अध्याय ३
आपका धर्म वास्तव में एक महत्वपूर्ण विषय है
१. कुछेक लोग धर्म के विषय में क्या विश्वास रखते हैं?
‘सब धर्म अच्छे हैं’, अनेक लोग यह कहते हैं। ‘वे केवल अलग-अलग रास्ते हैं जो एक ही स्थान की ओर जाते हैं।’ यदि यह सच है तो आपके धर्म का वास्तव में कोई महत्व नहीं, क्योंकि इसका यह अर्थ है कि परमेश्वर को सब धर्म स्वीकार्य हैं। क्या वे स्वीकार्य हैं?
२. (क) यीशु के प्रति फरीसियों का क्या व्यवहार था? (ख) फरीसी किसको अपना पिता मानते थे?
२ जब यीशु मसीह पृथ्वी पर था तो उस समय एक धार्मिक समूह था जिसके सदस्य फरीसी कहलाते थे। उन्होंने उपासना की एक प्रणाली बनायी थी और उनका यह विश्वास था कि उनकी उपासना को परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त थी। फिर भी, उसके साथ, ये फरीसी यीशु को जान से मार डालने का प्रयत्न कर रहे थे! इसलिये यीशु ने उनसे कहा: “तुम अपने पिता का ही कार्य करते हो।” उसके उत्तर में उन्होंने कहा: “हमारा एक पिता है, अर्थात् परमेश्वर।”—यूहन्ना ८:४१.
३. यीशु ने फरीसियों के पिता के विषय में क्या कहा था?
३ क्या परमेश्वर वास्तव में उनका पिता था? क्या परमेश्वर ने उनकी धार्मिक रीति को स्वीकार किया था? बिल्कुल नहीं! यद्यपि फरीसियों के पास धर्मशास्त्र थे और वे यह सोचते थे कि वे उनका अनुसरण कर रहे थे, परन्तु वे इबलीस द्वारा गुमराह हो गये थे। और यीशु ने उनको यही कहा: “तुम अपने पिता इबलीस से हो और तुम अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और वह सत्य पर स्थिर नहीं रहा, . . . वह स्वयं झूठा है और झूठ का पिता है।”—यूहन्ना ८:४४.
४. यीशु किस दृष्टि से फरीसियों के धर्म को देखता था?
४ स्पष्ट रूप से, फरीसियों का धर्म झूठा था। वह धर्म परमेश्वर की नहीं बल्कि इबलीस के हितों की परवाह करता था। अतः इस दृष्टि से देखने की अपेक्षा कि, उनका धर्म अच्छा था यीशु ने उसकी निन्दा की। उसने उन धार्मिक फरीसियों से यह कहा: “तुम मनुष्यों के सम्मुख स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो; न तो आप ही उसमें प्रवेश करते हो और न प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो।” (मत्ती २३:१३) उनकी झूठी उपासना के कारण यीशु उन फरीसियों को पाखंडी और ज़हरीले साँप कहता था। उनके दुष्ट मार्ग अपनाने के कारण, वह यह कहता था कि वे विनाश के मार्ग पर थे।—मत्ती २३:२५-३३.
५. यीशु ने कैसे प्रदर्शित किया कि अनेक धर्म एक ही स्थान की ओर जाने वाले केवल भिन्न मार्ग नहीं हैं?
५ अतः यीशु मसीह ने यह शिक्षा नहीं दी कि सब धर्म केवल अलग-अलग रास्ते हैं, जो उद्धार की ओर जाते हैं। अपने प्रसिद्ध पर्वतीय उपदेश में यीशु ने यह कहा: “सकेत फाटक से प्रवेश करो, क्योंकि चौडा है वह फाटक और चाकल है वह मार्ग जो विनाश को पहुँचाता है; और बहुतेरे हैं जो उससे प्रवेश करते हैं। क्योंकि सकेत है वह फाटक और सकरा है वह मार्ग जो जीवन को पहुँचाता है, और थोड़े हैं जो उसे पाते हैं।” (मत्ती ७:१३, १४) क्योंकि अधिकतर व्यक्ति परमेश्वर की उपासना सही रीति से करने में असफल रहते हैं, वे उस मार्ग पर हैं जो विनाश की ओर जाता है। केवल थोड़े हैं जो उस मार्ग पर हैं जो जीवन की ओर जाता है।
६. इस्राएल राष्ट्र की उपासना रीति देखने से हम क्या सीख सकते हैं?
६ जिस तरीके से परमेश्वर ने इस्राएल राष्ट्र के साथ व्यवहार किया था, उस पर दृष्टि डालने से यह बात महत्वपूर्ण रीति से स्पष्ट हो जाती है कि परमेश्वर की उपासना उस तरीके से करना, जिसको वह स्वीकार करता है। परमेश्वर ने इस्राएलियों को अपने चारों ओर की जातियों के झूठे धर्म से दूर रहने की चेतावनी दी थी। (व्यवस्थाविवरण ७:२५) वे लोग अपने देवताओं के प्रति, अपने बच्चों को बलि चढ़ाते थे, और वे दूषित लैंगिक कार्य में व्यस्त रहते थे, जिनमें समलिंगी कामुकता भी सम्मिलित थी। (लैव्यव्यवस्था १८:२०-३०) परमेश्वर ने इस्राएलियों को इन कार्यों से दूर रहने का आदेश दिया था। जब वे उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करते थे, और अन्य ईश्वरों की उपासना करते थे तो वह उनको सज़ा देता था। (यहोशू २४:२०; यशायाह ६३:१०) अतः उनका धर्म वास्तव में एक महत्वपूर्ण विषय था।
आज झूठा धर्म क्या है?
७, ८. (क) विश्व युद्धों के दौरान धर्म ने क्या स्थिति ग्रहण की थी? (ख) आप क्या सोचते हैं कि परमेश्वर उस विषय में क्या महसूस करता है जो धर्म युद्ध के दौरान करता रहा है?
७ आज के सैकड़ों धर्मों के विषय में क्या कहा जा सकता है? शायद आप इस बात से सहमत होंगे कि अनेक बातें जो धर्म के नाम पर की जाती हैं, उनको परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं है। हाल के विश्व-युद्धों के दौरान जिनसे बच निकलनेवाले लाखों व्यक्ति जो आज भी जीवित हैं, दोनों ओर के धर्मों ने अपने लोगों को दूसरों की हत्या करने के लिये प्रोत्साहित किया था। लन्दन के बिशप ने भी यह कहा था: “जर्मनों को मारो—उनको अवश्य मारो।” और दूसरी ओर कोलोन के आर्चबिशप ने जर्मनों से कहा था: “हम परमेश्वर के नाम पर तुम्हें आदेश देते हैं, कि अपने देश की महिमा और आदर के लिये अपने खून की आखिरी बूँद तक लड़ते रहो।”
८ अतः कैथोलिक लोगों ने अपने धार्मिक नेताओं की स्वीकृति लेकर अन्य कैथोलिक लोगों की हत्या की और प्रोटेस्टेंटों ने भी वही किया। धार्मिक नेता हैरी इमरसन फोस्डिक ने यह बात स्वीकार की: “हमने अपने गिरजेघरों में युद्ध के झंडे फहरा दिये . . . एक तरफ तो हमने अपने मुंह से शांति के राजकुमार की स्तुति की है, और दूसरी ओर उसी मुंह से युद्ध की महिमा की है।” आप क्या सोचते हैं कि परमेश्वर इस धर्म के विषय में कैसा महसूस करता है, जो उसकी इच्छा पूरी करने का दावा करता है, परन्तु युद्ध का गुणगान करते हैं?
९. (क) अनेक लोगों ने भिन्न धर्मों के सदस्यों द्वारा किये गये अपराधों के विषय में कैसा महसूस किया? (ख) जब धर्म स्वयं को इस संसार का भाग बनाता है तो हमें क्या निष्कर्ष निकालना चाहिये?
९ सम्पूर्ण इतिहास में अनेक धर्मों के लोगों ने परमेश्वर के नाम पर जो अपराध किये हैं, उनके कारण लाखों व्यक्तियों ने परमेश्वर और मसीह से मुंह मोड़ लिया है। वे भयंकर धार्मिक युद्धों के लिये परमेश्वर को दोषी ठहराते हैं, जैसा कि वे धर्म-युद्ध जो कैथोलिक और मुस्लिम लोगों के मध्य हुए जिन्हें क्रूसेडस कहते हैं, और वे युद्ध जो मुसलमानों और हिन्दुओं के मध्य हुए और वे युद्ध जो कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट लोगों के मध्य हुए। वे मसीह के नाम पर किये गए यहूदियों की हत्या की ओर और निर्दयी कैथोलिक धार्मिक न्यायालयों की ओर इशारा करते हैं। फिर भी यद्यपि वे धार्मिक नेता, जो इस प्रकार के भयंकर अपराधों के जिम्मेदार थे इस बात का दावा करते थे कि परमेश्वर उनका पिता था, तो क्या वे उसी प्रकार से इबलीस की सन्तान नहीं थे जैसा कि फरीसी थे, जिनकी यीशु ने निन्दा की थी? क्योंकि शैतान इस संसार का ईश्वर है तो क्या हमें इस बात की प्रत्याशा नहीं करनी चाहिये, कि उसका उन धर्मों पर भी नियंत्रण हैं जिनका पालन संसार के लोग करते हैं?—२ कुरिन्थियों ४:४; प्रकाशितवाक्य १२:९.
१०. वे क्या कुछ बातें हैं जो धर्म के नाम पर की जाती हैं जिनको आप स्वीकार नहीं करते हैं?
१० इसमें कोई सन्देह नहीं कि आज धर्म के नाम पर कई ऐसी बातें होती हैं जिनको आप उचित नहीं समझते हैं। अक्सर आप उन लोगों के विषय सुनते हैं, जिनकी जीवन-रीतियाँ अनैतिक हैं, परन्तु जो चर्चों के सम्मानीय व्यक्तियों में गिने जाते हैं। आप उन धार्मिक नेताओं के विषय में भी जानते हैं जिनका जीवन अति बुरा है परन्तु वे अपनी संस्थाओं में अच्छे धार्मिक नेता माने जाते हैं। कुछ धार्मिक नेताओं ने यह कहा है कि समलिंगी कामुकता और बिना विवाह किये हुए यौन सम्बन्ध रखना अनुचित बात नहीं है। परन्तु आप जानते होंगे कि बाइबल ऐसा नहीं कहती है। वास्तव में परमेश्वर ने अपने इस्राएली लोगों को इसलिए मृत्यु-दंड दिया था क्योंकि वे इस प्रकार की बातों को व्यवहार में लाते थे। इसी कारण से उसने सदोम और अमोरा के नगरों को नाश किया था। (यहूदा ७) शीघ्र ही, वह आधुनिक काल के झूठे धर्म के साथ ऐसा ही करेगा। बाइबल में, इस प्रकार के धर्म को “पृथ्वी के सब राजाओं” के साथ अनैतिक सम्बन्ध रखने के कारण एक वेश्या के समान बताया गया है।—प्रकाशितवाक्य १७:१, २, १६.
उपासना जिसे परमेश्वर स्वीकार करता है
११. परमेश्वर के प्रति हमारी उपासना को स्वीकारयोग्य होने के लिए किस बात की आवश्यकता है?
११ क्योंकि परमेश्वर सब धर्मों को स्वीकार नहीं करता है, तो हमें अपने आप से यह पूछने की आवश्यकता है: ‘क्या मैं परमेश्वर की उपासना उस रीति से कर रहा हूँ जिसे वह स्वीकार करता है?’ हम कैसे मालूम कर सकते हैं कि हमारी उपासना परमेश्वर को स्वीकार्य है? मनुष्य नहीं, बल्कि परमेश्वर है जो इस बात का न्याय करता है कि सत्य उपासना क्या है। यदि हमारी उपासना परमेश्वर को स्वीकार्य है, तो उसकी जड़ परमेश्वर के सत्य वचन अर्थात्, बाइबल में दृढ़तापूर्वक सुस्थिर होनी चाहिये। उसी समान रीति से हमें, उस बाइबल लेखक के समान महसूस करना चाहिये जिसने यह कहा था: “परमेश्वर सच्चा ठहरे, यद्यपि हरेक मनुष्य झूठा सिद्ध हो।”—रोमियों ३:३, ४.
१२. यीशु ने क्यों कहा था कि फरीसियों की उपासना को परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं थी?
१२ पहली शताब्दी के फरीसी ऐसा महसूस नहीं करते थे। उन्होंने अपने निजी विश्वास और परम्पराएं स्थापित की थीं, और परमेश्वर के वचन को छोड उनका अनुसरण करते थे। इसका परिणाम क्या हुआ? यीशु ने उनसे कहा: “तुमने अपनी परम्परा के कारण परमेश्वर के वचन को रद्द कर दिया है। हे कपटियो, यशायाह ने तुम्हारे विषय में यह भविष्यवाणी ठीक ही की थी, जब उसने यह कहा, ‘ये लोग अपने होठों से मेरा आदर करते हैं, पर उनका मन मुझसे बहुत दूर है। वे व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं क्योंकि वे मनुष्यों की विधियों को धर्मोपदेश बताकर सिखाते हैं।’” (मत्ती १५:१-९; यशायाह २९:१३) अतः यदि हम परमेश्वर की स्वीकृति चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि हम उस विषय में निश्चित हो जायें, कि हम जो विश्वास करते हैं, वह बाइबल की शिक्षाओं के साथ सहमत है।
१३. यीशु ने हमें क्या करने के लिए कहा था कि हमें परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त हो?
१३ हमारे लिये यह काफ़ी नहीं, कि हम यह कहें कि हम मसीह में विश्वास करते हैं और तब हम वही करें जिसे हम उचित समझते हैं। यह पूर्णतया आवश्यक है कि हम मालूम करें कि इस विषय में परमेश्वर की इच्छा क्या है। यीशु ने अपने पर्वतीय उपदेश में इस बात को प्रदर्शित किया जब उसने यह कहा: “वे सब जो मुझे ‘हे प्रभु, हे प्रभु’ कहते हैं उनमें से हरेक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा, परन्तु वही प्रवेश करेगा जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा को पूरा करता है।”—मत्ती ७:२१.
१४. यीशु क्यों हमें “कुकर्म करनेवालों” में समझे यद्यपि हम “अच्छे कार्य” करते हों?
१४ हम शायद वही कार्य करते हों जिन्हें हम समझते हैं कि वे “अच्छे कार्य” हैं, और वे भी हम मसीह के नाम पर करते हों। अतः इन अच्छे कार्यों का कोई महत्व नहीं होगा यदि हम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में असफल रहे। हमारी उन लोगों के समान स्थिति होगी, जिनके विषय में मसीही फिर यह कहता है: “उस दिन बहुतेरे मुझसे यह कहेंगे, ‘हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हमने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से सामर्थ्यपूर्ण कार्य नहीं किये?’ फिर भी मैं तब उनसे खुलकर यह कहूँगा: “मैं तुमसे कभी परिचित नहीं था। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।” (मत्ती ७:२२, २३) हाँ, हम वही कार्य कर सकते हैं जिन्हें हम उचित समझते हैं—और वे कार्य जिनके लिये अन्य मनुष्य हमें धन्यवाद दें और प्रशंसा भी करें—परन्तु यदि हम वह काम करने में असफल हों जिसे परमेश्वर उचित कहता है तो हमें यीशु मसीह “कुकर्म करनेवालों” में समझेगा।
१५. प्राचीन बिरीया नगर के लोगों ने जो मार्ग अपनाया था उसका अनुकरण करना हमारे लिए एक बुद्धिमता की बात क्यों है?
१५ क्योंकि आज अनेक धर्म परमेश्वर की इच्छा पूरी नहीं कर रहे हैं, हम केवल यह नहीं मान सकते हैं कि उस धार्मिक संस्था की शिक्षाएं जिससे हम संयुक्त हैं, परमेश्वर के वचन से सहमत हैं। केवल यह वास्तविकता कि कोई धर्म जो बाइबल को मानता है, अपने आप में इस बात को सिद्ध नहीं करता है कि वे सारी बातें जिनकी वह धर्म शिक्षा देता है और व्यवहार लाता है, बाइबल पर आधारित हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम स्वयं इन बातों की जाँच-पड़ताल करें, कि क्या वे शिक्षाएं बाइबल में हैं या नहीं। बिरीया नगर के उन व्यक्तियों की प्रशंसा की गयी थी क्योंकि जब मसीही प्रेरित पौलुस ने उनको प्रचार किया तो उन्होंने यह निश्चित करने के लिये धर्मशास्त्र में देखा कि वे बातें जो वह बता रहा था, सच थी कि नहीं। (प्रेरितों के काम १७:१०, ११) वह धर्म जो परमेश्वर को स्वीकार्य है, हर तरीके से बाइबल के साथ सहमत होना चाहिये; ऐसा नहीं कि वह धर्म बाइबल के कुछेक भागों को तो स्वीकार करे और अन्य भागों को अस्वीकार करे।—२ तीमुथियुस ३:१६.
निष्कपटता काफ़ी नहीं
१६. यीशु ने यह प्रकट करने के लिए क्या कहा था कि परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का निष्कपट रहना केवल काफी नहीं है?
१६ शायद कोई यह पूछे: ‘यदि एक व्यक्ति अपने विश्वास में निष्कपट रूप से निष्ठा रखता है, तो क्या परमेश्वर उसे स्वीकार नहीं करेगा, यद्यपि उसका धर्म-विश्वास गलत है?’ यीशु ने कहा था कि वह “कुकर्म करनेवालों को” स्वीकार नहीं करेगा यद्यपि कि वे यही समझते थे कि वे जो कर रहे थे उचित था। (मत्ती ७:२२, २३) इसी प्रकार केवल निष्कपटता की भावना को परमेश्वर भी स्वीकार नहीं करेगा। एक बार यीशु ने अपने अनुयायियों से कहा था: “वह समय आता है कि जो कोई तुम्हें मार डालेगा वह यही समझेगा कि उसने परमेश्वर के प्रति पवित्र सेवा की है।” (यूहन्ना १६:२) इस प्रकार मसीहियों के हत्यारे निष्कपट रूप से यही विश्वास करें, कि इस रीति से वे परमेश्वर की सेवा कर रहे थे, परन्तु स्पष्टतया वे ऐसा नहीं कर रहे थे। जो उन्होंने किया उसे परमेश्वर स्वीकार नहीं करता है।
१७. यद्यपि पौलुस एक निष्कपट व्यक्ति था फिर भी उसने मसीही बनने से पूर्व क्या किया था?
१७ अपने मसीही बनने से पहले, प्रेरित पौलुस स्तिफनुस की हत्या में सहायक रहा था। बाद में, वह अन्य मसीहियों को मार डालने के रास्ते ढूंढता था। (प्रेरितों के काम ८:१; ९:१, २) पौलुस ने यह व्याख्या दी: “मैं परमेश्वर की कलीसिया को अत्यधिक सताता और उसका नाश करता था, और अपनी प्रजाति के हम-उम्र लोगों की अपेक्षा यहूदी मत में बढ़ता जाता था, क्योंकि मैं अपने बापदाद की परम्पराओं में अधिक उत्साह रखता था।” (गलतियों १:१३, १४) हाँ, पौलुस निष्कपट था परन्तु इस बात ने उसके धर्म को सही घोषित नहीं किया।
१८. (क) उस समय पौलुस का धर्म क्या था जब वह मसीहियों को सताता था? (ख) पौलुस और उसके दिनों के अन्य व्यक्तियों को अपना धर्म बदलने की क्यों आवश्यकता हुई?
१८ उस समय पौलुस उस यहूदी धार्मिक पद्धति का सदस्य था, जिसने यीशु मसीह की उपेक्षा की थी, और उसे बदले में परमेश्वर ने भी उस पद्धति को बहिष्कृत किया। (प्रेरितों के काम २:३६, ४०; नीतिवचन १४:१२) अतः परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करने के लिये पौलुस को अपना धर्म बदलने की आवश्यकता हुई। उसने उन अन्य लोगों के बारे में भी लिखा था, जो “परमेश्वर के प्रति उत्साह” रखते थे—जो निष्कपट थे परन्तु उनको परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं थी क्योंकि उनका धर्म परमेश्वर के उद्देश्यों के यथार्थ ज्ञान पर आधारित नहीं था।—रोमियों १०:२, ३.
१९. किस बात से प्रदर्शित होता है कि सच्चाई भिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धान्तों को ग्रहण नहीं करेगी?
१९ सच्चाई विश्व में प्रचलित विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धान्तों को ग्रहण नहीं करेगी। उदाहरणतया मनुष्यों में वह आत्मा होती है जो या तो शरीर की मृत्यु के बाद जीवित रहती है या नहीं जीवित रहती है। यह पृथ्वी सदा स्थिर रहेगी या वह स्थिर नहीं रहेगी। परमेश्वर दुष्टता का अन्त करेगा या वह अन्त नहीं करेगा। ये और अनेक अन्य विश्वास, या तो सही हैं या वे गलत हैं। सच्चाई के दो समूह नहीं हो सकते जबकि एक समूह दूसरे समूह से सहमत नहीं होता है। एक समूह सही हो सकता है या दूसरा समूह सही हो सकता है परन्तु दोनों समूह एक साथ सही नहीं हो सकते हैं। निष्कपट रूप से किसी बात पर विश्वास करना और उस विश्वास को व्यवहार में लाना उसे यदि वह वास्तव में गलत है, सही नहीं बनाएगा।
२०. धर्म के सम्बन्ध में हम सही “मार्ग नक्शे” का अनुसरण कैसे कर सकते हैं?
२० आप कैसा महसूस करेंगे यदि आपको उस बात का प्रमाण दिया जाय कि जो आप विश्वास करते हैं, गलत है? उदाहरणतया यदि आप एक कार में पहली बार किसी स्थान की ओर सफ़र कर रहे हैं। आपके पास उस मार्ग का नक्शा है परन्तु आपने उसको सावधानीपूर्वक निरीक्षण करने के लिए समय नहीं दिया है। किसी ने आपको किसी एक मार्ग पर जाने के लिये कह दिया। आपने उसका विश्वास किया और निष्कपट रूप से आपने यही समझा कि जिस मार्ग पर उसने आपको जाने के लिये निर्दिष्ट किया, वह सही है। परन्तु मान लीजिए वह सही नहीं है। फिर क्या हो, यदि कोई आपको आपकी गलती दिखाये? क्या हो, यदि कोई आपको आप ही के नक्शे से यह दिखाये कि आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं? क्या आपका अहंकार या ज़िद शायद आपको ये स्वीकार करने से रोकेगा कि आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं? यदि आप अपनी बाइबल के निरीक्षण से यह मालूम करते हैं कि आप एक गलत धार्मिक मार्ग पर जा रहे हैं तो आप सही रास्ता लेने के लिये तत्पर हो जाइए। विनाश की ओर जानेवाले चौड़े मार्ग से दूर रहिये और जीवन की ओर जानेवाले सकरे मार्ग पर हो जाइये!
परमेश्वर की इच्छा पूरी करना आवश्यक है
२१. (क) सच्चाई के ज्ञान के अतिरिक्त किस बात की आवश्यकता है? (ख) आप क्या करेंगे यदि आप यह मालूम करें कि परमेश्वर उन कुछेक बातों को स्वीकार नहीं करता है जो आप कर रहे हैं?
२१ बाइबल की सच्चाइयों का ज्ञान प्राप्त करना महत्वपूर्ण है। यदि आप सच्चाई के अनुसार परमेश्वर की उपासना नहीं करते हैं तो आपके लिये यह ज्ञान व्यर्थ है। (यूहन्ना ४:२४) सच्चाई को व्यवहार में लाना अर्थात् परमेश्वर की इच्छा पूरी करना महत्व रखता है। बाइबल कहती है: “विश्वास कर्म बिना मरा हुआ है।” (याकूब २:२६) परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिये आपके धर्म का न केवल बाइबल के साथ पूर्ण रूप से सहमत होना आवश्यक है बल्कि जीवन के प्रत्येक कार्य में उसका प्रयोग होना चाहिये। इसलिये, यदि आप यह मालूम करें कि आप वही काम कर रहे हैं, जिसे परमेश्वर कहता है कि वह गलत है, तो क्या आप बदलने के लिये इच्छुक होंगे?
२२. वे क्या आशीषें हैं जिनका आनन्द हम अब और भविष्य में उठा सकते हैं, यदि हम सच्चे धर्म का पालन करें?
२२ यदि आप परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हैं तो आपके लिये अत्यधिक आशीषें सुरक्षित हैं। यहाँ तक कि अब भी आप उससे लाभ पा सकते हैं। सच्चे धर्म का पालन आपको एक बेहतर व्यक्ति बनाएगा—एक अच्छा पुरुष, पति या पिता, एक बेहतर स्त्री, पत्नी या माँ, एक बेहतर बालक। वह आप में ईश्वरीय गुण उत्पन्न करेगा जिनसे आप दूसरों से अलग दिखाई देंगे, क्योंकि आप उन बातों का पालन करते हैं जो सही हैं। बल्कि इसके अतिरिक्त इसका यह अर्थ होगा, कि आप परमेश्वर की परादीस रूपी नयी पृथ्वी पर सुख और पूर्ण स्वास्थ्य में अनन्त जीवन की आशीषें ग्रहण करने की स्थिति में होंगे। (२ पतरस ३:१३) इस विषय में शंका नहीं—आपका धर्म वास्तव में एक महत्वपूर्ण विषय है!
[पेज २५ पर तसवीर]
क्या धार्मिक नेता जो यीशु को जान से मारने का प्रयत्न कर रहे थे, परमेश्वर की सेवा कर रहे थे?
[पेज २६, २७ पर तसवीरें]
यीशु ने कहा, अधिकतर व्यक्ति विनाश के चौड़े रास्ते पर चल रहे हैं। केवल कुछ जीवन के संकीर्ण मार्ग पर हैं
[पेज २८, २९ पर तसवीरें]
“वे सार्वजनिक रूप से यह घोषित करते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं परन्तु वे अपने कार्यों से उसका इन्कार करते हैं।”—तीतुस १:१६.
कथन में
कृत्य में
[पेज ३० पर तसवीर]
धर्म में भिन्नता होने के कारण पौलुस ने मसीह के शिष्य स्तिफनुस का पथराव करने में भाग लिया था
[पेज ३३ पर तसवीर]
यदि आप गलत रास्ते पर हैं तो क्या अहंकार अथवा जिद के कारण आप उसे स्वीकार नहीं करेंगे?