“फरीसियों और सदूकियों के खमीर से चौकस रहना”
जब यीशु मसीह ने १९ से ज़्यादा शताब्दियों पहले ये शब्द कहे, तब वह अपने चेलों को हानिकर धार्मिक शिक्षाओं और अभ्यासों के प्रति सचेत कर रहा था। (मत्ती १६:६, १२) मरकुस ८:१५ का वृत्तान्त स्पष्ट करता है: “फरीसियों के खमीर और हेरोदेस के खमीर से चौकस रहो।” हेरोदेस का उल्लेख क्यों किया गया? क्योंकि कुछ सदूकी हेरोदी थे, जो एक राजनीतिक समूह था।
ऐसी विशेष चेतावनी क्यों आवश्यक थी? क्या ऐसा नहीं था कि फरीसी और सदूकी खुल्लमखुल्ला यीशु का विरोध करते थे? (मत्ती १६:२१; यूहन्ना ११:४५-५०) जी हाँ, वे करते थे। फिर भी, उनमें से कुछ बाद में मसीहियत को अपनाते और फिर अपने विचारों को मसीही कलीसिया पर थोपने की कोशिश करते।—प्रेरितों १५:५.
यह भी ख़तरा था कि ख़ुद चेले उन धार्मिक अगुओं की शायद नक़ल करते जिनके प्रभाव में उनका पालन-पोषण किया गया था। कभी-कभी, ऐसी पृष्ठभूमि से आना ही यीशु की शिक्षाओं का अर्थ समझने में उनके लिए बाधा साबित होती थी।
किस बात ने फरीसीवाद और सदूकीवाद को इतना ख़तरनाक बना दिया? यीशु के दिनों में धार्मिक स्थितियों की एक झलक हमें इसकी कुछ समझ देगी।
धार्मिक फूट
सामान्य युग प्रथम शताब्दी के दौरान यहूदी समुदाय के बारे में, इतिहासकार मैक्स रेडन ने लिखा: “यहूदी कलीसियाओं की एक दूसरे से स्वतंत्रता काफ़ी वास्तविक थी, और उस पर बल भी दिया जाता था। . . . अकसर, जब मंदिर और पवित्र नगर के लिए श्रद्धा पर अति बलपूर्वक ज़ोर दिया जाता, तो उन लोगों के प्रति शायद तीव्र घृणा प्रदर्शित की जाती जो मातृ-भूमि में वर्तमान सरकारी शासक थे।”
यह वाक़ई एक दुःखदायक आध्यात्मिक स्थिति थी! इसमें योगदान देनेवाले कुछ तत्त्व क्या थे? सभी यहूदी पलस्तीन में नहीं रहते थे। यूनानी संस्कृति के प्रभाव ने, जिसमें याजक सामुदायिक अगुए नहीं हुआ करते थे, यहोवा की याजकपद की व्यवस्था के लिए आदर को कम करने में अपना भाग अदा किया था। (निर्गमन २८:२९; ४०:१२-१५) और शिक्षित सामान्य जन और शास्त्रियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना है।
फरीसी
इस नाम फरीसी, या पेरूशिम का संभवतः अर्थ था “अलग किए गए लोग।” फरीसी अपने आपको मूसा के अनुयायी मानते थे। उन्होंने स्वयं अपनी बिरादरी (इब्रानी, कवूरा) बनायी। सदस्य के तौर पर प्रवेश प्राप्त करने के लिए, एक व्यक्ति को बिरादरी के तीन सदस्यों के सामने लेवीय शुद्धता के कड़े अनुपालन, अमहाएरेट्स् (अनपढ़ लोगों) की निकट संगति से दूरी, और दसमांशों की ध्यानपूर्वक अदायगी की शपथ लेनी पड़ती थी। मरकुस २:१६ (NHT) “फरीसियों में से कुछ शास्त्रियों” के बारे में बोलता है। इस दल के कुछ व्यक्ति पेशेवर शास्त्री और शिक्षक थे, जबकि दूसरे सामान्य जन थे।—मत्ती २३:१-७.
फरीसी एक सर्वव्यापी परमेश्वर पर विश्वास करते थे। उन्होंने तर्क किया कि क्योंकि “परमेश्वर सर्वत्र मौजूद था, इसलिए उसकी उपासना मंदिर के अंदर और बाहर भी की जा सकती थी और उसे सिर्फ़ बलिदान चढ़ाकर प्रार्थना नहीं की जानी थी। उन्होंने इस प्रकार आराधनालय को उपासना, अध्ययन और प्रार्थना की जगह के तौर पर बढ़ावा दिया, और उसे लोगों के जीवन में केंद्रीय और महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जो मंदिर के विरोध में था।”—एन्साइक्लोपीडिया जुडायका।
फरीसियों में यहोवा के मंदिर के लिए मूल्यांकन की कमी थी। यह यीशु के शब्दों से देखा जा सकता है: “हे अन्धे अगुवो, तुम पर हाय, जो कहते हो कि यदि कोई मन्दिर की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु यदि कोई मन्दिर के सोने की सौगन्ध खाए तो उस से बन्ध जाएगा। हे मूर्खो, और अन्धो, कौन बड़ा है, सोना या वह मन्दिर जिस से सोना पवित्र होता है? फिर कहते हो कि यदि कोई बेदी की शपथ खाए तो कुछ नहीं, परन्तु जो भेंट उस पर है, यदि कोई उस की शपथ खाए तो बन्ध जाएगा। हे अन्धो, कौन बड़ा ह, भेंट या बेदी: जिस से भेंट पवित्र होता है? इसलिये जो बेदी की शपथ खाता है, वह उस की, और जो कुछ उस पर है, उस की भी शपथ खाता है।”—मत्ती २३:१६-२०.
फरीसी अपने तर्क में इतने विकृत कैसे हो सकते थे? वे किस बात को नज़रअंदाज़ कर रहे थे? ध्यान दीजिए कि यीशु आगे क्या कहता है। “और जो मन्दिर की शपथ खाता है, वह उस की और उस में रहनेवाले की भी शपथ खाता है।” (मत्ती २३:२१, तिरछे टाईप हमारे) इस आयत के बारे में, विद्वान ई. पी. सैन्डर्ज़ ने कहा: “वह मंदिर न सिर्फ़ इसलिए पवित्र था कि पवित्र परमेश्वर की वहाँ उपासना होती थी, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वह वहाँ मौजूद था।” (यहूदी धर्म: अभ्यास और विश्वास, ६३ सायुपू—६६ सायु, अंग्रेज़ी) लेकिन, यहोवा की विशेष मौजूदगी का उन लोगों के लिए ज़्यादा अर्थ नहीं होता जो यह मानते थे कि वह सर्वत्र मौजूद है।
फरीसी पूर्वनियति और स्वतंत्र इच्छा के एक सम्मिश्रण पर भी विश्वास करते थे। दूसरे शब्दों में, “प्रत्येक बात पूर्वनियत है, फिर भी चुनाव करने की स्वतंत्रता दी गयी है।” यद्यपि वे यह विश्वास करते थे कि आदम और हव्वा पाप करने के लिए पूर्वनियत थे और यह कि उँगली पर छोटा-सा घाव लगना भी पूर्वनिर्धारित होता है।
यीशु के मन में ऐसी झूठी धारणाएँ रही होंगी जब उसने एक गुम्मट के गिरने की बात की जिसके परिणामस्वरूप १८ लोगों की मृत्यु हुई। उसने पूछा: “क्या तुम समझते हो, कि [वे दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति] . . . यरूशलेम के और सब रहनेवालों से अधिक अपराधी थे?” (लूका १३:४) जैसे अधिकांश दुर्घटनाओं के बारे में सच होता है, यह “समय और अप्रत्याशित घटना” का परिणाम था ना कि भाग्य का जैसे फरीसी सिखाते थे। (सभोपदेशक ९:११, NW) ऐसे तथाकथित ज्ञानी जन शास्त्रीय आज्ञाओं के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते?
वे धार्मिक नवप्रवर्तक थे
फरीसी यह मानते थे कि प्रत्येक पीढ़ी के रब्बियों द्वारा, उन्नत विचारों के अनुसार शास्त्रीय आज्ञाओं का अर्थ लगाया जाना ज़रूरी था। इस प्रकार, एन्साइक्लोपीडिया जुडायका कहती है कि उन्हें “तोराह की शिक्षाओं का तालमेल अपने उन्नत विचारों के साथ करने में, या तोराह के शब्दों में अपने विचारों के निहितार्थ या संकेत को खोज निकालने में कोई बड़ी मुश्किल नहीं हुई।”
जहाँ तक वार्षिक प्रायश्चित्त दिन की बात है, उन्होंने पापों का प्रायश्चित्त करने की सामर्थ महायाजक से हटाकर स्वयं उस दिन पर ही डाल दिया। (लैव्यव्यवस्था १६:३०, ३३) फसह के समारोह पर, उन्होंने निर्गमन वृत्तान्त के सबक़ का वर्णन, फसह के मेम्ने को खाते वक़्त करने के बजाय दाखरस और अखमीरी रोटी खाते वक़्त करने पर ज़्यादा ज़ोर दिया।
समय बीतने पर, मंदिर में फरीसियों का प्रभाव बढ़ गया। तब उन्होंने बटोरन के पर्ब्ब के दौरान एक जुलूस की शुरूआत की, जिसमें शीलोह के कुण्ड से पानी ले जाना और उसका अर्पण किया जाना, साथ ही पर्ब्ब की समाप्ति पर बेंत की टहनियों को वेदी पर मारना, और नियमित दैनिक प्रार्थनाएँ करना अंतर्ग्रस्त था जिनका व्यवस्था में कोई आधार नहीं था।
द जूइश एन्साइक्लोपीडिया कहती है, “सब्त के सम्बन्ध में फरीसियों के नवप्रवर्तन विशेषकर उल्लेखनीय” थे। एक गृहिणी से अपेक्षा की जाती थी कि वह सब्त का स्वागत दीप जलाकर करे। यदि ऐसा प्रतीत होता कि कोई कार्य अनुचित परिश्रम की ओर ले जा सकता है, तो फरीसी उस पर रोक लगा देते। वे इस हद तक गए कि उन्होंने चिकित्सीय उपचार पर भी नियंत्रण रखा और सब्त के दिन यीशु की चमत्कारिक चंगाई पर रोष प्रकट किया। (मत्ती १२:९-१४; यूहन्ना ५:१-१६) लेकिन, ये धार्मिक नवप्रवर्तक शास्त्रीय नियमों की सुरक्षा के लिए एक घेरा, या बाड़ा बनाने के प्रयास में नयी विधियाँ स्थापित करने की हद तक ही नहीं गए।
निराकरण
फरीसियों ने शास्त्रीय नियमों को स्थगित या रद्द करने के अधिकार का दावा किया। उनका सोच-विचार तलमूद की एक कहावत से नज़र आता है: “पूरे तोराह को भुलाने से अच्छा है कि एक नियम को निकाल दिया जाए।” इसका उदाहरण जुबली का रोका जाना था, जो इस आधार पर किया गया कि जैसे-जैसे जुबली की अवधि निकट आती है, इस डर के मारे कि वह अपना अधिकार खो देगा, कोई भी व्यक्ति ग़रीबों को उधार नहीं देता।—लैव्यव्यवस्था, अध्याय २५.
अन्य उदाहरण हैं ऐसी स्त्री के परीक्षण का निराकरण जिस पर व्यभिचार करने का शक किया गया है और अनसुलझी हत्या के मामले में प्रायश्चित्त की प्रक्रिया का स्थगन। (गिनती ५:११-३१; व्यवस्थाविवरण २१:१-९) कुछ ही समय बाद, फरीसी एक व्यक्ति के ज़रूरतमंद माता-पिता के भरण-पोषण की शास्त्रीय माँग का निराकरण करते।—निर्गमन २०:१२; मत्ती १५:३-६.
यीशु ने चेतावनी दी: “फरीसियों के कपटरूपी खमीर से चौकस रहना।” (लूका १२:१) फरीसीवाद, अपने ग़ैर-ईशतंत्रीय मनोवृत्तियों सहित, कपटपूर्ण होने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता था—निश्चय ही यह ऐसी बात है जिसे मसीही कलीसिया में लाया नहीं जाना चाहिए। इसके बावजूद, यहूदी संदर्भ ग्रंथ सदूकियों से ज़्यादा फरीसियों का समर्थन करते हैं। आइए अब इस ज़्यादा रूढ़िवादी समूह, अर्थात् सदूकियों पर ध्यान दें।
सदूकी
सदूकी नाम संभवतः सादोक से लिया गया था, जो सुलैमान के दिनों में महायाजक था। (१ राजा २:३५) सदूकी एक रूढ़िवादी दल था जो मंदिर और याजकवर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करता था। फरीसियों से भिन्न, जो ज्ञान और धर्मपरायणता की वजह से अधिकार का दावा करते थे, सदूकी अपना प्राधिकार का दावा वंश और पद के आधार पर करते थे। उन्होंने फरीसियों के नवप्रवर्तनों का सा.यु. ७० में मंदिर के विनाश तक विरोध किया।
पूर्वनियति को अस्वीकार करने के अतिरिक्त, सदूकियों ने ऐसी किसी भी शिक्षा को स्वीकार करने से इनकार किया जिसका उल्लेख पंचग्रन्थ (Pentateuch) में स्पष्ट रूप से नहीं किया गया था, फिर चाहे वह परमेश्वर के वचन में कहीं और ही क्यों न बतायी गयी हो। वास्तव में, वे इन मामलों पर “वाद-विवाद करना सद्गुण समझते थे।” (द जूइश एन्साइक्लोपीडिया) यह बात उस अवसर की याद दिलाती है जब उन्होंने पुनरुत्थान के विषय में यीशु को चुनौती दी।
एक विधवा जिसके सात पति थे उसके दृष्टांत का प्रयोग करते हुए, सदूकियों ने पूछा: “सो जी उठने पर, वह उन सातों में से किस की पत्नी होगी?” निश्चय ही, उनकी उस काल्पनिक विधवा के चाहे १४ या २१ पति ही क्यों न होते। यीशु ने समझाया: “जी उठने पर ब्याह शादी न होगी।”—मत्ती २२:२३-३०.
मूसा को छोड़ अन्य उत्प्रेरित लेखकों की सदूकियों द्वारा अस्वीकृति के बारे में जानते हुए, यीशु ने पंचग्रन्थ से उद्धरण देते हुए अपनी बात साबित की। उसने कहा: “मरे हुओं के जी उठने के विषय में क्या तुम ने मूसा की पुस्तक में झाड़ी की कथा में नहीं पढ़ा, कि परमेश्वर ने उस से कहा, मैं इब्राहीम का परमेश्वर, और इसहाक का परमेश्वर, और याकूब का परमेश्वर हूं? परमेश्वर मरे हुओं का नहीं, बरन जीवतों का परमेश्वर है।”—मरकुस १२:२६, २७.
यीशु और उसके अनुयायियों के सतानेवाले
अन्य राष्ट्रों से व्यवहार करते वक़्त, सदूकी मसीहा के लिए—यदि वे उसके आगमन में रत्ती भर भी विश्वास करते—इंतज़ार करने के बजाय शासन-कला के प्रयोग में विश्वास करते थे। रोम के साथ एक समझौते के अनुसार, उन्हें मंदिर का संचालन करना था और वे नहीं चाहते थे कि कोई मसीहा प्रकट हो जो उनके मामलों में हस्तक्षेप करे। यीशु को अपने पद के लिए एक ख़तरा समझते हुए, वे उसकी मृत्यु का षड्यंत्र रचने के लिए फरीसियों के साथ मिल गए।—मत्ती २६:५९-६६; यूहन्ना ११:४५-५०.
राजनीतिक रूप से प्रवृत्त, सदूकियों ने तार्किक रूप से रोम के प्रति निष्ठा को एक वाद-विषय बनाया और चिल्लाए: “कैसर को छोड़ हमारा और कोई राजा नहीं।” (यूहन्ना १९:६, १२-१५) यीशु की मृत्यु और पुनरुत्थान के बाद, मसीहियत के फैलाव को रोकने की कोशिश करने के लिए सदूकियों ने ही पहल की। (प्रेरितों ४:१-२३; ५:१७-४२; ९:१४) सामान्य युग ७० में मंदिर के विनाश के बाद इस समूह का अस्तित्व नहीं रहा।
सतर्क रहने की आवश्यकता
यीशु की चेतावनी कितनी उपयुक्त साबित हुई है! जी हाँ, हमें “फरीसियों और सदूकियों के खमीर से चौकस” रहने की ज़रूरत है। एक व्यक्ति को सिर्फ़ यहूदी जाति और मसीहीजगत में इसका बुरा फल देखने भर की ज़रूरत है।
लेकिन, इसके बिलकुल विपरीत संसार-भर में यहोवा के गवाहों की ७५,५०० से अधिक कलीसियाओं में योग्य मसीही प्राचीन ‘अपनी और अपने उपदेश की चौकसी रखते’ हैं। (१ तीमुथियुस ४:१५) वे पूरी बाइबल को परमेश्वर से प्रेरित समझकर स्वीकार करते हैं। (२ तीमुथियुस ३:१६) नवप्रवर्तक होने और ख़ुद अपनी धार्मिक प्रक्रियाओं को बढ़ावा देने के बजाय, वे एकता से बाइबल-आधारित संगठन के निर्देशन के अधीन कार्य करते हैं जो उपदेश देने के अपने मुख्य साधन के रूप में इस पत्रिका का प्रयोग करता है।—मत्ती २४:४५-४७.
परिणाम? संसार-भर में लाखों लोग जैसे-जैसे बाइबल को समझते हैं, उसे अपने जीवन में लागू करते हैं और दूसरों को इसकी शिक्षा देते हैं, वे आध्यात्मिक रूप से उन्नत किए जाते हैं। यह देखने के लिए कि यह कैसे निष्पन्न किया जा रहा है, क्यों न यहोवा के गवाहों की निकटतम कलीसिया को भेंट करें या इस पत्रिका के प्रकाशकों को लिखें?
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यीशु ने अपने श्रोतागण को ध्यान में रखा
यीशु मसीह ने स्पष्टता से सिखाया, अपने श्रोताओं के विचारों को ध्यान में रखा। उदाहरण के लिए, उसने ऐसा तब किया जब उसने फरीसी नीकुदेमुस से नए सिरे से “जन्म” लेने के विषय पर बात की। नीकुदेमुस ने पूछा: “मनुष्य जब बूढ़ा हो गया, तो क्योंकर जन्म ले सकता है? क्या वह अपनी माता के गर्भ में दूसरी बार प्रवेश करके जन्म ले सकता है?” (यूहन्ना ३:१-५) जबकि फरीसी मानते थे कि यहूदी धर्म में धर्मपरिवर्तित व्यक्तियों के लिए पुनर्जन्म आवश्यक था, और रब्बियों के एक मुहावरे में धर्मान्तरित व्यक्ति की समानता “नवजात शिशु” से की गयी थी, फिर भी नीकुदेमुस इतनी उलझन में क्यों पड़ गया?
जॉन लाइटफुट द्वारा तलमूद और हेब्राइका से नए नियम पर एक व्याख्या, (अंग्रेज़ी) निम्नलिखित समझ देती है: “एक इस्राएली की योग्यता के बारे में यहूदियों की सर्वसामान्य राय . . . इस फरीसी के मन में अब भी घर किए हुए है” जो “अपनी पहली पूर्वधारणा को आसानी से निकाल” नहीं सकता . . . : ‘जबकि इस्राएलियों को . . . मसीहा के राज्य में प्रवेश पाने का हक़ है, क्या आप अपनी इस अभिव्यक्ति से यह कहना चाहते हैं कि किसी भी व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह अपनी माँ के गर्भ में दूसरी बार प्रवेश करे, ताकि वह नए सिरे से एक इस्राएली हो?’”—मत्ती ३:९ से तुलना कीजिए।
यद्यपि, नीकुदेमुस ने धर्मान्तरित लोगों के लिए नए जन्म को स्वीकार किया, वह ऐसी प्रक्रिया को शारीरिक यहूदियों के लिए असंभव समझता—मानो गर्भ में पुनःप्रवेश।
एक और अवसर पर, अनेक लोग नाराज़ हो गए जब यीशु ने ‘उसका मांस खाने और उसका लोहू पीने’ की बात की। (यूहन्ना ६:४८-५५) लेकिन लाइटफुट कहता है कि “यहूदियों के मतों में ‘खाने और पीने’ जैसे वाक्यांशों का लाक्षणिक अर्थ में उल्लेख करना एक बहुत ही सामान्य बात थी।” उसने यह भी कहा कि तलमूद में “मसीहा को खाने” का उल्लेख किया गया था।
फरीसियों और सदूकियों के विचारों का पहली-शताब्दी यहूदी विचारधारा पर काफ़ी प्रभाव पड़ा था। लेकिन, उचित रूप से यीशु ने अपने श्रोतागण के ज्ञान और अनुभव को हमेशा ध्यान में रखा। उसे महान शिक्षक बनानेवाले अनेक तत्त्वों में से एक तत्त्व यह था।