मसीही, आत्मा और सच्चाई से उपासना करते हैं
“परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।”—यूहन्ना 4:24.
1. परमेश्वर को किस तरह की उपासना भाती है?
यहोवा के एकलौते पुत्र, यीशु मसीह ने साफ-साफ शब्दों में बताया कि उसके स्वर्गीय पिता को कैसी उपासना भाती है। सूखार नगर के पास एक कूएँ पर, यीशु ने एक सामरी स्त्री को बहुत ही उम्दा साक्षी दी। यीशु ने उससे कहा: “तुम जिसे नहीं जानते, उसका भजन करते हो; और हम जिसे जानते हैं उसका भजन करते हैं; क्योंकि उद्धार यहूदियों में से है। परन्तु वह समय आता है, बरन अब भी है जिस में सच्चे भक्त पिता का भजन आत्मा और सच्चाई से करेंगे, क्योंकि पिता अपने लिये ऐसे ही भजन करनेवालों को ढूंढता है। परमेश्वर आत्मा है, और अवश्य है कि उसके भजन करनेवाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें।” (यूहन्ना 4:22-24) इन शब्दों का क्या मतलब है?
2. सामरियों की उपासना का आधार क्या था?
2 धर्म और उपासना के बारे में सामरियों के बहुत-से गलत विचार थे। वे मानते थे कि बाइबल की सिर्फ पहली पाँच किताबें ईश्वर-प्रेरित हैं, और इन किताबों का उन्होंने अपने तरीके से अनुवाद कर रखा था। ये किताबें सामरी पंचग्रन्थ कहलाती थीं। सामरी सही मायनों में परमेश्वर को नहीं जानते थे, मगर दूसरी तरफ यहूदियों को शास्त्र का ज्ञान सौंपा गया था। (रोमियों 3:1, 2) न सिर्फ वफादार यहूदी बल्कि दूसरे लोग भी यहोवा का अनुग्रह पा सकते थे। मगर इसके लिए उन्हें क्या करने की ज़रूरत थी?
3. “आत्मा और सच्चाई” से परमेश्वर की उपासना करने के लिए क्या ज़रूरी है?
3 अगर यहूदी, सामरी और प्राचीनकाल के दूसरे लोग, यहोवा को खुश करना चाहते थे, तो उनको क्या करना था? उन्हें परमेश्वर की उपासना “आत्मा और सच्चाई” से करनी थी। और आज हमें भी वही करना चाहिए। परमेश्वर की उपासना, आत्मा से करने का एक मतलब है कि हमारे दिल में उसके लिए प्यार और विश्वास हो और हम उसकी सेवा जोश से करें। मगर, परमेश्वर की उपासना आत्मा से करने का खास मतलब यह है कि उसकी पवित्र आत्मा हम पर हो और हम उस आत्मा की बतायी राह पर चलें। परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उस पर अमल करने से, हमारी आत्मा यानी हमारे मन का परमेश्वर की आत्मा के साथ तालमेल होना चाहिए। (1 कुरिन्थियों 2:8-12) यहोवा हमारी उपासना स्वीकार करे, इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि हम सच्चाई से उसकी उपासना करें। और इसका मतलब है कि परमेश्वर के वचन, बाइबल में उसके और उसके उद्देश्यों के बारे में दी गयी सच्चाई के मुताबिक हम उसकी सेवा करें।
सच्चाई हासिल की जा सकती है
4. कुछ लोग सच्चाई के बारे में क्या मानते हैं?
4 तत्त्वज्ञान पढ़नेवाले कई विद्यार्थियों ने यह धारणा बना ली है कि परम सत्य, इंसान की पहुँच से बाहर है। दरअसल, स्वीडन के लेखक, आल्फ आलबर्ग ने लिखा: “तत्त्वज्ञान में उठनेवाले बहुत-से सवाल ऐसे हैं कि उनका कोई निश्चित जवाब देना मुमकिन नहीं है।” हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि हरेक व्यक्ति के लिए सच्चाई के मायने अलग-अलग हो सकते हैं, मगर क्या सचमुच ऐसा है? यीशु मसीह ऐसा नहीं मानता था।
5. यीशु जगत में क्यों आया?
5 आइए हम इस दृश्य की कल्पना करें जिसमें हम दर्शक हैं: सा.यु. 33 की शुरूआत है और यीशु, रोम के गवर्नर पुन्तियुस पीलातुस के सामने खड़ा है। यीशु, पीलातुस से कहता है: “मैं . . . इसलिये जगत में आया हूं कि सत्य पर गवाही दूं।” पीलातुस पूछता है: “सत्य क्या है?” मगर वह यीशु का जवाब सुनने के लिए नहीं रुकता।—यूहन्ना 18:36-38.
6. (क) “सत्य” की क्या परिभाषा दी गयी है? (ख) यीशु ने अपने चेलों को क्या काम सौंपा?
6 “सत्य” की परिभाषा यूँ दी गयी है: “वास्तविक वस्तुओं, घटनाओं और तथ्यों का समूह।” (वेब्स्टर्स नाइन्थ न्यू कॉलिजिएट डिक्शनरी) यीशु ने क्या किसी आम सच्चाई के बारे में गवाही दी? जी नहीं। उसने एक खास किस्म की सच्चाई के बारे में गवाही दी और पीलातुस से भी वह उसी सच्चाई का ज़िक्र कर रहा था। उसने अपने चेलों को इसी सच्चाई का ऐलान करने का काम सौंपा और उनसे कहा: “सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रात्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ।” (मत्ती 28:19, 20) जगत का अन्त होने से पहले, यीशु के सच्चे चेलों को सारी दुनिया में “सुसमाचार की सच्चाई” का ऐलान करना था। (मत्ती 24:3; गलतियों 2:14) ऐसा करने से यीशु के ये शब्द पूरे होते: “राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जाएगा, कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।” (मत्ती 24:14) इसलिए यह बेहद ज़रूरी है कि हम उन लोगों को पहचानें जो सब जातियों या देशों में राज्य का सुसमाचार प्रचार करके सच्चाई सिखा रहे हैं।
हम सच्चाई कैसे सीख सकते हैं
7. आप कैसे साबित करेंगे कि सच्चाई का ज्ञान यहोवा ही देता है?
7 यहोवा परमेश्वर ही आध्यात्मिक सच्चाइयों का ज्ञान देनेवाला है। दरअसल, भजनहार दाऊद ने यहोवा को “सत्यवादी ईश्वर” कहा। (भजन 31:5; 43:3) यीशु ने कहा कि उसके पिता का वचन सत्य है, और उसने यह भी कहा: “भविष्यद्वक्ताओं के लेखों में यह लिखा है, कि वे सब परमेश्वर की ओर से सिखाए हुए होंगे। जिस किसी ने पिता से सुना और सीखा है, वह मेरे पास आता है।” (यूहन्ना 6:45; 17:17; यशायाह 54:13) इससे साफ ज़ाहिर है कि जो सच्चाई की खोज करते हैं उन्हें महान उपदेशक, यहोवा से सीखना होगा। (यशायाह 30:20, 21) सच्चाई की खोज करनेवालों को “परमेश्वर का ज्ञान” हासिल करने की ज़रूरत है। (नीतिवचन 2:5) और यहोवा ने बड़े प्यार से अलग-अलग तरीके अपनाकर हमें सच्चाई सिखायी है या हम तक पहुँचायी है।
8. परमेश्वर ने किन तरीकों से सच्चाई हम तक पहुँचायी है?
8 मिसाल के लिए, परमेश्वर ने स्वर्गदूतों के ज़रिए इस्राएलियों को व्यवस्था पहुँचायी। (गलतियों 3:19) सपनों के ज़रिए, उसने इब्राहीम और याकूब जैसे कुलपिताओं से आशीषों का वादा किया। (उत्पत्ति 15:12-16; 28:10-19) यीशु का बपतिस्मा होने पर परमेश्वर ने आकाशवाणी भी की और इस धरती पर ये सनसनीखेज़ शब्द सुनायी दिए: “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिस से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं।” (मत्ती 3:17) हम परमेश्वर का इसलिए भी एहसान मान सकते हैं कि उसने बाइबल के लेखकों को सच्चाई लिखने की प्रेरणा दी। (2 तीमुथियुस 3:16, 17) इसलिए, परमेश्वर के वचन से सीखने पर हम “सत्य की प्रतीति” या उस पर विश्वास कर पाएँगे।—2 थिस्सलुनीकियों 2:13.
सच्चाई, और परमेश्वर का पुत्र
9. परमेश्वर ने सच्चाई ज़ाहिर करने के लिए अपने पुत्र को कैसे इस्तेमाल किया?
9 परमेश्वर ने खासकर अपने पुत्र, यीशु मसीह के ज़रिए इंसान पर सच्चाई ज़ाहिर की है। (इब्रानियों 1:1-3) दरअसल, यीशु ने जिस तरह सच्चाई का प्रचार किया, वैसा किसी और मनुष्य ने कभी नहीं किया था। (यूहन्ना 7:46) स्वर्ग जाने के बाद भी, यीशु ने अपने पिता से मिली सच्चाई को ज़ाहिर किया। मिसाल के लिए, प्रेरित यूहन्ना ने “यीशु मसीह का प्रकाशितवाक्य” पाया, “जो [यीशु को] परमेश्वर ने इसलिये दिया, कि अपने दासों को वे बातें, जिन का शीघ्र होना अवश्य है, दिखाए।”—प्रकाशितवाक्य 1:1-3.
10, 11. (क) यीशु ने जिस सत्य की गवाही दी, वह किस बारे में था? (ख) यीशु ने कैसे सत्य को हकीकत बनाया?
10 यीशु ने पुन्तियुस पीलातुस से कहा कि वह पृथ्वी पर सत्य की गवाही देने आया है। अपने प्रचार के दौरान, यीशु ने दिखाया कि यह सत्य, परमेश्वर के राज्य के ज़रिए इस विश्व पर यहोवा की हुकूमत को सच्चा ठहराने के बारे में है और इस राज्य का राजा खुद यीशु है। मगर सत्य की गवाही देने के लिए यीशु को सिर्फ प्रचार करना और सिखाना ही नहीं था। यीशु ने इस सच्चाई को पूरा करके इसे एक हकीकत का रूप दिया। इसीलिए, प्रेरित पौलुस ने लिखा: “कोई व्यक्ति तुम्हें खान-पान, त्यौहार, अमावस्या एवं विश्राम-दिवस-पालन के विषय में दण्डनीय न समझे। क्योंकि ये आनेवाली बातों की छाया मात्र हैं: मूल सत्य तो मसीह हैं।”—कुलुस्सियों 2:16, 17, नयी हिन्दी बाइबिल।
11 एक तरीका जिससे सत्य ने हकीकत का रूप लिया, बेतलेहेम में यीशु के पैदा होने की भविष्यवाणी का पूरा होना है। (मीका 5:2; लूका 2:4-11) सत्य ने तब भी हकीकत का रूप लिया जब 69 ‘सालों वाले सप्ताह’ के खत्म होने पर दानिय्येल की भविष्यवाणी पूरी हुई और मसीहा प्रकट हुआ। यह बिलकुल सही वक्त पर यानी सा.यु. 29 में हुआ, जब यीशु ने बपतिस्मे के वक्त खुद को यहोवा को अर्पित किया और उसे पवित्र आत्मा से अभिषिक्त किया गया। (दानिय्येल 9:25; लूका 3:1, 21, 22) सत्य तब और हकीकत बना, जब यीशु ने राज्य के प्रचारक की हैसियत से उजियाला फैलाया। (यशायाह 9:1, 2, 6, 7; 61:1, 2; मत्ती 4:13-17; लूका 4:18-21) उसकी मौत और पुनरुत्थान से भी इस सत्य को हकीकत का रूप मिला।—भजन 16:8-11; यशायाह 53:5, 8, 11, 12; मत्ती 20:28; यूहन्ना 1:29; प्रेरितों 2:25-31.
12. यीशु क्यों कह सका, ‘सच्चाई मैं ही हूं’?
12 सत्य, ज़्यादातर यीशु मसीह के बारे में था, इसलिए वह कह सका: “मार्ग और सच्चाई और जीवन मैं ही हूं; बिना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंच सकता।” (यूहन्ना 14:6) जब लोग परमेश्वर के उद्देश्य में यीशु की भूमिका को स्वीकार करके “सत्य के पक्ष” में हो जाते हैं, तब वे आध्यात्मिक मायनों में आज़ाद होते हैं। (ईज़ी-टू-रीड वर्शन) (यूहन्ना 8:32-36; 18:37) भेड़-समान लोग सच्चाई स्वीकार करके, विश्वास दिखाते हुए मसीह के पीछे हो लेते हैं, इसलिए उन्हें अनंत जीवन का वरदान मिलेगा।—यूहन्ना 10:24-28.
13. हम किन तीन क्षेत्रों में बाइबल की सच्चाई की जाँच करेंगे?
13 यीशु ने और परमेश्वर की प्रेरणा पाकर उसके चेलों ने जो सच्चाइयाँ हम तक पहुँचायीं, वे ही सच्चा मसीही विश्वास हैं। जो लोग “इस विश्वास को स्वीकार” करते हैं, वे ‘सत्य पर चलते रहते हैं।’ (प्रेरितों 6:7, नयी हिन्दी बाइबिल; 3 यूहन्ना 3,4) तो फिर, आज सत्य पर चलनेवाले ये लोग कौन हैं? कौन हैं जो सब देशों को सही मायनों में सच्चाई सिखा रहे हैं? इन सवालों का जवाब देते वक्त, हम शुरू के मसीहियों पर खास ध्यान देंगे और जाँच करेंगे कि उनके (1) विश्वासों, (2) उपासना करने के तरीके और (3) निजी चालचलन के बारे में बाइबल की सच्चाई क्या बताती है।
विश्वासों के बारे में सच्चाई
14, 15. पवित्रशास्त्र बाइबल के बारे में शुरू के मसीहियों और यहोवा के साक्षियों के रवैए के बारे में आप क्या कहेंगे?
14 शुरू के मसीही, यहोवा के लिखित वचन की दिल से इज़्ज़त करते थे। (यूहन्ना 17:17) उनके विश्वासों और कामों का आधार परमेश्वर का वचन था। दूसरी और तीसरी सदी में, सिकंदरिया के क्लैमेंट ने कहा: “जो श्रेष्ठता हासिल करने की कोशिश करते हैं, वे सच्चाई की तलाश में तब तक लगे रहते हैं, जब तक उन्हें शास्त्र से अपने विश्वासों का सबूत नहीं मिल जाता।”
15 शुरू के मसीहियों की तरह, यहोवा के साक्षी भी बाइबल की बहुत इज़्ज़त करते हैं। वे मानते हैं कि “हर एक पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश . . . के लिये लाभदायक है।” (2 तीमुथियुस 3:16) आज यहोवा के सेवकों की खास किताब बाइबल ही है। इसलिए आइए यहोवा के सेवकों ने इससे जो सीखा है, उसकी तुलना हम शुरू के मसीहियों के कुछ विश्वासों से करें।
मरे हुओं के बारे में सच्चाई
16. मरे हुओं की हालत के बारे में सच्चाई क्या है?
16 शुरू के मसीही, शास्त्र में लिखी सच्चाई पर विश्वास करते थे, इसलिए वे मरे हुओं की हालत के बारे में सच्चाई सिखाते थे। वे मानते थे कि जब इंसान मरता है, तो उसके शरीर से आत्मा जैसा कुछ निकलकर नहीं जाता। उन्हें यह भी मालूम था कि “मरे हुए कुछ भी नहीं जानते।”—सभोपदेशक 9:5, 10.
17. मरे हुओं के लिए क्या आशा है?
17 मगर, यीशु के शुरू के चेलों की यह पक्की आशा थी कि जो मरे हुए परमेश्वर की याद में हैं, उनका पुनरुत्थान किया जाएगा यानी उन्हें दोबारा जीवित किया जाएगा। इस विश्वास को पौलुस ने बहुत बढ़िया तरीके से ज़ाहिर किया: “[मैं] परमेश्वर से आशा रखता हूं . . . कि धर्मी और अधर्मी दोनों का जी उठना होगा।” (प्रेरितों 24:15) कुछ समय बाद, मसीही होने का दावा करनेवाले मीनूकियुस फेलिक्स ने लिखा: “ऐसा मूर्ख या नासमझ कौन हो सकता है जो यह दावा करने की जुर्रत करे कि जिस परमेश्वर ने शुरू में इंसान को बनाया था, वह इंसान के मरने के बाद उसे दोबारा नहीं बना सकता?” शुरू के मसीहियों की तरह, यहोवा के साक्षी भी मरे हुओं के बारे में और पुनरुत्थान के बारे में बाइबल की सच्चाई को मानते हैं। आइए अब परमेश्वर और मसीह क्या हैं, इस बारे में सच्चाई पर चर्चा करें।
त्रियेक के बारे में सच्चाई
18, 19. ऐसा क्यों कहा जा सकता है कि त्रियेक की शिक्षा बाइबल से नहीं है?
18 शुरू के मसीही, परमेश्वर, मसीह और पवित्र आत्मा को त्रियेक नहीं मानते थे। दी इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका कहती है: “नए नियम में न तो शब्द त्रियेक आता है, न ही सीधे-सीधे शब्दों में यह शिक्षा सिखायी गयी है। यीशु और उसके चेलों ने भी ऐसा कुछ नहीं सिखाया, जो पुराने नियम के शेमा [इब्रानियों की प्रार्थना] के खिलाफ हो: ‘हे इस्राएल, सुन, प्रभु हमारा परमेश्वर एक ही है’ (व्यव. 6:4)।” मसीही, रोमी देवताओं की त्रिमूर्ति या किसी और देवता की पूजा नहीं करते थे। वे यीशु की कही इस बात को मानते थे कि सिर्फ यहोवा की ही उपासना की जानी चाहिए। (मत्ती 4:10) यही नहीं, वे मसीह के इन शब्दों पर भी यकीन करते थे: “पिता मुझ से बड़ा है।” (यूहन्ना 14:28) यहोवा के साक्षी भी आज यही मानते हैं।
19 यीशु के शुरू के चेलों को परमेश्वर, मसीह और पवित्र आत्मा के बीच फर्क बहुत अच्छी तरह पता था। असल में, वे तो चेलों को (1) पिता, (2) पुत्र, और (3) पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दिया करते थे, किसी त्रियेक के नाम से नहीं। वैसे ही आज, यहोवा के साक्षी बाइबल की सच्चाई सिखाते हैं और इसलिए जानते हैं कि पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अलग-अलग हैं।—मत्ती 28:19.
बपतिस्मे के बारे में सच्चाई
20. बपतिस्मा लेनेवालों के लिए क्या ज्ञान हासिल करना ज़रूरी है?
20 यीशु ने अपने चेलों को आज्ञा दी कि वे लोगों को सच्चाई सिखाकर उन्हें चेले बनाएँ। बपतिस्मे के योग्य बनने के लिए, लोगों को बाइबल का बुनियादी ज्ञान हासिल करना ज़रूरी था। मिसाल के लिए, उन्हें पिता और उसके पुत्र, यीशु मसीह के पद और अधिकार को स्वीकार करना था। (यूहन्ना 3:16) बपतिस्मा लेनेवालों के लिए यह भी समझना ज़रूरी था कि पवित्र आत्मा कोई व्यक्ति नहीं बल्कि परमेश्वर की सक्रिय शक्ति है।—प्रेरितों 2:1-4.
21, 22. आप ऐसा क्यों कहते हैं कि बपतिस्मा सिर्फ विश्वास करनेवालों के लिए है?
21 शुरू के मसीही, सिर्फ ऐसे लोगों को बपतिस्मा देते थे जो परमेश्वर का ज्ञान लेकर, अपने पापों के लिए पश्चाताप करते हुए, अपनी ज़िंदगी परमेश्वर को समर्पित कर देते थे, ताकि बिना किसी शर्त के उसकी मरज़ी पूरी करें। सा.यु. 33 के पिन्तेकुस्त में, यरूशलेम में जो यहूदी और यहूदी-मतधारक इकट्ठे हुए थे, उन्हें इब्रानी शास्त्र का ज्ञान पहले से था। जब उन्होंने प्रेरित पतरस को मसीहा यानी यीशु के बारे में बात करते सुना, तो लगभग 3,000 लोगों ने “उसका वचन ग्रहण किया” और “बपतिस्मा लिया।”—प्रेरितों 2:41; 3:19–4:4; 10:34-38.
22 मसीही बपतिस्मा सिर्फ उन लोगों के लिए है जो विश्वास करते हैं। सामरिया के लोगों ने सच्चाई स्वीकार की, और “जब उन्होंने फिलिप्पुस का विश्वास किया जो परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार और यीशु के नाम का प्रचार करता था तो क्या पुरुष, क्या स्त्री—सब बपतिस्मा लेने लगे।” (प्रेरितों 8:12, NHT) कूश देश के खोजे ने यहूदी धर्म अपनाया था, उस श्रद्धालु को पहले से यहोवा का ज्ञान था। जब फिलिप्पुस ने उसे समझाया कि मसीहा की भविष्यवाणी कैसे पूरी हुई, तो उसने इन बातों पर विश्वास किया और फिर बपतिस्मा लिया। (प्रेरितों 8:34-36) बाद में, पतरस ने कुरनेलियुस और अन्यजाति के दूसरे लोगों से कहा कि “जो [परमेश्वर] से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है,” और हर कोई जो यीशु मसीह पर विश्वास करता है, पापों की माफी पाता है। (प्रेरितों 10:35, 43; 11:18) ये सब यीशु की इस आज्ञा के मुताबिक है, ‘लोगों को चेला बनाओ और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ।’ (मत्ती 28:19, 20; प्रेरितों 1:8) यहोवा के साक्षी भी ऐसा ही करते हैं। वे सिर्फ उन्हीं को बपतिस्मा देते हैं जिनको शास्त्र का बुनियादी ज्ञान है और जो परमेश्वर को अपना समर्पण कर चुके हैं।
23, 24. मसीहियों के बपतिस्मा लेने का सही तरीका क्या है?
23 विश्वास करनेवालों को बपतिस्मा देने का सही तरीका है, उन्हें पूरी तरह पानी में डुबकी देना। जब यरदन नदी में यीशु का बपतिस्मा हुआ, तब वह “पानी से निकलकर ऊपर आया।” (मरकुस 1:10) जब कूश देश के खोजे को बपतिस्मा दिया गया, तब वह और फिलिप्पुस, दोनों “जल में उतर पड़े” और फिर उसमें से “निकलकर ऊपर आए।” (प्रेरितों 8:36-40) बाइबल में बपतिस्मे को लाक्षणिक तरीके से गाड़ा जाना बताया गया है, जिससे पता चलता है कि पानी में पूरी तरह डुबकी दिलाए जाने से बपतिस्मा पाना चाहिए।—रोमियों 6:4-6; कुलुस्सियों 2:12.
24 दी ऑक्सफर्ड कम्पैनियन टू द बाइबल कहती है: “नए नियम में जिन-जिन लोगों के बपतिस्मे का ज़िक्र है, उससे यही पता चलता है कि बपतिस्मा लेनेवाले को पानी के नीचे पूरी तरह डुबकी दी जाती थी।” फ्रांसीसी किताब, बीसवीं सदी के लारूस (पैरिस, 1928) के मुताबिक, “शुरू के मसीही उन जगहों में पूरी तरह डुबोए जाकर बपतिस्मा लेते थे, जहाँ पानी होता था।” और यीशु के बाद—मसीहियत की जीत (अँग्रेज़ी) किताब कहती है: “बपतिस्मे का बुनियादी तरीका यही था कि [बपतिस्मा] लेनेवाला अपने विश्वास का ऐलान करे, और उसके बाद यीशु के नाम से पूरी तरह पानी में डुबोया जाए।”
25. अगले लेख में किस विषय पर चर्चा की जाएगी?
25 बाइबल के आधार पर मसीहियों के विश्वास और कामों के बारे में ऊपर दी गयी जानकारी में सिर्फ कुछ ही मुद्दों पर रोशनी डाली गयी है। उन मसीहियों के और भी कई ऐसे विश्वास थे, जो आज यहोवा के साक्षियों के विश्वासों से मेल खाते हैं। अगले लेख में, हम कुछ और तरीकों पर चर्चा करेंगे जिनसे हम सच्चाई सिखानेवालों को पहचान सकते हैं।
आप कैसे जवाब देंगे?
• परमेश्वर किस तरह की उपासना की माँग करता है?
• यीशु मसीह के ज़रिए सच्चाई हकीकत कैसे बनी?
• मरे हुओं के बारे में सच्चाई क्या है?
• मसीहियों में बपतिस्मा कैसे दिया जाता है, और बपतिस्मा लेनेवालों से क्या माँग की जाती है?
[पेज 16 पर तसवीर]
यीशु ने पीलातुस से कहा: ‘मैं इसलिये आया हूं कि सत्य पर गवाही दूं’
[पेज 17 पर तसवीर]
क्या आप बता सकते हैं कि यीशु ने क्यों कहा: ‘सच्चाई मैं ही हूं’?
[पेज 18 पर तसवीर]
मसीही बपतिस्मे के बारे में सच्चाई क्या है?