यहोवा द्वारा कौन अनुमोदित किए जाएंगे
“अपने उद्धार का कार्य्य पूरा करते जाओ . . .; क्योंकि परमेश्वर ही है, जिस ने अपनी सुइच्छा निमित्त तुम्हारे मन में इच्छा और काम, दोनों बातों के करने का प्रभाव डाला है।”—फिलिप्पियों २:१२, १३.
१, २. किस अवस्था में यीशु दैवी अनुमोदन का प्रख्यापन प्राप्त किया, और यह हमें दिलचस्पी क्यों उत्पन्न करनी चाहिए?
इतिहास का यह एक संधिकाल था। यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला परमेश्वर के संदेश का प्रचार कर रहा था और पश्चातापियों को पानी में निमज्जित कर रहा था। फिर एक मनुष्य पास आया, जो यूहन्ना जानता था कि धर्मी है; वह यीशु था। उस में कोई पाप नहीं था जिसके कारण उसे पश्चाताप करना था, फिर भी उसने ‘सब धार्मिकता को पूरा’ करने के लिए बपतिस्मा दिए जाने की माँग की।—मत्ती ३:१-१५.
२ यूहन्ना विनीत रूप से अनुपालन करने और यीशु का पानी से बाहर निकलने के बाद “आकाश खुल गया, और उसने परमेश्वर के आत्मा को कबूतर की नाईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा।” इसके अतिरिक्त, “यह आकाशवाणी हुई: “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिसे मैंने अनुमोदित किया है।” (मत्ती ३:१६, १७, न्यू.व; मरकुस १:११) क्या ही एक उद्घोषण! हम सब उसे प्रसन्न करने में आनन्द उठाते हैं जिसका हम आदर करते हैं। (प्रेरित ६:३-६; १६:१, २; फिलिप्पियों २:१९-२२; मत्ती २५:२१) फिरा, ज़रा कल्पना कीजिए कि आपको कैसे महसूस होगा, अगर सर्वशक्तिमान परमेश्वर घोषित करता है, ‘मैं तुम्हें अनुमोदित करता हूँ!’
३. परमेश्वर के अनुमोदन के सम्बन्ध में हममें किस विषय की चिन्ता होनी चाहिए?
३ क्या आज एक व्यक्ति को परमेश्वर द्वारा अनुमोदित होना सम्भव है? उदाहरणार्थ एक ऐसा मनुष्य की सोचा जो “परमेश्वर के जीवन से अलग किए” जाने से ‘आशाहीन और जगत में ईश्वररहित’ है। (इफिसियों २:१२; ४:१८) क्या वह इस स्थिति से यहोवा द्वारा अनुमोदित किए जाने की अनुगृहीत स्थिति में आ सकता है? अगर हाँ, तो कैसे? हम आगे देखेंगे।
उसके शब्दों का क्या अर्थ था?
४. (अ) परमेश्वर के प्रख्यापन में “अनुमोदित” के यूनानी शब्द का अर्थ क्या है? (ब) इस घटना में इस प्रयोग का विशेष महत्त्व क्यों है?
४ “मैं ने [यीशु को] अनुमोदित किया है” परमेश्वर के इन शब्दों के सुसमाचार अभिलेख यूनानी क्रियापद यूडोकियो का उपयोग करते हैं। (मत्ती ३:१७; मरकुस १:११; लूका ३:२२) इसका अर्थ है, “प्रसन्न होना, अनुकूल दृष्टि से देखना, पसंद करना,” और उसके संज्ञा रूप का अर्थ “सद्भाव, चाह, कृपादृष्टि, इच्छा, अभिलाषा” है। यूडोकियो दैवी अनुमोदन तक सीमित नहीं। उदाहरणार्थ मकिदुनिया के मसीही दूसरों के साथ आर्थिक रूप से हिस्सा लेने के लिए प्रसन्न” थे। (रोमियों १०:१; १५:२६; २ कुरिन्थियों ५:८; १ थिस्सलुनीकियों २:८; ३:१) तो भी, जो अनुमोदन यीशु ने पाया, वह परमेश्वर द्वारा अभिव्यक्त किया गया, मनुष्यों के द्वारा नहीं। यीशु के सम्बन्ध में यह शब्द उसके बपतिस्मा के बाद ही उपयोग किया गया। (मत्ती १७:५; २ पतरस १:१७) दिलचस्पी की बात है कि, लूका २:५२ एक अलग शब्द—खारिस—का इस्तेमाल करता है जो यीशु को बपतिस्मा नहीं पाए हुए एक जवान के रूप में दिखाता है, जिसने परमेश्वर और मनुष्यों से अनुमोदन पाया।
५. (अ) यह कैसे स्पष्ट है कि असम्पूर्ण मानव परमेश्वर द्वारा अनुमोदित किए जा सकते हैं? (ब) वे मनुष्य “जिनसे वह प्रसन्न है” कौन हैं?
५ क्या हम जैसे असम्पूर्ण मानवों को भी परमेश्वर का अनुमोदन पाना शक्य है? सौभाग्य से, उत्तर हाँ है। जब यीशु का जन्म हुआ, स्वर्गदूतों ने घोषित किया: “आकाश में परमेश्वर की महिमा और पृथ्वी पर उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न [यूडोकियास] है शान्ति हो।” (लूका २:१४) आक्षरिक यूनानी में स्वर्गदूत “सुख्यात मनुष्य” या ऐ “मनुष्य जिन्हें परमेश्वर अनुमोदित करता है,”a उनके लिए आनेवाली एक आशीष के बारे में गा रहे थे। प्रोफेसर हॅन्स बीटनहॉर्ड इस एन आन्थ्रपॉइस यूडोकियास के उपयोग के बारे में लिखता है: “यह सूक्ति उन मनुष्यों को सूचित करती है जिन से परमेश्वर प्रसन्न है . . . इसलिए हम यहाँ मनुष्य की प्रसन्नता पर विचार नहीं कर रहे हैं . . . हम परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ और दयामय इच्छा पर विचार कर रहे हैं जो अपने लिए उद्धार के लिए एक लोग चुनती है।” इस तरह जैसे कि यहोवा के गवाहों ने बहुत पहले से स्पष्ट किया है लूका २:१४ सूचित करता है कि समर्पण और बपतिस्मा के द्वारा असम्पूर्ण मनुष्यों को ऐसे मनुष्य बन सकते हैं जिन से परमेश्वर प्रसन्न हैं, जो परमेश्वर द्वारा अनुमोदित हैं।b
६. परमेश्वर के अनुमोदन के बारे में सीखने के लिए हमें अब भी क्या आवश्यक है?
६ किन्तु आप समझेंगे कि ‘मन बुरे कामों पर होने से परमेश्वर के बैरी’ बनने और हमारे न्यायी और बुद्धिमान परमेश्वर के सहयोगी के रूप में अनुमोदित होने में कितना अन्तर है। (कुलुस्सियों १:२१; भजन १५:१-५) इसलिए, भले ही आप यह जानने से राहत महसूस कर रहे होंगे कि मनुष्य भी अनुमोदित किए जा सकते हैं, आप यह जानना चाहेंगे कि इस में क्या अन्तर्ग्रस्त है। हम इस के बारे में परमेश्वर के भूतपूर्व व्यवहारों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।
उसने लोगों को स्वागत किया
७. निर्गमन १२:३८ परमेश्वर की मनोवृत्ति के सम्बन्ध में क्या सूचना देता है?
७ लूका २:१४ की घोषणा से सदियों पहले यहोवा ने लोगों को आने और उसकी उपासना करने के लिए आमंत्रित किया। अवश्य, परमेश्वर केवल इस्राएल की जाति से बर्ताव करता था, जो उसी के लिए समर्पित थी। (निर्गमन १९:५-८; ३१: १६, १७) यद्यपि, याद कीजिए, जब इस्राएल मिस्री दासता से निकल पड़ी तब “उनके साथ मिली जुली हुई एक भीड़ गई।” (निर्गमन १२:३८) ये गैर-इस्राएली, जिन्होंने परमेश्वर के लोगों के साथ व्यवहार किए होंगे और मिस्र पर आयी विपत्तियों को देखे हैं, अब इस्राएल के साथ जाना पसन्द किए। कुछ, सम्भवतः, पूर्ण रूप से धर्मान्तरित बनें।
८. इस्राएल में किन दो प्रकार के विदेशी निवास करते थे और उनके साथ इस्राएलियों के व्यवहार में अन्तर क्यों था?
८ नियम की व्यवस्था ने परमेश्वर और उसके लोगों के सम्बन्ध में गैर-इस्राएलियों की परिस्थिति को अभिस्वीकार किया। कुछ विदेशी उपनिवेशी थे जो केवल इस्राएल के देश में निवास कर रहे थे, जहाँ उन्हें बुनियादी नियमों का पालन करना था, जैसे कि जो हत्या के विरुद्ध थे और सब्त पालन के लिए आवश्यक थे। (नहेम्याह १३:१६-२१) इन उपनिवेशियों को भाइयों के रूप में अंगीकार करने के बजाय, एक इस्राएली उन से बात करते या व्यवहार करते समय यथोचित सावधानी के साथ चलते थे, क्योंकि वे तब तक परमेश्वर की जाति का भाग नहीं बन चुके थे। उदाहरणार्थ, जब कि एक इस्राएली को एक जानवर की, खून न बहायी हुई लाश, जो अपने आप मरा था, खरीदने या खाने की अनुमति नहीं थी, ऐसे विदेशी जो धर्मान्तरित नहीं थे ऐसे कर सकते थे। (व्यवस्थाविवरण १४:२१; यहेज़केल ४:१४) समय पर, इन विदेशी उपनिवेशियों में से कुछ भी अन्य विदेशियों के मार्ग का अनुकरण कर सकते थे, जो खतना किए हुए धर्मान्तरित बन गए। केवल तब ही उन्हें, सच्ची उपासना में, भाइयों के रूप में समझे जाते थे, जो सम्पूर्ण नियमों का पालन करने के लिए उत्तरदायी थे। (लैव्यव्यवस्था १६:२९; १७:१०; १९:३३ ३४; २४:२२) मोआबिन रूत और अमोरी कोढ़ी नामान, गैर-इस्राएली थे जिन्हें परमेश्वर ने स्वीकार किया।—मत्ती १:५, लूका ४:२७.
९. सुलैमान ने विदेशियों की ओर परमेश्वर की मनोवृत्ति की पुष्टि कैसे की?
९ राजा सुलैमान के दिनों में भी हम गैर-इस्राएलियों की ओर परमेश्वर की प्रीतिकर मनोवृत्ति देख सकते हैं। मन्दिर का उद्घाटन करते समय सुलैमान ने प्रार्थना की: “फिर परदेशी भी जो तेरी प्रजा इस्राएल का न हो, जब वह मेरा नाम सुनकर, दूर देश से आए . . . और इस भवन की ओर प्रार्थना करें, तब तू अपने स्वर्गीय निवासस्थान में से सुन . . . जिस से पृथ्वी के सब देशों के लोग तेरा नाम जानकर तेरी प्रजा इस्राएल की नाईं तेरा भय मानें।” (१ राजा ८:४१-४३) जी हाँ, यहोवा उन निष्कपट विदेशियों की प्रार्थनाएं स्वीकार कीं, जो उसे ढूँढते थे। शायद ये भी उसके नियम सीखेंगे, खतना करने की क्रिया को स्वीकार करेंगे और उसके अनुगृहीत लोगों के अंगीकृत सदस्य बनेंगे।
१०. कूशी खोजे के साथ यहूदियों ने कैसे बरताव किए होंगे, और खतना करना उसे कैसे लाभ पहुँचाया?
१० बाद में एक मनुष्य जिस ने ऐसा किया, दूर कूश देश की रानी कन्दाके का खजांची था। सम्भवतः, जब उस ने यहूदियों और उनकी उपासना के बारे में पहली बार सुना, उसकी जीवन-चर्य्या या धार्मिक रीतियाँ यहोवा के लिए अस्वीकार्य थीं। इसलिए, जब यह विदेशी मनुष्य उनके बीच परमेश्वर की अपेक्षाओं को सीखने के लिए नियम का अध्ययन कर रहा था, यहूदियों को कुछ अंश तक सहनशीलता दिखानी पड़ी होगी। स्पष्टतः उसने प्रगति की और खतना करने के योग्य बनने के लिए आवश्यक परिवर्तन किए। प्रेरितों के काम ८:२७ हमें बताता है कि वह “भजन करने को यरूशलेम आया था।” (निर्गमन १२:४८, ४९) यह सूचित करता है कि वह तब तक, एक पूर्ण धर्मान्तरित था। इस तरह, वह मसीहा को मानने और उसका बपतिस्मा पाया हुआ शिष्य बनने की अवस्था में था, जिसके द्वारा वह परमेश्वर की क्रमिक इच्छा के अनुसार आ सकता है।
अविश्वासियाँ और मसीही मण्डली
११, १२. (अ) जब उस कूशी ने बपतिस्मा लिया तब और कौन-सा परिवर्तन घटित हुआ (ब) यह फिलिप्पियों २:१२, १३ के अनुरूप है?
११ यीशु ने उसके शिष्यों से कहा: “इसलिए तुम जाकर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रात्मा के नाम से बपतिस्मा दो, और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी हैं, मानना सिखाओ।” (मत्ती २८:१९, २०) ठीक पहले उल्लिखित वह कूशी धर्मान्तरित के पास यहोवा और उसकी पवित्र आत्मा का ज्ञान पहले से था। इसलिए, ज्योंही फिलिप्पुस ने उस यीशु को परमेश्वर के मसीही पुत्र के रूप में समझने और स्वीकार करने के लिए मदद दी, उसे बपतिस्मा दिया जा सकता था। इस तरह वह यहोवा के लोगों का एक अनुमोदित सदस्य बन रहा था, जो मसीह का अनुगमन करता है। निस्सन्देह, उस से ‘आज्ञा की गई सब बातें मानना’ अपेक्षित था, इस तरह परमेश्वर के सामने वह उत्तरदायी था। लेकिन इस उत्तरदायित्व के साथ एक उत्तम प्रत्याशा आ गयी: उद्धार!
१२ बाद में, पौलुस ने लिखा कि सभी मसीहियों को ‘डरते और कांपते हुए अपने अपने उद्धार का कार्य्य पूरा करते’ रहना था। फिर भी ऐसे करना सम्भव था, “क्योंकि परमेश्वर ही है, जिस ने अपनी सुइच्छा [यूडोकियास] निमित्त तुम्हारे मन में इच्छा और काम, दोनों बातों के करने का प्रभाव डाला है।”—फिलिप्पियों २:१२, १३.
१३. मसीही उनके साथ कैसे बरताव किए होंगे जो बपतिस्मा लेने में उतने तेज़ नहीं थे जितना कि वह कूशी खोजा था?
१३ सभी जो सच्चे मसीहियों के सम्पर्क में आते थे उस कूशी के समान, जल्दी बपतिस्मा की ओर बढ़ने के लिए, तैयार और योग्य नहीं थे। कुछों को, यहूदी या धर्मान्तरित न होने के कारण, यहोवा और उसके मार्गों के बारे में ज्ञान बहुत कम या बिल्कुल नहीं था; ना ही उनके आचरण उसके स्तरों के अनुसार नियंत्रित है। उनके साथ कैसे बरताव किया जाएगा? मसीहियों को यीशु के उदाहरण का अनुकरण करना था। उसने निश्चित रूप से पाप को प्रोत्साहित नहीं किया या अनदेखी भी नहीं की। (यूहन्ना ५:१४) तो भी, वह उन पापियों की ओर सहनशील था, जो उसकी ओर आकर्षित थे और जो उनके मार्गों को परमेश्वर के मार्गों के बराबर लाने की इच्छा रखते थे।—लूका १५:१-७.
१४, १५. अभिषिक्त मसीहियों के अलावा कुरिन्थ की सभाओं में किस प्रकार के व्यक्तियाँ उपस्थित होते थे और आध्यात्मिक उन्नति के विषय में वे किस प्रकार अलग थे?
१४ यह बात, कि मसीहियों ने उन के साथ सहनशील रूप से बरताव किया जो परमेश्वर के बारे में सीख रहे थे, पौलुस के कुरिन्थ की सभाओं पर के विचारों से स्पष्ट है। आत्मा की अद्भुत भेंटों के उपयोग के बारे में चर्चा करते समय, जो प्रारम्भ में मसीही धर्म में परमेश्वर की आत्मा का होना सूचित करती थीं, पौलुस “विश्वासियों” और “अविश्वासियों” का उल्लेख करता है। (१ कुरिन्थियों १४:२२) “विश्वासी” वे थे जिन्होंने मसीह को स्वीकार किया और बपतिस्मा पाया। (प्रेरित ८:१३; १६:३१-३४) “बहुत से कुरिन्थी सुनकर विश्वास लाए और बपतिस्मा लिया।”—प्रेरित १८:८.
१५ १ कुरिन्थियों १४:२४ के अनुसार, ‘अविश्वासी या साधारण लोग’ भी कुरिन्थ की सभाओं में आते थे और वहाँ उनका स्वागत किया गया।c संभवतः, परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उसका विनियोग करने में उनकी प्रगति अलग-अलग थीं। शायद कुछ व्यक्तियाँ तब भी पाप करते थे। दूसरे कुछ परिमाण के विश्वास पाकर, अपनी ज़िन्दगियों में परिवर्तन कर चुके थे, और, बपतिम्सा के पहले से ही, दूसरों से उन्होंने जो सीखा कहने लगे थे।
१६. मण्डली की सभाओं में मसीहियों के बीच रहने से ऐसे व्यक्तियाँ कैसे लाभ उठा सकते थे?
१६ निस्सन्देह, इन बपतिस्मा नहीं पाए हुओं में कोई भी “प्रभु में” नहीं थे। (१ कुरिन्थियों ७:३९) अगर उनके अतीत में गम्भीर नैतिक और आध्यात्मिक कमियाँ थीं, तो स्वाभाविक रूप से उन्हें परमेश्वर के स्तरों के अनुरूप होने में समय लगे होंगे। इस दौरान, जब तक वे सभा के विश्वास और शुद्धता को विद्वेषपूर्वक नष्ट करने की कोशिश न करें, उनका स्वागत है। सभाओं में उन्होंने जो, देखा और सुना, उससे ‘उनके मन के भेद प्रगट हो जाने’ से वह ‘उन्हें दोषी ठहरा देंगे।’—१ कुरिन्थियों १४:२३-२५; २ कुरिन्थियों ६:१४.
उद्धार के लिए परमेश्वर द्वारा अनुमोदित रहना
१७. पहली सदी में लूका २:१४ की कौनसी पूर्ति हुई?
१७ पहली सदी में, बपतिस्मा पाए हुए मसीहियों के सार्वजनिक प्रचार कार्य के द्वारा हज़ारों ने सुसमाचार सुन लिया। उन्होंने जो सुना उस पर विश्वास रखा, उनके पिछले आचरण से पश्चाताप किए और बपतिस्मा लेकर, “उद्धार के लिए मुंह से अंगीकार” किए। (रोमियों १०:१०-१५; प्रेरित २:४१-४४; ५:१४; कुलुस्सियों १:२३) इस में कोई शक नहीं था कि उस समय बपतिस्मा पाए हुओं को यहोवा का अनुमोदन था, क्योंकि उसने उन्हें पवित्र आत्मा से अभिषिक्त करके, उन्हें आत्मिक पुत्रों के रूप में अंगीकार किया। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “अपनी इच्छा की सुमति [यूडोकियन] के अनुसार हमें अपने लिये पहिले से ठहराया, कि यीशु मसीह के द्वारा हम उसके लेपालक पुत्र हों।” (इफिसियों १:५) इस तरह, इस सदी के दौरान ही, यीशु के जन्म के समय स्वर्गदूतों ने जो भविष्यवाणी की थी, वह सच निकलने लगी: “उन मनुष्यों में जिनसे वह प्रसन्न है [या उन मनुष्यों में जिन्हें परमेश्वर का अनुमोदन है] शान्ति हो।”—लूका २:१४.
१८. अभिषिक्त मसीही परमेश्वर के साथ उनकी अनुमोदित अवस्था निश्चित क्यों नहीं समझ सकते थे?
१८ उस शान्ति को बनाए रखने के लिए उन मनुष्यों को “जिन में परमेश्वर प्रसन्न है” “डरते और काँपते हुए अपने अपने उद्धार का कार्य्य पूरा करते” रहना है। (फिलिप्पियों २:१२) यह आसान नहीं था, क्योंकि वे तब भी असम्पूर्ण थे। पाप करने के लिए उन्हें प्रलोभन और दबावों का सामना करना पड़ता था। अगर वे दुराचार की ओर झुक जाते वे परमेश्वर का अनुमोदन खो देते। इस तरह, यहोवा प्रेममय रीति से आध्यात्मिक चरवाहों की व्यवस्था की है, जो मंडली की दोनों मदद और रक्षा करते हैं।—१ पतरस ५:२, ३.
१९, २०. परमेश्वर ने कौन-कौनसे प्रबन्ध किए हैं ताकि बपतिस्मा पाए हुए मसीही उसके अनुमोदित सेवक बने रह सकते हैं?
१९ मण्डली के ऐसे प्राचीन पौलुस की सलाह पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे: “यदि कोई मनुष्य किसी अपराध में पकड़ा भी जाए, तो तुम जो आत्मिक हो, नम्रता के साथ ऐसे को संभालो, और अपनी भी चौकसी रखो, कि तुम भी परीक्षा में न पड़ो।” (गलतियों ६:१) जैसे कि हम समझ सकते हैं, एक विदेशी के समान जो इस्राएल में एक खतना किया हुआ धर्मान्तरित बनता है, एक व्यक्ति के पास जिसने बपतिस्मा का महत्त्वपूर्ण कदम लिया है अधिक उत्तरदायित्व है। फिर भी, अगर एक बपतिस्मा पाया हुआ मसीही पाप करता है, वह मण्डली में से प्रेममय मदद पा सकता है।
२० मण्डली के प्राचीनों का एक समूह उसे मदद दे सकते हैं, जो गम्भीर दुराचार में गिर जाता है। यहूदा ने लिखा: “उन पर जो शंका में हैं, दया करो। और बहुतों को आग में से झपटकर निकालो, और बहुतों पर भय के साथ दया करो; बरन उस वस्त्र से भी घृणा करो जो शरीर के द्वारा कलंकित हो गया है।” (यहूदा २२, २३) मण्डली का, इस तरह मदद की गयी, एक बपतिस्मा पाया हुआ सदस्य, यहोवा के अनुमोदन और उस शक्ति का, आनन्द उठाते रह सकता है, जिसके बारे में यीशु के जन्म के समय स्वर्गदूतों ने कहा था।
२१, २२. अगर कोई एक पश्चातापहीन पापी बन जाता है तब क्या परिणाम निकलेगा और मण्डली के वफादार सदस्य कैसी प्रतिक्रिया दिखाएंगे?
२१ असाधारण होने पर भी, कुछ ऐसी घटनाएं थीं, जहाँ पापी पश्चातापी नहीं था। तब तो उस साफ मण्डली की संदूषण से रक्षा करने के लिए, प्राचीनों को उसे बहिष्कृत करना पड़ेगा। कुरिन्थ में एक बपतिस्मा पाए हुए मनुष्य के साथ ऐसा घटित हुआ जो एक अनैतिक सम्बन्ध को बनाए रखा। पोलुस ने मण्डली को सलाह दी: “व्यभिचारियों की संगति न करना यह नहीं, कि तुम बिल्कुल इस जगत के व्यभिचारियों, या लोभियों, या अन्धेर करनेवालों या मूर्त्तिपूजकों की संगति न करो; क्योंकि इस दशा में तो तुम्हें जगत में से निकल जाना ही पड़ता। मेरा कहना यह है, कि यदि कोई भाई कहलाकर, व्यभिचारी, या लोभी, या मूर्तिपूजक, या गाली देनेवाला, या पियक्कड़, या अन्धेर करनेवाला हो, तो उसकी संगति मत करना; बरन ऐसे मनुष्य के साथ खाना भी न खाना।”—१ कुरिन्थियों ५:९-११.
२२ चूँकि उस कुरिन्थी मनुष्य ने बपतिस्मा का महत्वपूर्ण कदम उठाया था, जिससे वह परमेश्वर द्वारा अनुमोदित और उस सभा का एक सदस्य बनता है उसका बहिष्कृत करना भी एक गम्भीर मामला था। पौलुस ने सूचित किया कि मसीहियों को उसकी संगति नहीं रखनी थी क्योंकि उसने परमेश्वर के साथ की अपनी अनुमोदित अवस्था को अस्वीकार किया था। (२ यूहन्ना १०, ११ से तुलना करें।) पतरस ने ऐसे बहिष्कृत व्यक्तियों के बारे में लिखा: “धर्म के मार्ग का न जानना ही उन के लिए इससे भला होता, कि उसे जानकर, उस पवित्र आज्ञा से फिर जाते, जो उन्हें सौंपी गई थी। उन पर यह कहावत ठीक बैठती है कि कुत्ता अपनी छाँट की ओर फिर चला जाता है।”—२ पतरस २:२१, २२.
२३. पहली सदी में, परमेश्वर के अनुमोदन को बनाए रखने के विषय में मसीहियों के बीच सामान्य स्थिति क्या थी?
२३ स्पष्टतः यहोवा ऐसे व्यक्तियों को अनुमोदित व्यक्तियों के रूप में नहीं देख सकता था क्योंकि पश्चातापहीन पापियाँ होने के कारण बहिष्कृत किए गए थे। (इब्रानियाँ १०:३८; १ कुरिन्थियों १०:५ से तुलना करें) प्रत्यक्षतः केवल एक अल्पसंख्यक वर्ग ही बहिष्कृत किया गया था। उन में से अधिकांश जिन्होंने “पिता परमेश्वर की ओर से अनुग्रह और शान्ति” प्राप्त की और वे जिन्हें ‘अपनी इच्छा की सुमति के अनुसार लेपालक पुत्रों’ के रूप में स्वीकार किए गए थे, विश्वासी बने रहे।—इफिसियों १:२, ५, ८-१०.
२४. इस विषय का कौन-सा पहलू हमारे अधिक ध्यान के योग्य है?
२४ मौलिक रूप से हमारे समय में भी यही सही है। यद्यपि, यह विचार करें कि कैसे ‘अविश्वासी या साधारण लोगों’ की परमेश्वर द्वारा अनुमोदित बनने के लिए मदद की जा सकती है और अगर वे मार्ग में कहीं गलती करें तो उनकी सहायता के लिए क्या किया जा सकता है। आगामी लेख इन मामलों पर विचार करेगा।
[फुटनोट]
a जॉर्ज स्वॉन के न्यू टेस्टामेन्ट के “मनुष्य-जिन्हें-वह-अनुमोदित-करता है” से तुलना करें; द रिवाइज़ड् स्टॅन्डर्ड वर्शन, में “मनुष्य जिन से वह प्रसन्न था।”
b अक्तूबर १५, १९६४ के द वॉचटावर, पृष्ठ ६२९-३३ देखें।
c “मसीही चर्च के बचे हुओं की तुलना में, दोनों ἄπιστος (अपिस्तॉज़, ‘अविश्वासी’) और ιδιώτης (इडियॉतिज़, ‘वह जिसे समझ नहीं’, अन्वेषण करनेवाला’) अविश्वासी वर्ग में है।”—दि एक्सपोज़िटर्स बाइबल कम्मेन्टरी, खण्ड १०, पृष्ठ २७५.
क्या आप याद करते हैं?
◻ शास्त्रों के अनुसार, कब से और किस तरह मनुष्य परमेश्वर द्वारा अनुमोदित बन सकते हैं?
◻ अपने लोगों के बीच के विदेशियों के बारे में परमेश्वर का दृष्टिकोण क्या था लेकिन इस्राएलियों में सावधानी को सहनशीलता के साथ सन्तुलित रखने की आवश्यकता क्या थी?
◻ उस तथ्य से हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कुरिन्थ की मसीही सभाओं में ‘अविश्वासी’ आते थे?
◻ बपतिस्मा पाए हुए मसीहियों को उसके अनुमोदित सेवक बने रहने में मदद करने के लिए परमेश्वर ने कौनसी व्यवस्था की है?