‘वाह! परमेश्वर की बुद्धि क्या ही अथाह है!’
“वाह! परमेश्वर की दौलत और बुद्धि और ज्ञान की गहराई क्या ही अथाह है! उसके फैसले हमारी सोच से कितने परे और उसके मार्ग कैसे अगम हैं!”—रोमि. 11:33.
1. बपतिस्मा पाए हुए मसीहियों के लिए सबसे बड़ा सम्मान क्या है?
आपको अब तक का सबसे बड़ा सम्मान क्या मिला है? पहले-पहल शायद आपको किसी ज़िम्मेदारी का खयाल आए या वह दिन याद आए जब आपको खास इज़्ज़त बख्शी गयी थी। लेकिन बपतिस्मा पाए हुए मसीहियों के लिए सबसे बड़ा सम्मान है, एकमात्र सच्चे परमेश्वर यहोवा के साथ करीबी रिश्ता, जिसकी वजह से हम ‘परमेश्वर को जान’ पाए।—1 कुरिं. 8:3; गला. 4:9.
2. यह क्यों इतना बड़ा सम्मान है कि हम यहोवा को जानें और वह हमें जाने?
2 यह क्यों इतने बड़े सम्मान की बात है कि हम यहोवा को जानें और यहोवा हमें जाने? क्योंकि वह न सिर्फ पूरे विश्व में सबसे महान है बल्कि वह अपने प्यार करनेवालों की रक्षा भी करता है। भविष्यवक्ता नहूम ने परमेश्वर की प्रेरणा से लिखा: “यहोवा भला है; संकट के दिन में वह दृढ़ गढ़ ठहरता है, और अपने शरणागतों की सुधी रखता है।” (नहू. 1:7; भज. 1:6) इतना ही नहीं, हमारी हमेशा की ज़िंदगी सच्चे परमेश्वर और उसके बेटे यीशु मसीह को जानने पर टिकी है।—यूह. 17:3.
3. परमेश्वर को जानने में क्या शामिल है?
3 यहोवा को जानने का मतलब सिर्फ उसके नाम को जानना नहीं है। हमें उसे एक दोस्त के रूप में जानना चाहिए और उसकी पसंद-नापसंद को समझना चाहिए। इतना ही नहीं उस ज्ञान के हिसाब से जीना भी बहुत ज़रूरी है क्योंकि इससे ज़ाहिर होगा कि हम परमेश्वर को करीब से जानते हैं। (1 यूह. 2:4) लेकिन अगर हम यहोवा को वाकई अच्छी तरह जानना चाहते हैं तो कुछ और करने की ज़रूरत होगी। हमें न सिर्फ यह जानना होगा कि उसने क्या-क्या काम किए हैं बल्कि यह भी कि उसने वे कैसे और क्यों किए। हम जितना यहोवा के मकसदों को समझेंगे उतना ही हम ‘परमेश्वर की अथाह बुद्धि’ का बखान किए बिना नहीं रह पाएँगे।—रोमि. 11:33.
मकसद का परमेश्वर
4, 5. (क) बाइबल में शब्द “मकसद” का क्या मतलब है? (ख) समझाइए कि मकसद को कैसे अलग-अलग तरीकों से पूरा किया जा सकता है?
4 यहोवा मकसद का परमेश्वर है और बाइबल उसके “युग-युग से चले आ रहे . . . मकसद” के बारे में बताती है। (इफि. 3:10, 11) इन शब्दों का क्या मतलब है? बाइबल में इस्तेमाल किया शब्द “मकसद” एक नियत लक्ष्य को दर्शाता है जिसे कई तरीकों से पाया जा सकता है।
5 उदाहरण के लिए: एक व्यक्ति को शायद किसी खास जगह जाना है। अपनी मंज़िल तक पहुँचना उसका लक्ष्य या मकसद है। वहाँ पहुँचने के लिए वह यातायात के अलग-अलग साधनों और रास्तों को अपना सकता है। अपने चुने हुए रास्ते पर जाते वक्त अचानक उसके सामने कुछ परेशानियाँ खड़ी हो सकती हैं, मसलन मौसम खराब हो सकता है, गाड़ियों का जाम लग सकता है या रास्ता बंद हो सकता है। ऐसे में उसे शायद दूसरा रास्ता लेना पड़े। हालात चाहे जो हों, फेरबदल करके वह अपनी मंज़िल तक पहुँच जाता है और इस तरह अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है।
6. अपने मकसद को पूरा करने में यहोवा ने कैसे फेरबदल किए?
6 यहोवा ने भी अपने मकसद को अंजाम देने के लिए मुनासिब फेरबदल किए हैं। वह बुद्धिमान प्राणियों की आज़ाद मरज़ी को मद्देनज़र रखते हुए, बदलाव करने के लिए तैयार रहता है। आइए गौर करें कि यहोवा ने कैसे वादा किए हुए वंश के बारे में अपना मकसद पूरा किया। शुरूआत में यहोवा ने पहले इंसानी जोड़े से कहा: “फूलो-फलो, और पृथ्वी में भर जाओ, और उसको अपने वश में कर लो।” (उत्प. 1:28) क्या अदन के बाग में हुई बगावत की वजह से यह मकसद नाकाम हो गया? नहीं, बिलकुल नहीं! यहोवा ने तुरंत कदम उठाया और अपने मकसद को अंजाम तक पहुँचाने के लिए दूसरा “रास्ता” अपनाया। उसने उस “वंश” की पहचान बतायी जो बगावत के कारण हुए नुकसान की भरपायी करता।—उत्प. 3:15; इब्रा. 2:14-17; 1 यूह. 3:8.
7. निर्गमन 3:14 में यहोवा के बारे में जो कहा गया है, उससे हम क्या सीखते हैं?
7 यहोवा ने अपने बारे में जो बताया उससे पता चलता है कि अपने मकसद को पूरा करने के लिए उसमें हालात के मुताबिक खुद को ढालने की काबिलीयत है। जब यहोवा ने मूसा को काम सौंपा तो उसने अपनी बोलने की कमज़ोरी के बारे में बताया। तब यहोवा ने उसे भरोसा देते हुए कहा: “मैं जो हूं सो हूं।” फिर आगे कहा: “तू इस्राएलियों से यह कहना, कि जिसका नाम मैं हूं है उसी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।” (निर्ग. 3:14) मूल भाषा में, “मैं जो हूं सो हूं” इन शब्दों का मतलब है कि, यहोवा अपने मकसद को पूरा करने के लिए जब जो चाहे बन सकता है। यह बात प्रेषित पौलुस ने रोमियों की किताब के 11वें अध्याय में एक लाक्षणिक जैतून के पेड़ का उदाहरण देकर बड़ी खूबसूरती से समझायी। इस उदाहरण पर गौर करने से हम सभी यहोवा की गहरी बुद्धि के लिए अपनी कदर और बढ़ा पाएँगे, फिर चाहे हमारी आशा स्वर्ग में जीने की हो या हमेशा तक धरती पर जीने की।
भविष्यवाणी किए गए वंश के बारे में यहोवा का मकसद
8, 9. (क) कौन-से चार बुनियादी मुद्दे हमें जैतून के पेड़ का उदाहरण समझने में मदद दे सकते हैं? (ख) किस सवाल के जवाब से हमें पता चलेगा कि यहोवा अपने मकसद को पूरा करने के लिए फेरबदल करता है?
8 लेकिन इस उदाहरण पर गौर करने से पहले, हमारा यह जानना बहुत ज़रूरी है कि यहोवा ने किस तरह वंश के बारे में अपना मकसद पूरा किया। मसलन, इससे संबंधित चार बुनियादी मुद्दों पर ध्यान दीजिए। पहला, यहोवा ने अब्राहम से वादा किया कि “पृथ्वी की सारी जातियां अपने को तेरे वंश के कारण धन्य मानेंगी।” (उत्प. 22:17, 18) दूसरा, अब्राहम से निकले इसराएल राष्ट्र को आशा दी कि उससे “याजकों का राज्य” बनेगा। (निर्ग. 19:5, 6) तीसरा, जब पैदाइशी इसराएल के ज़्यादातर लोगों ने मसीहा को ठुकरा दिया, तब यहोवा ने “याजकों का राज्य” बनाने के लिए दूसरा रास्ता इख्तियार किया। (मत्ती 21:43; रोमि. 9:27-29) और चौथा, हालाँकि यीशु अब्राहम के वंश का सबसे पहला भाग बनता, लेकिन दूसरों को भी इस वंश का भाग बनने का सुअवसर दिया गया।—गला. 3:16, 29.
9 इन चार बुनियादी मुद्दों की मदद से हम समझ पाते हैं कि प्रकाशितवाक्य की किताब में बताए कुल 1,44,000 जन, स्वर्ग में यीशु के साथ राजा और याजकों के तौर पर शासन करेंगे। (प्रका. 14:1-4) इन्हें ‘इसराएल के बेटे’ भी कहा गया है। (प्रका. 7:4-8) पर क्या सभी 1,44,000 जन, पैदाइशी इसराएली यानी यहूदी हैं? जब हम इस सवाल का जवाब जानेंगे तब हमें पता चलेगा कि यहोवा अपने मकसद को अंजाम देने के लिए वाकई फेरबदल करता है। तो आइए रोमियों को लिखे पौलुस के खत से इसका जवाब जानें।
“याजकों का राज्य”
10. ऐसी कौन-सी आशा थी, जो सिर्फ इसराएल राष्ट्र को दी गयी थी?
10 जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इसराएल राष्ट्र यानी यहूदियों को यह आशा दी गयी थी कि उनके सदस्यों से “याजकों का राज्य और पवित्र जाति” बनेगा। (रोमियों 9:4, 5 पढ़िए।) लेकिन जब वादा किया हुआ वंश आता तो क्या होता? क्या इसराएल राष्ट्र पूरे-के-पूरे 1,44,000 आध्यात्मिक इसराएलियों को उत्पन्न करता जो अब्राहम के वंश का दूसरा भाग बनते?
11, 12. (क) जो स्वर्ग का राज्य शुरू करते उनका चुनाव कब शुरू हुआ और उस वक्त के ज़्यादातर यहूदियों का क्या रवैया था? (ख) यहोवा ने कैसे अब्राहम के वंश की ‘गिनती पूरी’ की?
11 रोमियों 11:7-10 पढ़िए। एक राष्ट्र के तौर पर पहली सदी के यहूदियों ने यीशु को ठुकरा दिया। इसलिए अब्राहम के वंश को पैदा करने की आशा उनसे छीन ली गयी। लेकिन ईसवी सन् 33 के पिन्तेकुस्त के दिन, जब स्वर्ग में ‘याजकों के राज्य’ के लिए चुनाव शुरू किया गया, तब कुछ नेकदिल यहूदियों ने इस न्यौते को कबूल किया। फिर भी इसराएलियों के उतने बड़े राष्ट्र के मुकाबले उनकी गिनती सिर्फ हज़ारों में थी, मानो वे “बचे हुए” यानी थोड़े हों।—रोमि. 11:5.
12 फिर यहोवा कैसे अब्राहम के वंश की ‘गिनती पूरी’ करता? (रोमि. 11:12, 25) गौर कीजिए, प्रेषित पौलुस ने क्या जवाब दिया: “मगर ऐसा नहीं है कि परमेश्वर का वचन मानो नाकाम हो गया। इसलिए कि [पैदाइशी] इसराएल के वंश से निकलनेवाले सभी सचमुच ‘इसराएली’ नहीं हैं। न ही अब्राहम के वंश के होने की वजह से वे सभी असल में उसके बच्चे हैं . . . इसका मतलब यह है कि जो खून के रिश्ते से अब्राहम के बच्चे हैं, वे असल में परमेश्वर के बच्चे नहीं, बल्कि जो परमेश्वर के वादे के मुताबिक उसके बच्चे हैं, वे ही अब्राहम का वंश माने जाते हैं।” (रोमि. 9:6-8) तो इसका मतलब है, यहोवा के लिए ज़रूरी नहीं था कि वह अब्राहम की संतानों के ज़रिए ही वंश के बारे में अपना मकसद पूरा करे।
लाक्षणिक जैतून का पेड़
13. (क) जैतून का पेड़, (ख) उसकी जड़, (ग) तना (घ) और उसकी डालियाँ क्या दर्शाती हैं?
13 प्रेषित पौलुस ने अब्राहम के वंश के दूसरे भाग की तुलना लाक्षणिक जैतून के पेड़ की डालियों से की।a (रोमि. 11:21) रोपा गया यह जैतून का पेड़ इस बात को दर्शाता है कि परमेश्वर ने कैसे अब्राहम की वाचा से जुड़ा अपना मकसद पूरा किया। इस पेड़ की जड़ पवित्र है और यहोवा को दर्शाती है जो आध्यात्मिक इसराएल को जीवन देता है। (यशा. 10:20; रोमि. 11:16) पेड़ का तना, यीशु को दर्शाता है जो अब्राहम के वंश का सबसे पहला भाग है। और सभी डालियाँ मिलकर अब्राहम के वंश के दूसरे भाग की ‘पूरी गिनती’ को दर्शाती हैं।
14, 15. रोपे गए जैतून के पेड़ से किन्हें ‘तोड़ा’ गया, और उनकी जगह पर किनकी कलमें लगायी गयीं?
14 जैतून के पेड़ के उदाहरण में जिन पैदाइशी यहूदियों ने यीशु को ठुकरा दिया वे जैतून के पेड़ की उन डालियों की तरह थे, जिन्हें “तोड़” दिया गया। (रोमि. 11:17) और इस तरह उन्होंने अब्राहम के वंश का भाग होने का मौका गँवा दिया। लेकिन उनकी जगह कौन लेता? पैदाइशी यहूदी जो अब्राहम के वंश से होने का बड़ा घमंड करते थे उनकी सोच के मुताबिक इस सवाल का जवाब पाना नामुमकिन था। लेकिन यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले ने पहले ही उन्हें आगाह कर दिया था कि अगर यहोवा चाहे तो वह अब्राहम के लिए पत्थरों से संतान पैदा कर सकता है।—लूका 3:8.
15 फिर यहोवा ने अपने मकसद को पूरा करने के लिए क्या किया? पौलुस ने समझाया कि जंगली जैतून की कलमें, रोपे गए जैतून के पेड़ में लगायी गयीं। (रोमियों 11:17, 18 पढ़िए।) उसी तरह पवित्र शक्ति से अभिषिक्त मसीहियों की लाक्षणिक कलमें, रोपे गए लाक्षणिक जैतून के पेड़ में लगायी गयीं। और इन अभिषिक्त मसीहियों में रोम की मंडली के कुछ सदस्य भी शामिल थे। इस तरह वे अब्राहम के वंश का भाग बन गए। दरअसल वे जंगली जैतून के पेड़ की डालियाँ थे जिन्हें इस खास वाचा का भाग बनने की कोई आशा नहीं थी। लेकिन यहोवा ने उनके लिए आध्यात्मिक यहूदी बनने का रास्ता खोल दिया।—रोमि. 2:28, 29.
16. प्रेषित पतरस नए आध्यात्मिक राष्ट्र के गठन के बारे में कैसे समझाता है?
16 प्रेषित पतरस हालात को इस तरह समझाता है: “वह तुम्हारे लिए [आत्मिक इसराएल, जिसमें अन्यजाति के मसीही शामिल हैं] बेशकीमती है क्योंकि तुम [यीशु] पर यकीन करते हो। मगर जो उस पर यकीन नहीं करते, उनके बारे में शास्त्र कहता है कि ‘वही पत्थर जिसे राजमिस्त्रियों ने ठुकराया, कोने का मुख्य पत्थर बन गया है,’ और ‘ठोकर खिलानेवाला पत्थर और ठेस पहुँचानेवाली चट्टान’ बन गया है। . . . मगर तुम एक चुना हुआ वंश, शाही याजकों का दल और एक पवित्र राष्ट्र हो और परमेश्वर की खास संपत्ति बनने के लिए चुने गए लोग हो, ताकि तुम सारी दुनिया में उसके महान गुणों का ऐलान करो जिसने तुम्हें अंधकार से निकालकर अपनी शानदार रौशनी में बुलाया है। क्योंकि एक वक्त ऐसा था जब तुम परमेश्वर के खास लोग नहीं थे, मगर अब उसके लोग हो। तुम ऐसे थे जिन पर दया नहीं दिखायी गयी थी, मगर अब ऐसे लोग हो जिन पर दया दिखायी गयी है।”—1 पत. 2:7-10.
17. जो यहोवा ने किया वह “प्रकृति के खिलाफ” कैसे था?
17 यहोवा ने कुछ ऐसा किया जिसके बारे में जानकर बहुत-से लोगों को हैरानी होगी। पौलुस ने इस काम को “प्रकृति के खिलाफ” बताया। (रोमि. 11:24) उसने ऐसा क्यों कहा? हाँ, यह अनहोनी और प्रकृति के खिलाफ बात लग सकती है कि एक जंगली पेड़ की कलम किसी रोपे गए पेड़ में लगायी जाए, मगर पहली सदी में कुछ किसान ऐसा ही करते थे।b उसी तरह यहोवा ने भी अनोखी बात की। यहूदियों की नज़र में अन्यजाति के लोग परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक फल पैदा करने के काबिल नहीं थे। लेकिन फिर भी यहोवा ने इन्हीं लोगों को एक ऐसी “जाति” या राष्ट्र का भाग बनाया जो राज के फल पैदा करता। (मत्ती 21:43) ईसवी सन् 36 से खतना रहित गैर यहूदियों की कलमें, रोपे गए लाक्षणिक जैतून के पेड़ में लगानी शुरू हुईं, जिनमें सबसे पहले कुरनेलियुस को अभिषिक्त करके चुना गया।—प्रेषि. 10:44-48.c
18. ईसवी सन् 36 के बाद भी पैदाइशी यहूदियों के सामने क्या मौका था?
18 क्या इसका मतलब यह था कि ईसवी सन् 36 से पैदाइशी यहूदियों को अब्राहम के वंश का भाग बनने का कोई मौका नहीं था? नहीं, ऐसा नहीं है। पौलुस ने बताया: “अगर वे [पैदाइशी यहूदी] भी विश्वास दिखाने लगें, तो उनकी भी कलम लगायी जाएगी। इसलिए कि परमेश्वर उन्हें दोबारा कलम लगाने के काबिल है। इसलिए कि अगर तुझे जंगली जैतून में से काटकर, बाग में उगाए गए असली जैतून के पेड़ में प्रकृति के खिलाफ, कलम लगाया गया, तो ये असली डालियाँ अपने ही जैतून के पेड़ में और भी आसानी से क्यों न कलम लगायी जाएँगी!”d—रोमि. 11:23, 24.
“सारा इसराएल उद्धार पाएगा”
19, 20. लाक्षणिक जैतून के पेड़ के उदाहरण से हम यहोवा के बारे में क्या जान पाते हैं?
19 जी हाँ, यहोवा ने “परमेश्वर के इसराएल” के लिए अपना मकसद बड़े ही शानदार तरीके से पूरा किया। (गला. 6:16) पौलुस ने कहा: “सारा इसराएल उद्धार पाएगा।” (रोमि. 11:26) यहोवा के ठहराए वक्त में “सारा इसराएल” यानी आध्यात्मिक इसराएलियों की पूरी गिनती, स्वर्ग में राजा और याजक के तौर पर राज करेगा। और यहोवा का मकसद पूरा होने से कोई नहीं रोक सकेगा!
20 जैसा कि पहले बताया गया था, अब्राहम का वंश यानी यीशु और 1,44,000 जन मिलकर सब “राष्ट्रों के लोगों” पर आशीषें बरसाएँगे। ( रोमि. 11:12; उत्प. 22:18) इस तरह परमेश्वर के सभी लोग इस इंतज़ाम का फायदा उठाएँगे। जब हम इस बात पर गौर करते हैं कि यहोवा कैसे युग-युग से चले आ रहे अपने मकसद को पूरा करता है, तब हम वाकई “परमेश्वर की . . . बुद्धि और ज्ञान की गहराई” से हैरान हुए बिना नहीं रह पाते!—रोमि. 11:33.
[फुटनोट]
a पौलुस ने जैतून के पेड़ का जो उदाहरण दिया, वह पैदाइशी इसराएल को नहीं दर्शाता। पैदाइशी इसराएल ने राजा और याजक पैदा किए मगर वह पूरा राष्ट्र याजकों का राज्य नहीं था क्योंकि व्यवस्था में इसराएल के राजाओं को याजक बनने की इजाज़त नहीं थी। इसलिए पौलुस ने जब इस पेड़ का उदाहरण दिया तब वह आध्यात्मिक इसराएल की बात कर रहा था कि किस तरह परमेश्वर उनसे “याजकों का राज्य” पैदा करने का अपना मकसद पूरा करेगा। जैतून के पेड़ के बारे में इस लेख में नयी समझ दी गयी है। इससे पहले जो समझ थी, उसकी जानकारी 15 अगस्त, 1983 की प्रहरीदुर्ग (अँग्रेज़ी) के पेज 14-19 में छपी थी।
b “जंगली जैतून के पेड़ की कलमें क्यों लगायी जाती हैं?” बक्स देखिए।
c पैदाइशी यहूदियों को आध्यात्मिक राष्ट्र बनने के लिए साढ़े तीन साल का वक्त दिया गया था। और यह घटना इन सालों के आखिरी दौर में हुई। 70 हफ्तों के बारे में की गयी भविष्यवाणी इसको अच्छी तरह समझाती है।—दानि. 9:27.
d रोमियों 11:24 में जिस यूनानी भाषा के उपसर्ग का अनुवाद “बाग” किया गया है, उसका मतलब है “बढ़िया, उत्तम” या “अपने वातावरण में अच्छी तरह फलने-फूलनेवाला।” यह उपसर्ग खास तौर पर उन चीज़ों के साथ इस्तेमाल होता है, जो अपने उस मकसद को पूरा करती हैं जिसके लिए उन्हें बनाया गया है।
क्या आपको याद है?
• यहोवा जिस तरह से अपने मकसद को अंजाम देता है उससे हम क्या सीखते हैं?
• रोमियों के 11वें अध्याय में ये किन्हें दर्शाते हैं?
जैतून का पेड़
जड़
तना
डालियाँ
• कलमें लगाना “प्रकृति के खिलाफ” क्यों था?
[पेज 24 पर बक्स/तसवीर]
जंगली जैतून के पेड़ की कलमें क्यों लगायी जाती हैं?
▪ लूशीअस जून्यस मॉडरेटस कॉल्यमैला एक रोमी सैनिक और किसान था जो पहली सदी के दौरान जीया। उसने देहात के जीवन और कृषि के बारे में 12 किताबें लिखीं जिसके लिए वह मशहूर हुआ।
अपनी पाँचवी किताब में उसने इस प्राचीन लोकोक्ति का हवाला दिया: “जो अपने जैतून के बाग को जोतता है, वह फल चाहता है, जो उसमें खाद डालता है, वह फल पाने के लिए तरसता है और जो उसकी छँटाई करता है वह फल पैदा करने के लिए उसे मजबूर करता है।”
जो पेड़ खूब हरे-भरे होते हैं मगर फल नहीं लाते, उनके बारे में वह यह तकनीक अपनाने की सलाह देता है: “अच्छा होगा अगर आप ऐसे पेड़ों में बरमे (एक औज़ार) से छेद करें। फिर जंगली जैतून के पेड़ की एक डाली काटकर उस छेद में कसकर बिठा दें। इसका नतीजा यह होगा कि उस पेड़ में फल पैदा करने की क्षमता आ जाएगी और वह बहुत-सा फल लाने लगेगा।”
[पेज 23 पर तसवीर]
क्या आप लाक्षणिक जैतून के पेड़ के उदाहरण का मतलब समझते हैं?