पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाएँ—“यहोवा का भयानक दिन निकट है”
“आओ हम पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाएँ।”—इब्रा. 6:1.
1, 2. पहली सदी में यरूशलेम और यहूदिया में रहनेवाले मसीहियों को कैसे अचानक ‘पहाड़ों की तरफ भागने’ का मौका मिला?
जब यीशु धरती पर था तो उसके चेलों ने उससे पूछा: “ये सब बातें कब होंगी और तेरी मौजूदगी की और दुनिया की व्यवस्था के आखिरी वक्त की क्या निशानी होगी?” यीशु ने उनके सवाल का जवाब एक भविष्यवाणी से दिया जो पहली सदी में छोटे पैमाने पर पूरी हुई थी। इस भविष्यवाणी में यीशु ने एक ऐसी अनोखी घटना के बारे में बताया जिससे पता चलता कि यहूदी व्यवस्था का अंत बहुत पास है। इस घटना को देखने पर, “जो यहूदिया में [थे, उन्हें] पहाड़ों की तरफ भागना शुरू कर” देना था। (मत्ती 24:1-3, 15-22) क्या यीशु के चेलों ने इस निशानी को पहचाना? क्या उन्होंने यीशु की हिदायतों के हिसाब से कार्रवाई की?
2 भविष्यवाणी देने के करीब तीस साल बाद, ईसवी सन् 61 में प्रेषित पौलुस ने यरूशलेम और उसके आस-पास रहनेवाले इब्रानी या यहूदी मसीहियों को कड़े शब्दों में एक चिट्ठी लिखी। उसका मकसद था, उनकी सोच को सुधारना। उस वक्त पौलुस को और उसके संगी मसीहियों को यह पता नहीं था कि यीशु ने जिस घटना की भविष्यवाणी की थी उसे पूरा होने में सिर्फ पाँच साल बाकी थे। इस घटना से यहूदी व्यवस्था पर “महा-संकट” का पहला दौर शुरू होनेवाला था। (मत्ती 24:21) यह घटना क्या थी? ईसवी सन् 66 में सेस्टियस गैलस की अगुवाई में रोमी फौज ने यरूशलेम पर धावा बोला और वे उस पर कब्ज़ा करने पर थे। यरूशलेम और उसके आस-पास रहनेवालों के सिर पर मौत मंडरा रही थी। मगर अचानक सेस्टियस गैलस ने अपनी फौज हटा ली और वापस चला गया। इससे वहाँ रहनेवाले मसीहियों को मौका मिल गया कि वे भागकर किसी सुरक्षित जगह चले जाएँ।
3. पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को क्या सलाह दी? उसने यह सलाह क्यों दी?
3 उन मसीहियों को उस वक्त पैनी समझ की ज़रूरत थी, तभी वे समझ पाते कि आस-पास जो घटनाएँ घट रही थीं उनसे यीशु की भविष्यवाणी पूरी हो रही थी, इसलिए उन्हें वहाँ से भाग निकलना चाहिए। मगर, कुछ मसीहियों की “सोचने-समझने की शक्ति मंद पड़ गयी” थी। वे आध्यात्मिक मायने में बच्चे थे, जिन्हें “दूध” की ज़रूरत थी। (इब्रानियों 5:11-13 पढ़िए।) यहाँ तक कि जो लोग बरसों से सच्चाई की राह पर चल रहे थे, उनके अंदर भी “परमेश्वर से दूर जाने” के आसार दिखायी दे रहे थे। (इब्रा. 3:12) कुछ लोगों ने मसीही सभाओं में अकसर न आने का “दस्तूर” बना लिया था और वह भी ऐसे वक्त पर जब मुसीबतों-भरा ‘वह दिन नज़दीक आ’ रहा था। (इब्रा. 10:24, 25) इसलिए पौलुस ने वक्त की नज़ाकत देखते हुए उन्हें यह सलाह दी: “अब जबकि हम मसीह के बारे में बुनियादी शिक्षाओं को पीछे छोड़ चुके हैं, तो आओ हम पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाएँ।”—इब्रा. 6:1.
4. आध्यात्मिक मायने में चौकन्ना रहना क्यों ज़रूरी है? चौकन्ना रहने में क्या बात हमारी मदद करेगी?
4 आज हम ऐसे वक्त में जी रहे हैं जब यीशु की भविष्यवाणी आखिरी बार और बड़े पैमाने पर पूरी होगी। “यहोवा का भयानक दिन,” जिस दिन शैतान की सारी व्यवस्था का खात्मा किया जाएगा, बहुत “निकट है।” (सप. 1:14) इसलिए आज हमें पहले से ज़्यादा चौकन्ने रहने की ज़रूरत है ताकि हम समझ सकें कि किस तरह बाइबल की भविष्यवाणियाँ पूरी हो रही हैं। यही नहीं, हमें यहोवा के साथ अपने रिश्ते को और मज़बूत करना है। (1 पत. 5:8) क्या हम वाकई ऐसा कर रहे हैं? मसीही प्रौढ़ता हमारी मदद करेगी कि हम अपना सारा ध्यान इस बात पर लगाए रखें कि हम कैसे वक्त में जी रहे हैं।
मसीही प्रौढ़ता क्या है
5, 6. (क) आध्यात्मिक मायने में प्रौढ़ होने का क्या मतलब है? (ख) प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ने के लिए किन दो बातों में मेहनत करना ज़रूरी है?
5 प्रेषित पौलुस ने इब्रानी मसीहियों को न सिर्फ उकसाया कि वे पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाएँ, बल्कि उन्हें यह भी बताया कि आध्यात्मिक मायने में प्रौढ़ होने का क्या मतलब है। (इब्रानियों 5:14 पढ़िए।) “बड़ों” या प्रौढ़ लोगों को सिर्फ “दूध” पीने से तसल्ली नहीं होती। वे “ठोस आहार” लेते हैं। इसलिए वे सच्चाई की न सिर्फ ‘बुनियादी बातों’ की जानकारी रखते हैं, बल्कि इसके ‘गहरे रहस्य’ भी समझते हैं। (1 कुरिं. 2:10) साथ ही, वे अपनी सोचने-समझने की शक्ति का इस्तेमाल करते-करते इसे प्रशिक्षित कर लेते हैं। कैसे? जो सीखा है उस पर अमल करने से। इसी की बदौलत वे सही-गलत में फर्क कर पाते हैं। जब उन्हें कोई फैसला लेना होता है, तो वे समझ पाते हैं कि फलाँ मामले पर बाइबल में कौन-से सिद्धांत दिए गए हैं और इन पर कैसे अमल किया जाना चाहिए।
6 पौलुस ने यह भी लिखा: “हमने जो बातें सुनी हैं, उन पर और भी ज़्यादा ध्यान देना ज़रूरी है, ताकि हम कभी-भी बहकर विश्वास से धीरे-धीरे दूर न चले जाएँ।” (इब्रा. 2:1) हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है कि हम विश्वास से धीरे-धीरे दूर चले जाएँ और हमें इसका पता ही न चले। ऐसा न हो, इसके लिए ज़रूरी है कि हम बाइबल की सच्चाइयों का अध्ययन करते वक्त उन पर “और भी ज़्यादा ध्यान” दें। इसलिए, हरेक को खुद से यह पूछना चाहिए: ‘क्या मैं अब भी सिर्फ बुनियादी बातों की ही समझ रखता हूँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं सच्चाई में तो हूँ मगर मेरा दिल कहीं और है? क्या मैं सिर्फ खानापूर्ति के लिए एक ढर्रे में चला जा रहा हूँ? मैं सच्चाई में सही मायने में तरक्की कैसे कर सकता हूँ?’ पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाने के लिए ज़रूरी है कि हम दो बातों में जी-जान लगाकर मेहनत करें। पहला, हम परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह जान लें। दूसरा, हम आज्ञा मानना सीखें।
परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह जान लें
7. परमेश्वर के वचन को और अच्छी तरह जानने से हमें क्या फायदा हो सकता है?
7 पौलुस ने लिखा: “हर कोई जो दूध पीता है वह सच्चाई के वचन से अनजान है, क्योंकि वह अभी तक बच्चा है।” (इब्रा. 5:13) प्रौढ़ता के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यह ज़रूरी है कि परमेश्वर ने हमें जो संदेश दिया है, उसे हम अच्छी तरह जानें। परमेश्वर का यह संदेश उसके वचन बाइबल में पाया जाता है, इसलिए हमें बाइबल के और विश्वासयोग्य दास से मिलनेवाले साहित्य के अच्छे विद्यार्थी होना चाहिए। (मत्ती 24:45-47) इस तरह अध्ययन करने से हम यह सीख पाएँगे कि परमेश्वर का सोचने का तरीका क्या है और इससे हमारी सोचने-समझने की शक्ति पैनी होगी। ऑर्किडa नाम की एक मसीही बहन की बात लीजिए। वह कहती है: “हमें बार-बार याद दिलाया जाता है कि हम हर रोज़ बाइबल पढ़ा करें। इस सलाह का मेरी ज़िंदगी पर सबसे ज़्यादा असर हुआ है। मुझे पूरी बाइबल पढ़ने में करीब दो साल लगे, मगर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं पहली बार अपने सृष्टिकर्ता को जान रही हूँ। मैंने सीखा कि उसका काम करने का तरीका क्या है, उसे क्या अच्छा लगता है और क्या नहीं, वह कितना शक्तिशाली है और उसकी बुद्धि कितनी अथाह है। रोज़ बाइबल पढ़ने की वजह से मुझे इतनी हिम्मत मिली कि मैं ज़िंदगी में कई बार मायूसी के अँधेरों से निकल पायी।”
8. परमेश्वर के वचन की ताकत हम पर कैसे असर कर सकती है?
8 हर दिन परमेश्वर के वचन का कुछ भाग पढ़ने से इसके संदेश की “ज़बरदस्त ताकत” हम पर असर कर पाएगी। (इब्रानियों 4:12 पढ़िए।) इस तरह की पढ़ाई हमारे अंदर के इंसान को तराश सकती है और हमें यहोवा की नज़र में और अच्छा इंसान बना सकती है। क्या आपको बाइबल पढ़ने और इसके संदेश पर मनन करने के लिए ज़्यादा वक्त निकालने की ज़रूरत है?
9, 10. परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह जानने का क्या मतलब है? उदाहरण देकर समझाइए।
9 बाइबल को अच्छी तरह जानने के लिए सिर्फ यह पता करना काफी नहीं कि बाइबल क्या कहती है। पौलुस के वक्त में जो आध्यात्मिक मायने में बच्चे थे, उन्हें भी कुछ हद तक जानकारी थी कि परमेश्वर के प्रेरित वचन में क्या लिखा है। लेकिन, उन्होंने खुद कभी इस जानकारी पर अमल नहीं किया। उन्होंने कभी परखकर नहीं देखा कि बाइबल के सिद्धांतों पर चलने से कितने बढ़िया नतीजे निकलते हैं। अगर वे बाइबल की सलाह मानकर अपनी ज़िंदगी में अच्छे फैसले करते, तो वे इसके संदेश को अच्छी तरह जान पाते।
10 परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह जानने का मतलब सिर्फ इसकी दिमागी जानकारी लेना नहीं है, बल्कि इस जानकारी पर अमल करना भी है। यह कैसे किया जा सकता है, इसे समझने के लिए काइल नाम की एक मसीही बहन के इस अनुभव पर गौर कीजिए। काइल जहाँ काम करती थी वहाँ उसकी किसी के साथ तूतू-मैंमैं हो गयी। इस तकरार को मिटाने के लिए काइल ने क्या किया? वह बताती है: “मेरे मन में जो शास्त्रवचन आया वह था रोमियों 12:18: ‘जहाँ तक तुमसे हो सके, सबके साथ शांति बनाए रखने की पूरी कोशिश करो।’ इसलिए मैंने काम के बाद उससे मिलना तय किया।” यह मुलाकात काफी अच्छी रही और काइल के साथ काम करनेवाली स्त्री को इस बात पर ताज्जुब हुआ कि काइल ने उनके बीच की समस्या को इस तरह सुलझाया। काइल कहती है: “मैंने एक बात सीखी कि अगर हम बाइबल के सिद्धांतों पर अमल करें तो हम वही कर रहे होंगे जो सही है।”
आज्ञा मानना सीखिए
11. कौन-सी मिसाल दिखाती है कि तकलीफ के वक्त आज्ञा मानना मुश्किल हो सकता है?
11 बाइबल से हमने जो सीखा है उस पर अमल करना मुश्किल हो सकता है, खासकर जब हम तकलीफ में हों। आइए इसराएलियों की मिसाल लें। यहोवा ने उन्हें मिस्र की गुलामी से छुटकारा दिलाया था। इस यादगार घटना को कुछ ही दिन बीते थे कि ‘वे मूसा से वादविवाद करने लगे,’ और “यहोवा की परीक्षा” करने लगे। उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्योंकि उनके पास पीने के लिए पानी नहीं था। (निर्ग. 17:1-4) इसराएलियों ने परमेश्वर से करार किया था और “जितनी बातें यहोवा ने कही [थीं] उन सब बातों को” मानने पर राज़ी हुए थे। मगर इस करार को दो महीने भी नहीं हुए थे कि उन्होंने मूर्तिपूजा के बारे में परमेश्वर का कानून तोड़ दिया। (निर्ग. 24:3, 12-18; 32:1, 2, 7-9) मूसा यहोवा से हिदायत पाने के लिए काफी दिनों तक होरेब पर्वत पर रहा, क्या उसकी इस गैर-मौजूदगी की वजह से वे घबरा गए थे? क्या वे सोच रहे थे कि अगर अमालेकी फिर से हम पर हमला करेंगे तो हम मूसा के बिना उनके सामने बिलकुल लाचार होंगे, क्योंकि पिछली बार मूसा के ज़रिए ही हमें जीत हासिल हुई थी? (निर्ग. 17:8-16) मुमकिन है कि यही वजह हो। मगर वजह चाहे जो भी हो, इसराएलियों ने परमेश्वर की “बात मानने से इनकार कर दिया।” (प्रेषि. 7:39-41) उन्होंने ‘आज्ञा न मानने का ढर्रा’ बना लिया था, इसी वजह से वे वादा किए गए देश में दाखिल होने से घबरा रहे थे। पौलुस ने मसीहियों को उकसाया कि वे “अपना भरसक करें” ताकि इसराएलियों जैसे न बनें।—इब्रा. 4:3, 11.
12. यीशु ने आज्ञा मानना कैसे सीखा? इसका क्या फायदा हुआ?
12 प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते जाने के लिए ज़रूरी है कि हम यहोवा की आज्ञा मानने की भरसक कोशिश करें। यीशु मसीह की मिसाल हमें सिखाती है कि अकसर तकलीफ और दुख-दर्द सहने पर हम आज्ञा मानना सीखते हैं। (इब्रानियों 5:8, 9 पढ़िए।) इस धरती पर आने से पहले, बेशक यीशु अपने पिता की आज्ञा मानता था। मगर, जब उसने धरती पर अपने पिता की मरज़ी के हिसाब से काम किया, तो उसने शारीरिक दुख-दर्द और मन की वेदना सही। बड़े-से-बड़ा दुख झेलते हुए भी यीशु आज्ञा मानता रहा। इस तरह वह उस नए पद की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए ‘परिपूर्ण किया गया’ जो परमेश्वर ने उसके लिए सोचा था, यानी राजा और महायाजक का पद।
13. क्या बात दिखाती है कि हमने आज्ञा माननी सीखी है या नहीं?
13 हम अपने बारे में क्या कह सकते हैं? क्या हमने यह ठान लिया है कि चाहे हम पर मुसीबतों का पहाड़ क्यों न टूटे, हम यहोवा की आज्ञा मानना नहीं छोड़ेंगे? (1 पतरस 1:6, 7 पढ़िए।) यहोवा ने हमें साफ-साफ बताया है कि वह हमसे क्या चाहता है। क्या अच्छा है क्या बुरा, कैसी बोली बोलें और कैसी नहीं, ईमानदारी से काम करें, खुद बाइबल की पढ़ाई और अध्ययन करें, सभाओं में हाज़िर रहें और प्रचार का काम करें। (यहो. 1:8; मत्ती 28:19, 20; इफि. 4:25, 28, 29; 5:3-5; इब्रा. 10:24, 25) क्या हम मुसीबत के वक्त भी इन मामलों में यहोवा की आज्ञा मानते हैं? अगर हाँ, तो हमारे आज्ञा मानने से दिखायी देगा कि हम बढ़ते-बढ़ते प्रौढ़ता के लक्ष्य तक पहुँच गए हैं।
मसीही प्रौढ़ता के फायदे
14. मिसाल देकर समझाइए कि प्रौढ़ता के लक्ष्य तक पूरा ज़ोर लगाकर बढ़ने से हमारी हिफाज़त कैसे होती है।
14 आज हम मसीही ऐसी दुनिया में रहते हैं जो ‘शर्म-हया की सारी हदें पार कर चुकी’ है। ऐसे में अगर हमारे पास सोचने-समझने की शक्ति है जो सही-गलत में फर्क करने के लिए प्रशिक्षित है, तो यह सचमुच हमारी हिफाज़त करेगी। (इफि. 4:19) आइए एक मसीही भाई की मिसाल पर गौर करें जिसका नाम जेम्स है। जेम्स बाइबल की समझ देनेवाली किताबें-पत्रिकाएँ बराबर पढ़ा करता था और दिल से उनकी कदर करता था। जेम्स को एक ऐसी जगह नौकरी मिली जहाँ उसे छोड़ बाकी सभी कर्मचारी स्त्रियाँ थीं। वह कहता है: “इनमें से ज़्यादातर ऐसी थीं जिनमें शर्म-हया नाम की चीज़ नहीं थी। मगर एक लड़की के बारे में मुझे लगा कि उसका चरित्र अच्छा है और जब मैंने उसे बाइबल की सच्चाइयों के बारे में बताया तो उसने दिलचस्पी भी दिखायी। लेकिन, ऐसा हुआ कि एक बार एक कमरे में जहाँ काम चल रहा था, हम दोनों अकेले थे। तब वह लड़की मुझ पर डोरे डालने लगी। मुझे लगा कि वह मज़ाक कर रही है, मगर ऐसा नहीं था। उसे रोकना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था। तभी मुझे प्रहरीदुर्ग में बतायी एक भाई की आपबीती याद आयी जिसे अपनी नौकरी पर ऐसी ही परीक्षा का सामना करना पड़ा था। उस लेख में यूसुफ की मिसाल दी गयी थी जिसे पोतीपर की पत्नी ने लुभाने की कोशिश की थी।b मैंने फौरन उस लड़की को धकेलकर दूर किया और वह भागकर बाहर निकल गयी।” (उत्प. 39:7-12) जेम्स शुक्र मना रहा था कि बात आगे नहीं बढ़ी और वह अपना ज़मीर साफ रखने में कामयाब रहा।—1 तीमु. 1:5.
15. प्रौढ़ता हासिल करने से कैसे हमारे दिल को मज़बूती मिलती है?
15 प्रौढ़ता हासिल करने का एक और फायदा यह है कि इससे हमारे दिल को मज़बूती मिलती है और हम “तरह-तरह की परायी शिक्षाओं से गुमराह” नहीं होते। (इब्रानियों 13:9 पढ़िए।) जब हम आध्यात्मिक तरक्की करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, तो हमारा ध्यान उन बातों पर लगा रहता है जो ‘ज़्यादा अहमियत रखती’ हैं। (फिलि. 1:9, 10) इस तरह हम दिनों-दिन परमेश्वर के और भी एहसानमंद होते हैं कि उसने हमारी खातिर क्या-क्या इंतज़ाम किए हैं। (रोमि. 3:24) एक मसीही जो ‘सोचने-समझने की काबिलीयत में सयाना’ है, उसका दिल एहसानमंदी की भावना से उमड़ता रहता है और यहोवा के साथ उसका करीबी रिश्ता होता है।—1 कुरिं. 14:20.
16. किस बात ने एक बहन को ‘दिल की मज़बूती’ पाने में मदद दी?
16 लवीज़ नाम की एक बहन ने यह माना कि बपतिस्मा लेने के कुछ समय बाद तक उसकी सबसे बड़ी चिंता यही थी कि अगर वह परमेश्वर की सेवा में ढीली पड़ गयी, तो लोग क्या कहेंगे। वह कहती है: “मैं कोई गलत काम नहीं कर रही थी, फिर भी मेरे दिल में यहोवा की सेवा के लिए आग नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं तन-मन से यहोवा की सेवा नहीं कर रही थी। इसलिए मुझे कुछ बदलाव करने की ज़रूरत महसूस हुई। सबसे बड़ा बदलाव यह था कि मैं परमेश्वर की सेवा में अपना दिल लगाऊँ।” लवीज़ ने यह बदलाव किया और ‘दिल की मज़बूती’ पायी, और यह मज़बूती उस वक्त बहुत काम आयी जब उसे एक दर्दनाक बीमारी हुई। (याकू. 5:8) लवीज़ कहती है: “मैं अपनी बीमारी से हर पल जूझती रहती थी, मगर मैं यहोवा के वाकई बहुत करीब आ गयी।”
‘दिल से आज्ञाकारी बनो’
17. खासकर पहली सदी में आज्ञा मानना क्यों ज़रूरी था?
17 पहली सदी में यरूशलेम और यहूदिया के मसीहियों ने जब पौलुस की यह सलाह मानी कि “पूरा ज़ोर लगाकर प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते” जाएँ, तो वे अपनी जान बचा पाए। उनकी समझ पैनी थी और इस वजह से वे उस निशानी को पहचान सके जिसे देखकर मसीहियों को “पहाड़ों की तरफ भागना शुरू” कर देना था। यीशु ने उनसे कहा था कि “जब तुम्हें वह उजाड़नेवाली घिनौनी चीज़ . . . एक पवित्र जगह में खड़ी नज़र आए,” यानी जब वे देखें कि रोम की फौजें यरूशलेम को घेर चुकी हैं और उसके अंदर घुसने लगी हैं, तो उन्हें समझ लेना था कि भागने का वक्त आ गया है। (मत्ती 24:15, 16) मसीही, यीशु की चेतावनी मानते हुए यरूशलेम के विनाश से पहले वहाँ से भाग निकलें। और ईसाई इतिहास लिखनेवाले यूसेबियस का कहना है कि वे पेल्ला नाम के एक कसबे में जा बसे जो गिलाद के पहाड़ी इलाके में आता है। इस तरह ये मसीही, इतिहास में दर्ज़ यरूशलेम की सबसे खौफनाक तबाही से बच निकले।
18, 19. (क) हमारे दिनों में आज्ञा मानना क्यों बेहद ज़रूरी है? (ख) अगले लेख में किस बात पर चर्चा की जाएगी?
18 प्रौढ़ मसीही होने के नाते जब हम आज्ञा मानते हैं, तो हम भी अपनी जान बचा पाएँगे। हमारे वक्त में जब यीशु की भविष्यवाणी बड़े पैमाने पर पूरी होगी, तब दुनिया पर “ऐसा महा-संकट” आएगा जैसा पहले कभी नहीं आया। ऐसे में जान बचानी है तो आज्ञा मानना ज़रूरी है। (मत्ती 24:21) भविष्य में हमें ‘विश्वासयोग्य प्रबंधक’ से चाहे जैसा भी ज़रूरी निर्देशन मिले, क्या हम उसे मानेंगे? (लूका 12:42) कितना ज़रूरी है कि हम ‘दिल से आज्ञाकारी’ बनना सीखें!—रोमि. 6:17.
19 प्रौढ़ता का लक्ष्य हासिल करने के लिए अपनी सोचने-समझने की शक्ति को प्रशिक्षित करना ज़रूरी है। यह हम तभी कर सकते हैं जब हम परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह से जानें और आज्ञा मानना सीखें। जब हमारे नौजवान, मसीही प्रौढ़ता के लक्ष्य तक बढ़ते हैं, तो उनके आगे खास किस्म की मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। अगला लेख इस बात पर चर्चा करेगा कि इन मुश्किलों को पार करने में वे कैसे कामयाब हो सकते हैं।
[फुटनोट]
a कुछ नाम बदल दिए गए हैं।
b 1 अक्टूबर, 1999 की प्रहरीदुर्ग में लेख, “गलत काम करने से इनकार करने के लिए हिम्मत जुटाना” देखिए।
आपने क्या सीखा?
• आध्यात्मिक मायने में प्रौढ़ होने का क्या मतलब है? प्रौढ़ता हासिल करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?
• प्रौढ़ता हासिल करने में परमेश्वर के वचन को अच्छी तरह जानने की क्या अहमियत है?
• हम आज्ञा मानना कैसे सीखते हैं?
• प्रौढ़ता हासिल करने के क्या-क्या फायदे हैं?
[पेज 10 पर तसवीर]
बाइबल की सलाह मानने से, हम सुलझे हुए इंसान की तरह समस्याओं का सामना करेंगे
[पेज 12, 13 पर तसवीर]
यीशु की सलाह पर अमल करने से पहली सदी के मसीहियों की जान बची