आज के लिए जीना या अनंत भविष्य के लिए?
“आशा के द्वारा तो हमारा उद्धार हुआ है।”—रोमियों ८:२४.
१. एपीक्युरी कौन-सी शिक्षा देते थे, और उस प्रकार के तत्त्वज्ञान ने कुछ मसीहियों को कैसे प्रभावित किया?
प्रेरित पौलुस ने कुरिन्थ में रह रहे मसीहियों को लिखा: “तुम में से कितने क्योंकर कहते हैं, कि मरे हुओं का पुनरुत्थान है ही नहीं?” (१ कुरिन्थियों १५:१२) प्रत्यक्षतः, यूनानी संत एपीक्युरस के विषैले तत्त्वज्ञान ने प्रथम-शताब्दी मसीहियों के बीच कुछ हद तक जगह बना ली थी। अतः पौलुस ने एपीक्युरसवादी शिक्षा की ओर ध्यान आकर्षित किया: “आओ, खाए-पीए, क्योंकि कल तो मर ही जाएंगे।” (१ कुरिन्थियों १५:३२) मृत्यु के बाद जीवन की किसी भी आशा का तिरस्कार करते हुए, इस तत्त्वज्ञानी के अनुयायी विश्वास करते थे कि जीवन में शारीरिक सुख-विलास ही एकमात्र या मुख्य लाभ है। (प्रेरितों १७:१८, ३२) एपीक्युरसवादी तत्त्वज्ञान आत्म-केंद्रित, दोषदर्शी, तथा कुल मिलाकर भ्रष्ट था।
२. (क) पुनरुत्थान को नकारना इतना ख़तरनाक क्यों था? (ख) पौलुस ने कुरिन्थ के मसीहियों का विश्वास कैसे दृढ़ किया?
२ पुनरुत्थान के इस इनकार का गंभीर अर्थ था। पौलुस ने तर्क किया: “यदि मरे हुओं का पुनरुत्थान ही नहीं, तो मसीह भी नहीं जी उठा। और यदि मसीह नहीं जी उठा, तो हमारा प्रचार करना भी व्यर्थ है; और तुम्हारा विश्वास भी व्यर्थ है। . . . यदि हम केवल इसी जीवन में मसीह से आशा रखते हैं तो हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं।” (१ कुरिन्थियों १५:१३-१९) जी हाँ, अनंत भविष्य की आशा के बिना, मसीहियत “व्यर्थ” होती। उसका कोई उद्देश्य नहीं होता। तो फिर, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस विधर्मी विचारधारा के प्रभाव में आकर, कुरिन्थ की कलीसिया समस्याओं का एक अड्डा बन गई थी। (१ कुरिन्थियों १:११; ५:१; ६:१; ११:२०-२२) अतः, पौलुस ने पुनरुत्थान में उनका विश्वास दृढ़ करने की चेष्टा की। सशक्त तर्क, शास्त्र उद्धरणों और दृष्टांतों का इस्तेमाल करते हुए, उसने बेशक यह साबित कर दिया कि पुनरुत्थान की आशा, कल्पना नहीं थी बल्कि एक ऐसी हक़ीक़त थी जो निश्चित ही पूर्ण होनेवाली थी। इस आधार पर, वह अपने संगी विश्वासियों से आग्रह कर सका: “दृढ़ और अटल रहो, और प्रभु के काम में सर्वदा बढ़ते जाओ, क्योंकि यह जानते हो, कि तुम्हारा परिश्रम प्रभु में व्यर्थ नहीं है।”—१ कुरिन्थियों १५:२०-५८.
“जागते रहो”
३, ४. (क) पतरस के अनुसार, अंतिम दिनों में कौन-सी ख़तरनाक मनोवृत्ति कुछ लोगों को निगल जाएगी? (ख) हमें ख़ुद को क्या याद दिलाते रहने की ज़रूरत है?
३ आज, अनेक लोग एक निराशावादी, आज-जी-लो मनोवृत्ति रखते हैं। (इफिसियों २:२) यह ऐसा है जैसा प्रेरित पतरस ने पूर्वबताया था। उसने ‘हंसी ठट्टा करनेवालों’ के बारे में बताया जो “कहेंगे, उसके आने की प्रतिज्ञा कहां गई? क्योंकि जब से बाप-दादे सो गए हैं, सब कुछ वैसा ही है, जैसा सृष्टि के आरम्भ से था।” (२ पतरस ३:३, ४) यदि सच्चे उपासक ऐसे दृष्टिकोण के शिकार बन जाएँ तो वे “निकम्मे और निष्फल” हो सकते हैं। (२ पतरस १:८) ख़ुशी की बात है कि आज परमेश्वर के अधिकांश लोग ऐसे नहीं हैं।
४ इस वर्तमान दुष्ट व्यवस्था के आनेवाले अंत में दिलचस्पी रखना ग़लत नहीं है। उस दिलचस्पी को याद कीजिए जो यीशु के अपने प्रेरितों ने दिखाई: “हे प्रभु, क्या तू इसी समय इस्राएल को राज्य फेर देगा?” यीशु ने जवाब दिया: “उन समयों या कालों को जानना, जिन को पिता ने अपने ही अधिकार में रखा है, तुम्हारा काम नहीं।” (प्रेरितों १:६, ७) इन शब्दों में वही मूल संदेश है जो उसने जैतून पहाड़ पर दिया था: “तुम नहीं जानते कि तुम्हारा प्रभु किस दिन आएगा। . . . जिस घड़ी के विषय में तुम सोचते भी नहीं हो, उसी घड़ी मनुष्य का पुत्र आ जाएगा।” (मत्ती २४:४२, ४४) हमें ख़ुद को वह सलाह याद दिलाते रहने की ज़रूरत है! कुछ लोग शायद इस मनोवृत्ति से भरमाए जाएँ, ‘शायद मुझे थोड़ा सुस्ता लेना चाहिए और इतनी चिंता नहीं करनी चाहिए।’ ऐसा करना कितनी बड़ी ग़लती होगी! “गर्जन के पुत्र,” याकूब और यूहन्ना पर ध्यान दीजिए।—मरकुस ३:१७.
५, ६. याकूब और यूहन्ना के उदाहरणों से हम कौन-से सबक़ सीख सकते हैं?
५ हम जानते हैं कि याकूब बहुत ही जोशीला प्रेरित था। (लूका ९:५१-५५) एक बार जब मसीही कलीसिया स्थापित हो गई, तब उसने ज़रूर एक सक्रिय भूमिका निभायी होगी। लेकिन जब याकूब जवान ही था, तब हेरोदेस अग्रिप्पा प्रथम ने उसे मरवा डाला। (प्रेरितों १२:१-३) क्या हम सोचते हैं कि याकूब ने यह देखकर कि उसका जीवन यूँ अचानक समाप्त हो रहा है, दुःख महसूस किया कि क्यों वह अपनी सेवकाई में इतना जोशीला रहा और इतना यत्न किया? हरगिज़ नहीं! निश्चित ही वह ख़ुश था कि उसने अपने अपेक्षाकृत छोटे जीवन के सर्वश्रेष्ठ वर्ष यहोवा की सेवा में बिताए थे। इस वक़्त, हममें से कोई भी यह नहीं जान सकता कि हमारा जीवन अचानक समाप्त हो जाएगा या नहीं। (सभोपदेशक ९:११. लूका १२:२०, २१ से तुलना कीजिए।) सो इसलिए यहोवा की सेवा में, अत्यंत जोशीले और सक्रिय रहना स्पष्ट रूप से बुद्धिमानी है। इस तरीक़े से हम उसके साथ अच्छा नाम क़ायम रखेंगे और अपने अनंत भविष्य को ध्यान में रखते हुए जीवन बिताएँगे।—सभोपदेशक ७:१.
६ प्रेरित यूहन्ना को लेकर यहाँ एक सबक़ है, जो उस समय मौजूद था जिस समय यीशु ने गंभीरतापूर्वक आग्रह किया कि “जागते रहो।” (मत्ती २५:१३; मरकुस १३:३७; लूका २१:३४-३६) यूहन्ना इससे गहराई तक प्रभावित हुआ, और उसने अनेक दशकों तक जोश के साथ सेवा की। दरअसल, ऐसा लगता है कि वह बाक़ी सभी प्रेरितों के बाद तक जीवित रहा। जब यूहन्ना बहुत बूढ़ा हो गया, और दशकों तक की वफ़ादार गतिविधि पर मुड़कर नज़र डाल सका, तब क्या उसने इसे एक ग़लती समझा, एक ऐसा जीवन जिसकी दिशा ग़लत हो या जो असंतुलित हो? जी नहीं! वह अभी-भी भविष्य की ओर उत्सुकता से देख रहा था। जब पुनरुत्थित यीशु ने कहा, “हां, मैं शीघ्र आनेवाला हूं,” तो यूहन्ना ने तुरंत जवाब दिया, “आमीन। हे प्रभु यीशु आ।” (प्रकाशितवाक्य २२:२०) निश्चित ही यूहन्ना वर्तमान के लिए नहीं जी रहा था, और एक सुस्त और शांत ‘सामान्य जीवन’ की चाहत नहीं कर रहा था। वह अपने पूरे जीवन और शक्ति से सेवा करते रहने के लिए दृढ़संकल्प था, चाहे प्रभु कभी-भी क्यों न आए। हमारे बारे में क्या?
अनंत जीवन में विश्वास के आधार
७. (क) अनंत जीवन की आशा की “प्रतिज्ञा” कैसे “सनातन से” की गई थी? (ख) अनंत जीवन की आशा पर यीशु ने कैसे प्रकाश डाला?
७ इस बात से निश्चित रहिए कि अनंत जीवन की आशा मानव-निर्मित स्वप्न या कल्पना नहीं है। जैसा तीतुस १:२ कहता है, हमारी ईश्वरीय भक्ति “उस अनन्त जीवन की आशा पर” आधारित है, “जिस की प्रतिज्ञा परमेश्वर ने जो झूठ बोल नहीं सकता सनातन से की है।” सभी आज्ञाकारी मनुष्य अनंतकाल तक जीएँ, यह परमेश्वर का आरंभिक उद्देश्य था। (उत्पत्ति १:२८) कोई भी चीज़, यहाँ तक कि आदम और हव्वा का विद्रोह भी इस उद्देश्य को विफल नहीं कर सकता। जैसा उत्पत्ति ३:१५ में अभिलिखित है, परमेश्वर ने तुरंत एक “वंश” की प्रतिज्ञा की जो उस क्षति को मिटा डालता जिससे मनुष्यजाति पीड़ित है। जब “वंश” या मसीहा, यीशु आया, तो उसने अनंत जीवन की आशा को अपनी एक मूल शिक्षा बनाया। (यूहन्ना ३:१६; ६:४७, ५१; १०:२८; १७:३) अपने परिपूर्ण जीवन को छुड़ौती के रूप में देने के द्वारा, मसीह ने मनुष्यजाति को अनंत जीवन देने का क़ानूनी अधिकार प्राप्त किया। (मत्ती २०:२८) उसके कुछ चेले, कुल १,४४,०००, अनंतकाल तक स्वर्ग में रहेंगे। (प्रकाशितवाक्य १४:१-४) इस प्रकार एक समय पर नाशवान् रहे कुछ मनुष्य “अमरता को पहिन” लेंगे!—१ कुरिन्थियों १५:५३.
८. (क) “अमरता” क्या है और यहोवा इसे १,४४,००० को क्यों देता है? (ख) ‘अन्य भेड़ों’ के लिए यीशु ने क्या आशा दी?
८ “अमरता” का अर्थ मात्र कभी न मरने से कहीं अधिक है। यह “अविनाशी जीवन की सामर्थ” को शामिल करता है। (इब्रानियों ७:१६. प्रकाशितवाक्य २०:६ से तुलना कीजिए।) लेकिन ऐसा शानदार तोहफ़ा देकर परमेश्वर क्या निष्पन्न करता है? शैतान की चुनौती याद कीजिए कि परमेश्वर के किसी-भी प्राणी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। (अय्यूब १:९-११; २:४, ५) इन १,४४,००० को अमरता देकर, परमेश्वर इस समूह पर अपना पूर्ण विश्वास दर्शाता है जिसने शैतान की चुनौती का इतने असाधारण रूप से जवाब दिया है। लेकिन शेष मानवजाति के बारे में क्या? यीशु ने राज्य वारिसों के इस “छोटे झुण्ड” के पहले सदस्यों को बताया कि वे “सिंहासनों पर बैठकर इस्राएल के बारह गोत्रों का न्याय” करेंगे। (लूका १२:३२; २२:३०) यह सूचित करता है कि अन्य लोग उसके राज्य की प्रजा के तौर पर पृथ्वी पर अनंत जीवन प्राप्त करेंगे। जबकि इन ‘अन्य भेड़ों’ को अमरता नहीं दी जाती, वे “अनन्त जीवन” प्राप्त करती हैं। (यूहन्ना १०:१६, NW; मत्ती २५:४६) इसलिए अनंत जीवन सभी मसीहियों की आशा है। यह कोई कल्पना नहीं है बल्कि ऐसी बात है जिसकी “परमेश्वर ने जो झूठ बोल नहीं सकता” सत्यभाव से प्रतिज्ञा की है, और इसके लिए यीशु के बहुमूल्य लहू से क़ीमत चुकायी है।—तीतुस १:२.
दूर भविष्य में?
९, १०. कौन-से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि हम अंत के निकट हैं?
९ प्रेरित पौलुस ने पूर्वबताया कि ‘संकटपूर्ण समय जिनका सामना करना मुश्किल होगा,’ (NW) यह सूचित करेंगे कि हम निर्विवाद रूप से “अन्तिम दिनों” में पहुँच चुके हैं। जैसे-जैसे हमारे चारों ओर का मानव समाज चूर-चूर होकर प्रेमशून्यता, लालच, आत्म-संतुष्टि, और अभक्ति की दशा में आ रहा है, तो क्या हमें यह अहसास नहीं होता कि इस दुष्ट विश्व व्यवस्था पर अपने न्यायदंड लाने का यहोवा का दिन शीघ्रता से पास आ रहा है? जैसे-जैसे हिंसा और नफ़रत बढ़ती जाती है, तो क्या हम अपने चारों ओर पौलुस के अगले वचनों की पूर्ति नहीं देखते: “दुष्ट, और बहकानेवाले धोखा देते हुए, और धोखा खाते हुए, बिगड़ते चले जाएंगे”? (२ तीमुथियुस ३:१-५, १३) कुछ लोग शायद आशावादी रूप से पुकारें “कि कुशल है, और कुछ भय नहीं,” लेकिन शांति की सभी आशाएँ भाप बनकर उड़ जाएँगी, क्योंकि “उन पर एकाएक विनाश आ पड़ेगा, जिस प्रकार गर्भवती पर पीड़ा; और वे किसी रीति से न बचेंगे।” हमारे समय के अर्थ के विषय में हमें अंधेरे में नहीं रखा गया है। सो, आइए “हम . . . जागते और सावधान रहें।”—१ थिस्सलुनीकियों ५:१-६.
१० इसके अलावा, बाइबल सूचित करती है कि अंतिम दिन “थोड़ा ही समय” है। (प्रकाशितवाक्य १२:१२. १७:१० से तुलना कीजिए।) इस ‘थोड़े समय’ का अधिकांश भाग प्रत्यक्ष रूप से बीत चुका है। उदाहरण के लिए, दानिय्येल की भविष्यवाणी “उत्तर देश के राजा” और “दक्खिन देश के राजा” के बीच संघर्ष का यथार्थ रूप से वर्णन करती है जो इस शताब्दी तक चला आ रहा है। (दानिय्येल ११:५, ६) जिस बात की पूर्ति होनी बाक़ी है वह बस दानिय्येल ११:४४, ४५ में बताया गया ‘उत्तर के राजा’ का अंतिम आक्रमण है।—इस भविष्यवाणी पर चर्चा के लिए जुलाई १, १९८७ (अंग्रेज़ी) और नवंबर १, १९९३ की प्रहरीदुर्ग देखिए।
११. (क) मत्ती २४:१४ की किस हद तक पूर्ति हुई है? (ख) मत्ती १०:२३ में अभिलिखित यीशु के शब्द क्या सूचित करते हैं?
११ साथ ही यीशु की यह भविष्यवाणी भी है कि “राज्य का यह सुसमाचार सारे जगत में प्रचार किया जाएगा, कि सब जातियों पर गवाही हो, तब अन्त आ जाएगा।” (मत्ती २४:१४) आज, यहोवा के साक्षी २३३ देशों, द्वीप समूहों, और क्षेत्रों में अपना कार्य कर रहे हैं। सच है कि अनछुए क्षेत्र अभी-भी हैं, और संभवतः यहोवा के नियत समय पर अवसर का एक द्वार खुल जाएगा। (१ कुरिन्थियों १६:९) फिर भी, मत्ती १०:२३ में अभिलिखित यीशु के शब्द गंभीर विचार के योग्य हैं: “तुम इस्राएल के सब नगरों में न फिर चुकोगे, कि मनुष्य का पुत्र आ जाएगा।” जबकि सुसमाचार निश्चय ही सारी पृथ्वी में घोषित किया जाएगा, इससे पहले कि यीशु एक वधिक के रूप में ‘आए’ हम स्वयं राज्य का संदेश लेकर पृथ्वी के सभी हिस्सों में नहीं पहुँच पाएँगे।
१२. (क) प्रकाशितवाक्य ७:३ में किस ‘मुहर लगाने’ की ओर संकेत किया गया है? (ख) पृथ्वी पर अभिषिक्त जनों की घटती संख्या का क्या महत्त्व है?
१२ प्रकाशितवाक्य ७:१, ३ के पाठ पर ग़ौर कीजिए, जो कहता है कि विनाश की “चारों हवाओं” को थामा गया है “जब तक हम अपने परमेश्वर के दासों के माथे पर मुहर न लगा दें।” यह आरंभिक मुहर लगाने की ओर संकेत नहीं कर रहा, जो १,४४,००० के स्वर्गीय बुलाहट प्राप्त करने के समय होती है। (इफिसियों १:१३) यह अंतिम मुहर लगाने की ओर संकेत करता है, जब ‘हमारे परमेश्वर के’ परखे हुए और वफ़ादार “दासों” के रूप में उनकी अपरिवर्तनीय पहचान होती है। पृथ्वी पर परमेश्वर के जीवित असली अभिषिक्त पुत्रों की संख्या बड़ी मात्रा में घट गई है। इसके अलावा, बाइबल स्पष्ट रूप से कहती है कि “चुने हुओं के कारण” भारी क्लेश का पहला चरण ‘घटाया जाएगा।’ (मत्ती २४:२१, २२) अभिषिक्त होने का विश्वास प्रकट करनेवाले लोगों में से अधिकांश काफ़ी वृद्ध हैं। फिर एक बार, क्या यह नहीं दिखाता कि अंत एकदम निकट है?
एक वफ़ादार पहरुआ
१३, १४. पहरुए वर्ग की क्या ज़िम्मेदारी है?
१३ इस बीच, ‘विश्वासयोग्य दास’ द्वारा दिए गए निर्देशन पर ध्यान देना हमारे लिए फ़ायदेमंद है। (मत्ती २४:४५) सौ वर्ष से भी अधिक समय से, आधुनिक-दिन “दास” ने एक ‘पहरुए’ की हैसियत से वफ़ादारी से काम किया है। (यहेजकेल ३:१७-२१) जनवरी १, १९८४ की प्रहरीदुर्ग (अंग्रेज़ी) ने समझाया: “यह पहरुआ निगरानी रखता है कि बाइबल भविष्यवाणी की पूर्ति में पृथ्वी पर घटनाएँ कैसा मोड़ ले रही हैं, और एक ऐसे अति निकट ‘भारी क्लेश’ की चेतावनी देता है ‘जैसा जगत के आरम्भ से अब तक न हुआ’ और ‘कल्याण का शुभ समाचार’ सुनाता है।”—मत्ती २४:२१; यशायाह ५२:७.
१४ याद रखिए: एक पहरुए का यह काम है कि “वह जो कुछ देखे” उसकी चेतावनी दे। (यशायाह २१:६-८) बाइबल समय में एक पहरुआ तब भी चेतावनी देता था जब संभव ख़तरा बहुत ही दूरी पर होता था और स्पष्ट नज़र नहीं आता था। (२ राजा ९:१७, १८) निश्चय ही तब भी झूठी चेतावनियाँ सुनायी देती थीं। लेकिन एक अच्छा पहरुआ शर्मिंदा होने के डर से बोलने से पीछे नहीं हटता। यदि आपके घर में आग लग जाती, तो आपको कैसा लगता यदि अग्नि-शामक दल इसलिए नहीं आता क्योंकि उन्हें लगता है कि यह शायद एक झूठी चेतावनी हो? जी नहीं, हम ऐसे व्यक्तियों से ख़तरे के किसी भी संकेत के प्रति शीघ्र कार्यवाही करने की आशा रखते हैं! वैसे ही, पहरुए वर्ग ने भी तब-तब घोषणा की है जब-जब परिस्थितियाँ ऐसा करने के लिए माँग करती प्रतीत होती हैं।
१५, १६. (क) भविष्यवाणी की हमारी समझ में फेर-बदल क्यों किए जाते हैं? (ख) हम परमेश्वर के उन वफ़ादार सेवकों से क्या सीख सकते हैं, जिनकी कुछ भविष्यवाणियों के संबंध में ग़लत समझ थी?
१५ लेकिन, जैसे-जैसे घटनाएँ नया मोड़ ले रही हैं, भविष्यवाणियों की हमारी समझ और स्पष्ट हो गई है। इतिहास दिखाता है कि, अगर ऐसा हुआ भी हो तो, मुश्किल ही से ईश्वरीय भविष्यवाणियों को उनकी पूर्ति से पहले पूर्ण रूप से समझा गया है। परमेश्वर ने अब्राम को एकदम सही-सही बताया कि उसका वंश कितने समय तक ‘पराए देश में परदेशी होकर रहेगा,’ यानी ४०० वर्ष। (उत्पत्ति १५:१३) लेकिन, मूसा ने समय से पहले ख़ुद को एक मुक्तिदाता के रूप में पेश किया।—प्रेरितों ७:२३-३०.
१६ मसीहियाई भविष्यवाणियों पर भी विचार कीजिए। पिछली घटनाओं को मद्देनज़र रखते हुए यह एकदम साफ़ लगता है कि मसीहा की मृत्यु और पुनरुत्थान पूर्वबताए गए थे। (यशायाह ५३:८-१०) फिर भी, यीशु के अपने चेले इस बात को नहीं समझ सके। (मत्ती १६:२१-२३) उन्होंने यह नहीं समझा कि दानिय्येल ७:१३, १४ की पूर्ति मसीह की भावी परुसिया, या “उपस्थिति” में होगी। (मत्ती २४:३) तो अपने हिसाब में उन्होंने क़रीब २,००० वर्ष की ग़लती की जब उन्होंने यीशु से पूछा: “हे प्रभु, क्या तू इसी समय इस्राएल को राज्य फेर देगा?” (प्रेरितों १:६) मसीही कलीसिया के अच्छी तरह स्थापित होने के बाद भी, ग़लत धारणाएँ और झूठी आशाएँ लगाना चलता रहा। (२ थिस्सलुनीकियों २:१, २) हालाँकि कभी-कभी कुछ लोग ग़लत विचार रखते थे, यहोवा ने उन प्रथम-शताब्दी विश्वासियों के काम पर निस्संदेह आशीष दी!
१७. शास्त्र की हमारी समझ में फेर-बदल के विषय में हमारा दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए?
१७ इसी तरह आज के पहरुए वर्ग को समय-समय पर अपने विचारों को स्पष्ट करना पड़ा है। फिर भी, क्या कोई इस बात पर संदेह कर सकता है कि यहोवा ने ‘विश्वासयोग्य दास’ को आशीष दी है? इसके अलावा, यदि संदर्भ ध्यान में रखा जाए तो किए गए अधिकांश फेर-बदल तुलनात्मक रूप से क्या छोटे नहीं हैं? बाइबल की हमारी बुनियादी समझ बदली नहीं है। हमारा यह विश्वास की हम अंतिम दिनों में जी रहे हैं पहले से कहीं अधिक दृढ़ है!
अनंत भविष्य के लिए जीना
१८. हमें केवल आज के लिए जीने से दूर क्यों रहना चाहिए?
१८ दुनिया शायद कहे, ‘आओ खाए-पीए, क्योंकि कल तो मर ही जाना है,’ लेकिन हमारा यह रवैया नहीं होना चाहिए। जीवन में आपको जो सुख अभी मिल सकते हैं उनके लिए व्यर्थ प्रयास क्यों करें जबकि आप एक अनंत भविष्य के लिए कार्य कर सकते हैं? यह आशा, चाहे स्वर्ग में अमर जीवन की या पृथ्वी पर अनंत जीवन की हो, एक सपना या कल्पना नहीं है। यह वह सच्चाई है जिसकी प्रतिज्ञा उस परमेश्वर ने की है “जो झूठ बोल नहीं सकता।” (तीतुस १:२) इस बात का ज़बरदस्त प्रमाण है कि हमारी आशा की पूर्ति एकदम निकट है! “समय कम किया गया है।”—१ कुरिन्थियों ७:२९.
१९, २०. (क) राज्य के लिए हमने जो त्याग किए हैं यहोवा उन्हें किस नज़र से देखता है? (ख) हमें अनंतता को मन में रखते हुए क्यों जीना चाहिए?
१९ सच है कि यह व्यवस्था, जितना कई लोगों ने सोचा था उससे कहीं अधिक समय तक क़ायम रही है। एकाध लोग शायद अब महसूस करें कि यदि उन्हें यह पहले मालूम होता, तो शायद उन्होंने कुछ त्याग नहीं किए होते। लेकिन ऐसा किया है, तो एक व्यक्ति को उस पर अफ़सोस नहीं करना चाहिए। आख़िरकार, त्याग करना मसीही होने का एक बुनियादी हिस्सा है। मसीही ‘अपने आप का इन्कार करते हैं।’ (मत्ती १६:२४) हमें यह कभी महसूस नहीं करना चाहिए कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के हमारे प्रयास व्यर्थ रहे हैं। यीशु ने प्रतिज्ञा की: “ऐसा कोई नहीं जिसने मेरे और सुसमाचार के कारण घर या भाइयों या बहिनों, या माता या पिता या बच्चों या खेतों को छोड़ दिया हो, और वह वर्तमान समय में घरों, और भाइयों और बहिनों, और माताओं, और बच्चों और खेतों को सौ गुना अधिक न पाए, पर सताव के साथ, तथा आने वाले युग में अनन्त जीवन।” (मरकुस १०:२९, ३०, NHT) अब से हज़ार वर्ष बाद आपकी नौकरी, घर, या बैंक खाता कितना महत्त्वपूर्ण लगेगा? फिर भी, यहोवा के लिए जो त्याग आपने किए हैं वे अब से दस लाख वर्ष बाद—एक अरब वर्ष बाद—भी अर्थपूर्ण रहेंगे! “क्योंकि परमेश्वर अन्यायी नहीं, कि तुम्हारे काम . . . भूल जाए।”—इब्रानियों ६:१०.
२० इसलिए, आइए हम अनंतता को मन में रखकर जीएँ, और ‘देखी हुई वस्तुओं पर नहीं परन्तु अनदेखी वस्तुओं’ पर अपनी नज़र जमाए रखें, “क्योंकि देखी हुई वस्तुएं थोड़े ही दिन की हैं, परन्तु अनदेखी वस्तुएं सदा बनी रहती हैं।” (२ कुरिन्थियों ४:१८) भविष्यवक्ता हबक्कूक ने लिखा: “इस दर्शन की बात नियत समय में पूरी होनेवाली है, वरन इसके पूरे होने का समय वेग से आता है; इस में धोखा न होगा। चाहे इस में विलम्ब भी हो, तौभी उसकी बाट जोहते रहना; क्योंकि वह निश्चय पूरी होगी और उस में देर न होगी।” (हबक्कूक २:३) अंत की “बाट जोहते रहना,” हमारी व्यक्तिगत और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाने के तरीक़े पर कैसे प्रभाव डालता है? हमारा अगला लेख इन मुद्दों पर चर्चा करेगा।
पुनर्विचार के लिए मुद्दे
◻ इस दुष्ट रीति-व्यवस्था के अंत में प्रतीत हो रही देर से, एकाध लोग आज कैसे प्रभावित हुए हैं?
◻ अनंत जीवन की हमारी आशा का आधार क्या है?
◻ राज्य हितों के लिए जो त्याग हमने किए हैं उनके प्रति हमारा कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए?
[पेज 15 पर तसवीर]
अंत आने से पहले विश्वव्यापी प्रचार कार्य पूरा किया जाना ज़रूरी है