन लोगों के कपट की निंदा करता है जो अपने कल्पित धर्मपरायणता का दिखावा करते हैं। “जब तू दान करे,” वह कहता है, ‘तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसे कपटी करते हैं।’
“और,” यीशु आगे कहता है, “जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो; क्योंकि लोगों को दिखाने के लिए सभाओं में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उन को अच्छा लगता है।” बल्कि, वह उपदेश करता है: “जब तू प्रार्थना करे, तो अपनी कोठरी में जा, और द्वार बन्द कर के अपने पिता से जो गुप्त में है प्रार्थना कर।” यीशु ने स्वयं आम प्रार्थनाएँ की, तो वह इनकी निंदा नहीं कर रहा है। वह उन प्रार्थनाओं की भर्त्सना कर रहा है जो श्रोताओं को प्रभावित करने और उनके प्रशंसात्मक वाह-वाह पाने के लिए कहे जाते हैं।
यीशु आगे सलाह देता है: “प्रार्थना करते समय अन्यजातियों की नाई वही बातें बार बार न कहो।” यीशु का यह अर्थ नहीं कि दोहराव स्वयं में ग़लत है। एक बार, उसने खुद प्रार्थना करने में “वही बात” बार बार दोहराई। लेकिन वह कंठस्थ पदबंधों का “बार बार” कहना नापसंद करता है, जैसे कि वे लोग करते हैं जो जैसे अपनी प्रार्थनाएँ कंठस्थ कहते हैं, माला पर जप करते हैं।
अपने श्रोताओं को प्रार्थना करने की मदद करने के लिए, यीशु आदर्श प्रार्थना देता है जिसमें सात निवेदन हैं। पहले तीन सही-सही परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठता और उसके उद्देश्यों को मान्यता देते हैं। वे परमेश्वर के नाम का पवित्रिकरण होने, उसका राज्य आने, और उसकी इच्छा पूरी होने के लिए बिनतियाँ हैं। बाक़ी के चार निजी बिनतियाँ हैं, अर्थात्, प्रतिदिन के भोजन, पापों की क्षमा, अपने सहन से कहीं अधिक प्रलोभन में न लाए जाने, और दुष्ट से बचाने के लिए।
आगे बढ़कर, यीशु भौतिक संपत्ति पर अनुचित ज़ोर देने के फंदे पर ध्यान लगाता है। वह आग्रह करता है: “अपने लिए पृथ्वी पर धन इकट्ठा न करो, जहाँ कीड़ा और काई बिगाड़ते हैं, और जहाँ चोर सेंध लगाते और चुराते हैं।” ऐसे खज़ाने न सिर्फ़ नश्वर हैं, पर वे परमेश्वर के साथ कोई गुणवत्ता नहीं कमाते।
इसलिए, यीशु कहता है: “परन्तु, अपने लिए स्वर्ग में धन इकट्ठा करो।” यह अपने जीवन में परमेश्वर की सेवा को प्रथम स्थान देने से किया जाता है। इस तरह परमेश्वर के साथ जमा गुणवत्ता या उसके शानदार प्रतिफल को कोई ले जा नहीं सकता। फिर यीशु कहता है: “क्योंकि जहाँ तेरा धन है वहाँ तेरा मन भी लगा रहेगा।”
भौतिकवाद के फंदे पर आगे ध्यान लगाकर, यीशु यह दृष्टांत देता है: “शरीर का दीया आँख है। इसलिए यदि तेरी आँख निर्मल हो, तो तेरा सारा शरीर भी उजियाला होगा; परन्तु यदि तेरी आँख बुरी हो, तो तेरा सारा शरीर भी अँधियारा होगा।” जो आँख उचित रीति से काम करता है, वह शरीर के लिए अँधियारी जगह में एक जलते दीये के जैसे है। लेकिन सही-सही रीति से देखने के लिए, आँख को निर्मल होना चाहिए, यानी, उसे एक ही चीज़ पर फ़ोकस करना चाहिए। फ़ोकस-से-बाहर आँख से बातों का एक अशुद्ध मूल्यांकन किया जा सकता है, यहाँ तक कि भौतिक चीज़ें परमेश्वर की सेवा के आगे रखी जा सकती हैं, जिसके फलस्वरूप “सारा शरीर” अँधियारा बन जाता है।
यीशु एक सबल दृष्टांत देकर इस मामले को चरमावस्था पर पहुँचाता है: “कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर और दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा, और दूसरे को तुच्छ जानेगा। तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।”
यह उपदेश देने के बाद, यीशु अपने श्रोताओं को आश्वासन देता है कि यदि वे परमेश्वर की सेवा प्रथम स्थान पर रखेंगे तो उन्हें अपनी भौतिक आवश्यकताओं के विषय चिंतित होने की ज़रूरत नहीं। “आकाश के पक्षियों को देखो,” वह कहता है, “वे न बोते हैं, और न काटते हैं, और न खेतों में बटोरते हैं; तौभी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उन को खिलाता है।” फिर वह पूछता है: “क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?”
फिर यीशु खेत के जंगली सोसनों की ओर संकेत करता है और ग़ौर करता है कि “सुलैमान भी, अपने सारे विभव में उन में से किसी के समान वस्त्र पहने हुए न था। इसलिए,” वह आगे कहता है, “जब परमेश्वर मैदान की घास को . . . ऐसा वस्त्र पहनाता है, तो, हे अल्प-विश्वासियों, तुम को वह क्योंकर न पहनाएगा?”
तो यीशु समाप्त करता है: “इसलिए तुम चिंता करके यह न कहना, कि ‘हम क्या खाएँगे,’ या ‘क्या पीएँगे,’ या ‘क्या पहनेंगे?’ . . . और तुम्हारा स्वर्गीय पिता जानता है, कि तुम्हें ये सब वस्तुएँ चाहिए। इसलिए पहले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करते रहो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी।” मत्ती ६:१-३४; २६:३६-४५.
◆ यीशु ने प्रार्थना संबंधी कौनसे आदेश दिए?
◆ स्वर्गीय संपत्ति उच्चकोटि की क्यों है, और वह कैसे प्राप्त होती है?
◆ किसी को भौतिकवाद से दूर रहने की मदद के लिए कौनसे दृष्टांत दिए गए?
◆ यीशु ने क्यों कहा कि चिंतित होने की कोई ज़रूरत नहीं?