“हमें प्रार्थना करना सिखा दे”
“उसके चेलों में से एक ने उस से कहा: ‘हे प्रभु, हमें प्रार्थना करना सिखा दे।’”—लूका ११:१, न्यू.व.
१-३. (अ) यीशु के शिष्यों ने प्रार्थना के विषय में निर्देश क्यों माँगा? (ब) प्रार्थना के विषय में कौनसे सवाल उठते हैं?
कुछ लोगों ने एक बहुत ही मधुर गाने की आवाज़ पायी है। दूसरों को संगीतकारों के रूप में स्वाभाविक प्रतिभा है। लेकिन उनकी उच्चतम अन्तःशक्ति तक पहुँचने के लिए, इन गायकों और वादकों को भी निर्देश की ज़रूरत है। प्रार्थना के विषय में भी उसी तरह है। यीशु मसीह के शिष्यों ने समझ लिया कि अगर वे चाहते थे कि परमेश्वर उनकी प्रार्थनाएँ सुनें, तो उन्हें निर्देश की ज़रूरत थी।
२ यीशु आम तौर से एकान्त में अपने पिता के पास प्रार्थना में जाता था, उसी तरह जैसे उसने १२ प्रेरितों को चुनने से पहले एक पूरी रात के लिए किया था। (लूका ६:१२-१६) हालाँकि उसने अपने शिष्यों को भी एकान्त में प्रार्थना करने के लिए प्रोत्साहित किया, उन्होंने उसे लोगों के सामने प्रार्थना करते सुना था और उन्होंने देखा था कि वह उन धार्मिक कपटियों के समान न था, जो लोगों को दिखाने के लिए प्रार्थना करते थे। (मत्ती ६:५, ६) तो फिर, तर्कसंगत रूप से, यीशु के अनुयायी प्रार्थना के विषय पर उसका उच्च निर्देश चाहते थे। इस प्रकार, हम पढ़ते हैं: “फिर वह किसी जगह प्रार्थना कर रहा था: और जब वह प्रार्थना कर चुका, तो उसके चेलों में से एक ने उस से कहा; हे प्रभु, जैसे [बपतिस्मा देनेवाले] यूहन्ना ने अपने चेलों को प्रार्थना करना सिखलाया वैसे ही हमें भी तू सिखा दे।”—लूका ११:१.
३ यीशु ने कैसी प्रतिक्रिया दिखायी? हम उसकी मिसाल से क्या सीख सकते हैं? और हम किस तरह प्रार्थना के विषय में उसके निर्देशों से लाभ प्राप्त कर सकते हैं?
हमारे लिए सबक़
४. हमें “निरन्तर प्रार्थना” क्यों करते रहना चाहिए, और ऐसा करने का मतलब क्या है?
४ यीशु के शब्दों और प्रार्थना करनेवाले एक पुरुष के रूप में उसकी मिसाल से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। एक सबक़ यह है कि अगर परमेश्वर के परिपूर्ण पुत्र को नियमित रूप से प्रार्थना करने की ज़रूरत हुई, तो उसके अपरिपूर्ण शिष्यों को मार्गदर्शन, सान्त्वना और आध्यात्मिक पोषण के लिए परमेश्वर की ओर निरन्तर देखने की एक अधिक बड़ी आवश्यकता है। इसीलिए, हमें “निरन्तर प्रार्थना में लगे” रहना चाहिए। (१ थिस्सलुनीकियों ५:१७) बेशक, इसका यह मतलब नहीं कि हमें हर समय अक्षरशः अपने घुटनों पर होना चाहिए। उलटा, हमें सतत एक प्रार्थनापूर्ण रवैया बनाए रखना चाहिए। हमें ज़िन्दगी के सभी पहलुओं में मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर की ओर देखना चाहिए ताकि हम अन्तर्दृष्टि से कार्य कर सकें और उनका अनुमोदन हमें हमेशा प्राप्त हो।—नीतिवचन १५:२४.
५. जो समय हमें प्रार्थना के लिए रखना चाहिए, उस में कौनसी बातें दख़ल दे सकती हैं, और हमें इसके बारे में क्या करना चाहिए?
५ इन “आख़री दिनों” में, ऐसी कई बातें हैं जो उस समय में दख़ल दे सकती हैं, जो हमें प्रार्थना के लिए रखना चाहिए। (२ तीमुथियुस ३:१) लेकिन अगर पारिवारिक चिन्ताएँ, व्यापार की परेशानियाँ, और उसी तरह की बातें हमारे स्वर्गीय पिता को दी नियमित प्रार्थनाओं में दख़ल दे रही हैं, तो हम इस ज़िन्दगी की चिन्ताओं से बहुत दबे हुए हैं। ऐसी स्थिति को बिना देर किए सुधार दिया जाना चाहिए, इसलिए कि प्रार्थना न करने से विश्वास का अभाव हो जाता है। या तो हमें अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारियों को कम कर देना चाहिए या फिर हमें मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर की ओर अपने दिल को बार-बार तथा और भी ज़्यादा संजीदगी से फिराने के द्वारा, ज़िन्दगी की चिन्ताओं को प्रतिसंतुलित करना चाहिए। हमें “प्रार्थना के लिए सचेत” होना चाहिए।—१ पतरस ४:७.
६. हम अब किस प्रार्थना की जाँच करेंगे, और इसका उद्देश्य क्या है?
६ उस प्रार्थना में, जिसे आदर्श प्रार्थना कहा जाता है, यीशु ने अपने शिष्यों को सिखाया कि प्रार्थना किस तरह करनी चाहिए, न कि ठीक-ठीक क्या कहना चाहिए। लूका का वृत्तान्त मत्ती के वृत्तान्त से ज़रा अलग है क्योंकि ये अलग अवसरों के बारे में हैं। यीशु के अनुयायी और यहोवा के गवाह होने के नाते हमारी प्रार्थनाओं के तत्त्व के एक नमूने के तौर से हम इस प्रार्थना की जाँच करेंगे।
हमारे पिता और उनका नाम
७. यहोवा को “हमारे पिता” के तौर से संबोधित करने का ख़ास अनुग्रह किन को प्राप्त है?
७ “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है।” (मत्ती ६:९; लूका ११:२) चूँकि यहोवा मनुष्यजाति के सृष्टिकर्ता हैं और स्वर्गीय क्षेत्रों में रहते हैं, इसलिए उन्हें “हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है,” इस तरह से संबोधित करना उचित है। (१ राजा ८:४९; प्रेरितों के काम १७:२४, २८) “हमारे” शब्द का प्रयोग इस बात को स्वीकार करता है कि दूसरे लोगों का भी परमेश्वर के साथ एक नज़दीक़ी संबंध है। लेकिन किन लोगों को उन्हें अपने पिता के तौर संबोधित करने का अनियंत्रित ख़ास अनुग्रह प्राप्त है? सिर्फ़ उनके उपासक-परिवार के समर्पित, बपतिस्मा-प्राप्त व्यक्तियों को यह ख़ास अनुग्रह प्राप्त है। यहोवा को “हमारे पिता” कहने से सूचित होता है कि हमें परमेश्वर पर विश्वास है और हम समझते हैं कि उनके साथ मेल-मिलाप हासिल करने का एकमात्र आधार यीशु के छुड़ौती बलिदान की पूरी स्वीकृति ही है।—इब्रानियों ४:१४-१६; ११:६.
८. हमें यहोवा से प्रार्थना करने में समय बिताने के लिए क्यों तरसना चाहिए?
८ हमें अपने आप को स्वर्गीय पिता के कितने नज़दीक़ महसूस करना चाहिए! ऐसे बच्चों के जैसे जो अपने पिता के पास जाने से कभी नहीं थकते, हमें परमेश्वर से प्रार्थना करने में समय बिताने के लिए तरसना चाहिए। उनके आध्यात्मिक और भौतिक आशिषों के वास्ते गहरी एहसानमन्दी से प्रेरित होकर, हमें उनकी भलाई के लिए उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए। हमें उनके पास उन बोझों को, जिन से हम दब गए हैं, ले जाने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए, इस बात का यक़ीन करते हुए कि वह हमें सँभालेंगे। (भजन ५५:२२) हमें यक़ीन हो सकता है कि यदि हम विश्वस्त रहेंगे, तो आख़िर में सब कुछ ठीक हो जाएगा, इसलिए कि वह हमारी चिन्ता करते हैं।—१ पतरस ५:६, ७.
९. परमेश्वर के नाम के पवित्रीकरण के लिए प्रार्थना किस बात के लिए बिनती है?
९ “तेरा नाम पवित्र माना जाए।” (मत्ती ६:९; लूका ११:२) “नाम” शब्द से कभी-कभी स्वयं व्यक्ति ही सूचित होता है, और ‘पवित्र मानने (पवित्रीकृत करने, न्यू.व.)’ का मतलब है, “पवित्र करना, अलग रखना या पावन मानना।” (प्रकाशितवाक्य ३:४ से तुलना करें।) तो फिर, असल में, परमेश्वर के नाम के पवित्रीकरण के लिए प्रार्थना, एक ऐसी बिनती है कि यहोवा अपने आप को पवित्रीकृत करने के लिए कार्य करें। यह कैसे? उस सारी निन्दा को हटा देने के द्वारा जो उनके नाम पर पहले से अब तक बरसायी जा चुकी है। (भजन १३५:१३) उस लक्ष्य से, परमेश्वर बुराई को हटा देंगे, अपने आप को महान ठहराएँगे, और जातियों को जानने पर मजबूर करेंगे कि वह ही यहोवा हैं। (यहेज़केल ३६:२३; ३८:२३) अगर हम उस दिन को देखने के लिए तरसते हैं और यहोवा की महानता की सचमुच ही क़दर करते हैं, तो हम हमेशा उनके पास उस श्रद्धालु मनोवृत्ति के साथ आएँगे, जो “तेरा नाम पवित्र माना जाए,” इन शब्दों से सूचित होता है।
परमेश्वर का राज्य और उनकी इच्छा
१०. जब हम परमेश्वर के राज्य के आने के लिए प्रार्थना करते हैं, तो इसका मतलब क्या होता है?
१० “तेरा राज्य आए।” (मत्ती ६:१०; लूका ११:२) यहाँ उल्लेख किए गए राज्य का अर्थ यहोवा के उस सर्वश्रेष्ठ सत्ता से है, जो यीशु मसीह और उससे संबद्ध “पवित्र लोगों” के नियंत्रण में स्वर्ग के मसीहाई शासन के ज़रिए व्यक्त है। (दानिय्येल ७:१३, १४, १८, २७; यशायाह ९:६, ७; ११:१-५) उसके ‘आने’ के लिए प्रार्थना करने का मतलब क्या है? इसका मतलब है कि हम बिनती करते हैं कि परमेश्वर का राज्य ईश्वरीय शासकत्व के सभी पार्थिव विरोधियों के ख़िलाफ़ आए। राज्य द्वारा ‘उन सब पार्थिव राज्यों को चूर चूर करने और उनका अन्त कर डालने’ के बाद, यह पृथ्वी को एक सार्वभौम परादीस में बदल डालेगा।—दानिय्येल २:४४; लूका २३:४३.
११. अगर हम सारे विश्व में यहोवा की इच्छापूर्ति होते देखने के लिए तरसते हैं, तो हम क्या करेंगे?
११ “तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।” (मत्ती ६:१०) यह एक ऐसा निवेदन है कि परमेश्वर पृथ्वी के प्रति अपना उद्देश्य पूरा करे, जिस में उनके शत्रुओं को हटाना भी शामिल है। (भजन ८३:९-१८; १३५:६-१०) दरअसल, इस से सूचित होता है कि हम सारे विश्व में ईश्वरीय इच्छा पूरा होते देखने के लिए तरसते हैं। अगर यह बात हमारे दिल में है, तो हम हमेशा अपनी पूरी क़ाबिलियत के अनुसार यहोवा की इच्छानुरूप करेंगे। हम सच्चे दिल से ऐसी याचना नहीं कर सकते, अगर अपने मामले में हम ने उत्साह से परमेश्वर की इच्छापूर्ति करने की कोशिश नहीं की। तो फिर, अगर हम इस रीति से प्रार्थना कर रहे हैं, तो हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हम उस इच्छा के विपरीत कुछ भी नहीं करते, जैसे कि किसी अविश्वासी से प्रणय-निवेदन करना या संसारी तौर-तरीक़ों को अपनाना। (१ कुरिन्थियों ७:३९; १ यूहन्ना २:१५-१७) उलटा, हमें हमेशा ही मन में यह बात रखनी चाहिए कि ‘इस मामले में यहोवा की इच्छा क्या है?’ जी हाँ, अगर हम अपने पूरे मन से परमेश्वर से प्रेम रखते हैं, तो हम ज़िन्दगी के सारे मामलों में उनका निर्देश माँगेगें।—मत्ती २२:३७.
हमारी दिन भर की रोटी
१२. सिर्फ़ ‘दिन भर की रोटी’ के लिए निवेदन करने से हम पर कौनसा अच्छा असर होता है?
१२ “हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।” (मत्ती ६:११) लूका के वृत्तान्त में इस प्रकार लिखा गया है: “हमारी दिन भर की रोटी हर दिन हमें दिया कर।” (लूका ११:३) परमेश्वर से “दिन भर” की रोटी के लिए निवेदन करना हमारी दिन-प्रतिदिन की ज़रूरतों की देख-रेख करने के लिए परमेश्वर की क्षमता में हमारे विश्वास को बढ़ाता है। इस्राएलियों को “प्रतिदिन जाकर प्रतिदिन का भोजन (मन्ना) इकट्ठा” करना था, न कि सप्ताह का या उस से ज़्यादा समय का भोजन। (निर्गमन १६:४) यह स्वादिष्ट व्यंजन और अत्याधिक मात्रा में खाद्य-सामग्री के लिए एक प्रार्थना नहीं, बल्कि जैसे-जैसे वे सामने आती हैं, हमारे प्रतिदिन की ज़रूरतों की पूर्ति करने की एक प्रार्थना है। हमारी प्रतिदिन की रोटी के लिए निवेदन करना हमें लालची नहीं बनने की मदद करता है।—१ कुरिन्थियों ६:९, १०.
१३. (अ) एक सामान्य भावार्थ में, प्रतिदिन की रोटी के लिए निवेदन करने से क्या सूचित होता है? (ब) अगर मेहनत करने के बावजूद भी, गुज़ारा करने के लिए हमें मुश्किल से कुछ मिले, फिर भी हमारी मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए?
१३ एक सामान्य भावार्थ में, प्रतिदिन की रोटी के लिए निवेदन करने से सूचित होता है कि हम स्वतंत्र महसूस नहीं करते किन्तु खाने-पीने, कपड़े-लत्ते, और अन्य ज़रूरतों के लिए हमेशा ही परमेश्वर की ओर अपेक्षा से देखते हैं। उनके उपासक-परिवार के सदस्यों के रूप में, हम अपने पिता पर भरोसा तो करते हैं, लेकिन हम कुछ किए बिना ही बैठ नहीं जाते, यह सोचकर कि वह चमत्कारिक रूप से हमारे लिए प्रबंध करेंगे। हम काम करते हैं और हमारे पास जो भी साधन है, उसे भोजन और अन्य ज़रूरतें हासिल करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। फिर भी, हम सही रीति से प्रार्थना में परमेश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं, इसलिए कि हम इन प्रबंधों के पीछे हमारे स्वर्ग के पिता के प्रेम, बुद्धि और शक्ति देखते हैं। (प्रेरितों के काम १४:१५-१७; लूका २२:१९ से तुलना करें।) हमारे अध्यवसाय से शायद समृद्धि मिल सकती है। पर अगर मेहनत करने के बावजूद भी हमें मुश्किल से कुछ मिलता है, तो भी हम एहसानमन्द और संतुष्ट रहें। (फिलिप्पियों ४:१२; १ तीमुथियुस ६:६-८) वास्तव में, एक ईश्वर-परायण व्यक्ति जिसको सामान्य भोजन और कपड़ा-लत्ता मिलता है, वह शायद ऐसे व्यक्तियों से ज़्यादा खुश होगा जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं। हम फिर भी आध्यात्मिक रूप से अमीर हो सकते हैं। सचमुच, हमें विश्वास, आशा, और यहोवा के लिए प्रेम-भाव में ग़रीब होने की ज़रूरत नहीं, जिन के पास हमारी स्तुति और शुक्रिया हार्दिक प्रार्थनाओं में चढ़ती है।
हमारे अपराधों को क्षमा करना
१४. हम कौनसे क़र्ज़ों के लिए क्षमा माँगते हैं, और परमेश्वर उन पर क्या लागू करते हैं?
१४ “जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों (क़र्ज़दारों, न्यू.व.) को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों (क़र्ज़ों, न्यू.व.) को क्षमा कर।” (मत्ती ६:१२) लूका के वृत्तान्त में दिखाया गया है कि वे क़र्ज़ पाप हैं। (लूका ११:४) विरासत में पाया हुआ पापीपन हमें परमेश्वर की परिपूर्ण इच्छानुसार सब बातों को पूरा करने से रोकता है। इसलिए, एक अर्थ से, जब से हम ‘आत्मा के द्वारा जीने और चलने’ लगे हैं, ये कमियाँ परमेश्वर के प्रति हमारे क़र्ज़, या दायित्य रहे हैं। (गलतियों ५:१६-२५; रोमियों ७:२१-२५ से तुलना करें।) हमें ये क़र्ज़ इसलिए हैं कि हम अपरिपूर्ण हैं और इस वक़्त हम पूरी तरह से परमेश्वर के मानकों के अनुरूप नहीं बन सकते। इन पापों की क्षमा के लिए ही हमें प्रार्थना का ख़ास अनुग्रह प्राप्त है। यह खुशी की बात है कि परमेश्वर यीशु के छुड़ौती बलिदान का मूल्य इन क़र्ज़ों, या पापों पर लागू कर सकते हैं।—रोमियों ५:८; ६:२३.
१५. ज़रूरी अनुशासन के प्रति हमारी मनोवृत्ति कैसी होनी चाहिए?
१५ अगर हम परमेश्वर से हमारे क़र्ज़ों को माफ़ कर देने की अपेक्षा रखते हैं, तो हमें पश्चातापी होना और अनुशासन पाने के लिए तैयार होना चाहिए। (नीतिवचन २८:१३; प्रेरितों के काम ३:१९) चूँकि यहोवा हम से प्रेम करते हैं, वह हमें ऐसा अनुशासन देते हैं जो हमारे लिए अपनी कमज़ोरियों को सुधारने के वास्ते वैयक्तिक रूप से ज़रूरी है। (नीतिवचन ६:२३; इब्रानियों १२:४-६) अवश्य, हम खुश हो सकते हैं, अगर विश्वास और ज्ञान में वृद्धि करके, हम अपने मन को परमेश्वर के नियमों के इतना अनुरूप पाते हैं कि हम कभी भी जानबूझकर एक भी नियम का उल्लंघन नहीं करते। पर अगर हम पहचानते हैं कि हम ने थोड़ा-बहुत जानबूझकर अपराध किया है, तब क्या? तब हमें गहरे रूप से दुःखी होना चाहिए और क्षमा के लिए सच्चे दिल से प्रार्थना करनी चाहिए। (इब्रानियों १०:२६-३१) पाए गए उपदेश पर अमल करने के द्वारा, हमें जल्दी ही अपने मार्ग को दुरुस्त करना चाहिए।
१६. परमेश्वर से अपने पापों की क्षमा माँगते रहना क्यों फ़ायदेमन्द है?
१६ हमारे पापों को क्षमा करने के लिए परमेश्वर से नियमित रूप से अनुरोध करना फ़ायदेमन्द है। ऐसा करने से हमारा पापीपन हमारे सामने ही रहता है और इस से हम पर एक विनम्र कर देनेवाला असर होना चाहिए। (भजन ५१:३, ४, ७) हमें चाहिए कि हमारे स्वर्गीय पिता ‘हमारे पापों को क्षमा करें और हमें सब अधर्म से शुद्ध करें।’ (१ यूहन्ना १:८, ९) इसके अतिरिक्त, प्रार्थना में अपने पापों का ज़िक्र करने से हमें उनके ख़िलाफ़ सख़्ती से लड़ते रहने की मदद मिलती है। इस प्रकार छुड़ौती के लिए और यीशु के बहाए गए लहू के मूल्य के लिए हमारी ज़रूरत की हमें सतत याद भी दिलायी जाती है।—१ यूहन्ना २:१, २; प्रकाशितवाक्य ७:९, १४.
१७. क्षमा के लिए प्रार्थना करना दूसरों के साथ हमारे रिश्तों में किस तरह हमें सहायता कर सकता है?
१७ क्षमा के लिए प्रार्थना करना हमें ऐसे लोगों के प्रति, जो छोटी या बड़ी बातों में हमारे क़र्ज़दार हैं, दयावान, सहानुभूतिशील, और उदार होने में भी सहायता करता है। लूका के वृत्तान्त में कहा गया है: “हमारे पापों को क्षमा कर, क्योंकि हम भी अपने हर एक अपराधी को क्षमा करते हैं।” (लूका ११:४) दरअसल, हम परमेश्वर की ओर से क्षमा तभी हासिल करेंगे अगर हम ने पहले ही “अपने अपराधियों (क़र्ज़दारों, न्यू.व.) को,” यानी उन लोगों को, जो हमारे विरुद्ध पाप करते हैं, “क्षमा किया है।” (मत्ती ६:१२; मरकुस ११:२५) यीशु ने आगे कहा: “इसलिए यदि तुम मनुष्य के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गीय पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा। और यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा।” (मत्ती ६:१४, १५) अपने पापों की क्षमा के लिए प्रार्थना करने से हमें दूसरों की बरदाश्त करने और उन्हें क्षमा करने के लिए प्रेरित होना चाहिए। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “जैसे यहोवा ने तुम्हारे अपराध अबाधित रूप से क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो।”—कुलुस्सियों ३:१३, न्यू.व.; इफिसियों ४:३२.
परीक्षा और वह बुरा व्यक्ति
१८. हमें परमेश्वर को अपने प्रलोभनों और परीक्षाओं के लिए क्यों कभी दोष नहीं देना चाहिए?
१८ “और हमें परीक्षा में न ला।” (मत्ती ६:१३; लूका ११:४) इन शब्दों से यह सूचित नहीं होता कि यहोवा हमें पाप करने के लिए प्रलोभित करते हैं। धर्मशास्त्रों में कभी-कभी परमेश्वर के कुछ करने या कुछ उत्पन्न करने के बारे में बताया गया है, जिनकी वह सिर्फ़ अनुमति देते हैं। (रूत १:२०, २१; सभोपदेशक ११:५ से तुलना करें।) लेकिन “न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है,” शिष्य याकूब ने लिखा। (याकूब १:१३) इसलिए, हम अपने स्वर्ग के पिता को उन प्रलोभनों और बुरी बातों से ली जानेवाली परीक्षाओं के लिए कभी दोष न दें, इसलिए कि शैतान वह प्रलोभक है जो हमें परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने के लिए युक्ति से चलाने की कोशिश करता है।—मत्ती ४:३; १ थिस्सलुनीकियों ३:५.
१९. प्रलोभन के विषय में हम किस तरह प्रार्थना कर सकेंगे?
१९ इस बिनती से, कि “हमें परीक्षा में न ला,” हम असल में यहोवा से माँग करते हैं कि जब हमें उनकी अवज्ञा करने के लिए प्रलोभित किया या हम पर दबाव डाला जाता है, तब वह हमें वशीभूत होने न दें। हम अपने पिता को अपने क़दमों के लिए मार्ग दिखाने की बिनती कर सकते हैं ताकि हमारे रास्ते में ऐसा कोई भी प्रलोभन न आए जो हमारे लिए बहुत ही कठिन हो। इस संबंध में, पौलुस ने लिखा: “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा (विश्वासयोग्य, न्यू.व.) है: वह तुम्हें सामर्थ से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, बरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।” (१ कुरिन्थियों १०:१३) हम यहोवा से प्रार्थना कर सकते हैं कि वह हमें इस तरह निर्देशित करें कि हम अपने सहन के बाहर प्रलोभित न हों और जब हम बहुत ज़्यादा परेशान हों, तब वह हमें बच निकलने का रास्ता दें। प्रलोभन इब्लीस, हमारे पापी शरीर, और दूसरों की कमज़ोरियों से आते हैं, लेकिन हमारे प्रेममय पिता हमें इस तरह निर्देशित कर सकते हैं कि हम अभिभूत न हो जाएँ।
२०. “उस बुरे” से बचाए जाने के लिए प्रार्थना क्यों करनी चाहिए?
२० “परन्तु उस बुरे से बचा।” (मत्ती ६:१३, न्यू.व.) परमेश्वर निश्चय ही “उस बुरे,” शैतान को हमें अभिभूत करने से रोक सकते हैं। (२ पतरस २:९) और इब्लीस से बचाए जाने की ज़रूरत इस वक़्त से ज़्यादा और किसी भी समय में नहीं रही है, इसलिए कि उसे ‘बड़ा क्रोध है क्योंकि जानता है कि उसका थोड़ा ही समय और बाक़ी है।’ (प्रकाशितवाक्य १२:१२) हम शैतान की युक्तियों से अनजान नहीं, परन्तु वह भी तो हमारी कमज़ोरियों से अनजान नहीं है। इसलिए, हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि यहोवा हमें सिंह-समान विरोधी के चुंगल से बचाए रखे। (२ कुरिन्थियों २:११; १ पतरस ५:८, ९; भजन १४१:८, ९ से तुलना करें।) उदाहरणार्थ, अगर हम शादी करना चाह रहे हैं, तो हमें शायद यहोवा से प्रार्थना करने की ज़रूरत पड़ेगी कि वह हमें शैतान की युक्तियों से और संसारी रिश्ते बढ़ाने के प्रलोभन से बचाएँ, जिस का परिणाम अनैतिकता या किसी अविश्वासी से शादी करने के द्वारा परमेश्वर की अवज्ञा हो सकता है। (व्यवस्थाविवरण ७:३, ४; १ कुरिन्थियों ७:३९) क्या हम धन-दौलत के लिए तरसते हैं? तो शायद प्रार्थना की ज़रूरत होगी ताकि हमें जुआ खेलने या छल-कपट करने के प्रलोभन का प्रतिरोध करने की मदद मिल सके। यहोवा के साथ हमारे रिश्ते को तबाह करने के लिए उत्सुक, शैतान अपने प्रलोभनों के हथियार-घर में से कोई भी हथियार इस्तेमाल करेगा। तो हम अपने स्वर्ग के पिता से लगातार प्रार्थना करते रहें, जो कभी धर्मी को प्रलोभन से अभिभूत होने के लिए नहीं त्यागते और जो उस बुरे से बचाए जाने का प्रबंध करते हैं।
प्रार्थना से विश्वास और आशा बढ़ते हैं
२१. राज्य के लिए प्रार्थना करने से किस तरह हमारा फ़ायदा हुआ है?
२१ हमारे स्वर्ग के पिता को, जो हमें उस बुरे से बचाते हैं, हमें अत्याधिक मात्रा में आशिष देने में खुशी होती है। फिर भी, उन्होंने अपनी प्रिय प्रजा को इतनी देर के लिए “तेरा राज्य आए,” यह प्रार्थना क्यों करने दी है? ख़ैर, इन सालों में इस तरह प्रार्थना करने से राज्य के लिए हमारी अभिलाषा और क़दरदानी बढ़ गयी है। इस तरह की प्रार्थना से हमें इस परोपकारी स्वर्गीय राज्य की बड़ी आवश्यकता की याद आती है। इस से राज्य शासन के अधीन जीवन की आशा भी हमारे सामने रखी जाती है।—प्रकाशितवाक्य २१:१-५.
२२. हमारे स्वर्ग के पिता, यहोवा के प्रति प्रार्थना के संबंध में हमारी मनोवृत्ति सतत किस तरह होनी चाहिए?
२२ प्रार्थना से बेशक यहोवा में विश्वास बढ़ता है। जब वह हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देते हैं, तब हमारा रिश्ता शक्तिशाली बनता है। इसीलिए, हम हर दिन स्तुति, शुक्रिया, और बिनती के साथ उनकी ओर फिरने के लिए कभी थक न जाएँ। और ऐसा हो कि हम यीशु के अपने अनुयायियों के निवेदन के प्रति इस मददपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए एहसानमन्द रहें: “हे प्रभु, हमें प्रार्थना करना सिखा दे।”
क्या आप को याद है?
◻ हम एक प्रार्थना करनेवाले पुरुष के रूप में, यीशु के शब्दों और मिसाल से क्या सीख सकते हैं?
◻ हमारे स्वर्ग के पिता और उनके नाम के संबंध में हमें किस बात के लिए प्रार्थना करनी चाहिए?
◻ जब हम परमेश्वर के राज्य को आने और पृथ्वी पर उनकी इच्छा पूरा होने के लिए प्रार्थना करते हैं, तब हम किस बात का निवेदन कर रहे होते हैं?
◻ जब हम अपनी दिन भर की रोटी के लिए प्रार्थना करते हैं, तब हम किस की माँग कर रहे होते हैं?
◻ जब हम अपने क़र्ज़ों की क्षमा के लिए प्रार्थना करते हैं, तब इसका क्या मतलब होता है?
◻ प्रलोभन और उस बुरे, शैतान से बचाए जाने के बारे में प्रार्थना करना इतना अत्यावश्यक क्यों है?
[पेज 17 पर तसवीरें]
यीशु के अनुयायियों ने उस से कहा कि उन्हें प्रार्थना करना सिखा दें। क्या आप जानते हैं कि प्रार्थना के विषय में उसके उपदेश से हम किस तरह फ़ायदा उठा सकते हैं?