यीशु का जीवन और सेवकाई
यीशु विनम्रता के विषय में एक सबक़ देता है
कैसरिया फिलिप्पी के पास के इलाके में दुष्टात्मा-ग्रस्त लड़के को स्वस्थ करने के बाद, यीशु वापस अपने घर कफरनहूम लौटना चाहता है। बहरहाल, सफ़र में वह अपने शिष्यों के साथ अकेला रहना चाहता है ताकि वह उन्हें अपनी मौत और उसके बाद उनकी ज़िम्मेदारियों के लिए और अधिक तैयार कर सके। वह उन्हें समझाता है कि “मनुष्य का पुत्र मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाएगा, और वह मरने के तीन दिन बाद जी उठेगा।”
हालाँकि यीशु ने इसके बारे में पहले भी बात की थी, और तीन प्रेरितों ने वास्तव में उसके चेहरे का रूप बदलते हुए भी देखा था, जिस घटना के दौरान उसके “विदा होने” की बात भी की गयी थी, उसके शिष्यों को इस मामले के बारे में अब भी पूरी समझ हासिल नहीं हुई है। हालाँकि उन में से कोई यह इन्कार करने की कोशिश नहीं करता कि उसे मार दिया जाएगा, जैसा पतरस ने पहले किया था, फिर भी वे उस से इसके बारे में अधिक सवाल पूछने से डरते हैं।
आख़िर वे कफरनहूम पहुँच जाते हैं, जो यीशु की सेवकाई के दौरान उसका एक क़िस्म का मूलस्थान रहा है। यह पतरस और कई अन्य प्रेरितों का भी नगर है। वहाँ, मंदिर के लिए कर लेनेवाले लोग पतरस के पास आते हैं। यीशु को स्वीकृत रिवाज़ के किसी उल्लंघन में शायद उलझाने की कोशिश करते हुए, वे पूछते हैं: “क्या तुम्हारा गुरु दो द्राख्मा [मंदिर का] कर नहीं देता?”
“हाँ, देता तो है,” पतरस जवाब देता है।
यीशु, जो कुछ देर बाद उस घर में आया होगा, जानता है क्या हुआ है। तो पतरस के उस मामले का ज़िक्र करने से भी पहले, यीशु पूछता है: “हे शमौन, तू क्या समझता है? पृथ्वी के राजा महसूल या कर किन से लेते हैं? अपने पुत्रों से या परायों से?”
“परायों से,” पतरस जवाब देता है।
“तो पुत्र कर देने से मुक्त हैं,” यीशु कहता है। चूँकि यीशु का पिता इस विश्व के राजा हैं, वही जिसकी उपासना मंदिर में होती है, तो दरअसल परमेश्वर के पुत्र को मंदिर का कर अदा करना एक विधिक आवश्यकता नहीं है। “तौभी इसलिए कि हम उन्हें ठोकर न खिलाएँ,” यीशु कहता है, “तू झील के किनारे जाकर बंसी डाल, और जो मछली पहले निकले, उसे ले; तो तुझे उसका मुँह खोलने पर एक [चार द्राख्मा का] सिक्का मिलेगा, उसी को लेकर मेरे और अपने बदले उन्हें दे देना।”
कफरनहूम लौटने के बाद जब शिष्य, शायद पतरस के घर में, इकट्ठा होते हैं, वे पूछते हैं: “स्वर्ग के राज्य में बड़ा कौन है?” यीशु को पता है कि उनका यह सवाल किस बात से प्रेरित हुआ है, चूँकि वह जानता है कि कैसरिया फिलिप्पी से लौटते समय जब वे उसके पीछे-पीछे धीरे से आ रहे थे, तब उनके बीच क्या हो रहा था। इसलिए वह पूछता है: “रास्ते पर तुम किस बात पर विवाद करते थे?” शर्मिन्दा होकर, शिष्य चुप रहते हैं, इसलिए कि उन्होंने आपस में बहस की थी कि उन में सबसे बड़ा कौन है।
यीशु के शिक्षण के तक़रीबन तीन साल बाद, क्या यह ताज्जुब की बात है कि उसके शिष्यों में ऐसी बहस होती? ख़ैर, यह मानवीय अपरिपूर्णता और साथ ही धार्मिक पृष्ठभूमि का एक ज़ोरदार प्रभाव प्रकट करता है। यहूदी धर्म में, जिस में शिष्य बड़े हो गए थे, हर प्रकार के लेन-देन में पद या दरजे पर ज़ोर दिया जाता था। इसके अलावा, शायद पतरस श्रेष्ठ महसूस कर रहा था, चूँकि यीशु ने उस से राज्य की कुछेक “कुंजियाँ” देने का वादा किया था। याकूब और यूहन्ना को भी उसी तरह के विचार आए होंगे, चूँकि उन्हें यीशु के रूपांतरण देखने का अनुग्रह प्राप्त था।
बात चाहे जो हो, उनके रवैये को सुधारने की कोशिश में यीशु एक हृदयस्पर्शी प्रदर्शन आयोजित करता है। एक बालक को बुलाकर, वह उसे उनके बीच में खड़ा करता है, अपनी बाँह उसके कन्धे पर रखता है, और कहता है: “यदि तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे। जो कोई अपने आप को इस बालक के समान छोटा करेगा, वह स्वर्ग के राज्य में बड़ा होगा। और जो कोई मेरे नाम से एक ऐसे बालक को ग्रहण करता है, वह मुझे ग्रहण करता है।”
अपने शिष्यों को सुधारने का यह क्या ही बढ़िया तरीक़ा है! यीशु उनसे नाराज़ होकर उन्हें घमण्डी, लोभी या महत्त्वाकांक्षी नहीं कहता। नहीं, लेकिन वह छोटे बच्चों की मिसाल देकर, जो कि स्वाभाविक रूप से निरंहकार, महत्त्वाकांक्षा से मुक्त हैं, और जो आम तौर से आपस में पदवी का कोई विचार नहीं करते, अपनी सुधारक सीख को दृष्टान्त रूप देता है। इस प्रकार, यीशु दिखाता है कि उसके शिष्यों को वही गुण विकसित करने हैं, जो विनम्र बच्चों के होते हैं। जैसा कि यीशु समाप्त करता है: “जो तुम में छोटा है, वही बड़ा है।” मत्ती १७:२२-२७, न्यू.व.; १८:१-५; मरकुस ९:३०-३७; लूका ९:४३-४८.
◆ कफरनहूम से लौटते समय, यीशु कौनसे उपदेश को दोहराता है, और शिष्यों की प्रतिक्रिया क्या होती है?
◆ यीशु मंदिर का कर अदा करने के लिए बाध्य क्यों नहीं, परन्तु वह उसे क्यों चुकाता है?
◆ शिष्यों की बहस में शायद कौनसी बातें सहायक थीं, और यीशु ने उन्हें कैसे सुधारा?