मसीही और मनुष्यजगत
“बाहरवालों के साथ बुद्धिमानी से बर्ताव करो।”—कुलुस्सियों ४:५.
१. यीशु ने अपने अनुयायियों और संसार के सिलसिले में क्या कहा?
अपने स्वर्गीय पिता से प्रार्थना करते हुए, यीशु ने अपने अनुयायियों के बारे में कहा: “संसार ने उन से बैर किया, क्योंकि जैसा मैं संसार का नहीं, वैसे ही वे भी संसार के नहीं।” तब उसने आगे कहा: “मैं यह बिनती नहीं करता, कि तू उन्हें जगत से उठा ले, परन्तु यह कि तू उन्हें उस दुष्ट से बचाए रख।” (यूहन्ना १७:१४, १५) मसीहियों को संसार से शारीरिक रूप से अलग नहीं किया जाना था—उदाहरण के लिए, मठों में एकान्तवास के द्वारा। इसके बजाय, मसीह ने “उन्हें जगत में भेजा” ताकि “पृथ्वी की छोर तक” उसके गवाह हों। (यूहन्ना १७:१८; प्रेरितों १:८) फिर भी, उसने उन्हें बचाए रखने के लिए परमेश्वर से कहा क्योंकि “इस जगत का सरदार,” अर्थात् शैतान, मसीह के नाम की ख़ातिर उनके ख़िलाफ़ नफ़रत भड़काएगा।—यूहन्ना १२:३१; मत्ती २४:९.
२. (क) बाइबल “जगत” या “संसार” इस शब्द का इस्तेमाल कैसे करती है? (ख) यहोवा इस संसार के प्रति कौन-सा संतुलित दृष्टिकोण दिखाता है?
२ बाइबल में शब्द “जगत या संसार” (यूनानी, कॉसमॉस) अकसर अधर्मी मानवी समाज को सूचित करता है जो “उस दुष्ट के वश में पड़ा है।” (१ यूहन्ना ५:१९) क्योंकि मसीही यहोवा के स्तरों का पालन करते हैं और साथ ही संसार को परमेश्वर के राज्य के सुसमाचार सुनाने की आज्ञा को मानते हैं, कभी-कभी उनके और इस संसार के बीच एक तनावग्रस्त रिश्ता रहा है। (२ तीमुथियुस ३:१२; १ यूहन्ना ३:१, १३) लेकिन, शास्त्र में कॉसमॉस को सामान्य तौर पर मानव परिवार को सूचित करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। इस अर्थ में संसार के बारे में बोलते हुए यीशु ने कहा: “परमेश्वर ने जगत से ऐसा प्रेम रखा कि उस ने अपना एकलौता पुत्र दे दिया, ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे, वह नाश न हो, परन्तु अनन्त जीवन पाए। परमेश्वर ने अपने पुत्र को जगत में इसलिये नहीं भेजा, कि जगत पर दंड की आज्ञा दे परन्तु इसलिये कि जगत उसके द्वारा उद्धार पाए।” (यूहन्ना ३:१६, १७; २ कुरिन्थियों ५:१९; १ यूहन्ना ४:१४) सो, जबकि उन चीज़ों से नफ़रत करते हुए जो शैतान की दुष्ट व्यवस्था की ख़ासियत हैं, यहोवा ने मनुष्यजाति के लिए धरती पर अपना पुत्र भेजने के द्वारा अपना प्रेम दिखाया ताकि उन सबका बचाव हो जो “मन फिराव” करते। (२ पतरस ३:९; नीतिवचन ६:१६-१९) संसार के प्रति यहोवा के संतुलित दृष्टिकोण द्वारा उसके उपासकों को निर्देशित होना चाहिए।
यीशु का उदाहरण
३, ४. (क) शासन के बारे में यीशु ने कौन-सी स्थिति अपनायी? (ख) यीशु ने मनुष्यजगत को किस नज़र से देखा?
३ अपनी मृत्यु के थोड़े ही समय पहले, यीशु ने पुन्तियुस पीलातुस से कहा: “मेरा राज्य इस जगत का नहीं।” (यूहन्ना १८:३६) इन शब्दों के सामंजस्य में, यीशु ने पहले भी संसार के राज्यों पर उसे अधिकार देने की शैतान की पेशकश को ठुकराया था और उसने यहूदियों द्वारा उसे राजा बनाए जाने से इनकार किया था। (लूका ४:५-८; यूहन्ना ६:१४, १५) फिर भी, यीशु ने मनुष्यजगत के लिए अपार प्रेम दिखाया। इसका एक उदाहरण प्रेरित मत्ती द्वारा बताया गया: “जब उस ने भीड़ को देखा तो उस को लोगों पर तरस आया, क्योंकि वे उन भेडों की नाईं जिनका कोई रखवाला न हो, ब्याकुल और भटके हुए से थे।” प्रेम की ख़ातिर, उसने लोगों से उनके नगरों और गाँवों में प्रचार किया। उसने उन्हें सिखाया और उनकी बीमारियों को चंगा किया। (मत्ती ९:३६) जो लोग उससे सीखने आते थे उनकी भौतिक ज़रूरतों के प्रति भी वह संवेदनशील था। हम यूँ पढ़ते हैं: “यीशु ने अपने चेलों को बुलाकर कहा, मुझे इस भीड़ पर तरस आता है; क्योंकि वे तीन दिन से मेरे साथ हैं और उन के पास कुछ खाने को नहीं; और मैं उन्हें भूखा विदा करना नहीं चाहता; कहीं ऐसा न हो कि मार्ग में थककर रह जाएं।” (मत्ती १५:३२) क्या ही प्रेमपूर्ण चिंता!
४ यहूदी लोग सामरियों के विरुद्ध बहुत ही प्रबल पूर्वधारणा रखते थे, लेकिन यीशु ने काफ़ी देर तक एक सामरी स्त्री से बात की और एक सामरी शहर में उसने अच्छी तरह से साक्षी देने के लिए दो दिन बिताए। (यूहन्ना ४:५-४२) हालाँकि परमेश्वर ने उसे “इस्राएल के घराने की खोई हुई भेड़ों” के पास भेजा था, यीशु ने अन्य ग़ैर-यहूदियों के विश्वास की अभिव्यक्तियों के प्रति भी प्रतिक्रिया दिखायी। (मत्ती ८:५-१३; १५:२१-२८) जी हाँ, यीशु ने दिखाया कि “जगत का नहीं” होना और साथ ही मनुष्यजगत के लिए, यानी लोगों के लिए प्रेम दिखाना संभव है। क्या हम लोगों के लिए उसी तरह करुणा दिखाते हैं जहाँ हम रहते हैं, काम करते हैं, या अपनी ख़रीदारी करते हैं? क्या हम उनके हित की चिंता करते हैं—उनकी केवल आध्यात्मिक ज़रूरतों के लिए ही नहीं बल्कि अन्य ज़रूरतों के लिए भी, अगर ऐसी मदद करना हमारे बस की बात है? यीशु ने ऐसा ही किया और ऐसा करने के द्वारा उसने राज्य के बारे में लोगों को सिखाने का एक रास्ता खोला। माना कि हम यीशु की तरह चमत्कार तो नहीं कर सकते। लेकिन अकसर कृपा का एक कार्य, लाक्षणिक तौर पर कहें तो, पूर्वधारणा को निकालने में चमत्कार करता है।
“बाहरवालों” के प्रति पौलुस का दृष्टिकोण
५, ६. प्रेरित पौलुस ने “बाहरवाले” यहूदियों के साथ कैसा व्यवहार किया?
५ अपनी कई पत्रियों में, प्रेरित पौलुस “बाहरवालों,” अर्थात् ग़ैर-मसीहियों का ज़िक्र करता है, चाहे वे यहूदी हों या ग़ैर-यहूदी। (१ कुरिन्थियों ५:१२; १ थिस्सलुनीकियों ४:१२; १ तीमुथियुस ३:७) वह ऐसे लोगों के साथ कैसे पेश आया? वह ‘सब मनुष्यों के लिये सब कुछ बना ताकि किसी न किसी रीति से कई एक का उद्धार कराए।’ (१ कुरिन्थियों ९:२०-२२) जब वह एक शहर में आया, तो उसका प्रचार करने का तरीक़ा था पहले यहूदियों के पास जाना जो वहाँ बस चुके थे। उसकी प्रस्तावना क्या थी? कुशलता और आदर के साथ, उसने विश्वासोत्पादक बाइबल सबूत पेश किए कि मसीहा आ चुका था, एक बलिदानी मृत्यु मर चुका था और पुनरुत्थित किया जा चुका था।—प्रेरितों १३:५, १४-१६, ४३; १७:१-३, १०.
६ इस तरह पौलुस ने व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं की पुस्तकों के बारे में यहूदियों के ज्ञान को बढ़ाया ताकि उन्हें मसीहा और परमेश्वर के राज्य के बारे में सिखाए। और वह कुछ लोगों को क़ायल करने में सफल हुआ। (प्रेरितों १४:१; १७:४) यहूदी अगुओं के विरोध के बावजूद, पौलुस ने संगी यहूदियों के लिए स्नेह दिखाया जब उसने लिखा: “हे भाइयों, मेरे मन की अभिलाषा और उन [यहूदियों] के लिये परमेश्वर से मेरी प्रार्थना है, कि वे उद्धार पाएं। क्योंकि मैं उन की गवाही देता हूं, कि उन को परमेश्वर के लिये धुन रहती है, परन्तु बुद्धिमानी [यथार्थ ज्ञान] के साथ नहीं।”—रोमियों १०:१, २.
ग़ैर-यहूदी विश्वासियों की मदद करना
७. उस सुसमाचार के प्रति, जिसका प्रचार पौलुस ने किया, कई यहूदी-मतधारकों ने कैसी प्रतिक्रिया दिखायी?
७ यहूदी-मतधारक ऐसे ग़ैर-यहूदी थे जो यहूदी धर्म के ख़तनाप्राप्त पालन करनेवाले बन गए थे। इसके प्रमाण हैं कि रोम, अरामी अंताकिया, कूश और पिसिदिया के अंताकिया में यहूदी-मतधारक थे—वाक़ई, संपूर्ण यहूदी उपनिवेशों में। (प्रेरितों २:८-१०; ६:५; ८:२७; १३:१४, ४३. मत्ती २३:१५ से तुलना कीजिए।) अनेक यहूदी शासकों के विपरीत, यहूदी-मतधारक संभवतः ढीठ नहीं थे और वे इब्राहीम के वंश से होने का सीना तानकर अभिमान नहीं कर सकते थे। (मत्ती ३:९; यूहन्ना ८:३३) इसके बजाय उन्होंने विधर्मी देवताओं को त्याग दिया था और नम्रतापूर्वक यहोवा की ओर मुड़ गए थे और उसके तथा उसके नियमों के बारे में कुछ जानकारी हासिल की थी। और उन्होंने आनेवाले मसीहा के बारे में यहूदी आशा को माना। सच्चाई की अपनी तलाश में परिवर्तन करने की अपनी तैयारी को पहले ही दिखाने के बाद, अनेक लोग और भी अधिक परिवर्तन करने के लिए और प्रेरित पौलुस के प्रचार कार्य की ओर प्रतिक्रिया दिखाने के लिए राज़ी थे। (प्रेरितों १३:४२, ४३) जब एक यहूदी-मतधारक, जिसने कभी विधर्मी देवताओं की उपासना की थी, मसीहियत अपना लेता था, तो वह अनोखे रूप से उन दूसरे अन्यजातीय लोगों को गवाही देने के लिए तैयार था जो तब भी उन देवताओं की ही उपासना करते थे।
८, ९. (क) यहूदी-मतधारकों के अलावा, अन्यजाति का और कौन-सा वर्ग यहूदी धर्म की ओर आकर्षित हुआ था? (ख) परमेश्वर से डरनेवाले अनेक ख़तनारहित लोगों ने सुसमाचार के प्रति कैसी प्रतिक्रिया दिखायी?
८ ख़तनाप्राप्त यहूदी-मतधारकों के अलावा, अन्य ग़ैर-यहूदी भी यहूदी धर्म की ओर आकर्षित हुए। इनमें से मसीही बननेवालों में पहला था कुरनेलियुस। हालाँकि वह एक यहूदी-मतधारक नहीं था, फिर भी वह एक “भक्त था, और . . . परमेश्वर से डरता था।” (प्रेरितों १०:२) प्रेरितों की पुस्तक पर अपनी टिप्पणी में प्रॉफ़ॆसर एफ़. एफ़. ब्रूस ने लिखा: “ऐसे अन्यजातीय लोगों को आम तौर पर ‘परमेश्वर से डरनेवाले’ कहा जाता है; जबकि यह कोई पारिभाषिक पद नहीं है, यह इस्तेमाल करने के लिए उपयुक्त पद है। उन दिनों के अनेक अन्यजातिय लोग, जबकि यहूदीवाद में पूरी तरह से धर्मांतरित होने के लिए तैयार नहीं थे (पुरुषों के लिए ख़तना की माँग एक ख़ास बाधा थी), पर वे यहूदी आराधनालय में की जानेवाली एक ईश्वर की उपासना, तथा यहूदी जीवन-शैली के नीतिपरक स्तरों की ओर आकर्षित हुए थे। कुछ लोग आराधनालय में गए और प्रार्थना तथा शास्त्र पाठों से कुछ-कुछ अवगत हो गए, जो उन्होंने यूनानी वर्शन में पढ़ा था।”
९ एशिया माइनर और यूनान के आराधनालयों में प्रचार करते वक़्त प्रेरित पौलुस परमेश्वर से डरनेवाले अनेक लोगों से मिला। पिसिदिया के अंताकिया में उसने आराधनालय में एकत्रित लोगों को “हे इस्राएलियो, और परमेश्वर से डरनेवालो” कहकर संबोधित किया। (प्रेरितों १३:१६, २६) लूका लिखता है कि थिस्सलुनीके में तीन सब्त तक आराधनालय में पौलुस के प्रचार करने के बाद, “उन [यहूदियों] में से कितनों ने, और भक्त यूनानियों में से बहुतेरों ने और बहुत सी कुलीन स्त्रियों ने मान लिया, [मसीही बन गए] और पौलुस और सीलास के साथ मिल गए।” (प्रेरितों १७:४) शायद, कुछ ख़तनारहित यूनानी परमेश्वर के डरनेवाले थे। इसका प्रमाण है कि ऐसे कई अन्यजातिय लोग यहूदी समाजों के साथ मिल गए थे।
“अविश्वासियों” के बीच प्रचार करना
१०. पौलुस ने अन्यजातीय लोगों को कैसे प्रचार किया जो शास्त्र के बारे में कुछ नहीं जानते थे और इसका परिणाम क्या हुआ?
१० मसीही यूनानी शास्त्र में, शब्द “अविश्वासी” मसीही कलीसिया के बाहर के सामान्य लोगों को सूचित कर सकता है। अकसर यह विधर्मियों को सूचित करता है। (रोमियों १५:३१; १ कुरिन्थियों १४:२२, २३; २ कुरिन्थियों ४:४; ६:१४) अथेने में अनेक अविश्वासी यूनानी तत्वज्ञान में शिक्षित थे जिनको शास्त्रों के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। क्या इस बात ने पौलुस को उन्हें गवाही देने से निरुत्साहित किया? जी नहीं। लेकिन, उसने परिस्थिति के अनुसार अपने बात करने के तरीक़े को बदला। उसने इब्रानी शास्त्र से, जिससे अथेनेवासी अपरिचित थे, सीधे-सीधे उद्धृत किए बग़ैर कुशलतापूर्वक बाइबलीय विचार पेश किए। उसने चपलतापूर्वक बाइबल सच्चाई और प्राचीन स्टॉइक कवियों द्वारा व्यक्त कुछ विचारों के बीच एक समानता दिखायी। और उसने पूरी मनुष्यजाति के लिए एक सच्चे परमेश्वर की धारणा को पेश किया, वह परमेश्वर जो एक ऐसे मनुष्य के ज़रिए धार्मिकता से न्याय करेगा जो मरा था और पुनरुत्थित किया गया था। इस प्रकार, पौलुस ने अथेनेवासियों से कुशलतापूर्वक मसीह के बारे में प्रचार किया। इसका परिणाम? जबकि अधिकांश लोगों ने सीधे-सीधे उसका मज़ाक उड़ाया या संदेही थे, “परन्तु कई एक मनुष्य उसके साथ मिल गए, और विश्वास किया, जिन में दियुनुसियुस अरियुपगी था, और दमरिस नाम एक स्त्री थी, और उन के साथ और भी कितने लोग थे।”—प्रेरितों १७:१८, २१-३४.
११. कुरिन्थ किस प्रकार का शहर था और वहाँ पौलुस की प्रचार गतिविधि का क्या परिणाम निकला?
११ कुरिन्थ में यहूदियों की एक बड़ी बिरादरी थी, सो पौलुस ने वहाँ आराधनालय में प्रचार करने के द्वारा अपनी सेवकाई शुरू की। लेकिन जब यहूदी लोग विरोधी साबित हुए, तो पौलुस अन्यजातिय लोगों के पास गया। (प्रेरितों १८:१-६) और वे कितने ही सारे लोग थे! कुरिन्थ एक व्यस्त, विश्वनगर, व्यावसायिक शहर था, जो पूरे यूनानी-रोमी संसार में अपनी लंपटता के लिए कुख्यात था। यहाँ तक कि “कुरिन्थिकरण” का मतलब था अनैतिकता के काम करना। फिर भी, यहूदियों द्वारा पौलुस के प्रचार कार्य को ठुकराने के बाद मसीह ने उसे दर्शन दिया और उससे कहा: “मत डर, बरन कहे जा, . . . क्योंकि इस नगर में मेरे बहुत से लोग हैं।” (प्रेरितों १८:९, १०) बिलकुल वैसा ही हुआ, पौलुस ने कुरिन्थ में एक कलीसिया स्थापित की, हालाँकि उनमें से कुछ लोगों ने एक “कुरिन्थी” जीवन जीया था।—१ कुरिन्थियों ६:९-११.
आज “सब [प्रकार के] मनुष्यों” को बचाने की कोशिश
१२, १३. (क) आज हमारा क्षेत्र पौलुस के दिनों के क्षेत्र के समान कैसे है? (ख) हम ऐसे क्षेत्रों में कौन-से दृष्टिकोण दिखाते हैं जहाँ मसीहीजगत मुद्दतों से स्थापित है या जहाँ अनेक लोग संगठित धर्म से निरुत्साहित हैं?
१२ आज, पहली सदी की तरह, “परमेश्वर का वह [अपात्र] अनुग्रह . . . सब [प्रकार के] मनुष्यों के उद्धार का कारण है।” (तीतुस २:११) सुसमाचार के प्रचार का क्षेत्र बढ़कर सभी महाद्वीपों और समुद्र के अधिकतम द्वीपों तक फैल गया है। और पौलुस के दिन की तरह, वाक़ई “सब [प्रकार के] मनुष्यों” से मुलाक़ात की जा रही है। उदाहरण के लिए, हम में से कुछ लोग उन देशों में प्रचार करते हैं जहाँ मसीहीजगत के गिरजे कई सदियों से स्थापित हैं। पहली सदी के यहूदियों की तरह, शायद उनके सदस्य धार्मिक परंपराओं की कड़ी जकड़ में हों। फिर भी, हम अच्छे दिलवाले को तलाशकर बाइबल की जितनी जानकारी उनके पास है उसे और भी बढ़ाने में ख़ुश हैं। अगर उनके धार्मिक अगुए कभी-कभी हमारा विरोध करते हैं या हमें सताते हैं, तब भी हम उन्हें नीचा नहीं दिखाते या उन्हें तुच्छ नहीं समझते। इसके बजाय, हम समझते हैं कि उनमें से शायद कुछ लोगों को “परमेश्वर के लिये धुन रहती” हो, हालाँकि उनमें यथार्थ ज्ञान की कमी है। यीशु और पौलुस की तरह, हम लोगों के लिए असली प्रेम दिखाते हैं और हममें यह तीव्र इच्छा है कि वे लोग बचाए जाएँ।—रोमियों १०:२.
१३ प्रचार करते समय, हममें से अनेक लोग ऐसे व्यक्तियों से मिलते हैं जो संगठित धर्म से निराश हैं। फिर भी वे शायद परमेश्वर से डरनेवाले हों, कुछ हद तक परमेश्वर में विश्वास करते हों और भली ज़िंदगी जीने की कोशिश करते हों। इस विकृत और बढ़ती हुई अधर्मी पीढ़ी में, क्या हमें ऐसे लोगों से मिलकर ख़ुश नहीं होना चाहिए जो परमेश्वर में कुछ हद तक विश्वास करते हैं? क्या हम उन्हें एक ऐसी उपासना की ओर ले जाने के लिए उत्सुक नहीं हैं जो ढोंग और झूठ द्वारा चिन्हित नहीं है?—फिलिप्पियों २:१५.
१४, १५. सुसमाचार के प्रचार के लिए एक बड़ा क्षेत्र कैसे उपलब्ध हो गया है?
१४ जाल के अपने दृष्टांत में यीशु ने पूर्वबताया कि प्रचार कार्य के लिए एक विशाल क्षेत्र होगा। (मत्ती १३:४७-४९) इस दृष्टांत को समझाते हुए, सितंबर १, १९९२ की प्रहरीदुर्ग ने पृष्ठ २२ पर यूँ कहा: “सदियों के दौरान मसीहीजगत के सदस्यों ने परमेश्वर के वचन का अनुवाद करने, प्रतिलिपि बनाने और वितरण करने में अहम भूमिका अदा की है। गिरजों ने बाद में बाइबल संस्थाओं को या तो स्थापित किया या फिर इनका समर्थन किया, जिन्होंने बाइबल का दूर देशों की भाषाओं में अनुवाद किया। उन्होंने औषधीय मिशनरियों और शिक्षकों को भी भेजा, जिन्होंने धान्य ख्रिस्ती बनाए। इसने बड़ी संख्या में बुरी मछलियों को इकट्ठा किया, जिन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं थी। पर कम से कम इसने करोड़ों ग़ैर-मसीहियों को बाइबल और एक प्रकार की मसीहियत [को] सहज[ता से] पाने का मौक़ा दिया हालाँकि वह भ्रष्ट थी।”
१५ मसीहीजगत द्वारा धर्म-परिवर्तन कराना ख़ासकर दक्षिण अमरीका, अफ्रीका और समुद्र के कुछ द्वीपों में प्रभावशाली रहा है। हमारे दिन में, इन क्षेत्रों में कई नम्र लोग पाए गए हैं और हम काफ़ी भलाई करना जारी रख सकते हैं अगर हमारे पास ऐसे नम्र लोगों के प्रति एक सकारात्मक, प्रेमपूर्ण दृष्टिकोण है, ठीक जैसे पौलुस के पास यहूदी-मतधारकों के प्रति था। ऐसे लाखों लोगों को भी हमारी मदद की ज़रूरत है जिन्हें यहोवा के साक्षियों के “हमदर्द” कहा जा सकता है। जब हम उनसे भेंट करते हैं तब वे हमेशा हमें देखकर ख़ुश होते हैं। कुछ लोगों ने हमारे साथ बाइबल का अध्ययन किया है और हमारी सभाओं में आए हैं, ख़ासकर मसीह की मृत्यु के वार्षिक स्मारक में। क्या ऐसे लोग राज्य के सुसमाचार के प्रचार के लिए एक बड़ा क्षेत्र नहीं हैं?
१६, १७. (क) हम किन प्रकार के लोगों के पास सुसमाचार के साथ जाते हैं? (ख) विविध प्रकार के लोगों को प्रचार करने में हम पौलुस का अनुकरण कैसे करते हैं?
१६ इसके अतिरिक्त, ऐसे लोगों के बारे में क्या जो मसीहीजगत के अलावा दूसरी संस्कृतियों से आते हैं—चाहे हम उन्हें उनके स्वदेश में मिलें या फिर वे पश्चिमी देशों में आप्रवासी हों? और ऐसे करोड़ों लोगों के बारे में क्या जिन्होंने धर्म से पूरी तरह मुँह मोड़ लिया है और नास्तिक या अज्ञेयवादी बन गए हैं? और, उन लोगों का क्या जो धर्म की सरगर्मी में आकर ऐसे आधुनिक तत्त्वज्ञान को मानते हैं जो किताबों की दुकानों में मिलनेवाली अनेकों सॆल्फ-हॆल्प किताबों में प्रकाशित होती है? क्या यह सोचकर ऐसे लोगों को नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए कि वे कभी नहीं सुधरेंगे? अगर हम प्रेरित पौलुस का अनुकरण करते हैं तो नहीं।
१७ अथेने में प्रचार करते समय, पौलुस अपने सुननेवालों के साथ तत्त्वज्ञान पर बहस करने के चक्कर में नहीं पड़ा। लेकिन, जिन लोगों के साथ वह बात कर रहा था उनके अनुसार उसने अपने तर्क को बदला और बाइबल सच्चाइयों को एक स्पष्ट, तर्कसंगत रूप से पेश किया। उसी तरह, हमें भी उन लोगों के धर्मों या तत्त्वज्ञानों में माहिर होने की ज़रूरत नहीं है जिनसे हम प्रचार करते हैं। लेकिन, हम अपनी बातचीत को ढालते हैं ताकि अपनी गवाही को प्रभावशाली बनाएँ और इस तरह “सब [प्रकार के] मनुष्यों के लिये सब कुछ” बनें। (१ कुरिन्थियों ९:२२) कुलुस्से के मसीहियों को लिखते समय, पौलुस ने कहा: “अवसर को बहुमूल्य समझकर बाहरवालों के साथ बुद्धिमानी से बर्ताव करो। तुम्हारा वचन सदा अनुग्रह सहित और सलोना हो, कि तुम्हें हर मनुष्य को उचित रीति से उत्तर देना आ जाए।” (तिरछे टाइप हमारे।)—कुलुस्सियों ४:५, ६.
१८. हम पर कौन-सी ज़िम्मेदारी है और हमें कौन-सी बात कभी नहीं भूलनी चाहिए?
१८ यीशु और प्रेरित पौलुस की तरह, आइए हम सभी प्रकार के लोगों से प्रेम करें। ख़ासकर, आइए हम दूसरों को राज्य का सुसमाचार बताने में जी-तोड़ मेहनत करें। दूसरी ओर, हम कभी न भूलें कि यीशु ने अपने शिष्यों के बारे में कहा: “वे . . . संसार के नहीं।” (यूहन्ना १७:१६) इसका हमारे लिए जो अर्थ है इसकी चर्चा आगे अगले लेख में की जाएगी।
आइए दोबारा विचार करें
◻ संसार के प्रति यीशु के संतुलित दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए।
◻ प्रेरित पौलुस ने यहूदियों और यहूदी-मतधारकों को कैसे प्रचार किया?
◻ पौलुस परमेश्वर से डरनेवालों और अविश्वासियों के पास कैसे गया?
◻ हम अपनी प्रचार गतिविधि में “सब [प्रकार के] मनुष्यों के लिये सब कुछ” कैसे बन सकते हैं?
[पेज 10 पर तसवीर]
अपने पड़ोसियों के लिए कृपा के कार्य करके मसीही अकसर पूर्वधारणा को निकाल सकते हैं