सच्चाई आपके लिए कितनी अनमोल है?
“[तुम] सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।”—यूहन्ना 8:32.
1. पीलातुस ने जिस “सत्य” के बारे में जानना चाहा और यीशु ने जिस “सत्य” के बारे में बात की, उनमें क्या फर्क था?
“सत्य क्या है?” जब पीलातुस ने यह सवाल पूछा तो वह शायद किसी खास अर्थ में नहीं बल्कि आम सच्चाई के बारे में जानना चाहता था। लेकिन यीशु का विचार उससे अलग था। उसने कुछ ही समय पहले कहा था: “मैं ने इसलिये जन्म लिया, और इसलिये जगत में आया हूं कि सत्य पर गवाही दूं।” (यूहन्ना 18:37, 38) यीशु ने पीलातुस की तरह आम सच्चाई की नहीं बल्कि परमेश्वर से मिलनेवाली सच्चाई के बारे में बात की।
सत्य के बारे में संसार का नज़रिया
2. यीशु के कौन-से बयान से पता चलता है कि सच्चाई अनमोल है?
2 पौलुस ने कहा: “हर एक में विश्वास नहीं।” (2 थिस्सलुनीकियों 3:2) उसी तरह सच्चाई हर इंसान में नहीं पायी जाती है। यहाँ तक कि जब लोगों को बाइबल के आधार पर सच्चाई जानने का मौका दिया जाता है, तो उनमें से कई जानबूझकर उसे ठुकरा देते हैं। मगर फिर भी, सच्चाई कितनी अनमोल है! यीशु ने कहा: “[तुम] सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा।”—यूहन्ना 8:32.
3. धोखा देनेवाली शिक्षाओं के बारे में हमें किस चेतावनी को मानना चाहिए?
3 प्रेरित पौलुस ने कहा कि इंसानी तत्त्वज्ञान और परंपराओं में सच्चाई नहीं पायी जा सकती। (कुलुस्सियों 2:8) वाकई, ऐसी शिक्षाएँ धोखा देती हैं। पौलुस ने इफिसुस के मसीहियों को चेतावनी दी कि अगर वे इन शिक्षाओं पर विश्वास करेंगे तो वे आध्यात्मिक रूप से बालक ही रह जाएँगे, ‘जो मनुष्यों की ठग-विद्या और चतुराई से उन के भ्रम की युक्तियों की, और उपदेश की, हर एक बयार से उछाले गए हों।’ (इफिसियों 4:14) आज, परमेश्वर की ओर से मिलनेवाली सच्चाई का विरोध करनेवाले, प्रोपगैंडा का इस्तेमाल करके “मनुष्यों की ठग-विद्या” को बढ़ावा देते हैं। द न्यू इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में “प्रोपगैंडा” की परिभाषा यूँ दी गयी है: “लोगों को भरमाकर उनके विश्वास, नज़रिए, या कामों को अपने मन-मुताबिक बदलने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना।” ऐसे प्रोपगैंडा के ज़रिए सच्चाई को बड़ी चालाकी से तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है और झूठ को सच का नकाब पहनाकर फैलाया जाता है। इस तरह के धूर्त या छलपूर्ण वातावरण में रहते हुए सच्चाई की तलाश करने के लिए हमें बाइबल का गहराई से अध्ययन करना होगा।
मसीही और संसार
4. कौन सच्चाई को पा सकता है, और उसे पानेवालों का क्या फर्ज़ बनता है?
4 यीशु मसीह ने अपने शिष्यों के लिए यहोवा से यह प्रार्थना की: “सत्य के द्वारा उन्हें पवित्र कर: तेरा वचन सत्य है।” (यूहन्ना 17:17) ये शिष्य, यहोवा की सेवा करने, उसके नाम और राज्य की घोषणा करने के लिए पवित्र या अलग किए जाएँगे। (मत्ती 6:9,10; 24:14) हालाँकि हरेक में सच्चाई नहीं होती, मगर यहोवा की सच्चाई एक तोहफा है, जिसे ढूँढ़ने पर हर कोई पा सकता है, फिर चाहे वह किसी भी राष्ट्र, जाति या संस्कृति का क्यों न हो। प्रेरित पतरस ने कहा: “मुझे निश्चय हुआ, कि परमेश्वर किसी का पक्ष नहीं करता, बरन हर जाति में जो उस से डरता और धर्म के काम करता है, वह उसे भाता है।”—प्रेरितों 10:35.
5. अकसर मसीहियों को क्यों सताया जाता है?
5 मसीही दूसरों के साथ बाइबल की सच्चाई बाँटते तो हैं, मगर हर जगह उनका स्वागत नहीं किया जाता। यीशु ने चेतावनी दी थी: “वे क्लेश दिलाने के लिये तुम्हें पकड़वाएंगे, और तुम्हें मार डालेंगे और मेरे नाम के कारण सब जातियों के लोग तुम से बैर रखेंगे।” (मत्ती 24:9) इस आयत पर टिप्पणी करते हुए 1817 में आयरलैंड के एक पादरी, जॉन आर. काटर ने लिखा: “उन्होंने [मसीहियों ने] अपने प्रचार के ज़रिए लोगों की ज़िंदगियाँ सँवारने की कोशिश की। मगर लोग उनके शुक्रगुज़ार होने के बजाय उनसे नफरत करने लगे और उन्हें सताने लगे क्योंकि शिष्यों ने उनकी बुराइयों का परदाफाश कर दिया था।” ये सतानेवाले ‘सत्य के प्रेम को ग्रहण नहीं करते जिस से उन का उद्धार होता।’ इसलिए “परमेश्वर उन में एक भटका देनेवाली सामर्थ को भेजेगा ताकि वे झूठ की प्रतीति करें। और जितने लोग सत्य की प्रतीति नहीं करते, बरन अधर्म से प्रसन्न होते हैं, सब दण्ड पाएं।”—2 थिस्सलुनीकियों 2:10-12.
6. एक मसीही को किस तरह की चाहत नहीं पैदा करनी चाहिए?
6 नफरत से भरे इस संसार में जीनेवाले मसीहियों को प्रेरित यूहन्ना ने सलाह दी: “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: . . . जो कुछ संसार में है, अर्थात् शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है।” (1 यूहन्ना 2:15, 16) जब यूहन्ना ने कहा, “जो कुछ” तो उसका मतलब था सबकुछ। इसलिए हमें इस संसार की किसी भी चीज़ को पाने की चाहत नहीं पैदा करनी चाहिए जो हमें सच्चाई से बहका सकती है। यूहन्ना की सलाह मानने से हमारी ज़िंदगी पर गहरा असर होगा। कैसे?
7. सत्य का ज्ञान, नेकदिल इंसानों को कैसे प्रेरित करता है?
7 साल 2001 के दौरान, संसार भर में यहोवा के साक्षियों ने हर महीने 45 लाख से ज़्यादा गृह बाइबल अध्य्यन चलाए। इन अध्ययनों के ज़रिए उन्होंने लोगों को निजी तौर पर या समूहों के तौर पर सिखाया कि ज़िंदगी पाने के लिए उन्हें परमेश्वर की कौन-सी माँगों को पूरा करने की ज़रूरत है। इसका नतीजा यह हुआ कि 2,63,431 लोगों ने बपतिस्मा लिया। इन नए शिष्यों के लिए सच्चाई की रोशनी बहुत अनमोल साबित हुई। उन्होंने इस संसार में फैली बुरी संगति, अनैतिकता और परमेश्वर का अनादर करनेवाले तौर-तरीकों को नकार दिया। बपतिस्मे के बाद से वे सभी मसीहियों के लिए बनाए गए यहोवा के ऊँचे स्तरों के मुताबिक जी रहे हैं। (इफिसियों 5:5) क्या आपके लिए भी सच्चाई उतनी ही अनमोल है?
यहोवा हमारी देखभाल करता है
8. जब हम अपना जीवन यहोवा को समर्पित करते हैं तो वह क्या करता है, और ‘पहले राज्य की खोज करना,’ हमारे लिए क्यों बुद्धिमानी है?
8 हमारी असिद्धताओं के बावजूद, यहोवा बड़ी दया से हमारे समर्पण को कबूल करता है, मानो हमें अपने करीब लाने के लिए वह नीचे झुकता है। ऐसा करके वह हमें ऊँचे लक्ष्य रखना और ऐसी इच्छाएँ पैदा करना सिखाता है जो श्रेष्ठ हैं। (भजन 113:6-8) साथ ही, यहोवा हमें उसके साथ एक निजी रिश्ता बनाए रखना मुमकिन बनाता है और वह हमसे वादा करता है कि अगर हम ‘पहले उसके राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करें’ तो वह हमारी देखभाल करेगा। अगर हम ऐसा करके खुद को आध्यात्मिक रूप से सुरक्षित रखते हैं तो उसका यह वादा है: “ये सब वस्तुएं भी तुम्हें मिल जाएंगी।”—मत्ती 6:33.
9. “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” कौन है, और इस “दास” के ज़रिए यहोवा किस तरह हमारी देखभाल करता है?
9 यीशु मसीह ने 12 प्रेरितों को चुना और अभिषिक्त मसीहियों की कलीसिया की नींव डाली। इन अभिषिक्त जनों को ‘परमेश्वर का इस्राएल’ कहा गया है। (गलतियों 6:16; प्रकाशितवाक्य 21:9, 14) इन्हें बाद में ‘जीवते परमेश्वर की कलीसिया, सत्य का खंभा, और नेव’ कहा गया। (1 तीमुथियुस 3:15) उस कलीसिया के सदस्यों को यीशु ने खासकर “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” और “विश्वास-योग्य और बुद्धिमान भण्डारी” कहा। यीशु ने बताया कि इस विश्वासयोग्य दास को मसीहियों को “ठीक समय पर भोजन-साम्रगी” देने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाएगी। (NHT)(मत्ती 24:3, 45-47; लूका 12:42) हम जानते हैं कि भोजन के बिना हम भूख से मर जाएँगे। उसी तरह, बिना आध्यात्मिक भोजन के हम आध्यात्मिक तौर पर कमज़ोर होकर मर सकते हैं। इसलिए “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” का होना एक और सबूत है कि यहोवा को हमारी परवाह है। इस “दास” के ज़रिए हमें जो अनमोल आध्यात्मिक भोजन दिया जाता है, उसकी हम हमेशा कदर करें।—मत्ती 5:3.
10. सभाओं में लगातार हाज़िर होना हमारे लिए इतना ज़रूरी क्यों है?
10 आध्यात्मिक भोजन लेने में निजी अध्ययन करना शामिल है। इसके अलावा, कलीसिया की सभाओं में हाज़िर होना और दूसरे मसीहियों से मेल-जोल रखना ज़रूरी है। क्या आपको याद है कि ठीक छः महीने या फिर छः हफ्ते पहले आपने क्या खाया था? शायद नहीं। लेकिन, आपने जो कुछ भी खाया होगा उससे आपका भरण-पोषण ज़रूर हुआ होगा। और ज़ाहिर है कि तब से आपने वैसा ही भोजन दोबारा खाया होगा। यह बात मसीही सभाओं में परोसे जानेवाले आध्यात्मिक भोजन के बारे में भी सच है। हो सकता है कि सभाओं में सुनी एक-एक बात हमें याद न हों। और शायद वही जानकारी अकसर पेश की जाती हो। मगर फिर भी यह आध्यात्मिक भोजन हमारी खुशहाली और फलने-फूलने के लिए बहुत ज़रूरी है। हमारी सभाओं में हमेशा आध्यात्मिक अर्थ में पौष्टिक आहार दिया जाता है और वह भी बिलकुल सही समय पर।
11. मसीही सभाओं में हाज़िर होते वक्त हम पर कौन-सी ज़िम्मेदारियाँ आती हैं?
11 सभाओं में हाज़िर होने से हम पर एक ज़िम्मेदारी भी आती है। मसीहियों को बढ़ावा दिया गया है कि वे ‘एक दूसरे को प्रोत्साहित करें’ (NHT) और अपनी कलीसिया के सदस्यों को “प्रेम, और भले कामों” की प्रेरणा दें। मसीही सभाओं के लिए तैयारी करने, उनमें हाज़िर होने और हिस्सा लेने से सिर्फ हमारा ही विश्वास मज़बूत नहीं होता बल्कि दूसरे भी उकसाए जाते हैं। (इब्रानियों 10:23-25) जैसे छोटे बच्चे खाने के मामले में नखरे करते हैं, कुछ लोग शायद आध्यात्मिक भोजन के मामले में उसी तरह हों, इसलिए उनको यह भोजन लेने में बार-बार बढ़ावा देना पड़ सकता है। (इफिसियों 4:13) ज़रूरत पड़ने पर लोगों को बढ़ावा देकर हम उनके लिए अपना प्यार दिखा सकते हैं। तब वे ऐसे प्रौढ़ मसीही बन सकेंगे, जिनके बारे में प्रेरित पौलुस ने लिखा: “अन्न सयानों के लिये है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने के लिये पक्के हो गए हैं।”—इब्रानियों 5:14.
आध्यात्मिक रूप से अपनी देखभाल करना
12. अगर हम सच्चाई में बने रहना चाहते हैं, तो इसमें सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी किसकी है? समझाइए।
12 हमारा जीवन-साथी या हमारे माता-पिता, सच्चाई की राह पर चलने के लिए हमें उकसा सकते हैं। उसी तरह, कलीसिया के प्राचीन भी हमारी चरवाही करेंगे क्योंकि हम उनके झुंड के भाग हैं जिसकी देखभाल करने की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी गयी है। (प्रेरितों 20:28) लेकिन अगर हम सच्चाई पर आधारित ज़िंदगी की राह पर बने रहना चाहते हैं, तो इसमें सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी किसकी है? असल में, हम सब खुद अपने लिए ज़िम्मेदार हैं। और यह बात, अच्छे और बुरे हालात पर भी लागू होती है। आगे दी गयी घटना पर गौर कीजिए।
13, 14. जैसे मेमने के साथ हुई घटना में दिखाया गया, जब हमें आध्यात्मिक मदद की ज़रूरत होती है तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
13 स्कॉटलैंड में कुछ मेमने मैदान में चर रहे थे। उसी दौरान उनमें से एक मेमना भटककर पास के एक टीले पर चला गया और लुढ़ककर नीचे कगार पर जा गिरा। उसे चोट तो नहीं आयी मगर वह घबरा गया और वापस ऊपर नहीं चढ़ पा रहा था। इसलिए वह ज़ोर-ज़ोर से मिमियाने लगा। उसकी माँ ने यह सुना तो वह भी मिमियाने लगी जब तक कि चरवाहा आकर मेमने को निकाल न लाया।
14 इस मिसाल की एक-के-बाद-एक हुई घटनाओं पर ध्यान दीजिए। पहले वह मेमना मदद के लिए मिमियाने लगा, फिर उसकी माँ भी उसके साथ आवाज़ देने लगी जिससे कि चरवाहा चौकन्ना हो गया और उसने तुरंत आकर उसे बचा लिया। अगर एक छोटा-सा जानवर और उसकी माँ खतरे को पहचानकर मदद के लिए तुरंत पुकार सकते हैं, तो क्या हमें भी ऐसा नहीं करना चाहिए? जब हम आध्यात्मिक रूप से ठोकर खाते हैं या जब शैतान की दुनिया, अचानक हम पर धावा बोल देती है, तो उस वक्त मदद के लिए क्या हमें नहीं पुकारना चाहिए? (याकूब 5:14,15; 1 पतरस 5:8) हमें ज़रूर ऐसा करना चाहिए खासकर अगर हम जवान या सच्चाई में नए हैं क्योंकि उस वक्त हमारा तजुर्बा कम होता है।
परमेश्वर से मिलनेवाले निर्देशन का पालन करने से खुशी मिलती है
15. एक स्त्री जब मसीही कलीसिया के साथ संगति करने लगी तो उसे कैसा महसूस हुआ?
15 ध्यान दीजिए कि सत्य के परमेश्वर की सेवा करनेवालों के लिए बाइबल की समझ कितनी अनमोल है और इससे उन्हें कैसी मन की शांति मिलती है। एक 70 साल की बुज़ुर्ग महिला जो सारी ज़िंदगी चर्च ऑफ इंग्लैंड गयी थी, यहोवा की एक साक्षी के साथ बाइबल अध्ययन करने को राज़ी हुई। वह जल्द ही जान गयी कि परमेश्वर का नाम यहोवा है। वह किंगडम हॉल में सच्चे दिल से की जानेवाली प्रार्थनाओं के आखिर में सबके साथ “आमीन” कहने लगी। उसने बहुत भावुक होकर कहा: “आप लोग परमेश्वर के बारे में ऐसा नहीं सिखाते कि वह हमसे इतने ऊँचे दर्जे का है कि हम आम इंसानों के लिए वह पहुँच के बाहर है। इसके बजाय आप उसे एक प्यारे दोस्त की तरह पेश करते हैं जो हमारे बीच मौजूद रहता है। इससे पहले मैंने कभी-भी परमेश्वर को अपने करीब महसूस नहीं किया।” उस दिलचस्पी रखनेवाली स्त्री पर सच्चाई का जो पहला असर हुआ, उसे वह शायद ही कभी भूल पाएगी। हम भी यह न भूलें कि जब हमने पहली बार सच्चाई को स्वीकार किया था तब यह हमारे लिए कितनी अनमोल थी।
16. (क) अगर हम पैसा कमाने को ही अपनी ज़िंदगी का मकसद बना लें तो अंजाम क्या हो सकता है? (ख) हम सच्ची खुशी कैसे पा सकते हैं?
16 कई लोगों का ख्याल है कि अगर उनके पास ज़्यादा पैसा होता तो वे खुश रहते। लेकिन अगर हम पैसा कमाने को ही अपनी ज़िंदगी का मकसद बना लें तो हमें “बेहिसाब मन की वेदनाएँ” सहनी पड़ सकती है। (1 तीमुथियुस 6:10, फिलिप्स) ज़रा सोचिए कि कितने लोग ढेर सारा पैसा जीतने का सपना देखते हुए लॉटरी के टिकट खरीदते हैं, जुएघरों में पैसा उड़ाते हैं या शेयर बाज़ार में बेतहाशा सट्टेबाज़ी करते हैं। लेकिन उनमें से बहुत ही कम लोगों का सपना साकार होता है। और जिनका सपना सच होता भी है, अकसर वे पाते हैं कि अचानक मिले धन से उन्हें कोई खुशी नहीं मिलती। इसके विपरीत हमेशा की खुशी तभी मिलती है जब हम यहोवा की मरज़ी पूरी करते हैं और उसकी पवित्र आत्मा के दिए गए मार्गदर्शन से और उसके स्वर्गदूतों की मदद से मसीही कलीसिया के साथ काम करते हैं। (भजन 1:1-3; 84:4, 5; 89:15) अगर हम ऐसा करें तो हमें ऐसी आशीषें मिलेंगी जिनकी शायद हमने कभी उम्मीद न की हो। क्या सच्चाई आपके लिए इतनी ही अनमोल है जिससे कि आपको जीवन में ऐसी आशीषें मिलें?
17. चमड़े का धंधा करनेवाले शमौन के यहाँ पतरस का ठहरना, उसके नज़रिए के बारे में क्या दिखाता है?
17 प्रेरित पतरस के एक अनुभव पर गौर कीजिए। सा.यु. 36 में वह अपनी मिशनरी यात्रा पर शारोन के मैदान गया। और वह लुद्दा में रुका जहाँ उसने लकवे से पीड़ित ऐनियास को चंगा किया, फिर वह याफा की बंदरगाह की ओर चल पड़ा। वहाँ उसने दोरकास का पुनरुत्थान किया। प्रेरितों 9:43 बताता है: “पतरस याफा में शमौन नाम किसी चमड़े के धन्धा करनेवाले के यहां बहुत दिन तक रहा।” इस छोटे-से ज़िक्र से पता चलता है कि उस शहर के लोगों की सेवा करते वक्त पतरस ने कोई भेद-भाव नहीं दिखाया। यह कैसे कहा जा सकता है? बाइबल के विद्वान फ्रेडरिक डब्ल्यू. फर्रार लिखते हैं: “[मूसा] के मौखिक नियमों का कड़ाई से माननेवाला कोई भी कट्टर इंसान, एक चमड़े का धंधा करनेवाले के घर में कभी नहीं ठहरेगा। इस पेशे में रोज़ाना तरह-तरह के जानवरों के चमड़ों और उनकी लाशों को, साथ ही इसमें इस्तेमाल किए जानेवाले औज़ारों को हाथ लगाना पड़ता था, जो व्यवस्था का सख्ती से पालन करनेवाले उन सभी लोगों की नज़रों में अपवित्र और घृणित थे।” शमौन का “घर समुद्र के किनारे” था जो शायद उसके चमड़े के कारखाने से दूर रहा होगा मगर फिर भी फर्रार का कहना है कि शमौन का ‘पेशा ही कुछ ऐसा था जिसे बहुत नीच समझा जाता था और उसे करनेवालों को भी ज़िल्लत की ज़िंदगी जीनी पड़ती थी।’—प्रेरितों 10:6.
18, 19. (क) पतरस ने जो दर्शन देखा, उससे वह दुविधा में क्यों पड़ गया? (ख) पतरस को ऐसी कौन-सी आशीष मिली जिसकी उसने कभी उम्मीद नहीं की थी?
18 बिना किसी भेद-भाव के पतरस ने शमौन की मेहमाननवाज़ी कबूल की और उसके घर रहते ही पतरस को परमेश्वर का ऐसा निर्देश भी मिला जिसकी उसने उम्मीद नहीं की थी। उसने एक दर्शन देखा जिसमें उसे हुक्म दिया गया कि वह ऐसे प्राणियों को खाए जो यहूदी व्यवस्था के मुताबिक अशुद्ध हैं। पतरस ने एतराज़ करते हुए कहा कि उसने “कभी कोई अपवित्र या अशुद्ध वस्तु नहीं खाई है।” मगर तीन बार उससे कहा गया: “जो कुछ परमेश्वर ने शुद्ध ठहराया है, उसे तू अशुद्ध मत कह।” इसलिए ताज्जुब की बात नहीं कि “पतरस अपने मन में दुब्धा कर रहा था, कि यह दर्शन जो मैं ने देखा क्या है।”—प्रेरितों 10:5-17; 11:7-10.
19 पतरस इस बात से बेखबर था कि उसके एक दिन पहले, 50 किलोमीटर दूर, कैसरिया में कुरनेलियुस नाम के एक अन्यजाति ने भी एक दर्शन देखा। यहोवा के स्वर्गदूत ने कुरनेलियुस को हिदायत दी कि वह अपने सेवकों को चमड़े का धंधा करनेवाले, शमौन के घर भेजे जहाँ उन्हें पतरस मिलेगा। कुरनेलियुस ने शमौन के घर अपने सेवक भेजे और पतरस उनके साथ कैसरिया आ गया। वहाँ उसने कुरनेलियुस, उसके रिश्तेदारों और दोस्तों को प्रचार किया। इसका नतीजा यह हुआ कि वे अन्यजातियों में से पहले विश्वासी बनें जिनको राज्य का वारिस होने के लिए पवित्र आत्मा मिली। हालाँकि पतरस का वचन सुननेवाले पुरुष खतनारहित थे, फिर भी उन सभी ने बपतिस्मा लिया। इस तरह अन्यजाति के लोगों के लिए मसीही कलीसिया के सदस्य बनने का रास्ता खुल गया, जिन्हें यहूदी अशुद्ध मानते थे। (प्रेरितों 10:1-48; 11:18) पतरस को वाकई कैसा अनोखा सुअवसर मिला, सिर्फ इसलिए क्योंकि सच्चाई उसके लिए अनमोल थी जिस वजह से उसने यहोवा के निर्देश का पालन किया और पूरे विश्वास के साथ कदम उठाया!
20. जब हम अपने जीवन में सच्चाई को पहला स्थान देते हैं, तो हमें परमेश्वर से कैसी मदद मिलती है?
20 पौलुस उकसाता है: “प्रेम में सच्चाई से चलते हुए, सब बातों में उस में जो सिर है, अर्थात् मसीह में बढ़ते जाएं।” (तिरछे टाइप हमारे।) (इफिसियों 4:15) जी हाँ, अगर हम सच्चाई को अपने जीवन में पहला स्थान देंगे और यहोवा की पवित्र आत्मा के ज़रिए दिखायी गयी राह पर चलेंगे तो अभी हमें इतनी खुशी मिलेगी जिसकी तुलना नहीं की जा सकती। यह भी मत भूलिए कि प्रचार काम में हमारी मदद करने के लिए पवित्र स्वर्गदूत मौजूद हैं। (प्रकाशितवाक्य 14:6, 7; 22:6) हमारे लिए यह कितने सम्मान की बात है कि यहोवा ने जो काम हमें सौंपा है, उसे करने के लिए ऐसी मदद उपलब्ध है! अगर हम खराई बनाए रखेंगे तो हम अनंतकाल तक सत्य के परमेश्वर यहोवा की स्तुति कर पाएँगे। क्या इससे अनमोल कोई और बात हो सकती है?—यूहन्ना 17:3.
हमने क्या सीखा?
• कई लोग सच्चाई को क्यों नहीं अपनाते?
• मसीहियों को शैतान के संसार की चीज़ों को किस नज़र से देखना चाहिए?
• सभाओं के बारे में हमारा नज़रिया क्या होना चाहिए और क्यों?
• अपनी आध्यात्मिकता की देखभाल करने की कौन-सी ज़िम्मेदारी हम पर है?
[पेज 18 पर नक्शा/तसवीर]
(भाग को असल रूप में देखने के लिए प्रकाशन देखिए)
महासागर
कैसरिया
शारोन के मैदान
याफा
लुद्दा
यरूशलेम
[तसवीर]
पतरस ने परमेश्वर के निर्देश का पालन किया और ऐसी आशीषें पायी जिनकी उसने उम्मीद भी नहीं की थी
[चित्र का श्रेय]
नक्शा: Mountain High Maps® Copyright © 1997 Digital Wisdom, Inc.
[पेज 13 पर तसवीर]
यीशु ने सच्चाई के बारे में गवाही दी
[पेज 15 पर तसवीर]
शारीरिक भोजन की तरह आध्यात्मिक भोजन भी हमारी खुशहाली और फलने-फूलने के लिए बेहद ज़रूरी है