बाइबल की किताब नंबर 44—प्रेरितों
लेखक: लूका
लिखने की जगह: रोम
लिखना पूरा हुआ: लगभग सा.यु. 61
कब से कब तक का ब्यौरा: सा.यु. 33-लगभग 61
बाइबल की 42वीं किताब में लूका, यीशु के स्वर्ग लौटने तक उसके और उसके चेलों की ज़िंदगी, उनके कामों और उनकी सेवा के बारे में ब्यौरा देता है। बाइबल की 44वीं किताब, ‘प्रेरितों के काम’ में पहली सदी के मसीहियों का इतिहास दिया गया है। यह बताती है कि कैसे पवित्र आत्मा से पहली कलीसिया की शुरूआत हुई। इसमें यह भी बताया गया है कि कैसे पहले यहूदियों में गवाही देने का काम किया गया, फिर सभी जातियों के लोगों में। प्रेरितों की किताब के पहले 12 अध्यायों में ज़्यादातर पतरस की सेवा के बारे में चर्चा की गयी है और बाकी के 16 अध्यायों में पौलुस के कामों का ज़िक्र किया गया है। लूका का पौलुस के साथ नज़दीकी रिश्ता था और वह पौलुस की कई यात्राओं में उसका साथी था।
2 यह किताब थियुफिलुस को लिखी गयी है। उसे “श्रीमान्” कहा गया है, तो यह मुमकिन है कि वह कोई अधिकारी था या फिर ऐसा हो सकता है कि यह शब्द उसे इज़्ज़त देने के लिए इस्तेमाल किया गया हो। (लूका 1:3) यह किताब मसीही कलीसिया की शुरूआत और बढ़ोतरी के बारे में सही-सही इतिहास बताती है। यह उन घटनाओं के साथ शुरू होती है, जब यीशु पुनरुत्थान के बाद अपने चेलों के सामने प्रकट हुआ था। इसके बाद, इसमें सा.यु. 33 से करीब सा.यु. 61 तक की अहम घटनाओं का ब्यौरा दिया गया है, यानी लगभग 28 सालों का।
3 प्राचीनकाल से लूका की किताब के लेखक को ही प्रेरितों की किताब का लेखक माना जाता है। लूका और प्रेरितों, ये दोनों किताबें थियुफिलुस को लिखी गयी हैं। लूका ने सुसमाचार की अपनी किताब के आखिर में दी घटनाओं को प्रेरितों की किताब की शुरूआती आयतों में दोहराकर ज़ाहिर किया कि इनका लेखक एक ही है। ऐसा मालूम होता है कि लूका ने करीब सा.यु. 61 में प्रेरितों की किताब की लिखाई पूरी की। उस वक्त तक उसे प्रेरित पौलुस के साथ रोम में रहते लगभग दो साल हो गए थे। प्रेरितों की किताब में सा.यु. 61 तक की घटनाएँ दर्ज़ हैं, तो यह किताब इससे पहले नहीं लिखी गयी थी। इसमें यह भी नहीं बताया गया है कि पौलुस ने कैसर की जो दोहाई दी थी, उसका क्या नतीजा निकला। इससे पता चलता है कि इस किताब को सा.यु. 61 तक लिखा गया था।
4 प्राचीनकाल से बाइबल के विद्वान, प्रेरितों की किताब को बाइबल का हिस्सा मानते आए हैं। यूनानी शास्त्र की अब तक की सबसे पुरानी पपाइरस हस्तलिपियों में इस किताब के कुछ हिस्से पाए गए हैं। ये हस्तलिपियाँ हैं, सा.यु. तीसरी या चौथी सदी की मिशिगन नं. 1571 (P38) और तीसरी सदी की चेस्टर बीटी नं. 1 (P45)। ये दोनों हस्तलिपियाँ दिखाती हैं कि प्रेरितों की किताब, बाइबल की दूसरी किताबों के साथ-साथ इस्तेमाल में थी और शुरू से ही ईश्वर-प्रेरित किताबों का हिस्सा थी। जैसा कि हम सुसमाचार की किताब में देख चुके हैं, लूका ने घटनाओं को बिलकुल सही-सही दर्ज़ किया। यही बात हमें प्रेरितों की किताब में भी देखने को मिलती है। सर विलियम एम. रामसे, प्रेरितों की किताब के लेखक को “अव्वल दर्जे के इतिहासकारों में से एक” मानते हैं। वे ऐसा क्यों कहते हैं, इसकी वजह समझाते हुए बताते हैं: “एक महान इतिहासकार में पहली और सबसे ज़रूरी खूबी होती है, सच्चाई। उसकी कही हर बात भरोसे के लायक होनी चाहिए।”a
5 आइए एक मिसाल पर गौर करें जो दिखाती है कि लूका घटनाओं को सही-सही दर्ज़ करता था। एडविन स्मिथ, पहले विश्वयुद्ध के दौरान भूमध्य सागर में ब्रिटेन के छोटे जंगी जहाज़ों का कमांडर था। उसने पत्रिका, पतवार (अँग्रेज़ी) मार्च सन् 1947 में लिखा: “पुराने ज़माने के जहाज़ों में आज के जहाज़ों की तरह पीछे की तरफ एक पतवार नहीं होती थी। इसके बजाय जहाज़ के दायीं-बायीं दोनों तरफ, दो बड़े पतवार या चप्पू होते थे। इसलिए संत लूका ने पतवार के लिए बहुवचन का इस्तेमाल किया। [प्रेरितों 27:40] . . . हमारी जाँच से पता चला है कि लूका ने इस जहाज़ की यात्रा के बारे में जो भी जानकारी दी, जैसे कि कैसे जहाज़ शुभ-लंगरबारी नाम के बंदरगाह से निकलकर मिलिते के किनारे तक आते-आते टूट गया था, वह जानकारी बाहरी सबूतों के मुताबिक एकदम सच्ची और भरोसेमंद है। इसके अलावा, लूका के मुताबिक जहाज़ ने यात्रा करने में कितना समय लगाया, वह नाविकों के हिसाब से मेल खाता है। और आखिरकार यह जहाज़ जिस जगह पर पहुँचा, उस जगह के बारे में लूका का ब्यौरा एकदम सही है। ये सारी बातें दिखाती हैं कि लूका ने खुद यह सफर तय किया था। इससे यह भी साबित होता है कि लूका ने जो देखा और लिखा, वह सौ-फीसदी सच्चा और भरोसेमंद है।”b
6 पुरातत्व की खोज भी इस बात को पुख्ता करती है कि प्रेरितों की किताब सच्ची है। मिसाल के लिए, इफिसुस की खुदाई करने पर अरतिमिस का मंदिर और वह प्राचीन रंगशाला मिली है, जहाँ इफिसुस के लोगों ने प्रेरित पौलुस के खिलाफ दंगा मचाया था। (प्रेरि. 19:27-41) ऐसे शिलालेख भी मिले हैं, जो साबित करते हैं कि लूका का थिस्सलुनीके के अधिकारियों के लिए “नगर के हाकिमों” उपाधि का इस्तेमाल करना सही था। (17:6, 8) मिलिते से मिले दो शिलालेख दिखाते हैं कि लूका का पुबलियुस को मिलिते का “प्रधान” कहना भी सही था।—28:7.c
7 इसके अलावा, लूका ने पतरस, स्तिफनुस, कुरनेलियुस, तिरतुल्लुस, पौलुस और दूसरों के जितने भाषण दर्ज़ किए हैं, उनकी शैली और रचना एक-दूसरे से अलग है। यहाँ तक कि अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग लोगों को दिए पौलुस के भाषणों की शैली में भी फर्क देखा जा सकता है। यह दिखाता है कि लूका ने सिर्फ वही बातें दर्ज़ कीं, जिन्हें खुद उसने सुना था या दूसरे चश्मदीद गवाहों ने उसे बताया था। ज़ाहिर है कि लूका मनगढ़ंत कहानियाँ लिखनेवाला नहीं था।
8 लूका की निजी ज़िंदगी के बारे में बहुत कम जानकारी दी गयी है। लूका खुद एक प्रेरित नहीं था, मगर प्रेरितों के साथ उसका काफी मेल-जोल था। (लूका 1:1-4) तीन मौकों पर प्रेरित पौलुस लूका का नाम लेकर उसका ज़िक्र करता है। (कुलु. 4:10, 14; 2 तीमु. 4:11; फिले. 24) कुछ सालों के लिए लूका पौलुस का करीबी साथी रहा और पौलुस ने उसे “प्रिय वैद्य” कहा। प्रेरितों की किताब में कुछ जगहों पर “वे” शब्द, तो कुछ जगहों पर “हम” शब्द इस्तेमाल हुआ है। यह दिखाता है कि लूका पौलुस की दूसरी मिशनरी यात्रा में उसके साथ त्रोआस में था। फिर शायद वह फिलिप्पी में रह गया, जब तक कि पौलुस कुछ सालों बाद वहाँ नहीं लौटा। इसके बाद, वह फिर पौलुस के साथ रोम गया, जहाँ पौलुस के मुकद्दमे की सुनवायी होनेवाली थी।—प्रेरि. 16:8, 10; 17:1; 20:4-6; 28:16.
क्यों फायदेमंद है
32 सुसमाचार की किताबों के साथ-साथ प्रेरितों की किताब भी गवाही देती है कि इब्रानी शास्त्र सच्चा है और परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है। जब पिन्तेकुस्त का पर्व नज़दीक था, तब पतरस ने दो भविष्यवाणियों की पूर्ति का हवाला दिया जो “पवित्र आत्मा ने दाऊद के मुख से यहूदा के विषय में” कही थीं। (प्रेरि. 1:16, 20; भज. 69:25; 109:8) फिर पिन्तेकुस्त के दिन पतरस ने हैरत में पड़ी भीड़ से कहा कि वे उस भविष्यवाणी को पूरा होते देख रहे हैं, “जो योएल भविष्यद्वक्ता के द्वारा कही गई [थी]।”—प्रेरि. 2:16-21; योए. 2:28-32; प्रेरितों 2:25-28, 34, 35 की भजन 16:8-11 और भजन 110:1 के साथ भी तुलना कीजिए।
33 मंदिर के बाहर एक दूसरी भीड़ को यकीन दिलाने के लिए कि इब्रानी शास्त्र सच्चा और परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है, पतरस ने एक बार फिर उससे हवाला दिया। उसने पहले मूसा का हवाला दिया और उसके बाद कहा: “सामुएल से लेकर उसके बाद वालों तक जितने भविष्यद्वक्ताओं ने बात कहीं उन सब ने इन दिनों का सन्देश दिया है।” बाद में, महासभा के सामने पतरस ने भजन 118:22 का हवाला देकर बताया कि मसीह, यानी जिस पत्थर को उन्होंने निकम्मा ठहराया, वही “कोने का सिरा” बन गया। (प्रेरि. 3:22-24; 4:11) फिलिप्पुस ने कूशी खोजे को समझाया कि यशायाह 53:7, 8 की भविष्यवाणी कैसे पूरी हुई। और जब वह सारी बातें समझ गया, तो उसने फिलिप्पुस से बपतिस्मा देने की गुज़ारिश की। (प्रेरि. 8:28-36) उसी तरह, पतरस ने कुरनेलियुस को यीशु के बारे में बताते वक्त यह पुख्ता किया: “उस की सब भविष्यवक्ता गवाही देते हैं।” (10:43) जब खतना के मसले पर वाद-विवाद चल रहा था, तब याकूब ने अपने फैसले को पुख्ता करने के लिए यह कहा: “इस से भविष्यवक्ताओं की बातें मिलती हैं, जैसा लिखा है।” (15:15-18) प्रेरित पौलुस ने भी इब्रानी शास्त्र से हवाले दिए। (26:22; 28:23, 25-27) चेलों ने और उनके सुननेवालों ने इब्रानी शास्त्र को परमेश्वर के वचन का हिस्सा माना। इससे पुख्ता होता है कि यह शास्त्र ईश्वर-प्रेरित है।
34 प्रेरितों की किताब बहुत फायदेमंद है, क्योंकि यह बताती है कि मसीही कलीसिया की शुरूआत कैसे हुई और यह पवित्र आत्मा की शक्ति में कैसे बढ़ती गयी। इसके जानदार ब्यौरे में, हम परमेश्वर की आशीष से हुई बढ़ोतरी, पहली सदी के मसीहियों की हिम्मत और खुशी, ज़ुल्मों के बावजूद उनका अटल बने रहना, और सेवा का उनका जज़्बा साफ देख सकते हैं। पौलुस ने यह जज़्बा तब दिखाया जब वह मकिदुनिया जैसे पराए देश में सेवा करने के लिए तुरंत राज़ी हो गया। (4:13, 31; 15:3; 5:28, 29; 8:4; 13:2-4; 16:9, 10) पहली सदी और आज की मसीही कलीसिया में कोई फर्क नहीं है। क्योंकि आज भी कलीसिया प्यार और एकता की डोर में बँधी हुई है और इसका मकसद भी एक है। वह है, पवित्र आत्मा के निर्देशन में “परमेश्वर के बड़े बड़े कामों” का ऐलान करना।—2:11, 17, 45; 4:34, 35; 11:27-30; 12:25.
35 प्रेरितों की किताब बताती है कि मसीहियों को परमेश्वर के राज्य का प्रचार कैसे करना चाहिए। इस मामले में पौलुस खुद एक मिसाल था। उसने कहा: “जो जो बातें तुम्हारे लाभ की थीं, उन को बताने और लोगों के साम्हने और घर घर सिखाने से कभी न झिझका।” फिर उसने आगे बताया: “मैं अच्छी तरह गवाही देता रहा।” (NW) पूरी किताब में ‘अच्छी तरह गवाही देने’ पर बार-बार ज़ोर दिया गया है और किताब के आखिर में इस बात को और भी ज़बरदस्त तरीके से बताया गया है। वह कैसे? कैद में रहते हुए भी प्रचार और सिखाने के काम के लिए पौलुस की भक्ति को इन शब्दों में बयान किया गया है: “वह परमेश्वर के राज्य की गवाही देता हुआ, और मूसा की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं की पुस्तकों से यीशु के विषय में समझा समझाकर भोर से सांझ तक वर्णन करता रहा।” आइए हम भी पौलुस की तरह तन-मन से राज्य के कामों में लगे रहें!—20:20, 21; 28:23; 2:40; 5:42; 26:22.
36 पौलुस ने इफिसुस के अध्यक्षों को जो भाषण दिया, उससे आज के अध्यक्षों को कारगर सलाह मिलती है। अध्यक्ष पवित्र आत्मा से ठहराए जाते हैं, इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि वे ‘अपनी और पूरे झुंड की चौकसी करें।’ उन्हें झुंड की प्यार से देखभाल करनी चाहिए और फाड़नेवाले भेड़ियों से उनकी हिफाज़त करनी चाहिए। सच, यह कोई मामूली ज़िम्मेदारी नहीं! अध्यक्षों को हमेशा चौकस रहना चाहिए और परमेश्वर के अनुग्रह के वचन में बढ़ते रहना चाहिए। जब वे निर्बलों को सँभालने में मेहनत करते हैं, तब उन्हें ‘प्रभु यीशु की बातें स्मरण रखनी चाहिए, जो उस ने आप ही कहा है; कि लेने से देना धन्य है।’—20:17-35.
37 पौलुस ने जो दूसरे भाषण दिए, उनसे भी हम बाइबल के सिद्धांत सीख सकते हैं। इसकी एक मिसाल लीजिए। अरियुपगुस पर इपिकूरी और स्तोईकी लोगों को भाषण देते वक्त, उसने लाजवाब तर्क का इस्तेमाल किया। सबसे पहले वह उन शब्दों का हवाला देता है, जो एक वेदी पर लिखे होते हैं “अनजाने ईश्वर के लिए।” फिर वह उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करके समझाता है कि सच्चा परमेश्वर, जो स्वर्ग और पृथ्वी का मालिक है और जिसने एक ही मूल से सब जातियाँ बनायी है, “वह हम में से किसी से दूर नहीं।” इसके बाद, वह उनके एक कवि के शब्दों का हवाला देकर कहता है, “हम तो उसी के वंश भी हैं।” यह कहकर वह उन्हें दिखाता है कि यह मानना कितनी बड़ी बेवकूफी है कि वे सोने, चाँदी या पत्थरों की बेजान मूरतों से आए हैं। इस तरह पौलुस बड़ी कुशलता से साबित करता है कि जीवित परमेश्वर ही इस पूरे जहान का महाराजाधिराज और मालिक है। आखिर में ही वह पुनरुत्थान के बारे में बात करता है, पर तब भी वह मसीह के नाम का कोई ज़िक्र नहीं करता। वह लोगों को अपनी बात समझाने में कामयाब होता है कि एक ही सच्चा परमेश्वर है, जो इस पूरे जहान का महाराजाधिराज और मालिक है। नतीजा, कुछ लोग विश्वासी बनते हैं।—17:22-34.
38 प्रेरितों की किताब हमें “सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र” का लगातार और गहरा अध्ययन करने का बढ़ावा देती है। जब पौलुस ने बिरीया में पहली बार प्रचार किया, तब वहाँ के यहूदियों ने “बड़ी लालसा से वचन ग्रहण किया, और प्रति दिन पवित्र शास्त्रों में ढूंढ़ते रहे कि ये बातें योंहीं हैं, कि नहीं।” इसलिए पौलुस ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें “भले” लोग कहा। (17:11) आज भी अगर हम यहोवा की आत्मा से चलाए जानेवाली कलीसिया से जुड़े रहकर शास्त्र में ढूँढ़-ढाँढ़ करें, तो हमें बढ़िया आशीषें मिलेंगी। हमें यकीन होगा कि हम जो बातें सीख रहे हैं, वे एकदम सच्ची हैं और हमारा विश्वास चट्टान की तरह मज़बूत होगा। इस तरह के अध्ययन से ही एक इंसान परमेश्वर के सिद्धांतों की समझ हासिल कर सकता है। इनमें से कुछ सिद्धांत प्रेरितों 15:29 में बताए गए हैं। इस आयत में यरूशलेम में प्रेरितों और तजुरबेकार भाइयों से बने शासी निकाय ने यह फैसला सुनाया कि आत्मिक इस्राएल के लिए खतना करवाना ज़रूरी नहीं, लेकिन उन्होंने मूर्तिपूजा, लहू और व्यभिचार से दूर रहने की सख्त हिदायत दी।
39 इसमें कोई शक नहीं कि पहली सदी के चेलों ने ईश्वर-प्रेरित शास्त्र का गहरा अध्ययन किया था। तभी ज़रूरत पड़ने पर वे इससे हवाले दे सके और उन्हें लागू कर सके। सही ज्ञान और परमेश्वर की आत्मा ने उन्हें ज़ुल्मों की आँधी झेलने की हिम्मत दी। पतरस और यूहन्ना ने सभी वफादार मसीहियों के लिए अच्छी मिसाल रखी, जब उन्होंने बड़े हियाव से विरोध करनेवाले हाकिमों से कहा: “तुम ही न्याय करो, कि क्या यह परमेश्वर के निकट भला है, कि हम परमेश्वर की बात से बढ़कर तुम्हारी बात मानें। क्योंकि यह तो हम से हो नहीं सकता, कि जो हम ने देखा और सुना है, वह न कहें।” फिर जब उन्हें दोबारा उस महासभा के सामने लाया गया, जिसने उन्हें यीशु के नाम से उपदेश न देने का “कड़ा आदेश” (नयी हिन्दी बाइबिल) दिया था, तब भी उन्होंने साफ-साफ कहा: “मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही कर्तव्य कर्म है।” इस निडर ऐलान से हाकिमों को अच्छी गवाही मिली। और इसका यह असर हुआ कि व्यवस्थापक, गमलीएल ने उपासना करने की आज़ादी के पक्ष में अपनी मशहूर बात कही जिससे प्रेरितों को रिहा किया गया।—4:19, 20; 5:28, 29, 34, 35, 38, 39.
40 यहोवा के राज्य से जुड़ा उसका शानदार मकसद ही पूरी बाइबल का खास विषय है। और प्रेरितों की किताब में इसी विषय पर बार-बार ज़ोर दिया गया है। किताब की शुरूआत में बताया गया है कि यीशु स्वर्ग लौटने से पहले 40 दिनों तक “परमेश्वर के राज्य की बातें करता रहा।” जब उसके चेलों ने उससे राज्य की बहाली के बारे में पूछा, तो जवाब में उसने कहा कि उन्हें सबसे पहले पृथ्वी की छोर तक उसके बारे में गवाही देनी होगी। (1:3, 6, 8) फिर चेलों ने यरूशलेम में बुलंद इरादे और हियाव के साथ राज्य का प्रचार किया। ज़ुल्मों का दौर शुरू हुआ जिस वजह से स्तिफनुस को पत्थरवाह करके मार डाला गया और कई चेले नए इलाकों में तितर-बितर हो गए। (7:59, 60) प्रेरितों की किताब बताती है कि फिलिप्पुस ने सामरिया में ‘परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार’ सुनाया और उसे बहुत कामयाबी मिली। वह यह भी बताती है कि पौलुस और उसके साथियों ने एशिया, कुरिन्थुस, इफिसुस और रोम में “राज्य” का ऐलान किया। पहली सदी के ये मसीही यहोवा और उसकी आत्मा पर पूरा-पूरा भरोसा रखने की बेहतरीन मिसाल हैं। (8:5, 12; 14:5-7, 21, 22; 18:1, 4; 19:1, 8; 20:25; 28:30, 31) उनका धधकता जोश और साहस देखकर साथ ही, यहोवा ने उनकी मेहनत पर जो बेशुमार आशीषें दीं, उन्हें देखकर हमें बढ़ावा मिलता है कि हम भी “परमेश्वर के राज्य की अच्छी तरह गवाही” देने में लगे रहें।—28:23 NW.
[फुटनोट]
a मुसाफिर संत पौलुस (अँग्रेज़ी), सन् 1895, पेज 4.
b इसका हवाला 22 जुलाई, 1947 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी) के पेज 22-3 में दिया गया था; 8 अप्रैल, 1971 की सजग होइए! (अँग्रेज़ी) के पेज 27-8 भी देखिए।
c इंसाइट ऑन द स्क्रिप्चर्स्, भाग 1, पेज 153-4, 734-5; भाग 2, पेज 748.