क्या आप में “मसीह का मन” है?
‘धीरज, और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हें यह बरदान दे, कि तुममें मसीह यीशु का सा मन हो।’—रोमियों 15:5.
1. ईसाईजगत के चित्रों में यीशु को कैसे दिखाया जाता है, मगर यह यीशु की सही-सही तस्वीर क्यों नहीं हो सकती?
“उसे एक बार भी हँसते हुए नहीं देखा गया।” यह बात यीशु मसीह के बारे में एक चिट्ठी में कही गई थी। इसका लेखक यीशु के ज़माने का एक रोमी अफसर होने का झूठा दावा करता है। इस चिट्ठी में यीशु के बारे में जो कहा गया है, उसका ग्यारहवीं सदी से लेकर आज तक कई चित्रकारों पर काफी असर हुआ है।a और इसीलिए उन्होंने यीशु मसीह की ऐसी तस्वीरें बनायी हैं, जिसमें यीशु का चेहरा एकदम गंभीर है, रोनी सूरत है, मानो उसे मुस्कुराना आता ही नहीं था। लेकिन यह यीशु मसीह की सही-सही तस्वीर हो ही नहीं सकती, क्योंकि खुशखबरी की किताबों से हमें पता चलता है कि यीशु हँसमुख था। साथ ही ये किताबें यीशु की एक ऐसी तस्वीर खींचती हैं जिससे पता चलता है कि वह नरमदिल और रहमदिल था, और जिसके दिल में दूसरों के लिए अपार प्रेम था।
2. हम अपने अंदर ‘मसीह यीशु का मन’ कैसे पैदा कर सकते हैं, और इससे हमें क्या फायदा होगा?
2 सो, यीशु की बिलकुल सही-सही तस्वीर पाने के लिए और वह किस किस्म का इंसान था, यह अच्छी तरह जानने के लिए हमें उसके बारे में सही-सही जानकारी लेनी होगी। इसलिए आइए हम खुशखबरी की किताबों में बतायी गयी कुछ घटनाओं पर चर्चा करें, ताकि हम “मसीह का मन” समझ सकें। (1 कुरिन्थियों 2:16) इससे हम जान पाएँगे कि उसकी भावनाएँ कैसी थीं, उसका सोच-विचार और स्वभाव कैसा था। चर्चा के दौरान, आइए हम यह भी देखें कि हम अपने अंदर ‘मसीह यीशु का मन’ कैसे पैदा कर सकते हैं। (रोमियों 15:5) इस तरह हम यीशु के पदचिन्हों पर चलेंगे और लोगों के साथ उसी तरह पेश आएँगे, उसी तरह बर्ताव करेंगे, जिस तरह यीशु करता था।—यूहन्ना 13:15.
लोग बेझिझक यीशु के पास आते थे
3, 4. (क) मरकुस 10:13-16 में बतायी गयी घटना किन हालात में हुई थी? (ख) जब यीशु ने देखा कि उसके चेले नन्हे बच्चों को उसके पास आने से रोक रहे हैं, तो उसने क्या किया?
3 यीशु का स्वभाव ऐसा था कि लोग बिना झिझके उसकी तरफ खिंचे चले आते थे। हर तरह के, हर हैसियत के, हर उम्र के लोग उसकी ओर आकर्षित होते थे, क्योंकि उसमें एक कशिश थी। आइए एक घटना पर गौर करें, जो मरकुस 10:13-16 में बतायी गयी है। यीशु आखिरी बार यरूशलेम की ओर जा रहा था। यह आखिरी सफर इसलिए था क्योंकि थोड़े ही समय बाद वह बहुत ही क्रूरता और बेरहमी से मारा जानेवाला था। और इस समय यह घटना हुई।—मरकुस 10:32-34.
4 ज़रा मन की आँखों से इस घटना को देखने की कोशिश कीजिए। कुछ लोग अपने बच्चों को यीशु के पास ला रहे हैं। कुछ बच्चे एकदम नन्हे-मुन्ने हैं, कुछ थोड़े बड़े हैं।b वे लोग चाहते हैं कि यीशु बच्चों को आशीष दे। लेकिन यीशु के चेले बच्चों को उसके पास आने से रोकने की कोशिश करते हैं। वे सोचते हैं कि ऐसी घड़ी में यीशु नहीं चाहेगा कि बच्चे आकर उसे ख़ामख़ाह परेशान करें। लेकिन वे एकदम गलत थे, क्योंकि यह ख्याल तो यीशु के मन में भी नहीं आया था। यह देखकर यीशु को गुस्सा आया कि उसके चेले उन नन्हे बच्चों को उसके पास आने से रोक रहे हैं। इसलिए, वह अपने चेलों से कहता है: “बालकों को मेरे पास आने दो और उन्हें मना न करो।” (मरकुस 10:14) फिर यीशु उन बच्चों को अपने पास बुलाता है और ‘उन्हें गोद में लेता है, और उन पर हाथ रखकर उन्हें आशीष देता है।’ (मरकुस 10:16) क्या इससे यह नहीं पता चलता है कि यीशु के दिल में कितना प्यार था, कितनी ममता थी और वह कितना नरमदिल था? और इसमें कोई शक नहीं कि बच्चे उसकी गोद में बिलकुल आराम से बैठे थे, उन्हें कोई झिझक या परेशानी नहीं महसूस हो रही थी।
5. मरकुस 10:13-16 से हम यीशु के स्वभाव के बारे में क्या सीख सकते हैं?
5 इस छोटी-सी घटना से हम यीशु के स्वभाव के बारे में कितना कुछ सीख सकते हैं। यीशु इस धरती पर आने से पहले स्वर्ग में एक बहुत ही ऊँचे स्थान पर था। (यूहन्ना 17:5) मगर इसके बावजूद, हर तरह के लोग, यहाँ तक कि बच्चे भी उसके पास बेझिझक, बिना कतराए, और बड़ी आसानी से आ सकते थे। हालाँकि ये सारे इंसान असिद्ध और पापी थे, फिर भी यीशु ने कभी उन्हें नीचा नहीं दिखाया, ना ही उन्हें यह महसूस कराया कि वह उनसे श्रेष्ठ है। अगर यीशु कभी हँसता नहीं, मुस्कुराता नहीं, उसकी नाक-भौं हमेशा चढ़ी हुई होती, तो क्या कोई उसके पास बेझिझक आता? हर उम्र के लोग उसके पास आसानी से आते थे। वे जानते थे कि यीशु सबसे प्यार करता है, सबकी परवाह करता है और कभी किसी को अपने पास आने से नहीं रोकता।
6. प्राचीनों को क्या करना चाहिए ताकि सभी लोग उनके पास बेझिझक और आसानी से आ सकें?
6 इस घटना को ध्यान में रखते हुए हम अपने-आप से ये सवाल पूछ सकते हैं कि ‘क्या मुझ में मसीह का मन है? क्या मेरा स्वभाव मसीह के जैसा है कि लोग मेरे पास बेझिझक आएँ? क्या लोग मुझमें यह देखते हैं कि मैं सबसे प्यार करता हूँ, परवाह करता हूँ?’ प्राचीनों का ऐसा होना खासकर बहुत ही ज़रूरी है, क्योंकि आज हम कठिन दिनों में जी रहे हैं। (2 तीमुथियुस 3:1) इसीलिए परमेश्वर की भेड़ों को ऐसे प्राचीनों की ज़रूरत है जिनके पास वे बेझिझक और आसानी से जा सकें, और जो उनके लिए “आंधी से छिपने का स्थान” हों। (यशायाह 32:1, 2) सो प्राचीनो, अगर आप अपने दिल में भाइयों के लिए चिंता, परवाह, और प्यार पैदा करेंगे, उनकी खातिर अपने आप को न्योछावर करने के लिए तैयार होंगे, तो हमारे भाई यह ज़रूर देखेंगे और बेझिझक आपके पास आएँगे। वे देखेंगे कि आप उनकी कितनी परवाह करते हैं, कितना प्यार करते हैं, क्योंकि यह आपके चेहरे से झलकेगा, और आपकी बोल-चाल से साफ ज़ाहिर होगा। और जब ऐसा होगा, तो हर उम्र के लोग, बच्चे, जवान, बूढ़े बिना कतराए आपके पास आएँगे, और आप पर पूरा भरोसा रखेंगे। एक बहन बताती है कि क्यों वह एक प्राचीन के सामने दिल खोलकर बात कर सकी। वह कहती है कि “उस प्राचीन को मेरे लिए बहुत चिंता थी, वे मेरे साथ बहुत ही प्यार और हमदर्दी से पेश आते थे। वरना मैं शायद अपना मुँह भी नहीं खोलती। मगर मैं बिना झिझके उनसे बात कर सकी, मुझे किसी तरह का डर नहीं था।”
वह हमदर्द था, दूसरों की भावनाओं की कदर करता था
7. (क) यीशु ने कैसे दिखाया कि उसमें हमदर्दी थी और वह दूसरों की भावनाओं, और ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए उनके साथ पेश आता था? (ख) यीशु ने उस अंधे आदमी की आँखें पहली बार में ही, पूरी तरह से ठीक क्यों नहीं कीं?
7 यीशु के स्वभाव की एक और खासियत उसकी हमदर्दी थी। वह दूसरों की भावनाओं, जज़्बात और इच्छाओं को ध्यान में रखते हुए उनके साथ बर्ताव करता था। लोगों के लिए उसके दिल में इतनी हमदर्दी थी कि जब वह किसी दुखी, बेबस इंसान को देखता, तो वह दृश्य उसके दिल को इतना चीर जाता और उसे उस इंसान पर इतना तरस आता कि वह उसकी मदद किए बिना नहीं रह पाता। (मत्ती 14:14) अपनी इस हमदर्दी की वज़ह से ही वह दूसरों की ज़रूरतों और कमज़ोरियों के मुताबिक उनके साथ पेश आता था। (यूहन्ना 16:12) एक घटना पर गौर कीजिए। कुछ लोग यीशु के पास एक अंधे आदमी को लाकर बिनती करने लगे कि उस आदमी को चंगा करे। यीशु ने उसे चंगा तो ज़रूर किया, मगर इस तरह नहीं कि वह एकदम से ही देखने लगे। पहले उसने उसकी आँखों को थोड़ा-सा ठीक किया जिससे उस आदमी को धुंधला-धुंधला दिखायी देने लगा। उसे ऐसा लगा मानो उसके सामने “पेड़” चल-फिर रहे हों। फिर इसके बाद यीशु ने उसकी आँखों को पूरी तरह से ठीक किया। यीशु ने उसे पहली बार में ही, पूरी तरह से ठीक क्यों नहीं किया? ज़रा सोचिए, उस आदमी की आँखों के सामने हमेशा अंधेरा छाया रहता था, और वह इसी अंधियारे का आदी हो चुका था। अगर यीशु एकदम से ही उसकी आँखें ठीक कर देता और तेज़ रोशनी अचानक उसकी आँखों पर पड़ती, तो क्या उससे उसकी आँखें चुंधिया नहीं जातीं? शायद इसीलिए यीशु ने उसकी आँखों को एकदम से ठीक नहीं किया, बल्कि उसकी इस कमज़ोरी और ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए उसे धीरे-धीरे ठीक किया।—मरकुस 8:22-26.
8, 9. (क) दिकापुलिस में यीशु और उसके चेलों के आते ही क्या हुआ? (ख) समझाइए कि यीशु ने उस बहरे आदमी को कैसे चंगा किया।
8 आइए एक और घटना पर गौर करें, जो सा.यु. 32 के फसह के त्योहार के बाद हुई थी। यीशु और उसके चेले दिकापुलिस के इलाके में आए थे, जो गलील सागर के पूर्व में था। वहाँ, लोगों ने यीशु को देखा और फिर भीड़ की भीड़ उसके पास उमड़ने लगी और कई लंगड़ों, अन्धों, गूंगों, टुंडों को उसके पास लाने लगी, ताकि वह उन्हें चंगा करे। और उसने उन सभी को चंगा किया। (मत्ती 15:29, 30) लेकिन यहाँ पर एक बहुत ही दिलचस्प बात होती है, जिसके बारे में सिर्फ मरकुस ही हमें बताता है। यीशु उन सभी बीमार लोगों में से एक आदमी को चुनता है और उसे चंगा करने के लिए अलग ले जाता है। आइए हम देखें कि मरकुस इसके बारे में क्या कहता है।—मरकुस 7:31-35.
9 मरकुस कहता है कि वह आदमी बहरा था और ठीक से बोल नहीं पाता था। इस आदमी को अपनी इस कमज़ोरी की वज़ह से चार लोगों के सामने आने में कितनी शर्मिंदगी और झिझक महसूस होती होगी। शायद उसकी इन्हीं भावनाओं को समझते हुए यीशु ने कुछ ऐसा किया जो उसने पहले कभी नहीं किया था। वह उसे भीड़ से अलग ले गया और इशारों से उसे समझाया कि वह आगे क्या करनेवाला है। यीशु ने “अपनी उंगलियां उसके कानों में डालीं, और थूक कर उस की जीभ को छूआ।” (मरकुस 7:33) फिर यीशु ने स्वर्ग की ओर देखकर आह भरी। ऐसा करके यीशु मानो उससे यह कह रहा था कि ‘मैं परमेश्वर से शक्ति पाकर तुझे चंगा करनेवाला हूँ।’ इसके बाद यीशु ने कहा: “खुल जा।” (मरकुस 7:34) फौरन वह आदमी सुनने लगा और दूसरों की तरह ठीक से बोलने भी लगा।
10, 11. हम कलीसिया में और अपने परिवार में दूसरों की भावनाओं और जज़्बात का लिहाज़ कैसे कर सकते हैं?
10 इस घटना में यीशु ने उस आदमी के साथ जो कुछ किया, उससे हम क्या सीख सकते हैं? यही कि यीशु लोगों की भावनाओं को, उनके जज़्बात को समझता था, उनके लिए उसके दिल में हमदर्दी थी। उसकी इसी हमदर्दी की वज़ह से वह लोगों की मदद किए बिना नहीं रह पाता था। वह कभी लोगों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचाता था। हम यीशु के नक्शेकदम पर चलना चाहते हैं, इसलिए हमें भी दूसरों के लिए अपने दिल में हमदर्दी पैदा करनी चाहिए, और हमें अपने बर्ताव में इसे दिखाना चाहिए। ऐसा करके हम दिखाएँगे कि हममें मसीह का मन है। बाइबल में हमसे कहा गया है: ‘सब के सब एक दिल और हमदर्द रहो, भाइयों से प्यार रखो, नरम दिल और नम्र बनो।’ (1 पतरस 3:8, हिंदुस्तानी बाइबल) इसका मतलब यह है कि हमें अपनी बोलचाल में दूसरों की भावनाओं और जज़्बात का लिहाज़ करना चाहिए।
11 यह हम कलीसिया में अपने भाइयों के साथ कैसे कर सकते हैं? हमारे मन में अपने भाइयों के लिए इज़्ज़त और सम्मान होना चाहिए, और जैसे हम चाहते हैं कि लोग हमारे साथ व्यवहार करें, हमें भी दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। (मत्ती 7:12) इसका मतलब है कि जब हम दूसरों के साथ बात करते हैं तो हम सोच-समझकर बात करेंगे और यह भी ध्यान देंगे कि हम किस अंदाज़ में बात करते हैं। (कुलुस्सियों 4:6) याद रखिए कि बिना सोच-समझकर “उतावली से बोलने वाले की बातें तलवार के समान छेदती हैं।” (नीतिवचन 12:18, NHT) परिवार में लिहाज़ कैसे दिखाया जा सकता है? जो पति-पत्नी एक-दूसरे को सचमुच दिल से प्यार करते हैं, वे एकदूसरे की भावनाओं की कदर करते हैं। (इफिसियों 5:33) वे आपस में कठोर, तीखी, कड़वी और चुभनेवाली बात नहीं करते, एकदूसरे पर ताना नहीं कसते, और हर बात में नुक़्स नहीं निकालते। ऐसी बातों से अपने साथी के दिल को चोट ही पहुँचती है। तलवार का घाव भर जाता है मगर ऐसी बातों से पहुँचनेवाले ज़ख्म आसानी से नहीं भरते। बच्चों की भी भावनाएँ होती हैं, आत्म-सम्मान होता है। उनका लिहाज़ करना माता-पिताओं के लिए बहुत ज़रूरी है। जब बच्चा कोई गलती करता है, तो माता-पिता को उसकी गलती सुधारते समय उसकी बेइज़्ज़ती नहीं करनी चाहिए, उसे ज़लील नहीं करना चाहिए।c (कुलुस्सियों 3:21) इस तरह जब हम दूसरों का लिहाज़ करते हैं, यानी उनकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए उनके साथ पेश आते हैं, तो हम दिखाते हैं कि हममें मसीह का मन है।
उसने दूसरों पर पूरा भरोसा किया, उन्हें ज़िम्मेदारियाँ सौंपी
12. अपने चेलों के बारे में यीशु का नज़रिया कैसा था?
12 यीशु जानता था कि उसके चेले असिद्ध हैं, कमज़ोर हैं। आखिर, वह यह भी जानता था कि इंसान के मन में क्या है। (यूहन्ना 2:24, 25) फिर भी, वह सिर्फ उनकी कमज़ोरियों और गलतियों पर नहीं, बल्कि उनकी खूबियों और अच्छाइयों पर भी ध्यान देता था। वह जानता था कि यहोवा ने इन लोगों की खूबियों और अच्छाइयों को देखकर ही उन्हें अपनी ओर खींचा है। (यूहन्ना 6:44) यीशु जिस तरह से अपने चेलों से बात करता था और पेश आता था, उससे यह ज़ाहिर होता है कि उसे अपने चेलों पर पूरा भरोसा था।
13. यीशु ने कैसे दिखाया कि वह अपने चेलों पर भरोसा करता है?
13 यीशु ने कैसे दिखाया कि वह उन पर भरोसा करता है? स्वर्ग जाने से पहले, उसने अपने चेलों को एक बहुत ही भारी ज़िम्मेदारी दी। उसने उन्हें सारी दुनिया में राज्य का प्रचार करने और उसके सिलसिले में सभी काम करने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। (मत्ती 25:14, 15; लूका 12:42-44) यीशु ने छोटी-छोटी बातों में भी दिखाया कि वह उन पर पूरा भरोसा करता है। मिसाल के तौर पर, जब उसने चमत्कार करके कई हज़ार लोगों को खाना खिलाया, तो उसने खाना परोसने की ज़िम्मेदारी अपने शिष्यों को दी।—मत्ती 14:15-21; 15:32-37.
14. मरकुस 4:35-41 में किस घटना का ज़िक्र किया गया है?
14 मरकुस 4:35-41 में बतायी गयी एक और घटना पर गौर कीजिए। यीशु अपने शिष्यों के साथ एक नाव पर चढ़ता है और गलील सागर के पूर्व की ओर रवाना होता है। कुछ समय बाद यीशु उस नाव के पिछले भाग में तकिया लगाकर गहरी नींद सो जाता है। लेकिन थोड़ी देर में एक बहुत ही भयंकर “आन्धी” चलने लगती है। गलील सागर एक ऐसी जगह पर है जहाँ हवामान की गड़बड़ी की वज़ह से अकसर तूफान बनते रहते हैं। साथ ही, इस सागर की तरफ उत्तर दिशा के हर्मोन पर्वत से तेज़ हवाएँ चलती हैं। इसलिए, एक पल सब कुछ शांत हो सकता है, और अगले ही पल भयंकर तूफान हाहाकार मचा देता है। यीशु यह बात अच्छी तरह जानता था, क्योंकि उसकी परवरिश गलील में हुई थी। फिर भी वह नाव चलाने की ज़िम्मेदारी अपने शिष्यों पर छोड़कर गहरी नींद सोया था। उसे अपने शिष्यों की नाव चलाने की काबिलियत पर पूरा भरोसा था, क्योंकि उनमें से कुछ शिष्य मछुआरे थे।—मत्ती 4:18, 19.
15. यीशु की तरह हम भी कैसे दूसरों पर भरोसा रख सकते हैं?
15 क्या हम भी यीशु की तरह दूसरों की काबिलियत पर पूरा भरोसा करके उन्हें ज़िम्मेदारी सौंपते हैं? कुछ लोग दूसरों को ज़िम्मेदारियाँ देने से बहुत ही हिचकिचाते हैं। वे सोचते हैं कि लगाम हमेशा उन्हीं के हाथ में होनी चाहिए, मानो ‘आप काज ही महाकाज’ होता है। लेकिन, अगर सभी काम हम ही करते रहेंगे, तो हम बोझ तले दब जाएँगे। इतना ही नहीं, सारे काम खुद ही करने में हमारा इतना वक्त निकल जाएगा कि हमारे पास अपने परिवार के लिए भी फुरसत नहीं होगी। साथ ही, जब हम दूसरों को ज़िम्मेदारियाँ नहीं सौंपते, तो हमारी वज़ह से उन्हें ज़रूरी ट्रेनिंग और तज़ुर्बा भी नहीं मिलेगा। इसलिए, यह कितनी अक्लमंदी की बात होगी कि हम दूसरों पर पूरा भरोसा करना और उन्हें ज़िम्मेदारियाँ देना सीखें। क्या हममें मसीह का मन है, यह जानने के लिए आइए हम अपने आप से ये सवाल पूछें और पूरी ईमानदारी से इनका जवाब दें: ‘क्या इस मामले में मैं मसीह की तरह हूँ? क्या मैं दूसरों को ज़िम्मेदारियाँ देने के लिए तैयार रहता हूँ, और पूरा भरोसा रखता हूँ कि वे इन्हें अच्छी तरह निभाएँगे?’
उसे अपने चेलों की वफादारी पर पूरा विश्वास था
16, 17. यीशु ने अपनी आखिरी शाम को चेलों को क्या यकीन दिलाया, हालाँकि वह जानता था कि वे कुछ पल के लिए उसका साथ छोड़ देंगे?
16 यीशु को अपने शिष्यों पर न सिर्फ पूरा भरोसा था कि वे अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाएँगे, बल्कि उसे यह भी विश्वास था कि वे आखिर तक वफादार बने रहेंगे। यह विश्वास उसने अपने शिष्यों पर ज़ाहिर भी किया। अपनी मौत से पहले आखिरी शाम को उसने अपने शिष्यों से जो कहा, इस बात पर ज़रा गौर कीजिए।
17 यीशु को अपनी आखिरी शाम को भी चैन की साँस लेने की फुरसत नहीं थी। पहले उसने अपने शिष्यों के पैर धोए, जो उनके लिए नम्रता का एक बेहतरीन सबक था। इसके बाद उसने अपनी मौत की याद में संध्या-भोज मनाने की शुरुआत की। लेकिन, कुछ ही समय बाद उसके शिष्यों में फिर एक बार गरमा-गरम बहस हो गयी कि उन सब में कौन सबसे बड़ा है। ऐसी हालत में भी यीशु ने ठंडे दिमाग से, सब्र से काम लिया। उसने उन्हें फटकारा नहीं, बल्कि प्यार से समझाया। फिर उसने उनसे कहा: “तुम सब आज ही रात को मेरे विषय में ठोकर खाओगे; क्योंकि लिखा है, कि मैं चरवाहे को मारूंगा; और झुण्ड की भेड़ें तित्तर बित्तर हो जाएंगी।” (मत्ती 26:31; जकर्याह 13:7) वह जानता था कि संकट की घड़ी में उसके चेले कुछ पल के लिए उसका साथ छोड़ देंगे। फिर भी उसने उनकी निंदा नहीं की, बल्कि उन्हें यकीन दिलाया कि वह उन्हें कभी नहीं छोड़ेगा। उसे विश्वास था कि अगर वे पल भर के लिए उसका साथ छोड़ भी दें, तो भी वे उसे हमेशा के लिए नहीं त्यागेंगे। उसे उनकी वफादारी पर पूरा विश्वास था। इसीलिए उसने कहा कि संकट की घड़ी टल जाने के बाद वह उन्हें फिर से गलील में मिलेगा। उसने वादा किया: “मैं अपने जी उठने के बाद तुम से पहले गलील को जाऊंगा।”—मत्ती 26:32.
18. गलील में यीशु ने अपने चेलों को कौन-सा काम सौंपा, और उसके चेलों ने इस ज़िम्मेदारी को कैसे पूरा किया?
18 यीशु ने अपना वादा ज़रूर निभाया। अपने जी उठने के बाद वह गलील में गया और अपने ग्यारह वफादार शिष्यों से मिला, जो वहाँ कुछ शिष्यों के साथ इकट्ठा हुए थे। (मत्ती 28:16, 17; 1 कुरिन्थियों 15:6) और वहाँ उसने उन्हें एक बहुत ही भारी काम सौंपा। उसने उनसे कहा: “तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रात्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ।” (मत्ती 28:19, 20) प्रेरितों की किताब से पता चलता है कि पहली सदी में यीशु के चेले राज्य की खुशखबरी सुनाने के काम में पूरी वफादारी से लगे रहे और अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा किया।—प्रेरितों 2:41, 42; 4:33; 5:27-32.
19. इस घटना से हम यीशु के मन के बारे में क्या सीख सकते हैं?
19 यहाँ हमने जो कुछ देखा, उससे हम यीशु के मन के बारे में क्या सीखते हैं? यीशु ने अपने चेलों की बड़ी-से-बड़ी कमज़ोरी को देखा था। लेकिन फिर भी वह उनसे “अन्त तक . . . प्रेम रखता रहा।” (यूहन्ना 13:1) उनकी गलतियों और कमज़ोरियों के बावजूद उसने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी और हमेशा उन्हें इस बात का एहसास दिलाया। यीशु के चेले उसके इस विश्वास और उम्मीद पर खरे उतरे, क्योंकि उसके इसी विश्वास ने उन्हें अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने की ताकत दी।
20, 21. हम अपने भाइयों के बारे में सही नज़रिया कैसे रख सकते हैं?
20 तो फिर, हम कैसे दिखा सकते हैं कि हममें भी मसीह का मन है? हमें अपने भाइयों की कमज़ोरियों और गलतियों पर नहीं, बल्कि उनकी खूबियों और अच्छाइयों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी वफादारी पर कभी शक नहीं करना चाहिए। अगर आप हमेशा बुरा ही सोचते हैं, तो यह आपकी बोलचाल से ज़ाहिर होगा। (लूका 6:45) बाइबल हमसे कहती है कि प्रेम “सब बातों पर विश्वास करता है।” (1 कुरिन्थियों 13:7, NHT) अगर हममें प्रेम है तो यीशु की तरह हम अपने भाइयों पर से कभी उम्मीद नहीं खोएँगे, आशा रखेंगे, पूरा विश्वास रखेंगे कि वे वफादार हैं। जब हम उनको इस विश्वास का एहसास दिलाएँगे तो इससे उनका हौसला बढ़ेगा, उनकी उन्नति होगी। (1 थिस्सलुनीकियों 5:11) तब वे हमारी बात सुनेंगे और दिल लगाकर अपना काम पूरा करेंगे। प्यार-मुहब्बत के दो शब्द दुनिया जीत सकते हैं, डरा-धमकाकर बात करने से कोई फायदा नहीं होता।
21 सो, अगर हमें “मसीह का मन” पैदा करना है, तो हमें सिर्फ बाहरी तौर पर यीशु की नकल नहीं करनी चाहिए। अगर हम चाहते हैं कि हमारा स्वभाव सचमुच यीशु की तरह हो, तो जैसे हमने पिछले लेख में देखा, हमें अपने अंदर उसकी भावनाएँ, उसके सोच-विचार पैदा करने चाहिए। अब आइए हम अगले लेख में देखें कि यहोवा द्वारा दिए गए काम को यीशु किस नज़र से देखता था। खुशखबरी की किताबें इसे समझने में हमारी मदद करती हैं।
[फुटनोट]
a इस चिट्ठी में यह जालसाज़ बताता है कि यीशु दिखने में कैसा था, उसके बाल कैसे थे, उसका कद क्या था, उसका रंग क्या था, उसकी आँखों का रंग क्या था, उसकी दाढ़ी कैसी थी, वगैरह-वगैरह। बाइबल अनुवादक ऎड्गर जे. गुडस्पीड के मुताबिक यह जालसाज़ी “उस समय के चित्रकारों की निर्देशपुस्तक में यीशु के रूप-रंग के वर्णन का सबूत देने के लिए की गयी थी।”
b यीशु के पास अलग-अलग उम्र के बच्चे आए थे। यह हम कैसे कह सकते हैं? मरकुस यहाँ ‘बालक’ के लिए जिस यूनानी शब्द [पैदियॉन] का इस्तेमाल करता है, वही शब्द वह याईर की बारह साल की बेटी के लिए भी इस्तेमाल करता है। (मरकुस 5:39, 42; 10:13) साथ ही, जब लूका 18:15 में हम ऊपर बतायी गयी घटना पढ़ते हैं, तो लूका ‘बच्चे’ [ब्रॆफॉस] यह शब्द इस्तेमाल करता है, जिसका यूनानी में मतलब है ‘शिशु।’—लूका 1:41; 2:12.
c अप्रैल 1, 1998 की प्रहरीदुर्ग का लेख “क्या आप दूसरों की गरिमा की कदर करते हैं?” देखिए।
क्या आप समझा सकते हैं?
• जब यीशु के चेलों ने बच्चों को उसके पास आने से रोकने की कोशिश की, तो उसने क्या किया?
• यीशु ने किन तरीकों से हमदर्दी दिखायी?
• यीशु की तरह हम भी कैसे दूसरों पर भरोसा रख सकते हैं?
• यीशु की तरह हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम अपने भाइयों की वफादारी पर पूरा विश्वास करते हैं?
[पेज 16 पर तसवीर]
बच्चे बेझिझक यीशु की गोद में बैठते थे
[पेज 17 पर तसवीर]
यीशु दूसरों के साथ हमदर्दी से पेश आता था
[पेज 18 पर तसवीर]
जिन प्राचीनों के पास लोग बेझिझक और आसानी से आ सकते हैं वे कलीसिया के लिए वरदान होते हैं