राज्य और परमेश्वर के धर्म की खोज करते रहो
“इसलिए पहले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करते रहो तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी।”—मत्ती ६:३३, न्यू.व.
१, २. शास्त्रियों और फ़रीसियों ने अपने में भले कामों को किस में बदल दिया, और यीशु ने अपने अनुयायियों को कौनसी चेतावनी दी?
शास्त्रियों और फ़रीसियों ने अपने ही रीति से धार्मिकता पाने की कोशिश की, जो परमेश्वर की रीति नहीं थी। यही नहीं, लेकिन जब उन्होंने ऐसे काम किए जो खुद भले थे, तब उन्होंने इन कामों को मनुष्यों को दिखाने के पाखण्डी प्रदर्शन बना दिए। वे परमेश्वर की नहीं बल्कि खुद अपने ही मिथ्याभिमान की सेवा कर रहे थे। यीशु ने ऐसे नाटक के ख़िलाफ़ अपने शिष्यों को चेतावनी दी: “सावधान रहो! तुम मनुष्यों को दिखाने के लिए अपने धर्म के काम न करो, नहीं तो अपने स्वर्गीय पिता से कुछ भी फल न पाओगे।”—मत्ती ६:१.
२ यहोवा उन लोगों की क़दर करते हैं जो ग़रीबों को देते हैं—लेकिन उन लोगों की नहीं, जो फ़रीसियों के जैसे देते हैं। यीशु ने अपने शिष्यों को उनका अनुकरण नहीं करने की चेतावनी दी: “इसलिए जब तू दान करे, तो अपने आगे तुरही न बजवा, जैसा कपटी, सभाओं और गलियों में करते हैं, ताकि लोग उन की बड़ाई करें। मैं तुम से सच कहता हूँ कि वे अपना फल पा (रहे हैं, न्यू.व.) चुके।”—मत्ती ६:२.
३. (अ) शास्त्री और फ़रीसी किस रीति से अपने दान की पूरी रक़म पा चुके थे? (ब) दान देने के बारे में यीशु की स्थिति किस प्रकार अलग थी?
३ ‘वे अपना फल पा रहे हैं,’ इस अभिव्यक्ति का यूनानी शब्द (अ·पेʹखो) एक ऐसा शब्द था जिसे व्यापारी रसीदों में अक्सर दिखायी देता था। पर्वत के उपदेश में इसके प्रयोग से सूचित होता है कि “वे अपना फल पा चुके हैं,” यानी, “उन्होंने अपना फल पाने की रसीद पर दस्तख़त की है: अपना फल पाने का उनका हक़ पूरा हो चुका है, ठीक उसी तरह मानो उन्होंने पहले ही इसके लिए रसीद दी हो।” (डब्ल्यू. ई. वाइन द्वारा लिखित, एन एक्सपॉज़िटरी डिक्शनरी ऑफ न्यू टेस्टामेन्ट वर्डस्, An Expository Dictionary of New Testament Words, by W.E.Vine) ग़रीबों के लिए भेंट देने का वादा सड़कों पर सरेआम किया जाता था। मंदिरों में दान देनेवालों के नाम घोषित किए जाते थे। बड़ी रक़म देनेवालों को उपासना के दौरान रब्बियों के पास बैठने की जगह देकर ख़ास तौर से सम्मानित किया जाता था। वे मनुष्यों को दिखाने के लिए देते थे; इसलिए, वे उस प्रतिफल की रसीद पर, जो उनके देने से आता था, “पूरी रक़म दी जा चुकी है,” यह मोहर लगा सकते थे। यीशु की स्थिति कितनी अलग थी! “गुप्त” रूप से दान करें; “और तब तेरे पिता जो गुप्त में देखते हैं, तुझे प्रतिफल देंगे।”—मत्ती ६:३, ४, न्यू.व.; नीतिवचन १९:१७.
वे प्रार्थनाएँ जिनसे परमेश्वर खुश होते हैं
४. फ़रीसियों की प्रार्थनाओं के बारे में क्या बात थी, जिसकी वजह से यीशु ने उन आदमियों को पाखण्डी कहा?
४ यहोवा उन प्रार्थनाओं की क़दर करते हैं जो उन से की जाती हैं—लेकिन उस तरह नहीं, जैसे फ़रीसियों ने प्रार्थना की। यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा: “जब तू प्रार्थना करे, तो कपटियों के समान न हो क्योंकि लोगों को दिखाने के लिए सभाओं में और सड़कों की मोड़ों पर खड़े होकर प्रार्थना करना उन को अच्छा लगता है; मैं तुम से सच कहता हूँ, कि वे अपना प्रतिफल पा (रहे हैं, न्यू.व.) चुके।” (मत्ती ६:५) फ़रीसियों की ऐसी अनेक प्रार्थनाएँ थीं जो हर रोज़, निश्चित वक़्त पर, चाहे वे जहाँ भी हों, की जानी चाहिए थीं। परिकल्पना के अनुसार, उन्हें ये प्रार्थनाएँ अकेले में करनी थीं। लेकिन युक्ति से, वे “सड़कों की मोड़ों पर” होने में सफ़ल होते थे, ताकि प्रार्थना करने के समय, चारों दिशा से गुज़रनेवाले लोग उन्हें देख सके।
५. (अ) और कौनसी बातों की वजह से फ़रीसियों की प्रार्थनाएँ परमेश्वर द्वारा अनसुनी रह गयीं? (ब) यीशु ने अपनी आदर्श प्रार्थना में कौनसी बातें पहले बतायीं, और क्या आज लोग इस से सहमत हैं?
५ झूठी पवित्रता का प्रदर्शन करते हुए, वे “दिखाने के लिए बड़ी देर तक प्रार्थना करते रहते” थे। (लूका २०:४७) एक मौखिक परंपरा के अनुसार: “पुराने ज़माने के धर्मनिष्ठ आदमी तेफ़िल्ला [प्रार्थना] कह डालने से पहले एक घंटा रुकते थे।” (मिशना) तब तक हर कोई ज़रूर उनकी धर्मनिष्ठा देखते और उसकी वजह से आश्चर्यचकित होते! ऐसी प्रार्थनाएँ खुद उनके सिर से ज़्यादा ऊँचा नहीं चढ़ीं। यीशु ने कहा कि प्रार्थना बेकार रूप से दोहराए बग़ैर, अकेले में करनी चाहिए और उसने उन्हें एक सरल आदर्श दिया। (मत्ती ६:६-८; यूहन्ना १४:६, १४; १ पतरस ३:१२) यीशु की आदर्श प्रार्थना में अहम बातों को पहले बताया गया था: “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए; तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।” (मत्ती ६:९-१३) आज अधिकांश लोग परमेश्वर के नाम का पवित्रीकरण चाहना तो दूर, उनका नाम तक नहीं जानते। इस तरह वे उन्हें एक बेनाम ईश्वर बनाते हैं। परमेश्वर का राज्य आए? कई लोग सोचते हैं कि यह आ चुका है, और उनके अन्दर है। वे उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए प्रार्थना करते होंगे, लेकिन अधिकांश लोग अपनी ही इच्छा को पूरा करते हैं।—नीतिवचन १४:१२.
६. यीशु ने यहूदियों के उपवासों को निरर्थक क्यों ठहराया?
६ उपवास यहोवा को स्वीकार्य है—लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह फ़रीसियों ने यह किया। जैसे शास्त्रियों और फ़रीसियों के भिक्षा-दान और प्रार्थना के मामले में था, यीशु ने उनके उपवास को भी निरर्थक कहा: “जब तू उपवास करो, तो कपटियों की नाईं तुम्हारे मुँह पर उदासी न छाई रहे, क्योंकि वे अपना मुँह बनाए रहते हैं, ताकि लोग उन्हें उपवासी जानें; मैं तुम से सच कहता हूँ, कि वे अपना प्रतिफल पा (रहे हैं, न्यू.व.) चुके।” (मत्ती ६:१६) उनकी मौखिक परंपराओं से सूचित हुआ कि उपवास करते समय फ़रीसियों को न नहाना था, और न तेल मलना था, लेकिन उनके सिर पर राख डालना था। जब उपवास नहीं करते थे, तब यहूदी नियमित रूप से नहाते थे और अपने शरीर पर तेल मलते थे।
७. (अ) उपवास करते समय, यीशु के अनुयायियों को किस तरह बरताव करना था? (ब) उपवास के संबंध में, यशायाह के समय में यहोवा क्या चाहते थे?
७ उपवास के संबंध में, यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा: “अपने सिर पर तेल मल और मुँह धो। ताकि लोग नहीं परन्तु तेरा पिता जो गुप्त में है, तुझे उपवासी जाने।” (मत्ती ६:१७, १८) यशायाह के समय में, यहूदियों को अपने उपवास करने में, अपने आप को तड़पाने में, अपना सिर झुकाने में, और टाट बिछाकर और राख़ फैलाए बैठने में खुशी मिलती थी। लेकिन यहोवा चाहते थे कि वे दबे हुओं को छुड़ाए, भूखों को खिलाए, बेघरों को आश्रय दे, और नंगों को कपड़े पहनाए।—यशायाह ५८:३-७.
स्वर्ग का धन इकट्ठा करो
८. शास्त्री और फ़रीसी परमेश्वर की कृपा पाने का तरीक़ा किस कारण भूल गए, और उन्होंने कौनसे सिद्धान्त को नज़रंदाज़ किया, जिसे पौलुस ने बाद में व्यक्त किया था?
८ उनकी धार्मिकता पाने की खोज में, शास्त्री और फ़रीसी परमेश्वर की कृपा पाने का तरीक़ा भूल गए और मनुष्यों की श्लाघा पर ध्यानाकर्षित किया। वे मनुष्यों की परंपराओं में इतने तल्लीन हो गए कि उन्होंने परमेश्वर के लिखित वचन को छोड़ दिया। उन्होंने अपना मन स्वर्ग के धन पर जमाने के बजाय पार्थिव प्रतिष्ठा पर जमाया। उन्होंने एक भूतपूर्व फ़रीसी के द्वारा, जो अब मसीही बन चुका था, सालों बाद लिखी गयी एक सरल सच्चाई को नज़रंदाज़ किया: “जो कुछ तुम करते हो, तन मन से करो, यह समझकर कि मनुष्यों के लिए नहीं परन्तु यहोवा के लिए करते हो। क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हें इस के बदले यहोवा से मीरास मिलेगी।”—कुलुस्सियों ३:२३, २४.
९. पार्थिव धन कौनसे ख़तरों का शिकार हो सकता है, लेकिन सच्चा धन किस बात से सुरक्षित रहेगा?
९ यहोवा आपकी उन के प्रति निष्ठा में दिलचस्पी रखते हैं, आपके बैंक-खाते में नहीं। वह जानते हैं कि जहाँ आपका धन है, वहीं आपका मन है। क्या ज़ंग और कीड़ा आपके धन को बिगाड़ सकते हैं? क्या चोर मिट्टी से बनी दीवारों में से सेंध लगाकर उसे चुरा सकते हैं? या इस आधुनिक समय में जब हर कहीं आर्थिक अस्थिरता है, क्या मुद्रास्फीति से आप के पैसों की ख़रीदने की क्षमता कम हो सकती है या शेयर बाज़ार में किसी के अचानक दिवालिया हो जाने से क्या यह समाप्त हो सकता है? क्या अपराध के बढ़ते हुए दर के कारण आपके धन की चोरी हो सकती है? अगर इसे स्वर्ग में इकट्ठा किया गया हो, तो ऐसा नहीं हो सकता। अगर आप की आँख—एक ऐसा दिया जो आपके पूरे शरीर को उजियाला बना देता है—निर्मल हो, और परमेश्वर के राज्य और उसके धर्म पर केंद्रित हो, तो ऐसा नहीं हो सकता। धन तो किसी भी तरह ग़ायब होता ही है। “धनी होने के लिए परिश्रम न करना; अपनी समझ का भरोसा छोड़ना। क्या तू अपनी दृष्टि उस वस्तु पर लगाएगा, जो है ही नहीं? वह उकाब पक्षी की नाईं पंख लगाकर, निःसन्देह आकाश की ओर उड़ जाता है।” (नीतिवचन २३:४, ५) तो फिर धन के कारण क्यों अपनी नींद हराम होने दें? “धनी के धन के बढ़ने के कारण उसको नींद नहीं आती।” (सभोपदेशक ५:१२) यीशु की चेतावनी को याद रखें: “तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।”—मत्ती ६:१९-२४.
फ़िक्र को दूर कर देनेवाला विश्वास
१०. भौतिक चीज़ों के बजाय परमेश्वर पर विश्वास रखना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है, और यीशु ने कौनसी सलाह दी?
१० यहोवा चाहते हैं कि आपका विश्वास उन पर हो, न कि भौतिक चीज़ों पर। “विश्वास बिना उसे प्रसन्न करना अनहोना है, क्योंकि परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिए, कि वह है; और अपने खोजनेवालों को प्रतिफल देता है।” (इब्रानियों ११:६) यीशु ने कहा: “किसी का जीवन उस की संपत्ति की बहुतायत से नहीं होता।” (लूका १२:१५) बैंक में रखे गए करोड़ों रुपए रोगी फेफड़ों या एक थके हुए दिल को चलता नहीं रखेंगे। “इसलिए मैं तुम से कहता हूँ,” यीशु ने अपने पर्वत के उपदेश में आगे कहा: “अपने प्राण के लिए यह चिन्ता न करना कि हम क्या खाएँगे? और क्या पीएँगे? और न अपने शरीर के लिए कि क्या पहिनेंगे? क्या प्राण भोजन से, और शरीर वस्त्र से बढ़कर नहीं?”—मत्ती ६:२५.
११. यीशु के अनेक दृष्टान्त उसे कहाँ मिले, और यह पर्वत के उपदेश में कैसे दर्शाया गया है?
११ यीशु ज़बानी दृष्टान्त देने में माहिर था। जहाँ कहीं वह देखता, वहाँ उसे उनका विचार आ जाता। उसने किसी औरत को जलता हुआ दीया दीवट पर रखते हुए देखा, और उसे एक दृष्टान्त बना दिया। उसने किसी चरवाहे को बक़रियों में से भेड़ों को अलग करते हुए देखा; तो यह एक दृष्टान्त बना। उस ने बच्चों को बाज़ार में खेलते हुए देखा; तो यह भी एक दृष्टान्त बना। इसी तरह पर्वत के उपदेश में भी हुआ। जब वह शारीरिक ज़रूरतों के कारण उत्पन्न हुए फ़िक्र के बारे में बोल रहा था, उसने यहाँ-वहाँ फुदकते परिन्दों में और पर्वत की ढालों पर बिछाए हुए ग़लीचे के समान लिली के फूलों में दृष्टान्त देखे। क्या परिन्दे बोते और काटते हैं? नहीं। क्या लिली कातते या बुनते हैं? नहीं। परमेश्वर ने उन्हें बनाया; वही उनकी परवाह करते हैं। परन्तु, आप परिन्दों और लिलियों से ज़्यादा क़ीमती हैं। (मत्ती ६:२६, २८-३०) उन्होंने अपना बेटा आपके लिए दिया, उनके लिए नहीं।—यूहन्ना ३:१६.
१२. (अ) क्या परिन्दों और फूलों के दृष्टान्तों का यह मतलब था कि यीशु के अनुयायियों को काम करना नहीं पड़ता? (ब) काम और विश्वास के बारे में यीशु का मुद्दा क्या था?
१२ यीशु यहाँ अपने अनुयायियों को नहीं बता रहा था कि उन्हें खुद का भरण-पोषण करने के लिए काम नहीं करना था। (सभोपदेशक २:२४; इफिसियों ४:२८; २ थिस्सलुनीकियों ३:१०-१२ देखें।) बसंत ऋतु के उस सुबह को, परिन्दे अपना भोजन ढूँढ़ने, अपने जोड़े की खोज में प्रणययाचन करने, घोंसला बनाने, अंडों पर बैठने, अपने नन्हों को खिलाने में मस्त थे। वे काम तो कर रहे थे, पर फ़िक्रमंद हुए बग़ैर। फूल भी ज़मीन में पानी और खनिज की खोज में अपनी जड़ों को नीचे धकेलने और सूरज की किरनों को छूने के लिए अपनी पत्तियों को और आगे बढ़ाने में व्यस्त थे। मरने से पहले उन्हें परिपक्व होकर, खिलना था और अपने बीजों को फैलाना था। वे काम कर रहे थे पर फ़िक्रमंद हुए बग़ैर। परमेश्वर परिन्दों और लिलियों के लिए प्रबन्ध करते हैं। ‘तो हे अल्पविश्वासियों, क्या वह तुम्हारे लिए प्रबन्ध करना ज़्यादा पसन्द नहीं करेंगे?’—मत्ती ६:३०, न्यू.व.
१३. (अ) अपनी जीवन-अवधि को बढ़ाने के बारे में बोलते समय यीशु का एक हाथ माप का इस्तेमाल करना उपयुक्त क्यों था? (ब) आप अपना जीवन करोड़ों अन्तहीन मीलों से किस तरह बढ़ा सकते हैं?
१३ इसलिए विश्वास रखें। फ़िक्रमंद न हों। फ़िक्र करने से कुछ भी नहीं बदलेगा। यीशु ने पूछा: “तुम में से कौन है, जो चिन्ता करके अपनी अवस्था में एक घड़ी [हाथ, न्यू.व.] भी बढ़ा सकता है?” (मत्ती ६:२७) लेकिन यीशु फ़ासला गिनने के एक असली माप, एक हाथ, को जीवन-अवधि में समय के माप से क्यों जोड़ता है? शायद इसलिए कि बाइबल इन्सानों की जीवन-अवधि की तुलना अक़्सर एक सफ़र से करती है और ऐसी अभिव्यक्तियों को इस्तेमाल करती है जैसे “पापियों के मार्ग,” “धर्मियों की चाल,” ‘विनाश को पहुँचानेवाला चौड़ा फाटक,” और ‘जीवन को पहुँचानेवाला सकरा मार्ग।’ (भजन १:१; नीतिवचन ४:१८; मत्ती ७:१३, १४) रोज़मर्रा ज़रूरतों के बारे में फ़िक्र करने से हमारी ज़िन्दगी एक अंश, “एक हाथ” से भी नहीं बढ़ सकेगी। लेकिन अपनी ज़िन्दगी को मानो करोड़ों अन्तहीन मीलों से बढ़ा देने का एक तरीक़ा है। फ़िक्रमंद होने और “हम क्या खाएँगे?” या “क्या पीएँगे?” या “क्या पहिनेंगे?” कहने से नहीं, बल्कि विश्वास रखने और वही करने से, जो यीशु हमें करने को कहता है: “पहिले तुम उसके राज्य और धर्म की खोज करते रहो, तो ये सब वस्तुएँ भी तुम्हें मिल जाएँगी।”—मत्ती ६:३१-३३, न्यू.व.
परमेश्वर के राज्य और उनके धर्म को हासिल करना
१४. (अ) पवर्त के उपदेश का विषय क्या है? (ब) शास्त्रियों और फ़रीसियों ने कौनसी ग़लत रीति से परमेश्वर और धर्म की खोज की?
१४ अपने पवर्त के उपदेश के शुरू के वाक्य में, यीशु ने स्वर्ग के राज्य के बारे में बताया, कि यह उन लोगों का है, जो अपनी आत्मिक ज़रूरत के बारे में अवगत हैं। चौथे वाक्य में, उसने कहा कि जो धर्म के भूखे और प्यासे हैं, उन्हें तृप्त किया जाएगा। यहाँ यीशु दोनों राज्य को और यहोवा के धर्म को पहले स्थान पर रखता है। ये ही पर्वत के उपदेश का विषय हैं। यही सारी मनुष्यजाति की ज़रूरतों की पूर्ति का उपाय है। लेकिन परमेश्वर के राज्य और उनका धर्म किस तरह हासिल किए जा सकते हैं? हम किस तरह उनकी खोज करते रह सकते हैं? उस तरह नहीं जिस तरह शास्त्री और फ़रीसियों ने इसे खोजा। उन्होंने राज्य और धर्म को मूसा की व्यवस्था के ज़रिए खोजा, जिस में, उनके दावे के अनुसार, मौखिक परंपराएँ शामिल थीं, चूँकि वे मानते थे कि परमेश्वर ने मूसा को सीनाई पर्वत पर दोनों लिखित व्यवस्था और मौखिक परंपराएँ दी थीं।
१५. (अ) यहूदियों के अनुसार, उनकी मौखिक परंपराओं की शुरुआत कब हुई, और उन्होंने किस तरह इन परंपराओं को मूसा की व्यवस्था से ऊपर उन्नत किया? (ब) इन परंपराओं की शुरुआत दरअसल कब हुई, और मूसा की व्यवस्था पर इसका क्या असर रहा?
१५ इसके बारे में उनकी परंपरा में कहा गया: “मूसा ने सीनाई से व्यवस्था [फ़ुटनोट, “‘मौखिक व्यवस्था’”] प्राप्त की और उसे यहोशू को दी, फिर यहोशू ने प्राचीनों को दी, और प्राचीनों ने भविष्यवक्ताओं को दी; फिर भविष्यवक्ताओं ने इसे महा सभाघर के पुरुषों को दी।” कुछ समय बाद उनकी मौखिक व्यवस्था लिखित व्यवस्था से भी ऊँचे स्थान पर रखी गयी: “[अगर] वह [लिखित] व्यवस्था के वचनों का उल्लंघन करता है, तो वह दोषी नहीं है,” लेकिन अगर “वह शास्त्रियों के वचनों [मौखिक परंपराओं] में कुछ बढ़ाता है, तो वह दोषी है।” (मिशना) उनकी मौखिक परंपराएँ सीनाई में शुरू नहीं हुईं। दरअसल, मसीह के तक़रीबन दो शतक पहले वे ज़्यादा से ज़्यादा जमा की जाने लगीं। उन्होंने मूसा की लिखित व्यवस्था में कुछ बढ़ाया, उस से कुछ घटाया, और उसे व्यर्थ ठहराया था।—व्यवस्थाविवरण ४:२; १२:३२ से तुलना करें।
१६. मनुष्यजाति को परमेश्वर की धार्मिकता किस प्रकार हासिल होगी?
१६ परमेश्वर का धर्म व्यवस्था के ज़रिए नहीं आता लेकिन उस के बिना: “क्योंकि व्यवस्था के कामों से कोई प्राणी उसके सामने धर्मी नहीं ठहरेगा, इसलिए कि व्यवस्था के द्वारा पाप की पहिचान होती है। पर अब बिना व्यवस्था परमेश्वर की वह धार्मिकता प्रगट हुई है, जिस की गवाही व्यवस्था और भविष्यवक्ता देते हैं। अर्थात् परमेश्वर की वह धार्मिकता, जो यीशु मसीह पर विश्वास करने से सब विश्वास करनेवालों के लिए है।” (रोमियों ३:२०-२२) तो परमेश्वर की धार्मिकता मसीह यीशु पर विश्वास करने से आती है—और इस ‘की गवाही व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं’ ने प्रचुर मात्रा में दी है। मसीहाई भविष्यवाणियाँ यीशु में पूरी हुईं। उसने व्यवस्था को भी पूरा किया; इस को उसके यातना खंभे पर कीलों से जड़कर सामने से हटा दिया गया।—लूका २४:२५-२७, ४४-४६; कुलुस्सियों २:१३, १४; इब्रानियों १०:१.
१७. प्रेरित पौलुस के अनुसार, यहूदी परमेश्वर की धार्मिकता के बारे में जानने से किस तरह रह गए?
१७ इसलिए, प्रेरित पौलुस ने यहूदियों की धार्मिकता खोजने की विफ़लता के बारे में लिखा: “क्योंकि मैं उन की गवाही देता हूँ, कि उन में परमेश्वर के लिए उत्साह है, पर यह परिशुद्ध ज्ञान के अनुसार नहीं। क्योंकि वे परमेश्वर की धार्मिकता से अनजान होकर, और अपनी धार्मिकता स्थापन करने का यत्न करके, परमेश्वर की धार्मिकता के आधीन न हुए। क्योंकि हर एक विश्वास करनेवाले के लिए धार्मिकता के निमित्त मसीह व्यवस्था का अन्त है।” (रोमियों १०:२-४, न्यू.व.) पौलुस ने यीशु मसीह के बारे में भी लिखा: “जो पाप से अज्ञान था, उसी को उस ने हमारे लिए पाप ठहराया, कि हम उस में होकर परमेश्वर की धार्मिकता बन जाएँ।”—२ कुरिन्थियों ५:२१.
१८. यहूदी परंपरा में माननेवाले, यूनानी तत्त्वज्ञनी, और “जो बुलाए हुए हैं,” उन्होंने “यातना खंभे पर चढ़ाए हुए मसीह” का किस तरह विचार किया?
१८ यहूदियों को एक मरता हुआ मसीहा एक कमज़ोर नगण्य व्यक्ति लगा। यूनानी तत्त्वज्ञानियों ने इसे बेवक़ूफ़ी कहकर ऐसे मसीहा का तिरस्कार किया। फिर भी, यह उसी तरह है जैसे पौलुस ने घोषित किया: “यहूदी तो चिह्न चाहते हैं, और यूनानी ज्ञान की खोज में हैं। परन्तु हम तो उस क्रूस [यातना खंभे, न्यू.व.] पर चढ़ाए हुए मसीह का प्रचार करते हैं जो यहूदियों के निकट ठोकर का कारण, और अन्यजातियों के निकट मूर्खता है। परन्तु जो बुलाए हुए हैं, क्या यहूदी, क्या यूनानी, उन के निकट मसीह परमेश्वर की सामर्थ, और परमेश्वर का ज्ञान है। क्योंकि परमेश्वर की मूर्खता मनुष्यों के ज्ञान से ज्ञानवान है; और परमेश्वर की निर्बलता मनुष्यों के बल से बहुत बलवान है।” (१ कुरिन्थियों १:२२-२५) मसीह यीशु परमेश्वर की ताक़त और बुद्धि की अभिव्यक्ति है और आज्ञाकारी मनुष्यजाति के लिए धार्मिकता और अनन्त उद्धार पाने के लिए परमेश्वर का ज़रिया है। “और किसी दूसरे के द्वारा उद्धार नहीं; क्योंकि स्वर्ग के नीचे मनुष्यों में और कोई दूसरा नाम नहीं दिया गया, जिस के द्वारा हम उद्धार पा सकें।”—प्रेरितों ४:१२.
१९. अगले लेख में क्या दिखाया जाएगा?
१९ अगले लेख में दिखाया जाएगा कि अगर हमें विनाश से बचना हो और अनन्त जीवन प्राप्त करना हो, तो हमें परमेश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करते रहना पड़ेगा। ऐसा न सिर्फ़ यीशु के कथनों को सुनने से बल्कि उनका पालन करने से भी किया जाना चाहिए।
पुनर्विचार के सवाल
◻ यहूदी धर्मोत्साहियों ने अपने दान, प्रार्थनाओं और उपवासों को किस में बदल दिया?
◻ अपना धन जमा करने के लिए कौनसी जगह सुरक्षित है?
◻ हमें अपनी भौतिक ज़रूरतों की वजह से फ़िक्रमंद होने से क्यों बचना चाहिए?
◻ अपनी मौखिक परंपराओं की शुरुआत के बारे में यहूदियों ने कौनसा झूठा दावा किया?
◻ परमेश्वर का राज्य और उनकी धार्मिकता कौनसे ज़रिए से आते हैं?
[पेज 16 पर तसवीरें]
फ़रीसियों को सड़कों की मोड़ों पर खड़ा होकर प्रार्थना करना अच्छा लगता था, जहाँ लोग उन्हें देख सकते थे