आपकी ज़िंदगी में किस व्यक्ति की अहमियत सबसे ज़्यादा है?
“केवल तू . . . सारी पृथ्वी के ऊपर परमप्रधान है।”—भज. 83:18.
1, 2. जब उद्धार की बात आती है तो हममें से हरेक के लिए सिर्फ यहोवा का नाम जानना क्यों काफी नहीं है?
शायद आपने यहोवा का नाम सबसे पहले तब देखा हो, जब किसी ने आपको बाइबल से भजन 83:18 दिखाया था। आप शायद इन शब्दों को पढ़कर हैरान हुए हों: “जिस से यह जानें कि केवल तू जिसका नाम यहोवा है, सारी पृथ्वी के ऊपर परमप्रधान है।” बेशक, बाद में आपने भी यही आयत दूसरों को दिखायी होगी ताकि वे हमारे प्यारे पिता यहोवा को जान सकें।—रोमि. 10:12, 13.
2 हालाँकि यहोवा का नाम जानना ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ इतना काफी नहीं है। गौर कीजिए कि भजनहार ने हमारे उद्धार पाने के लिए एक और अहम सच्चाई पर ज़ोर दिया, जब उसने कहा: “केवल तू . . . सारी पृथ्वी के ऊपर परमप्रधान है।” जी हाँ, यहोवा ही इस विश्व में सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। सब चीज़ों का रचयिता होने के नाते, यह उम्मीद करना उसका हक है कि उसकी सारी सृष्टि पूरी तरह उसके अधीन रहे। (प्रका. 4:11) तो फिर हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘मेरी ज़िंदगी में किस व्यक्ति की सबसे ज़्यादा अहमियत है?’ इसका हम जो भी जवाब देंगे, हमें उसे गंभीरता से जाँचने की ज़रूरत है।
अदन के बाग में उठा मसला
3, 4. शैतान ने हव्वा को कैसे धोखा दिया और उसका क्या नतीजा हुआ?
3 अदन के बाग में जो हुआ उससे इस सवाल की गंभीरता साफ नज़र आती है। वहाँ बागी स्वर्गदूत जो बाद में शैतान यानी इब्लीस कहलाया, उसने पहली स्त्री हव्वा को उकसाया कि वह परमेश्वर की आज्ञा मानने के बजाय अपनी इच्छा को पहली जगह दे और फल खा ले। (उत्प. 2:17; 2 कुरिं. 11:3) वह शैतान के बहकावे में आ गयी और उसने यहोवा की हुकूमत करने के हक को ठुकरा दिया। इस तरह हव्वा ने दिखाया कि उसकी ज़िंदगी में यहोवा सबसे ज़्यादा अहमियत नहीं रखता। आखिर शैतान ने हव्वा को कैसे धोखा दिया?
4 शैतान ने हव्वा के साथ बात करते वक्त कई पैंतरे अपनाए। (उत्पत्ति 3:1-5 पढ़िए।) पहला, उसने यहोवा का नाम इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि सिर्फ “परमेश्वर” कहा। जबकि उत्पत्ति के लेखक ने उस अध्याय की पहली आयत में यहोवा का नाम लिखा है। दूसरा, यह पूछने के बजाय कि परमेश्वर ने क्या “आज्ञा” दी है, उसने बस यह पूछा कि परमेश्वर ने क्या “कहा” है। (उत्प. 2:16) इस तरह चालाकी से शैतान ने परमेश्वर की आज्ञा की अहमियत घटाने की कोशिश की। तीसरा, शैतान ने हव्वा से बात करते वक्त “तुम” शब्द का इस्तेमाल किया। यह सर्वनाम मूल भाषा में बहुवचन के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। इस तरह उसने हव्वा के अहम को हवा देने की कोशिश की, यह जताते हुए कि वह खास है, मानो उसे अपने और अपने पति दोनों की तरफ से बात करने का अधिकार है। इसका नतीजा क्या हुआ? हव्वा अपने और अपने पति की तरफ से बोलने का ज़िम्मा खुद पर ले लिया और कहा: “इस बाटिका के वृक्षों के फल हम खा सकते हैं।”
5. (क) शैतान, हव्वा का ध्यान किस पर लगाने में कामयाब हुआ? (ख) मना किया हुआ फल खाकर हव्वा ने क्या दिखाया?
5 शैतान ने सच्चाई को तोड़-मरोड़कर पेश किया। वह हव्वा को एहसास दिला रहा था कि परमेश्वर ने यह माँग करके उनके साथ नाइंसाफी की है कि “इस बाटिका के किसी वृक्ष का फल न खाना।” फिर शैतान ने हव्वा को उकसाया कि वह अपने बारे में सोचे कि वह “परमेश्वर के तुल्य” होकर कैसे अपनी ज़िंदगी बेहतर बना सकती है। आखिरकार वह कामयाब हो गया और हव्वा ने सब कुछ देनेवाले परमेश्वर के साथ अपने रिश्ते से ध्यान हटाकर उस पेड़ और उसके फल पर लगाया। (उत्पत्ति 3:6 पढ़िए।) बड़े दुख की बात है कि हव्वा ने वह फल खाकर दिखा दिया कि यहोवा उसकी ज़िंदगी में कोई अहमियत नहीं रखता।
अय्यूब के दिनों में उठा मसला
6. शैतान ने अय्यूब की खराई की मिसाल पर कैसे सवाल उठाया और अय्यूब को क्या मौका दिया गया?
6 सदियों बाद, वफादार अय्यूब को यह दिखाने का मौका मिला कि उसके जीवन में कौन सबसे ज़्यादा महत्त्व रखता है। जब यहोवा ने शैतान को अय्यूब की खराई की मिसाल दी, तो शैतान ने कहा: “क्या अय्यूब परमेश्वर का भय बिना लाभ के मानता है?” (अय्यूब 1:7-10 पढ़िए।) शैतान ने इस बात पर उँगली नहीं उठायी कि अय्यूब परमेश्वर की आज्ञा नहीं मानता बल्कि उसने अय्यूब के इरादों पर सवाल खड़ा किया। उसने धूर्तता से अय्यूब पर इलज़ाम लगाया कि वह यहोवा की सेवा प्यार की वजह से नहीं, बल्कि अपने मतलब से करता है। सिर्फ अय्यूब शैतान के सवाल का जवाब दे सकता था और उसे ऐसा करने का मौका दिया गया।
7, 8. अय्यूब ने किन तकलीफों का सामना किया और वफादारी से धीरज धरकर उसने क्या दिखाया?
7 यहोवा ने शैतान को अय्यूब पर मुसीबतें लाने की इजाज़त दी। (अय्यू. 1:12-19) तो अय्यूब ने अपनी ज़िंदगी में एक-के-बाद-एक आयीं मुसीबतों का सामना कैसे किया? कहा गया है कि अय्यूब ने “न तो पाप किया, और न परमेश्वर पर मूर्खता से दोष लगाया।” (अय्यू. 1:22) पर शैतान ने हार नहीं मानी बल्कि उस पर एक और इलज़ाम लगाया: “खाल के बदले खाल, परन्तु प्राण के बदले मनुष्य अपना सब कुछ दे देता है।”a (अय्यू. 2:4) शैतान ने दावा किया कि अगर खुद अय्यूब को शारीरिक तकलीफ हुई तब उसकी ज़िंदगी में यहोवा कोई अहमियत नहीं रखेगा।
8 एक भयंकर बीमारी ने अय्यूब का रंग-रूप बिगाड़ दिया। ऊपर से उसकी पत्नी ज़ोर दे रही थी कि वह परमेश्वर की निंदा करके मर जाए। बाद में, झूठी तसल्ली देनेवाले उसके तीन दोस्तों ने उस पर बुरे चालचलन का इलज़ाम लगाया। (अय्यू. 2:11-13; 8:2-6; 22:2, 3) लेकिन फिर भी अय्यूब ने अपनी खराई नहीं तोड़ी। (अय्यूब 2:9, 10 पढ़िए।) उसने वफादारी से धीरज धरते हुए दिखाया कि उसकी ज़िंदगी में यहोवा सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है। अय्यूब ने यह भी दिखाया कि एक असिद्ध इंसान कुछ हद तक ज़रूर इब्लीस के झूठे आरोपों का जवाब दे सकता है।—नीतिवचन 27:11 से तुलना कीजिए।
यीशु का खरा जवाब
9. (क) शैतान ने उसके सामने क्या प्रलोभन रखा ताकि यीशु अपनी ही ख्वाहिश पूरी करे? (ख) यीशु ने इस परीक्षा का सामना कैसे किया?
9 यीशु के बपतिस्मे के कुछ समय बाद, शैतान ने यीशु को उकसाया कि वह अपनी ज़िंदगी में परमेश्वर को सबसे ज़्यादा अहमियत देने के बजाय अपनी ख्वाहिश पूरी करे। उसने तीन तरीकों से यीशु की परीक्षा ली। पहला, उसने यीशु की शारीरिक ज़रूरत का फायदा उठाया और कहा कि वह पत्थर को रोटी बना दे। (मत्ती 4:2, 3) यीशु ने 40 दिन तक उपवास किया था और बहुत भूखा था। इसलिए इब्लीस ने उसे उकसाया कि वह चमत्कार करके अपनी भूख मिटा ले। हव्वा के उलट, यीशु ने यहोवा के वचन को मन में रखते हुए तुरंत उस प्रलोभन को ठुकरा दिया।—मत्ती 4:4 पढ़िए।
10. शैतान ने क्यों यीशु को मंदिर की चारदीवारी से छलाँग लगाने की चुनौती दी?
10 शैतान ने चुनौती देकर भी यीशु को उकसाने की कोशिश की ताकि वह अपनी स्वार्थी इच्छा पूरी करे। उसने कहा कि वह मंदिर की चारदीवारी से छलाँग लगा दे। (मत्ती 4:5, 6) इसके पीछे शैतान का क्या मकसद था? शैतान ने कहा कि अगर यीशु को नीचे गिरने से चोट नहीं लगेगी तो साबित हो जाएगा कि वह “परमेश्वर का बेटा है।” ज़ाहिर है, शैतान चाहता था कि यीशु अपनी इज़्ज़त के बारे में हद-से-ज़्यादा चिंता करे, यहाँ तक कि अपनी हैसियत का दिखावा करे। शैतान जानता था कि एक इंसान अपने नाम और शोहरत की खातिर बड़ी-से-बड़ी चुनौती कबूल कर लेता है। शैतान ने परमेश्वर के वचन का गलत इस्तेमाल किया, मगर यीशु के जवाब ने दिखाया कि उसे यहोवा के वचन की पूरी समझ है। (मत्ती 4:7 पढ़िए।) उस चुनौती को ठुकराकर यीशु ने एक बार फिर दिखा दिया कि यहोवा ही उसकी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है।
11. दुनिया के तमाम राज्य देने की शैतान की पेशकश को यीशु ने क्यों ठुकराया?
11 शैतान इतना बेबस हो गया कि आखिरकार यीशु की खराई तोड़ने के लिए उसने उसके आगे दुनिया के तमाम राज्य पेश कर दिए। (मत्ती 4:8, 9) यीशु ने उसे भी फौरन ठुकरा दिया। वह जानता था कि इस प्रस्ताव को कबूल करना यहोवा की हुकूमत को ठुकराने के बराबर है क्योंकि परमप्रधान होने के नाते यह हक सिर्फ उसका है। (मत्ती 4:10 पढ़िए।) हर बार शैतान को जवाब देते वक्त यीशु ने ऐसे शास्त्रवचन इस्तेमाल किए जिनमें यहोवा का नाम था।
12. धरती पर अपनी ज़िंदगी के आखिरी दौर में, यीशु को कौन-सा मुश्किल फैसला करना पड़ा और उसने जो फैसला किया, उससे हम क्या सीखते हैं?
12 ज़िंदगी के आखिरी दौर में यीशु को एक बहुत मुश्किल फैसला करना पड़ा। अपनी सेवा के दौरान उसने कई बार कहा था कि वह अपनी कुरबानी देने आया है। (मत्ती 20:17-19, 28; लूका 12:50; यूह. 16:28) लेकिन यीशु यह भी जानता था कि उस पर झूठे इलज़ाम लगाए जाएँगे, यहूदी कानून के तहत उसे दोषी ठहराया जाएगा और परमेश्वर की निंदा करनेवाले के तौर पर उसे मौत की सज़ा दी जाएगी। उसकी मौत के खासकर इस कारण ने उसके दिल को छलनी कर दिया। उसने प्रार्थना की: “मेरे पिता, अगर हो सके तो यह प्याला मेरे सामने से हटा दे।” मगर फिर उसने आगे कहा: “फिर भी, मेरी मरज़ी नहीं बल्कि तेरी मरज़ी पूरी हो।” (मत्ती 26:39) जी हाँ, यीशु ने अपनी आखिरी साँस तक वफादार रहकर दिखा दिया कि उसके जीवन में यहोवा ही सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है!
हमारा जवाब
13. हव्वा, अय्यूब और यीशु मसीह के उदाहरणों से अब तक हमने क्या सीखा है?
13 हमने अब तक क्या सीखा? हव्वा के उदाहरण से हमने सीखा कि जो इंसान अपनी इच्छा पूरी करने में लग जाता है या अपने बारे में बहुत ज़्यादा सोचता है, वह दिखाता है कि यहोवा उसकी ज़िंदगी में अहमियत नहीं रखता। उसके उलट, अय्यूब के खराई बनाए रखने से हम सीखते हैं कि असिद्ध इंसान भी यहोवा को अपनी ज़िंदगी में पहली जगह दे सकते हैं और वफादार रहकर धीरज के साथ मुश्किलों का सामना कर सकते हैं, तब भी जब वे पूरी तरह नहीं समझ पाते कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। (याकू. 5:11) आखिर में यीशु की मिसाल हमें सिखाती है कि हमें शर्मिंदगी का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए और इस बारे में बहुत चिंता नहीं करनी चाहिए कि दूसरे हमारे बारे में क्या सोचेंगे। (इब्रा. 12:2) मगर हम ये सबक कैसे लागू कर सकते हैं?
14, 15. प्रलोभन आने पर यीशु और हव्वा ने जैसा नज़रिया दिखाया, उसमें क्या फर्क था और हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? (पेज 18 पर दी गयी तस्वीर को समझाइए।)
14 प्रलोभनों की वजह से यहोवा को मत भूल जाइए। हव्वा का पूरा ध्यान उस प्रलोभन पर लगा रहा जो उसके सामने था। उसने देखा कि वह फल “खाने में अच्छा, और देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है।” (उत्प. 3:6) दूसरी तरफ गौर कीजिए, जब यीशु के सामने तीन प्रलोभन आए तब उसका नज़रिया हव्वा से कितना अलग था! उसने हर प्रलोभन में छिपी शैतान की चाल देखी और गौर किया कि उसमें फँसने का अंजाम क्या होगा। उसने हमेशा परमेश्वर के वचन पर भरोसा दिखाया और यहोवा का नाम भी लिया।
15 जब हममें कुछ ऐसा करने की इच्छा जागती है जिसे यहोवा पसंद नहीं करता, तब हम अपना ध्यान कहाँ लगाते हैं? हम जितना ज़्यादा उस प्रलोभन के बारे में सोचेंगे, उतना ही हममें गलत काम करने की इच्छा जागेगी। (याकू. 1:14, 15) हमें चाहे कितना ही मुश्किल क्यों न लगे, हमें तुरंत उस इच्छा को मन से निकाल देना चाहिए, मानो हम अपने शरीर का कोई हिस्सा काटकर फेंक रहे हों। (मत्ती 5:29, 30) यीशु की तरह, हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हमारे कामों का अंजाम क्या होगा और उससे यहोवा के साथ हमारे रिश्ते पर कैसा असर पड़ेगा। हमें खुद को याद दिलाना चाहिए कि इस मामले में उसका वचन, बाइबल क्या कहता है। ऐसा करके ही हम साबित कर पाएँगे कि यहोवा हमारी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है।
16-18. (क) हम किस वजह से निराश हो सकते हैं? (ख) मुश्किल हालात का सामना करने में क्या बात हमारी मदद कर सकती है?
16 जीवन में हुए बुरे हादसों की वजह से यहोवा के लिए कड़वाहट मत पैदा कीजिए। (नीति. 19:3) जैसे-जैसे हम इस दुष्ट दुनिया के अंत के करीब आ रहे हैं, यहोवा के कई लोगों को कुदरती आफतों या हादसों की वजह से बुरे वक्त का सामना करना पड़ रहा है। हालाँकि हम उम्मीद नहीं करते कि यहोवा चमत्कार करके हमारी रक्षा करेगा, लेकिन फिर भी जब किसी अज़ीज़ की मौत हो जाती है या हम किसी और मुश्किल का सामना करते हैं, तो हम भी अय्यूब की तरह टूट जाते हैं।
17 अय्यूब नहीं जानता था कि यहोवा ने क्यों उस पर इतनी मुसीबतें आने दीं और हो सकता है कभी-कभी हम भी न समझ पाएँ कि इतनी दुख-तकलीफें क्यों आती हैं। हमने सुना होगा कि हैती देश में आए भूकंप या किसी और कुदरती आफत की वजह से हमारे भाइयों की जान चली गयी। या हम खराई रखनेवाले ऐसे भाई-बहनों को जानते हों, जिन्हें बुरी तरह मारा-पीटा गया या जिनकी किसी भयानक दुर्घटना में मौत हो गयी। या हो सकता है, हम खुद अपने बुरे हालात से परेशान हों या नाइंसाफी का सामना कर रहे हों। ऐसे में तड़पकर हम शायद परमेश्वर की दुहाई दें: ‘यहोवा, ऐसा क्यों हो रहा है? और मेरे साथ ही क्यों? मैंने क्या गलत किया है?’ (हब. 1:2, 3) तकलीफों के इस दौर में क्या बात हमें हौसला दे सकती है?
18 सबसे पहले, जब हमारे साथ कुछ बुरा होता है तो हमें यह नहीं सोच लेना चाहिए कि यहोवा हमसे नाराज़ है। अपने ज़माने में हुए दो हादसों का ज़िक्र करते वक्त यीशु ने यही बात समझायी थी। (लूका 13:1-5 पढ़िए।) कई विपत्तियाँ “समय और संयोग” का नतीजा होती हैं। (सभो. 9:11) हमारी मुसीबतों की वजह चाहे जो हो, हम ज़रूर उनका सामना कर पाएँगे, बशर्ते हम ‘हर तरह का दिलासा देनेवाले परमेश्वर’ पर अपना ध्यान लगाए रखें। वह हमें ताकत देगा ताकि हम वफादारी से उसकी सेवा करते रहें।—2 कुरिं. 1:3-6.
19, 20. किस बात से यीशु को शर्मिंदगी का सामना करने में मदद मिली और क्या बात हमारी मदद कर सकती है?
19 खुद पर घमंड या शर्मिंदगी मत हावी होने दीजिए। नम्र होने की वजह से यीशु ने “अपना सबकुछ त्याग दिया और एक दास का स्वरूप ले लिया।” (फिलि. 2:5-8) यीशु को कई तरीकों से शर्मिंदा किया गया, मगर यहोवा पर पूरी तरह भरोसा रखने की वजह से वह सब कुछ झेल सका। (1 पत. 2:23, 24) इस तरह यीशु ने यहोवा की इच्छा को जीवन में पहली जगह दी, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसे ऊँचा पद देकर महान किया गया। (फिलि. 2:9) यीशु ने इसी रास्ते पर अपने चेलों को भी चलने की सलाह दी।—मत्ती 23:11, 12; लूका 9:26.
20 कभी-कभार हमारे विश्वास की ऐसी परीक्षा हो सकती है जिसमें हमें शर्मिंदगी उठानी पड़े। फिर भी, हमें प्रेषित पौलुस की तरह भरोसा रखना चाहिए जिसने कहा: “इसी वजह से मैं ये सारे दुःख उठा रहा हूँ, मगर मैं शर्मिंदा नहीं हूँ। क्योंकि मैंने जिस पर यकीन किया है उसे जानता हूँ। और मुझे पूरा भरोसा है कि मैंने उसे जो अमानत सौंपी है उसकी वह उस दिन तक हिफाज़त करने के काबिल है।”—2 तीमु. 1:12.
21. इस स्वार्थी दुनिया में आपने क्या करने की ठान ली है?
21 बाइबल में भविष्यवाणी की गयी थी कि हमारे समय में लोग सिर्फ “खुद से प्यार करनेवाले” होंगे। (2 तीमु. 3:2) तो ताज्जुब नहीं कि आज हमारे चारों तरफ ऐसे ही इंसान मौजूद हैं, लेकिन ऐसा हो कि हम खुद पर ऐसे रवैये की छाया तक न पड़ने दें! इसके बजाय, हम पर चाहे कैसी भी परीक्षा आए, कोई हादसा हो जाए या हमें शर्मिंदा किया जाए, आइए हम यह साबित करने की ठान लें कि यहोवा ही हमारी ज़िंदगी में सबसे ज़्यादा अहमियत रखता है!
[फुटनोट]
a कुछ बाइबल विद्वानों का कहना है कि “खाल के बदले खाल” ये शब्द दिखाते हैं कि अय्यूब अपनी खाल या जान बचाने के लिए अपने बच्चों और जानवरों की खाल या जान दाँव पर लगा सकता था। दूसरों का मानना है कि इसका मतलब है, एक इंसान अपनी खाल बचाने के लिए अपने शरीर का कुछ हिस्सा गँवाने को तैयार हो जाएगा। मसलन अपना सिर बचाने के लिए हो सकता है वह अपना हाथ ऊपर कर ले, इस तरह अपनी जान बचाने के लिए वह अपने शरीर का एक हिस्सा गँवा देगा। इस मुहावरे का अर्थ जो भी हो, लेकिन अय्यूब के बारे में यह बात साफ कही जा रही थी कि वह अपनी जान बचाने के लिए कुछ भी गँवाने को तैयार था।
हमने क्या सीखा?
• जिस तरह शैतान ने हव्वा को बहकाया उससे हम क्या सीखते हैं?
• जब खुद अय्यूब पर तकलीफें आयीं तब उसके नज़रिए से हमें क्या सबक मिलता है?
• यीशु ने जिस बात पर अपना खास ध्यान लगाए रखा उससे हम क्या सीखते हैं?
[पेज 17 पर तसवीर]
हव्वा, यहोवा के साथ अपने रिश्ते पर ध्यान देने से चूक गयी
[पेज 18 पर तसवीर]
यीशु ने शैतान के प्रलोभनों को ठुकराया और यहोवा की मरज़ी पूरी करने पर ध्यान दिया
[पेज 20 पर तसवीरें]
हैती देश में भूकंप आने के बाद तंबुओं में गवाही देने का काम
मुसीबत की घड़ी में हम ‘हर तरह का दिलासा देनेवाले परमेश्वर’ पर ध्यान लगा सकते हैं