मसीह के जैसी मनोवृत्ति दिखाइए!
“धीरज, और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हें यह बरदान दे, कि मसीह यीशु के अनुसार [सदृश्य] आपस में एक मन रहो।”—रोमियों 15:5.
1. एक व्यक्ति की ज़िंदगी पर रवैये का क्या असर पड़ सकता है?
दुनिया में अलग-अलग रवैयेवाले लोग रहते हैं। कोई बेपरवाह है तो कोई मेहनती, कोई हमेशा अच्छे की उम्मीद करता है तो कोई हमेशा बुरे की, कोई हमेशा बहस करता है तो कोई सहयोगी, कोई शिकायती है तो कोई एहसानमंद। रवैये का हमारी ज़िंदगी पर काफी असर पड़ता है। यह हमारे रवैये पर निर्भर करता है कि हम किस तरह से मुश्किल हालात का सामना करते हैं या दूसरों से किस तरह से पेश आते हैं। अगर हमारा रवैया अच्छा है, तो हमें मुश्किल से मुश्किल हालात में भी आशा की किरण नज़र आएगी, और अगर हमारा रवैया ठीक नहीं है तो ज़िंदगी अगर अच्छी तरह भी बीत रही हो तो भी हमें चारों तरफ बस अंधकार ही अंधकार नज़र आएगा।
2. एक व्यक्ति रवैया कैसे सीखता है?
2 दरअसल, रवैये को, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, सीखा जा सकता है। दरअसल हमें रवैया सीखना ही पड़ता है। कॉलियर्स एनसाइक्लोपीडिया एक नवजात शिशु के बारे में बताते हुए कहती है, “जिस तरह एक नवजात शिशु को कोई भाषा या हुनर सीखना पड़ता है, उसी तरह उसे बचपन से ही रवैया भी सीखने की ज़रूरत होती है।” मगर हम कोई भी ‘रवैया’ कैसे सीखते हैं? यह खासकर हमारे माहौल और संगति पर निर्भर करता है। वही एनसाइक्लोपीडिया कहती है: “हम खासकर अपने नज़दीकी दोस्तों के रवैये को देखकर बहुत कुछ सीखते हैं।” हज़ारों साल पहले, बाइबल ने भी कुछ इसी तरह की बात बतायी थी: “बुद्धिमानों की संगति कर, तब तू भी बुद्धिमान हो जाएगा, परन्तु मूर्खों का साथी नाश हो जाएगा।”—नीतिवचन 13:20; 1 कुरिन्थियों 15:33.
सही रवैये का नमूना
3. हमारे लिए किसका रवैया सबसे अच्छी मिसाल है, और हम इस मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
3 बाकी के मामलों की तरह, रवैये के मामले में भी यीशु मसीह की मिसाल सबसे अच्छी है। उसने कहा: “मैं ने तुम्हें नमूना दिखा दिया है, कि जैसा मैं ने तुम्हारे साथ किया है, तुम भी वैसा ही किया करो।” (यूहन्ना 13:15) यीशु की मिसाल पर चलने के लिए हमें सबसे पहले उसके बारे में जानना होगा।a किस मकसद से हमें यीशु की ज़िंदगी का बारीकी से अध्ययन करना चाहिए, इसके बारे में प्रेरित पतरस हमें बताता है: “तुम इसी के लिये बुलाए भी गए हो क्योंकि मसीह भी तुम्हारे लिये दुख उठाकर, तुम्हें एक आदर्श दे गया है, कि तुम भी उसके चिन्ह पर चलो।” (1 पतरस 2:21) हमारा मकसद यही होना चाहिए कि हम हर मायने में हू-ब-हू यीशु की तरह बनने की कोशिश करें, जिसमें उसके जैसी मनोवृत्ति अपनाना भी शामिल है।
4, 5. रोमियों 15:1-3 में यीशु के कौन-से गुण के बारे में बताया गया है और मसीही उसका अनुकरण कैसे कर सकते हैं?
4 यीशु मसीह की मनोवृत्ति अपनाने में क्या-क्या शामिल है? पौलुस ने रोम के मसीहियों को जो पत्री लिखी थी, उसके 15वें अध्याय में हमें इसका जवाब मिलता है। शुरुआती आयतों में पौलुस, यीशु के एक बेहतरीन गुण के बारे में कहता है: “निदान हम बलवानों को चाहिए, कि निर्बलों की निर्बलताओं को सहें; न कि अपने आप को प्रसन्न करें। हम में से हर एक अपने पड़ोसी को उस की भलाई के लिये सुधारने के निमित्त प्रसन्न करे। क्योंकि मसीह ने अपने आप को प्रसन्न नहीं किया, पर जैसा लिखा है, कि तेरे निन्दकों की निन्दा मुझ पर आ पड़ी।”—रोमियों 15:1-3.
5 मसीहियों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे यीशु की मनोवृत्ति का अनुकरण करते हुए उसके जैसे नम्रता का गुण दिखाएँ और अपनी खुशी से बढ़कर दूसरों की ज़रूरतों की चिंता किया करें। जी हाँ, नम्रता से दूसरों की सेवा करने का गुण सिर्फ ‘बलवान’ ही दिखा सकते हैं। यीशु बाकी सभी इंसानों से आध्यात्मिक तौर पर सबसे ज़्यादा मज़बूत था, मगर देखिए कि उसने अपने बारे में क्या कहा: “मनुष्य का पुत्र, वह इसलिये नहीं आया कि उस की सेवा टहल किई जाए, परन्तु इसलिये आया कि आप सेवा टहल करे: और बहुतों की छुड़ौती के लिये अपने प्राण दे।” (मत्ती 20:28) मसीही होने के नाते, हमें भी दूसरों की, खासकर “निर्बलों” की सेवा करने में पहल करनी चाहिए।
6. सताहट और निंदा का सामना करने में हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
6 यीशु ने एक और अच्छा गुण दिखाया। उसके सोचने और काम करने का तरीका हमेशा अच्छा था। उसे हर हालात में अच्छाई दिखायी देती थी और जो ठीक था उसे करने से वह कभी भी पीछे नहीं हटा। उसने दूसरों के गलत विचारों को, परमेश्वर की सेवा में आड़े आने नहीं दिया, ना ही अपनी अच्छी मनोवृत्ति को बिगड़ने दिया। हमें भी उसकी मिसाल पर चलना चाहिए। यहोवा की वफादारी से उपासना करने के लिए जब यीशु की निंदा की गयी और उसे सताया गया, तब यीशु ने शिकायत नहीं की बल्कि धीरज से सब कुछ सह लिया। क्योंकि वह जानता था कि जो लोग अपने पड़ोसी “की भलाई के लिये” काम करना चाहते हैं, उन्हें यह दुनिया न तो समझेगी, ना ही उन पर विश्वास करेगी बल्कि उन्हें सिर्फ सताएगी।
7. यीशु ने कैसे धीरज दिखाया और हमें भी धीरज क्यों दिखाना चाहिए?
7 यीशु ने बाकी तरीकों से भी सही मनोवृत्ति दिखायी। वह यहोवा से कभी नाराज़ नहीं हुआ, ना ही उसने कभी सोचा कि यहोवा अपना मकसद पूरा करने में देर कर रहा है। इसके बजाय, उसने धीरज धरते हुए यहोवा के मकसद के पूरा होने का इंतज़ार किया। (भजन 110:1; मत्ती 24:36; प्रेरितों 2:32-36; इब्रानियों 10:12, 13) इतना ही नहीं, यीशु अपने चेलों के साथ भी धैर्य से पेश आया। उसने उनसे कहा: “मुझ से सीखो।” यीशु बहुत ही ‘नम्रता’ से पेश आता था, इसीलिए उसकी शिक्षाएँ हमेशा लोगों में ताज़गी भर देती थीं और उनका हौसला बुलंद करती थी। साथ ही, “मन में दीन” होने की वज़ह से यीशु घमंडी या अहंकारी नहीं था, ना ही वह बहुत बड़े-बड़े शब्दों को इस्तेमाल करके दिखावा करता था। (मत्ती 11:29) पौलुस भी यह कहते हुए हमें यीशु के इन गुणों का अनुकरण करने के लिए उकसाता है। “जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिस ने परमेश्वर के स्वरूप में होकर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। बरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया।”—फिलिप्पियों 2:5-7.
8, 9. (क) अपने अंदर निःस्वार्थ स्वभाव पैदा करने के लिए हमें मेहनत क्यों करनी पड़ेगी? (ख) अगर हम यीशु के नमूने या मिसाल पर पूरी तरह से नहीं चल पाते हैं, तो हमें निराश क्यों नहीं होना चाहिए और इस मामले में पौलुस कैसे एक अच्छी मिसाल है?
8 यह कहना तो बड़ा आसान है कि हम दूसरों की सेवा करना चाहते हैं और खुद से ज़्यादा दूसरों की ज़रूरतें पूरी करना चाहते हैं। मगर खुद को परखने से हमें पता चलेगा कि हमारे अंदर हमेशा ऐसा करने की इच्छा नहीं होती। क्यों? पहला कारण है, कि आदम और हव्वा की वज़ह से हमारे अंदर जन्म से ही स्वार्थ का गुण मौजूद है; दूसरा, हम एक स्वार्थी दुनिया में जी रहे हैं जो बस अपने बारे में ही सोचती है। (इफिसियों 4:17, 18) सो, अपने अंदर निःस्वार्थ स्वभाव पैदा करने का मतलब है इस तरह सोचने की आदत डालना जो अपरिपूर्ण आदम से हमें विरासत में मिली असिद्ध विचारों से बिलकुल विपरीत हो। ऐसा करने और सोचने के लिए हमें दृढ़-निश्चय और मेहनत करनी होगी।
9 यीशु ने हमारे लिए एक सिद्ध मिसाल छोड़ी थी, जिस पर हम शायद अपनी असिद्धता की वज़ह से पूरी तरह खरे न उतर पाएँ। इस वज़ह से हम शायद कभी-कभी निराश भी हो जाएँ। हम शायद यह सोचने लगे कि यीशु की तरह मनोवृत्ति पैदा करना हमारे बस की बात नहीं है या नामुमकिन है। मगर, हिम्मत मत हारिए। पौलुस ने हमारा हौसला बढ़ाते हुए कहा: “मैं जानता हूं, कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में कोई अच्छी वस्तु बास नहीं करती, इच्छा तो मुझ में है, परन्तु भले काम मुझ से बन नहीं पड़ते। क्योंकि जिस अच्छे काम की मैं इच्छा करता हूं, वह तो नहीं करता, परन्तु जिस बुराई की इच्छा नहीं करता, वही किया करता हूं। क्योंकि मैं भीतरी मनुष्यत्व से तो परमेश्वर की व्यवस्था से बहुत प्रसन्न रहता हूं। परन्तु मुझे अपने अंगों में दूसरे प्रकार की व्यवस्था दिखाई पड़ती है, जो मेरी बुद्धि की व्यवस्था से लड़ती है, और मुझे पाप की व्यवस्था के बन्धन में डालती है जो मेरे अंगों में है।” (रोमियों 7:18, 19, 22, 23) यह सच है कि असिद्ध होने की वज़ह से पौलुस को परमेश्वर की हर इच्छा पूरी करना मुश्किल लगता था और जिस तरह से वह उसे पूरा करना चाहता था, वैसा कर नहीं पाता था, मगर उसका रवैया यानी यहोवा और उसकी व्यवस्था के बारे में उसके खयालात काबिल-ए-तारीफ है। उसकी मिसाल पर चलने से हमारे खयालात भी उसके जैसे बन सकते हैं।
गलत रवैये को सुधारना
10. पौलुस ने फिलिप्पियों को कैसी मनोवृत्ति रखने की सलाह दी?
10 शायद हममें से कुछ लोगों को अपनी मनोवृत्ति सुधारने की ज़रूरत हो। पहली सदी के कुछ मसीहियों को भी अपनी मनोवृत्ति सुधारनी पड़ी थी। फिलिप्पियों को लिखी अपनी पत्री में, पौलुस ने उन्हें सही मनोवृत्ति या विचार रखने की सलाह दी। उसने लिखा, “यह मतलब नहीं, कि मैं [प्रथम पुनरुत्थान के ज़रिए स्वर्ग में जीवन] पा चुका हूं, या सिद्ध हो चुका हूं: पर उस [लक्ष्य] को पकड़ने के लिये दौड़ा चला जाता हूं, जिस के लिये मसीह यीशु ने मुझे पकड़ा था। हे भाइयो, मेरी भावना यह नहीं कि मैं पकड़ चुका हूं: परन्तु केवल यह एक काम करता हूं, कि जो बातें पीछे रह गई हैं उन को भूल कर, आगे की बातों की ओर बढ़ता हुआ। निशाने की ओर दौड़ा चला जाता हूं, ताकि वह इनाम पाऊं, जिस के लिये परमेश्वर ने मुझे मसीह यीशु में ऊपर बुलाया है। सो हम में से जितने सिद्ध हैं, यही विचार रखें।” (तिरछे टाइप हमारे।)—फिलिप्पियों 3:12-15.
11, 12. किन तरीकों से यहोवा हम पर सही मनोवृत्ति प्रकट करता है?
11 पौलुस के शब्दों से पता चलता है कि मसीही बनने के बाद जो भी व्यक्ति आगे प्रगति करना नहीं चाहता है, उसकी मनोवृत्ति गलत है। क्योंकि वह मसीह के मन या स्वभाव को अपनाने से चूक जाता है। (इब्रानियों 4:11; 2 पतरस 1:10; 3:14) क्या इस तरह के व्यक्ति के सुधरने की कोई उम्मीद होती हैं? जी हाँ, ज़रूर हैं। क्योंकि अगर व्यक्ति दिल से अपनी मनोवृत्ति बदलना चाहता है, तो इसमें परमेश्वर उसकी मदद ज़रूर करता है। इस बारे में पौलुस ने आगे कहा: “यदि किसी बात में तुम्हारा और ही विचार हो तो परमेश्वर उसे भी तुम पर प्रगट कर देगा।”—फिलिप्पियों 3:15.
12 लेकिन, अगर हम चाहते हैं कि यहोवा हम पर सही विचार या मनोवृत्ति प्रकट करे, तो हमें भी कुछ करना होगा। हमें प्रार्थना करनी होगी और “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” से मिलनेवाली मसीही किताबों की मदद से बाइबल को समझने की कोशिश करनी होगी। (मत्ती 24:45) इससे क्या फायदा होगा? अगर ‘हमारा कुछ और ही विचार था’ तो हम उसे छोड़कर, सही मनोवृत्ति पैदा कर पाएँगे। पवित्र आत्मा के ज़रिए नियुक्त मसीही प्राचीनों को भी हमारी मदद करने में यानी “परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली” करने में खुशी होगी। (प्रेरितों 20:28) इतना ही नहीं, यहोवा हमेशा याद रखता है कि हम असिद्ध इंसान हैं, सो वह हमारी मदद करना चाहता है। इसके लिए हमें यहोवा का बहुत ही शुक्रगुज़ार होना चाहिए और उसके प्रबंध को तहेदिल से स्वीकार करें।
दूसरों से सीखना
13. अय्यूब के किस्से से हम उचित रवैये के बारे में क्या सीखते हैं?
13 पौलुस रोमियों के 15वें अध्याय में बताता है कि पुराने ज़माने की मिसालों पर मनन करने से हमें अपनी मनोवृत्ति को सुधारने में मदद मिल सकती है। इस बारे में वह लिखता है: “जितनी बातें पहिले से लिखी गईं, वे हमारी ही शिक्षा के लिये लिखी गईं हैं कि हम धीरज और पवित्र शास्त्र की शान्ति के द्वारा आशा रखें।” (रोमियों 15:4) पुराने ज़माने में यहोवा के कुछ वफादार सेवकों को अपनी मनोवृत्ति बदलने की ज़रूरत पड़ी थी। अय्यूब की मिसाल लीजिए। वैसे देखा जाए तो उसका रवैया बहुत ही अच्छा था। उसने कभी-भी यहोवा को अपनी बुरी हालत का ज़िम्मेदार नहीं ठहराया, ना ही दुःख-तकलीफ झेलते वक्त परमेश्वर पर से उसका भरोसा और विश्वास उठा। (अय्यूब 1:8, 21, 22) मगर उसमें एक कमी थी। उसने सफाई पेश करके खुद को धर्मी ठहराने की कोशिश की। यहोवा ने उसके इस रवैये को सुधारने के लिए एलीहू को भेजा। अपमानित महसूस करने के बजाय अय्यूब ने नम्रता से अपनी गलती कबूल की और खुशी-खुशी उसे सुधारा।—अय्यूब 42:1-6.
14. अगर कोई हमें कहता है कि हमारा रवैया गलत है, तो हम अय्यूब की सी मनोवृत्ति कैसे दिखा सकते हैं?
14 अगर कोई मसीही हमें कहता है कि किसी बात में हमारा रवैया गलत है, तो क्या हम अय्यूब की तरह नम्रता से उसे कबूल करेंगे? इस मामले में हमें अय्यूब की तरह होना चाहिए, और ‘मूर्खता से परमेश्वर पर दोष नहीं लगाना’ चाहिए। (अय्यूब 1:22) अगर हमारे साथ कोई अन्याय हुआ हो, तो हमें कभी भी उसके लिए यहोवा को दोष नहीं देना चाहिए, और ना ही यहोवा की बुराई करनी चाहिए। इतना ही नहीं, हमें सफाई पेश करके खुद को धर्मी ठहराने की भी कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि यहोवा के संगठन में चाहे हमें कोई खास पद क्यों न मिला हो, मगर “हम [बस] निकम्मे दास हैं।”—लूका 17:10.
15. (क) यीशु के कुछ चेलों ने कौन-सा गलत रवैया दिखाया? (ख) पतरस ने किस तरह एक बढ़िया रवैया दिखाया?
15 पहली सदी में, यीशु की बातें सुननेवाले कुछ लोगों का रवैया गलत था। एक बार जब यीशु ने कुछ ऐसी बात कहीं जिन्हें समझना थोड़ा मुश्किल था तो “उसके चेलों में से बहुतों ने यह सुनकर कहा, कि यह बात नागवार है; इसे कौन सुन सकता है?” उन चेलों का रवैया बहुत ही गलत था जिसकी वज़ह से वे यीशु को हमेशा के लिए छोड़कर चले गए। वही आयत आगे कहती है: “इस पर उसके चेलों में से बहुतेरे उल्टे फिर गए और उसके बाद उसके साथ न चले।” क्या यीशु की बातें सुननेवाले वहाँ मौजूद सभी लोगों का रवैया गलत था? बिलकुल नहीं। आयत कहती है: “तब यीशु ने उन बारहों से कहा, क्या तुम भी चले जाना चाहते हो? शमौन पतरस ने उस को उत्तर दिया, कि हे प्रभु हम किस के पास जाएं?” और फिर पतरस ने खुद ही इसका जवाब दिया: “अनन्त जीवन की बातें तो तेरे ही पास हैं।” (यूहन्ना 6:60, 66-68) उसने कितना बढ़िया रवैया दिखाया! हमारे बारे में क्या? जब हमें बाइबल की कोई नयी समझ दी जाती है, और जिसे स्वीकार करने में शुरू-शुरू में हमें शायद मुश्किल लगे, तो क्या हमें भी पतरस की तरह रवैया नहीं दिखाना चाहिए? अगर हम ऐसी बातों को लेकर यहोवा की सेवा करना छोड़ देते हैं या ‘खरी बातों’ से मुँह फेरकर कुछ और ही बातें करने लगते हैं, तो यह कितनी मूर्खता की बात होगी!—2 तीमुथियुस 1:13.
16. यीशु के दिनों के धार्मिक अगुवों ने किस तरह की गंदी मनोवृत्ति दिखायी?
16 पहली सदी के यहूदी धर्म के अगुवों की मनोवृत्ति भी यीशु की तरह बिलकुल नहीं थी। उन्होंने तो यीशु की एक न सुनने की ठान रखी थी। यह बात तब सामने आई जब यीशु ने लाजर को ज़िंदा किया था। सही मनोवृत्ति रखनेवालों के लिए ऐसा चमत्कार एक पक्का सबूत था कि यीशु ही परमेश्वर का बेटा है। मगर, उन अगुवों ने क्या किया, उसके बारे में हम पढ़ते हैं: “इस पर महायाजकों और फरीसियों ने मुख्य सभा के लोगों को इकट्ठा करके कहा, हम करते क्या हैं? यह मनुष्य तो बहुत चिन्ह दिखाता है। यदि हम उसे योंही छोड़ दें, तो सब उस पर विश्वास ले आएंगे और रोमी आकर हमारी जगह और जाति दोनों पर अधिकार कर लेंगे।” उन्होंने क्या हल निकाला? ‘उसी दिन से वे यीशु को मार डालने की सम्मति करने लगे।’ उन्होंने यीशु को मार डालने की साजिश करने के साथ-साथ, उसके चमत्कार के सबूत यानी लाजर को भी मार डालने की ठान ली। “तब महायाजकों ने लाजर को भी मार डालने की सम्मति की।” (यूहन्ना 11:47, 48, 53; 12:9-11) अगर हममें भी इसी तरह की मनोवृत्ति या रवैया है और अगर हम भी किसी बात को लेकर खुश होने के बजाय नाराज़ या क्रोधित हो जाते हैं, तो यह कितनी गंदी बात होगी! जी हाँ, ऐसा रवैया बहुत ही खतरनाक है!
मसीह के अच्छे रवैये की नकल करना
17. (क) कैसी परिस्थितियों में दानिय्येल ने बिना डरे परमेश्वर की सेवा की? (ख) यीशु ने किस तरह दिखाया कि वह निडर है?
17 यहोवा के सेवक सही मनोवृत्ति रखने की कोशिश करते हैं। दानिय्येल के मामले में जब उसके दुश्मनों ने यह कानून निकलवाया कि 30 दिन तक सिर्फ राजा को छोड़ किसी और देवता या मनुष्य से बिनती नहीं करनी है, तब दानिय्येल समझ गया कि यहोवा परमेश्वर के साथ उसके रिश्ते को तोड़ने की साज़िश की जा रही है। क्या उसने डर के मारे 30 दिन तक यहोवा से प्रार्थना करनी छोड़ दी? जी नहीं। उसने बिना डरे, अपनी रीति के मुताबिक दिन में तीन बार यहोवा से प्रार्थना की। (दानिय्येल 6:6-17) दानिय्येल की ही तरह यीशु भी अपने दुश्मनों से नहीं डरा था। एक बार सब्त के दिन, उसके पास एक ऐसा आदमी आया जिसका हाथ सूख गया था। यीशु जानता था कि अगर वह सब्त के दिन किसी को चंगा करेगा, तो वहाँ मौजूद कई यहूदियों को यह पसंद नहीं आएगा। इसलिए उसने इस बारे में उनसे सीधे-सीधे सवाल किया। जब उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया तो यीशु ने उस आदमी को चंगा कर दिया। (मरकुस 3:1-6) जी हाँ, यीशु कभी-भी अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करने से पीछे नहीं हटा।
18. कुछ लोग क्यों हमारा विरोध करते हैं, मगर उनकी बेरुखी मनोवृत्ति का हम पर क्या असर नहीं होना चाहिए?
18 आज यहोवा के साक्षियों को यह सोचकर नहीं डरना चाहिए कि विरोध करनेवाले शायद हमारे साथ ऐसा सलूक करेंगे, या वैसा सलूक करेंगे। उन्हें हमेशा हिम्मत से काम लेना चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते तो इसका मतलब यही होगा कि वे यीशु के जैसी मनोवृत्ति नहीं दिखा रहे हैं। कई लोग यहोवा के साक्षियों का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें साक्षियों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती, या वे साक्षियों को या उनके संदेश को पसंद नहीं करते। इसलिए वे हमारे साथ बेरुखी से पेश आते हैं। मगर उनके इस रवैये की वज़ह से हमें कभी अपना काम बंद नहीं करना चाहिए, ना ही परमेश्वर की उपासना के बारे में अपना सही नज़रिया बदलना चाहिए। हमें किसकी उपासना करनी है और किसकी नहीं, इसका फैसला हमें दूसरों से डर कर नहीं बल्कि खुद, अपनी मर्ज़ी से करना चाहिए।
19. हम यीशु के जैसी मनोवृत्ति कैसे दिखा सकते हैं?
19 यीशु ने अपने चेलों के प्रति और परमेश्वर के प्रबंधों के प्रति हमेशा सही नज़रिया रखा, चाहे ऐसा करने के लिए उसे कितनी ही तकलीफें क्यों न उठानी पड़ी हों। (मत्ती 23:2, 3) हम भी उसकी मिसाल पर चल सकते हैं। माना कि हमारे भाई-बहन असिद्ध हैं, मगर हम भी तो उतने ही असिद्ध हैं। मगर, हमें अपने भाई-बहनों से बेहतर साथी और वफादार दोस्त और कहाँ मिलेंगे? यहोवा ने अपने वचन की पूरी-पूरी समझ तो फिलहाल हमें नहीं दी है, मगर हम साक्षियों से बढ़कर भला कौन-सा समूह बाइबल को बेहतर समझता है? इसलिए आइए, हम हमेशा सही मनोवृत्ति यानी यीशु मसीह के जैसी मनोवृत्ति बनाए रखें। इसमें यहोवा के नियत समय के लिए इंतज़ार करना भी शामिल है जैसा हम अगले लेख में देखेंगे।
[फुटनोट]
a वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जो कभी जीवित रहा किताब यीशु की ज़िंदगी और सेवकाई के बारे में बताती है। इसे वॉचटावर बाइबल एण्ड ट्रैक्ट सोसाइटी ने प्रकाशित किया है।
क्या आप समझा सकते हैं?
• एक व्यक्ति की ज़िंदगी पर रवैये का क्या असर पड़ सकता है?
• यीशु मसीह की मनोवृत्ति के बारे में बताइए।
• हम अय्यूब के रवैये से क्या सीख सकते हैं?
• विरोध के समय हमें किस तरह का रवैया दिखाना चाहिए?
[पेज 7 पर तसवीरें]
सही मनोवृत्ति रखनेवाला मसीही दूसरों की मदद करता है
[पेज 9 पर तसवीर]
परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और प्रार्थना करने से हमें मसीह जैसी मनोवृत्ति अपनाने में मदद मिलेगी