अध्याय 9
“जाओ और . . . लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ”
1-3. (क) जब खेत में हुई भरपूर पैदावार को अकेले काटना किसान के लिए मुश्किल होता है, तो वह क्या करता है? (ख) ईसवी सन् 33 के वसंत में यीशु को कौन-सी मुश्किल का सामना करना पड़ा? उसने यह मुश्किल कैसे पार की?
एक किसान बड़ी कशमकश में है। कुछ महीने पहले उसने अपने खेत जोतकर बीज बोए थे। जब अंकुर फूटे, तो उसने उनकी अच्छी देखभाल की। जब वे अंकुर बड़े होकर पौधे बने तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। अब उसकी मेहनत का फल मिलने का समय आ पहुँचा है। कटाई का वक्त आ गया है। मगर फसल इतनी ज़्यादा हुई है कि उसे अकेले काटना उसके बस की बात नहीं है। वह क्या करेगा? वह अकलमंदी दिखाते हुए किराए पर मज़दूर लाता है और उन्हें फसल काटने के लिए खेत में भेज देता है। अपने खून-पसीने से सींची हुई फसल इकट्ठी करने के लिए उसके पास बहुत कम वक्त है।
2 ईसवी सन् 33 के वसंत में जब यीशु को दोबारा ज़िंदा किया गया तो उसके सामने भी कुछ ऐसी ही मुश्किल थी। धरती पर अपनी सेवा के दौरान उसने सच्चाई के बीज बोए थे। अब फसल पककर तैयार खड़ी थी और पैदावार बहुतायत में हुई थी। दिलचस्पी दिखानेवाले बहुत-से लोगों को यीशु का चेला बनने के लिए इकट्ठा करने की ज़रूरत थी। (यूहन्ना 4:35-38) यीशु ने इस मुश्किल का सामना कैसे किया? स्वर्ग जाने से पहले, जब वह गलील के एक पहाड़ पर था तो उसने और ज़्यादा मज़दूर इकट्ठा करने के बारे में अपने चेलों को आज्ञा दी। उसने कहा: “इसलिए जाओ और सब राष्ट्रों के लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ और उन्हें . . . बपतिस्मा दो। और उन्हें वे सारी बातें मानना सिखाओ जिनकी मैंने तुम्हें आज्ञा दी है।”—मत्ती 28:19, 20.
3 यीशु के एक सच्चे चेले के लिए यह आज्ञा मानना सबसे ज़रूरी है। तो आइए तीन सवालों पर गौर करें। यीशु ने और ज़्यादा मज़दूरों को इकट्ठा करने की आज्ञा क्यों दी? उसने चेलों को इस काम की तालीम कैसे दी? इस आज्ञा में हम कैसे शामिल हैं?
ज़्यादा मज़दूरों की ज़रूरत क्यों पड़ी
4, 5. यीशु ने जो काम शुरू किया था उसे वह क्यों खत्म नहीं कर पाता? उसके स्वर्ग लौटने के बाद कौन उस काम को जारी रखता?
4 ईसवी सन् 29 में जब यीशु ने प्रचार सेवा शुरू की तो वह जानता था कि जो काम उसने शुरू किया है उसे वह अकेले पूरा नहीं कर पाएगा। क्योंकि धरती पर उसका कुछ ही समय बाकी रह गया था। इतने कम समय में वह सीमित इलाकों में ही प्रचार कर सकता था और कुछ ही लोगों को राज संदेश सुना सकता था। यह सच है कि उसने “इसराएल के घराने की खोयी हुई भेड़ों” यानी खास तौर पर यहूदियों और उन लोगों को प्रचार किया जिन्होंने यहूदी धर्म अपनाया था। (मत्ती 15:24) लेकिन वे ‘खोयी हुई भेड़ें’ पूरे इसराएल देश में फैली हुई थीं। और इसराएल देश का इलाका हज़ारों किलोमीटर लंबा-चौड़ा था। इसके अलावा, आगे चलकर पूरी दुनिया में खुशखबरी सुनायी जानी थी।—मत्ती 13:38; 24:14.
5 यीशु को एहसास था कि यह काम उसके जीते-जी पूरा नहीं हो पाएगा। अपने 11 वफादार प्रेषितों से उसने कहा: “मैं तुमसे सच-सच कहता हूँ, जो मुझ पर विश्वास दिखाता है, वह भी वे काम करेगा जो मैं करता हूँ और वह इनसे भी बड़े-बड़े काम करेगा, क्योंकि मैं पिता के पास जा रहा हूँ।” (यूहन्ना 14:12) यीशु स्वर्ग लौटनेवाला था, इसलिए उसके चेले प्रचार और सिखाने का काम जारी रखते। सिर्फ प्रेषित ही नहीं, बल्कि भविष्य में बननेवाले सारे चेले भी यह काम करते। (यूहन्ना 17:20) यीशु ने इस बात को बड़ी नम्रता से कबूल किया कि उसके चेले उससे “भी बड़े-बड़े” काम करेंगे। कैसे? तीन तरीकों से।
6, 7. (क) यीशु के चेले कैसे उससे भी बड़े-बड़े काम करते? (ख) हम कैसे दिखा सकते हैं कि यीशु ने अपने चेलों पर जो भरोसा दिखाया वह बेबुनियाद नहीं था?
6 पहला तरीका, यीशु के चेले ज़्यादा इलाकों में प्रचार करते। आज धरती के कोने-कोने में प्रचार किया जा रहा है। उन जगहों से कहीं आगे जहाँ कभी यीशु ने प्रचार किया था। दूसरा, वे ज़्यादा लोगों को प्रचार करते। यीशु मुट्ठी-भर चेलों को छोड़कर गया, मगर उनकी गिनती जल्द ही हज़ारों में पहुँच गयी। (प्रेषितों 2:41; 4:4) आज उसके चेलों की गिनती बढ़कर लाखों में हो गयी है और हर साल सैकड़ों-हज़ारों नए लोग बपतिस्मा ले रहे हैं। तीसरा, वे ज़्यादा लंबे समय तक प्रचार करते। यीशु ने सिर्फ साढ़े तीन साल प्रचार किया मगर उसके चेलों को प्रचार करते हुए 2,000 साल से भी ज़्यादा हो गए हैं।
7 जब यीशु ने कहा कि उसके चेले ‘इनसे भी बड़े-बड़े काम करेंगे’ तो वह उन पर अपना भरोसा दिखा रहा था। उसने उन्हें वह काम सौंपा जो उसकी नज़र में सबसे ज़रूरी था, यानी ‘परमेश्वर के राज की खुशखबरी’ का प्रचार और सिखाने का काम। (लूका 4:43) उसे यकीन था कि उसके चेले वफादारी से यह काम पूरा करेंगे। उसकी बात आज हमारे लिए क्या मायने रखती है? जब हम पूरे जोश के साथ और दिलो-जान से प्रचार काम में हिस्सा लेते हैं तो हम दिखाते हैं कि यीशु ने अपने चेलों पर जो भरोसा दिखाया वह बेबुनियाद नहीं था। क्या यह हमारे लिए बहुत बड़े सम्मान की बात नहीं है?—लूका 13:24.
गवाही देने के लिए मिली तालीम
8, 9. यीशु ने प्रचार में कैसी मिसाल रखी? हम उसकी मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
8 यीशु ने अपने चेलों को प्रचार के लिए सबसे बेहतरीन तालीम दी। इससे भी बढ़कर उसने उनके सामने एक उम्दा मिसाल रखी। (लूका 6:40) पिछले पाठ में हमने सीखा कि वह प्रचार के लिए कैसा रवैया रखता था। कुछ पल के लिए उन चेलों के बारे में सोचिए, जो यीशु के साथ प्रचार में जाते थे। उन्होंने गौर किया कि यीशु हर कहीं लोगों को प्रचार करता था। वह लोगों को झील के किनारे, पहाड़ियों पर, शहरों में, बाज़ारों में और घर-घर जाकर सिखाता था। (मत्ती 5:1, 2; लूका 5:1-3; 8:1; 19:5, 6) उन्होंने देखा कि यीशु कितनी मेहनत करता है। वह सुबह तड़के उठ जाता था और देर रात तक काम करता रहता था। प्रचार काम वह सिर्फ मन बहलाने और वक्त बिताने के लिए नहीं करता था। (लूका 21:37, 38; यूहन्ना 5:17) इसमें कोई शक नहीं कि चेलों को इस बात का आभास हो गया होगा कि यीशु यह काम इसलिए करता है क्योंकि वह लोगों को दिल से चाहता है। शायद चेले उसके चेहरे पर साफ पढ़ पाते थे कि यीशु के दिल में लोगों के लिए कितनी दया है। (मरकुस 6:34) आपके हिसाब से यह सब देखकर यीशु के चेलों पर कैसा असर हुआ होगा? अगर आप वहाँ होते तो आप पर कैसा असर होता?
9 मसीह के चेले होने के नाते हम भी उसकी तरह प्रचार करते हैं। “अच्छी तरह गवाही” देने में हम कोई कसर नहीं छोड़ते। (प्रेषितों 10:42) यीशु की तरह हम भी घर-घर जाकर लोगों को राज की खुशखबरी सुनाते हैं। (प्रेषितों 5:42) ज़रूरत पड़ने पर हम अपने शेड्यूल में फेरबदल करते हैं, ताकि हम जाकर लोगों को ऐसे वक्त में संदेश सुना सकें जब वे घर पर होते हैं। हम लोगों को खोजते और सूझ-बूझ से काम लेते हुए ऐसी जगहों में प्रचार करते हैं जहाँ बहुत-से लोग मिलते हैं जैसे, सड़क पर, पार्कों में, दुकानों में और काम की जगहों पर। हम प्रचार में “कड़ी मेहनत करते हुए संघर्ष” करते हैं, क्योंकि हम अपने काम को गंभीरता से लेते हैं। (1 तीमुथियुस 4:10) दूसरों के लिए गहरा प्यार हमें उकसाता है कि हम लोगों को प्रचार करने का कोई भी मौका हाथ से न जाने दें।—1 थिस्सलुनीकियों 2:8.
10-12. अपने चेलों को प्रचार में भेजने से पहले यीशु ने उन्हें कौन-से ज़रूरी सबक सिखाए?
10 यीशु ने एक और तरीके से अपने चेलों को तालीम दी। उसने उन्हें खुलकर निर्देशन दिया कि उन्हें प्रचार काम कैसे करना है। अपने 12 प्रेषितों और आगे चलकर 70 चेलों को प्रचार में भेजने से पहले उसने उनके साथ सभाएँ रखीं, जिनमें उसने उन्हें बहुत सारी हिदायतें दीं। (मत्ती 10:1-15; लूका 10:1-12) इस तालीम का अच्छा नतीजा निकला। लूका 10:17 में लिखा है: “सत्तर चेले बड़े आनंद के साथ लौटे।” आइए हम यीशु के सिखाए दो ज़रूरी सबक पर गौर करें, साथ ही यह देखें कि यीशु ने बाइबल के ज़माने की किन यहूदी परंपराओं को ध्यान में रखकर ये सबक सिखाए।
11 यीशु ने अपने चेलों को सिखाया कि यहोवा पर भरोसा रखो। उसने कहा: “अपने कमर-बंध की जेबों में न तो सोने, न चाँदी और न ताँबे के पैसे लेना। न ही सफर के लिए खाने की पोटली या दो-दो कुरते या जूतियाँ या लाठी लेना, क्योंकि काम करनेवाला भोजन पाने का हकदार है।” (मत्ती 10:9, 10) उन दिनों मुसाफिर अपनी कमर-बंध की जेबों में पैसे रखते थे, साथ ही खाने की पोटली और जूतियों की एक और जोड़ी लेकर चलते थे।a यीशु ने जब अपने चेलों से कहा कि उन्हें इन सब चीज़ों की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, तो एक तरह से वह कह रहा था: “यहोवा पर पूरा भरोसा रखो, वह तुम्हारी हर ज़रूरत पूरी करेगा।” मेहमाननवाज़ी दिखाना इसराएलियों की रीत थी और यहोवा उन लोगों को चेलों की मेहमाननवाज़ी के लिए उभारता जो खुशखबरी कबूल करते। इस तरह यहोवा उनकी ज़रूरतें पूरी करता।—लूका 22:35.
12 यीशु ने अपने चेलों को यह भी हिदायत दी कि उन्हें गैर-ज़रूरी बातों में अपना ध्यान नहीं लगाना है। उसने कहा: “राह में किसी को नमस्कार करने के लिए उसे गले न लगाना।” (लूका 10:4) क्या यीशु के कहने मतलब था कि उन्हें किसी से कोई मतलब नहीं रखना चाहिए या लोगों से कटे-कटे रहना चाहिए? नहीं, ऐसी बात नहीं है। बाइबल के ज़माने में किसी को नमस्कार करने का मतलब सिर्फ नमस्ते कहना भर नहीं होता था। उसमें वहाँ की रीत के मुताबिक बहुत से रिवाज़ शामिल थे और बहुत देर तक बातचीत करनी होती थी। बाइबल के एक विद्वान का कहना है: “पूरब के लोगों में पश्चिम के लोगों की तरह थोड़ा-सा झुकना या हाथ मिलाना जैसा अभिवादन नहीं होता था, उनमें कई बार गले मिलना और झुकना यहाँ तक कि ज़मीन पर पूरी तरह लेटकर दंडवत करना भी शामिल था। इन सबमें काफी समय लगता था।” इसलिए जब यीशु ने अपने चेलों से कहा कि रास्ते में किसी को नमस्कार मत करना तो वह एक तरह से कह रहा था: “तुम अपना ज़्यादा-से-ज़्यादा वक्त खुशखबरी सुनाने में लगाना क्योंकि यह संदेश जल्द-से-जल्द दिया जाना है।”b
13. हम कैसे दिखा सकते हैं कि यीशु ने पहली सदी के चेलों को जो निर्देशन दिए थे वे हमारे लिए भी बहुत मायने रखते हैं?
13 यीशु ने पहली सदी के अपने चेलों को जो निर्देशन दिए, वे हमारे लिए भी बहुत मायने रखते हैं। प्रचार काम करते वक्त हम यहोवा पर पूरा-पूरा भरोसा रखते हैं। (नीतिवचन 3:5, 6) हम अच्छी तरह जानते हैं कि अगर हम “पहले उसके राज . . . [की] खोज में लगे” रहें तो हमें किसी चीज़ की घटी नहीं होगी। (मत्ती 6:33) दुनिया-भर में पूरे समय के सेवक इस बात का सबूत दे सकते हैं कि जब भी उन पर कोई मुसीबत आयी तो यहोवा ने हाथ बढ़ाकर उनकी मदद की। (भजन 37:25) हम यह भी समझते हैं कि हमें उन चीज़ों या कामों से दूर रहना है जिनसे हमारा ध्यान प्रचार काम से बँट सकता है। अगर हम सावधान न रहें तो यह दुनिया आसानी से हमें अपने लक्ष्य से हटा सकती है। (लूका 21:34-36) लेकिन यह समय दूसरे कामों में उलझने का नहीं है। हमें जल्द-से-जल्द लोगों को संदेश सुनाना है, क्योंकि उनकी ज़िंदगी दाँव पर लगी हुई है। (रोमियों 10:13-15) अगर हम वक्त की नज़ाकत को हमेशा ध्यान में रखें, तो हम इस दुनिया के बेकार के कामों में नहीं उलझेंगे जिनमें हमारा समय और ताकत बरबाद हो सकती है। बल्कि हम अपने समय और ताकत का इस्तेमाल प्रचार में करेंगे। मत भूलिए कि वक्त कम रह गया है और कटाई का काम बहुत है।—मत्ती 9:37, 38.
एक आज्ञा जिसमें हम भी शामिल हैं
14. किस बात से ज़ाहिर होता है कि मत्ती 28:18-20 में दी यीशु की आज्ञा सभी चेलों पर लागू होती है? (फुटनोट भी देखिए।)
14 यीशु ने पुनरुत्थान के बाद अपने चेलों को आज्ञा दी कि “जाओ और . . . लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ।” इस तरह उसने उनको बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी। यीशु ने यह आज्ञा गलील के एक पहाड़ पर दी। उस वक्त उसके कई चेले वहाँ मौजूद थे। यीशु ने यह आज्ञा सिर्फ उन्हीं चेलों को ध्यान में रखकर नहीं दी, उसके मन में और भी लोग थे।c जिस काम की उसने आज्ञा दी उसके तहत “सब राष्ट्रों के लोगों” को राज का संदेश सुनाया जाना था और यह काम “दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्त तक” किया जाना था। इससे साफ हो जाता है कि यह आज्ञा यीशु के सभी चेलों पर लागू होती है, हम पर भी। आइए मत्ती 28:18-20 में लिखे यीशु के शब्दों को और ध्यान से समझने की कोशिश करें।
15. चेला बनाने की यीशु की आज्ञा मानना क्यों बुद्धिमानी है?
15 आज्ञा देने से पहले यीशु ने कहा: “स्वर्ग में और धरती पर सारा अधिकार मुझे दिया गया है।” (आयत 18) क्या यीशु को वाकई इतना बड़ा अधिकार दिया गया था? बिलकुल! वह प्रधान स्वर्गदूत है और लाखों-करोड़ों स्वर्गदूतों की अगुवाई करता है। (1 थिस्सलुनीकियों 4:16; प्रकाशितवाक्य 12:7) “मंडली का सिर” होने के नाते उसे धरती पर अपने चेलों पर भी अधिकार दिया गया है। (इफिसियों 5:23) सन् 1914 से वह स्वर्ग में मसीहाई राजा के तौर पर राज कर रहा है। (प्रकाशितवाक्य 11:15) उसके पास मरे हुओं को ज़िंदा करने की भी ताकत है। (यूहन्ना 5:26-28) अपने इतने बड़े अधिकार का ऐलान करने के ज़रिए यीशु ने दिखाया कि आगे वह जो कहने जा रहा है वह कोई सलाह नहीं बल्कि एक आज्ञा है। बुद्धिमानी इसी में है कि हम उसकी आज्ञा का पालन करें, क्योंकि उसने खुद से यह अधिकार नहीं लिया है, बल्कि परमेश्वर ने दिया है।—1 कुरिंथियों 15:27.
16. “जाओ” कहने के ज़रिए यीशु हमें क्या करने की आज्ञा दे रहा था? यीशु की आज्ञा के इस भाग को हम कैसे मानते हैं?
16 यीशु ने जब अपने चेलों को आज्ञा दी, तो उसने शुरूआत में कहा: “जाओ।” (आयत 19) इस तरह उसने आज्ञा दी कि दूसरों को राज का संदेश सुनाने में हमें पहल करनी है। यीशु की आज्ञा के इस भाग को हम कई तरीकों से मान सकते हैं। लोगों से मिलने का सबसे असरदार तरीका है घर-घर जाकर प्रचार करना। (प्रेषितों 20:20) हम दूसरे मौकों पर भी गवाही देने की कोशिश करते हैं। रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जब भी मुनासिब होता है, हम दूसरों को खुशखबरी सुनाने में पहल करते हैं। अपने इलाके की ज़रूरतों और हालात के हिसाब से हम प्रचार करने के अलग-अलग तरीके अपना सकते हैं। लेकिन एक बात जो नहीं बदलती, वह है कि हम ‘जाकर’ योग्य लोगों को ढूँढ़ते हैं।—मत्ती 10:11.
17. हम लोगों को यीशु का “चेला बनना” कैसे सिखाते हैं?
17 फिर यीशु ने अपनी आज्ञा का मकसद समझाया और कहा: “सब राष्ट्रों के लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ।” (आयत 19) हम कैसे लोगों को यीशु का ‘चेला बनना सिखा’ सकते हैं? देखा जाए तो चेला एक शिष्य होता है जो अपने गुरु से सीखता है। लोगों को चेला बनाने का मतलब यह नहीं कि बस उनके दिमाग में जानकारी भरते जाओ। जब हम दिलचस्पी दिखानेवाले किसी व्यक्ति के साथ बाइबल अध्ययन करते हैं तो हमारा मकसद होना चाहिए कि हम उसे मसीह के पीछे चलनेवाला बनना सिखाएँ। जहाँ भी मौका मिले हमें उसका ध्यान यीशु के उदाहरण की ओर खींचना चाहिए ताकि बाइबल विद्यार्थी यीशु को अपना गुरु और आदर्श माने और उसी तरह जीए जिस तरह यीशु जीया था और वही काम करे जो उसने किया।—यूहन्ना 13:15.
18. एक चेले की ज़िंदगी में बपतिस्मा सबसे बड़ा कदम क्यों है?
18 अपनी आज्ञा के एक ज़रूरी हिस्से को यीशु ने इन शब्दों में बताया: “उन्हें पिता, बेटे और पवित्र शक्ति के नाम से बपतिस्मा दो।” (आयत 19) एक चेले की ज़िंदगी में बपतिस्मा सबसे बड़ा कदम होता है। क्योंकि यह इस बात की निशानी होता है कि उसने पूरे दिल से परमेश्वर को अपनी ज़िंदगी समर्पित की है। इसलिए उद्धार पाने के लिए बपतिस्मा बेहद ज़रूरी है। (1 पतरस 3:21) बपतिस्मे के बाद एक चेला अगर यहोवा की सेवा में लगातार अपना भरसक करता रहे, तो आनेवाली नयी दुनिया में उसे हमेशा-हमेशा की आशीषें मिलेंगी। क्या आपने किसी को बपतिस्मा लेकर मसीह का चेला बनने में मदद दी है? मसीही सेवा में इससे ज़्यादा खुशी और किसी काम से नहीं मिल सकती।—3 यूहन्ना 4.
19. हम नए लोगों को क्या सिखाते हैं? बपतिस्मे के बाद भी सिखाने की ज़रूरत क्यों पड़ सकती है?
19 यीशु की आज्ञा में और क्या शामिल है, उसे समझाते हुए उसने कहा: “उन्हें वे सारी बातें मानना सिखाओ जिनकी मैंने तुम्हें आज्ञा दी है।” (आयत 20) हम नए लोगों को यीशु की आज्ञाएँ मानना सिखाते हैं, जिनमें परमेश्वर और पड़ोसियों से प्यार करना, साथ ही दूसरों को चेला बनाना शामिल है। (मत्ती 22:37-39) हम लगातार उन्हें यह सिखाते रहते हैं कि वे कैसे बाइबल की सच्चाई दूसरों को समझा सकते हैं और कैसे अपने बढ़ते विश्वास की पैरवी कर सकते हैं। जब वे साक्षियों के साथ मिलकर प्रचार करने के काबिल हो जाते हैं, तब हम उन्हें अपने साथ प्रचार में ले जाते हैं। हम उन्हें अपनी बातों और अपने उदाहरण से सिखाते हैं कि वे कैसे असरदार तरीके से प्रचार काम कर सकते हैं। हो सकता है कि बपतिस्मे के बाद भी हमें उन्हें कुछ समय तक मदद और हिदायतें देनी पड़ें, ताकि वे मसीह के पीछे चलने में आनेवाली चुनौतियों का सामना कर सकें।—लूका 9:23, 24.
‘मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ’
20, 21. (क) यीशु की आज्ञा मानने में हमें डरने की ज़रूरत क्यों नहीं हैं? (ख) यह वक्त धीमे पड़ने का क्यों नहीं है और हमें क्या ठान लेना चाहिए?
20 यीशु ने अपनी आज्ञा के आखिर में जो शब्द कहे उनसे बहुत ही दिलासा मिलता है। उसने कहा: “देखो! मैं दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्त तक हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।” (मत्ती 28:20) यीशु को पता था कि यह काम बड़ी ज़िम्मेदारी का है। उसे यह भी पता था कि यह काम पूरा करनेवालों को कई बार लोगों की नफरत और विरोध का सामना करना पड़ेगा। (लूका 21:12) लेकिन हमें डरने की ज़रूरत नहीं है। हमारा अगुवा यीशु मसीह यह उम्मीद नहीं करता कि हम इस काम को अकेले, बिना किसी की मदद के पूरा करें। यह जानकर हमें कितना हौसला मिलता है कि जिसे “स्वर्ग में और धरती पर सारा अधिकार . . . दिया गया है” वह इस आज्ञा को पूरा करने में हमारी मदद करने के लिए तैयार है!
21 यीशु ने अपने चेलों को यकीन दिलाया कि वह “दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्त तक” हमेशा प्रचार में उनके साथ रहेगा। अंत आने तक हमें यीशु की आज्ञा पूरी करते रहना चाहिए। यह वक्त धीमे पड़ने का नहीं है। क्योंकि आध्यात्मिक कटाई का काम ज़ोरों पर चल रहा है! सच्चाई कबूल करनेवाले भारी तादाद में इकट्ठे किए जा रहे हैं। मसीह के पीछे चलनेवालों के नाते आइए हम उस बड़ी ज़िम्मेदारी को पूरा करें, जो हमें सौंपी गयी है। मसीह ने हमें आज्ञा दी है कि “जाओ और . . . लोगों को मेरा चेला बनना सिखाओ।” आइए हम ठान लें कि हम अपना समय, ताकत और साधन इस आज्ञा को मानने में लगाएँगे।
a कमर-बंध शायद कपड़े या चमड़े की बनी पेटी होती थी जिसमें सिक्के रखे जाते थे। खाने की पोटली बड़ी होती थी, जो अकसर चमड़े की होती थी और जिसे कंधे पर लटकाया जाता था। उसमें खाने के अलावा दूसरे ज़रूरी सामान रखे जाते थे।
b एक बार भविष्यवक्ता एलीशा ने भी अपने सेवक गेहजी को ऐसे ही निर्देशन दिए। जब उसने गेहजी को एक स्त्री के घर भेजा जिसका बेटा मर गया था तो उसने गेहजी से कहा: “यदि मार्ग में कोई मिले तो उसे नमस्कार न करना।” (2 राजा 4:29, NHT) उस स्त्री के घर जल्द-से-जल्द पहुँचना बहुत ज़रूरी था, इसमें ज़रा भी देर नहीं की जानी थी।
c यीशु के ज़्यादातर चेले गलील में थे, इसलिए मत्ती 28:16-20 में दी घटना शायद तब की है जब यीशु दोबारा ज़िंदा होने के बाद “पाँच सौ से ज़्यादा” लोगों को दिखायी दिया। (1 कुरिंथियों 15:6) जब यीशु ने चेला बनाने की आज्ञा दी, तब शायद उसके सैकड़ों चेले वहाँ थे।