कोमलता विकसित कीजिए
“तुम्हारी कोमलता सब मनुष्यों पर प्रगट हो: प्रभु निकट है।”—फिलिप्पियों ४:५.
१. आज के संसार में कोमल होना एक चुनौती क्यों है?
“कोमल मनुष्य”—अंग्रेज़ पत्रकार सर ऐलन पैट्रिक हर्बर्ट ने उसे एक काल्पनिक व्यक्ति कहा। सचमुच, कभी-कभी ऐसा प्रतीत हो सकता है कि इस कलहपूर्ण संसार में कोई कोमल लोग नहीं बचे हैं। बाइबल ने पूर्वबताया कि इन कठिन “अन्तिम दिनों” में लोग “कठोर,” “ढीठ,” और “क्षमारहित” होंगे—दूसरे शब्दों में, बिलकुल भी कोमल नहीं होंगे। (२ तीमुथियुस ३:१-५) फिर भी, सच्चे मसीही कोमलता को बहुत महत्त्वपूर्ण समझते हैं, यह जानकर कि वह परमेश्वरीय बुद्धि का एक विशिष्ट लक्षण है। (याकूब ३:१७) हम यह महसूस नहीं करते कि इस निष्ठुर संसार में कोमल होना असंभव है। बल्कि, हम फिलिप्पियों ४:५ में दी गयी प्रेरित पौलुस की उत्प्रेरित सलाह की चुनौती को पूर्णतया स्वीकार करते हैं: “तुम्हारी कोमलता सब मनुष्यों पर प्रगट हो।”
२. फिलिप्पियों ४:५ में प्रेरित पौलुस के शब्द हमें यह निर्णय करने में कैसे सहायता करते हैं कि हम कोमल हैं या नहीं?
२ ध्यान दीजिए कि पौलुस के शब्द हमें कैसे यह परीक्षण करने में सहायता करते हैं कि हम कोमल हैं या नहीं। प्रश्न यह नहीं है हम अपनी नज़र में कैसे हैं; प्रश्न यह है कि दूसरों की नज़रों में हम कैसे हैं, या हम कैसे प्रसिद्ध हैं। फिलिप्पस् का अनुवाद इस आयत को यों कहता है: “कोमल होने की प्रतिष्ठा रखो।” हम में से प्रत्येक यह भली-भाँति पूछ सकता है, ‘मैं कैसे प्रसिद्ध हूँ? क्या मैं कोमल, सुनम्य, और विनम्र होने की प्रतिष्ठा रखता हूँ? या क्या मैं सख़्त, कठोर, या ढीठ होने के लिए प्रसिद्ध हूँ?’
३. (क) “कोमल” अनुवादित यूनानी शब्द का अर्थ क्या है, और यह गुण आकर्षक क्यों है? (ख) एक मसीही और अधिक कोमल होना कैसे सीख सकता है?
३ इस संबंध में हमारी प्रतिष्ठा यह प्रतिबिंबित करेगी कि किस हद तक हम यीशु मसीह का अनुकरण करते हैं। (१ कुरिन्थियों ११:१) जब यीशु इस पृथ्वी पर था, तो उसने पूर्ण रूप से अपने पिता की कोमलता के सर्वोच्च उदाहरण को प्रतिबिंबित किया। (यूहन्ना १४:९) वास्तव में, जब पौलुस ने ‘मसीह की नम्रता, और कृपा’ के बारे में लिखा, तो कृपा (एपीआइकाइआस्) के लिए जिस यूनानी शब्द का उसने इस्तेमाल किया उसका अर्थ “कोमलता” या शाब्दिक रूप में “सुनम्यता” भी है। (२ कुरिन्थियों १०:१, NW) दी एक्सपोसिटर्स् बाइबल कॉमेन्ट्री (अंग्रेज़ी) इसे “न[या] नि[यम] में चरित्र विवरण का एक श्रेष्ठ शब्द” कहती है। वह इतने आकर्षक गुण का विवरण करती है कि एक विद्वान ने इस शब्द को “मधुर कोमलता” अनुवाद किया। इसलिए, आइए हम तीन तरीक़ों की चर्चा करें जिनसे यीशु ने अपने पिता, यहोवा की तरह कोमलता प्रदर्शित की। इस प्रकार हम शायद सीख सकें कि हम अपने आप को और अधिक कोमल कैसे बना सकते हैं।—१ पतरस २:२१.
“क्षमा करने को तत्पर”
४. यीशु ने स्वयं को “क्षमा करने को तत्पर” कैसे दिखाया?
४ अपने पिता की तरह, यीशु ने बार-बार “क्षमा करने को तत्पर” होने के द्वारा कोमलता दिखायी। (भजन ८६:५, NW) उस समय के बारे में विचार कीजिए जब यीशु के निकट साथी, पतरस ने यीशु के पकड़े जाने और परीक्षा की रात को तीन बार उसका इनकार किया। यीशु ने ख़ुद पहले कहा था: “जो कोई मनुष्यों के साम्हने मेरा इन्कार करेगा उस से मैं भी अपने स्वर्गीय पिता के साम्हने इन्कार करूंगा।” (मत्ती १०:३३) क्या यीशु ने सख़्ती और निर्दयता से इस नियम को पतरस पर लागू किया? नहीं; अपने पुनरुत्थान के बाद यीशु ने पतरस से एक व्यक्तिगत भेंट की और इसमें कोई संदेह नहीं कि वह भेंट इस पश्चातापी और दुःखी प्रेरित को सांत्वना और आश्वासन देने के लिए की गयी थी। (लूका २४:३४; १ कुरिन्थियों १५:५) उसके कुछ ही समय बाद, यीशु ने पतरस को बड़ी ज़िम्मेदारी रखने की अनुमति दी। (प्रेरितों २:१-४१) यहाँ मधुर कोमलता अत्युत्तम तरीक़े से प्रदर्शित हुई! क्या यह सोचना संतोषजनक नहीं है कि यहोवा ने यीशु को सारी मानवजाति पर न्यायी नियुक्त किया है?—यशायाह ११:१-४; यूहन्ना ५:२२.
५. (क) भेड़ों के मध्य प्राचीनों की कैसी प्रतिष्ठा होनी चाहिए? (ख) न्यायिक मामलों को निपटाने से पहले प्राचीन कौन-से विषय पर पुनर्विचार कर सकते हैं, और क्यों?
५ कलीसिया में प्राचीन जब न्यायी का कार्य करते हैं, तब वे यीशु के कोमल उदाहरण का अनुकरण करने का प्रयत्न करते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि भेड़ उन्हें दण्डदाता समझकर उनसे डरें। बल्कि, वे यीशु का अनुकरण करने की कोशिश करते हैं ताकि भेड़ उन्हें प्रेममय चरवाहा समझकर उनके साथ सुरक्षित महसूस करें। न्यायिक मामलों में, वे कोमल और क्षमा करने को तत्पर होने की हर कोशिश करते हैं। ऐसे मामले को निपटाने से पहले, कुछ प्राचीनों ने अक्तूबर १, १९९२ प्रहरीदुर्ग के “यहोवा, ‘सारी पृथ्वी का’ निष्पक्ष ‘न्यायी’” और “प्राचीनों, धार्मिकता से न्याय करो” लेखों पर पुनर्विचार करना सहायक पाया है। वे इस प्रकार यहोवा के न्याय करने के तरीक़े के सारांश को ध्यान में रखते हैं: “दृढ़ता जहाँ आवश्यक हो, दया जहाँ संभव हो।” न्याय करते समय दया की प्रवृत्ति दिखाना ग़लत नहीं है जब ऐसा करने का एक यथोचित आधार हो। (मत्ती १२:७) कठोर या निर्दयी होना एक भारी ग़लती है। (यहेजकेल ३४:४) अतः न्याय की सीमाओं के अन्दर रहते हुए सक्रियता से यथासंभव प्रेममय, दयावंत कार्यविधि को ढूँढने के द्वारा प्राचीन ग़लती करने से दूर रहते हैं।—मत्ती २३:२३; और याकूब २:१३ से तुलना कीजिए।
बदलती परिस्थितियों का सामना करते समय नम्य होना
६. अन्यजाति स्त्री के साथ, जिसकी बेटी दुष्टात्मा द्वारा पीड़ित थी, व्यवहार करते समय यीशु ने कोमलता कैसे प्रदर्शित की?
६ यहोवा की तरह, यीशु ने भी कार्यवाही बदलने में या नयी स्थितियों के उत्पन्न होने पर उनके अनुकूल होने में अपने आप को तेज़ साबित किया। एक अवसर पर एक अन्यजाति स्त्री ने दुष्टात्मा द्वारा बुरी तरह से पीड़ित अपनी बेटी को चंगा करने के लिए उससे विनती की। तीन भिन्न तरीक़ों से यीशु ने प्रारंभ में सूचित किया कि वह उसकी सहायता नहीं करेगा—पहला, उसे जवाब न देने के द्वारा; दूसरा, सीधे-सीधे कहने के द्वारा कि उसे अन्यजातियों के पास नहीं बल्कि यहूदियों के पास भेजा गया है; और तीसरा, एक दृष्टान्त देने के द्वारा जिसने कृपापूर्ण ढंग से वही बात कही। लेकिन, असाधारण विश्वास का प्रमाण देते हुए वह स्त्री इन सब के बावजूद भी अड़ी रही। इस विशेष परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए, यीशु देख सकता था कि यह सामान्य नियम लागू करने का समय नहीं है; यह उच्चतर सिद्धान्तों की प्रतिक्रिया में नम्य होने का समय था।a अतः, यीशु ने ठीक वही किया जो उसने तीन बार सूचित किया था कि वह नहीं करेगा। उसने उस स्त्री की बेटी को चंगा किया!—मत्ती १५:२१-२८.
७. किन तरीक़ों से शायद माता-पिता कोमलता दिखा सकते हैं, और क्यों?
७ क्या हम भी जहाँ उपयुक्त हो वहाँ उसी तरह झुकने की इच्छा दिखाने के लिए प्रसिद्ध हैं? माता-पिता को अकसर ऐसी कोमलता दिखाने की ज़रूरत है। चूँकि प्रत्येक बच्चा अनोखा होता है, तो जो तरीक़े एक बच्चे के साथ सफल होते हैं वे दूसरे के लिए अनुपयुक्त हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त, बच्चे जैसे बढ़ते जाते हैं, उनकी ज़रूरतें बदलती जाती हैं। क्या माता-पिता द्वारा बच्चों के घर लौटने के लिए नियत किए गए समय में समंजन किया जाना चाहिए? क्या एक ज़्यादा सजीव तरीक़े से पारिवारिक अध्ययन को लाभ पहुँच सकता है? जब माता-पिता किसी छोटी ग़लती पर अत्यधिक प्रतिक्रिया दिखाते हैं, तब क्या वे विनम्र होने और मामले को ठीक करने के लिए इच्छुक हैं? माता-पिता जो ऐसे तरीक़ों में सुनम्य हैं, अपने बच्चों को व्यर्थ में रिस दिलाने और उन्हें यहोवा से दूर करने से बचे रहते हैं।—इफिसियों ६:४.
८. क्षेत्र की ज़रूरतों के अनुकूल होने में कलीसिया प्राचीन कैसे अगुवाई ले सकते हैं?
८ प्राचीनों को भी नयी परिस्थितियों के साथ-साथ अनुकूल होने की ज़रूरत है, फिर भी, परमेश्वर की विशिष्ट विधियों का समझौता कभी नहीं करना चाहिए। प्रचार कार्य की निगरानी करते समय, क्या आप क्षेत्र के परिवर्तनों के प्रति सर्तक हैं? जैसे-जैसे पड़ोस की जीवन-शैलियाँ बदलती हैं, तो संध्या गवाही, सड़क गवाही, या टेलीफ़ोन गवाही को शायद बढ़ावा दिया जा सकता है। ऐसे तरीक़ों से अनुकूल होना हमें अपने प्रचार नियुक्ति-आदेश को ज़्यादा प्रभावकारी तरीक़े से पूरा करने में सहायता करता है। (मत्ती २८:१९, २०; १ कुरिन्थियों ९:२६) पौलुस ने भी अपनी सेवकाई में हर प्रकार के लोगों के अनुकूल होने को महत्त्व दिया। उदाहरण के लिए, लोगों की सहायता करने के लिए स्थानीय धर्मों और संस्कृतियों के बारे में पर्याप्त जानकारी लेने के द्वारा, क्या हम भी वैसे ही करते हैं?—१ कुरिन्थियों ९:१९-२३.
९. एक प्राचीन को समस्याओं को वैसे ही निपटाने का हठ क्यों नहीं करना चाहिए जैसे वह पहले निपटाता था?
९ जैसे-जैसे ये अन्तिम दिन और अधिक कठिन होते जा रहे हैं, रखवालों को भी शायद उन समस्याओं की चकरानेवाली जटिलता और अप्रियता के अनुकूल होने की ज़रूरत होगी जिनका सामना उनका झुंड अभी कर रहा है। (२ तीमुथियुस ३:१) प्राचीनों, यह समय सख़्ती का नहीं है! यदि उसके तरीक़े अप्रभावी हो गए हैं या “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” ने ऐसे विषयों पर नयी बातों को प्रकाशित करना उचित समझा है, तो निश्चय ही एक प्राचीन समस्याओं को वैसे ही निपटाने का हठ नहीं करेगा जैसे वह उन्हें पहले निपटाता था। (मत्ती २४:४५; साथ ही सभोपदेशक ७:१०; और १ कुरिन्थियों ७:३१ से तुलना कीजिए।) एक वफ़ादार प्राचीन ने निष्कपटता से एक हताश बहन की सहायता करने की कोशिश की जिसे एक अच्छे सुननेवाले की अत्यधिक ज़रूरत थी। लेकिन, प्राचीन ने उसकी हताशा को बहुत गंभीर नहीं समझा और समस्या की जटिलता को नज़रअंदाज़ करते हुए अतिसरल हल पेश किए। फिर वॉच टावर सोसाइटी ने कुछ बाइबल-आधारित जानकारी प्रकाशित की जिसमें उस बहन की ही समस्या को संबोधित किया गया था। इस बार नयी बातों को लागू करते हुए और उसकी दुर्दशा के लिए तदनुभूति दिखाते हुए, प्राचीन ने उससे फिर से बात करने का निश्चय किया। (१ थिस्सलुनीकियों ५:१४, १५ से तुलना कीजिए।) कोमलता का क्या ही उत्तम उदाहरण!
१०. (क) प्राचीनों को एक दूसरे के प्रति और समूचे प्राचीनों के निकाय के प्रति सुनम्य मनोवृत्ति कैसे दिखानी चाहिए? (ख) प्राचीन निकाय को उन व्यक्तियों को किस दृष्टि से देखना चाहिए जो अपने आपको निष्ठुर दिखाते हैं?
१० प्राचीनों को एक दूसरे के प्रति सुनम्य मनोवृत्ति दिखाने की भी ज़रूरत है। जब प्राचीनों का निकाय मिलता है, तो कितना महत्त्वपूर्ण है कि कोई एक प्राचीन कार्यवाही पर प्रभुत्व न करे! (लूका ९:४८) जो अध्यक्षता कर रहा है उसे इस संबंध में ख़ासकर आत्म-संयम की ज़रूरत है। और जब एक या दो प्राचीन समस्त प्राचीनों के निकाय के निर्णय से असहमत होते हैं, तो वे अपनी इच्छा के मुताबिक़ कार्य करवाने का हठ नहीं करेंगे। बल्कि, जब तक कि किसी शास्त्रीय सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं होता, वे सुनम्य बनेंगे, यह ध्यान में रखते हुए कि प्राचीनों से कोमलता की माँग की जाती है। (१ तीमुथियुस ३:२, ३) दूसरी तरफ़, प्राचीनों के निकाय को ध्यान में रखना चाहिए कि पौलुस ने कुरिन्थ की कलीसिया को ऐसे ‘निष्ठुर लोगों की सह लेने’ के लिए ताड़ना दी, जो अपने आपको “बड़े से बड़े प्रेरितों” की नाईं पेश करते थे। (२ कुरिन्थियों ११:५, १९, २०, NW) सो उन्हें एक संगी प्राचीन को जो एक ज़िद्दी, निष्ठुर ढंग से व्यवहार करता है, सलाह देने के लिए इच्छुक होना चाहिए, लेकिन ऐसा करते समय उन्हें ख़ुद नम्र और कृपालु होना चाहिए।—गलतियों ६:१.
अधिकार के प्रयोग में कोमलता
११. यीशु के दिनों में जिस प्रकार यहूदी धार्मिक अगुवों ने और जिस प्रकार यीशु ने अधिकार का प्रयोग किया, उसमें क्या विषमता थी?
११ जब यीशु पृथ्वी पर था, तो उसकी कोमलता सचमुच उसके परमेश्वर-प्रदत्त अधिकार को काम में लाने के तरीक़े से दिखाई पड़ी। वह अपने दिनों के धार्मिक अगुवों से कितना भिन्न था! एक उदाहरण पर विचार कीजिए। परमेश्वर की व्यवस्था का आदेश था कि सब्त के दिन कोई भी कार्य, यहाँ तक कि लकड़ी इकट्ठा करने का भी कार्य नहीं किया जाना चाहिए। (निर्गमन २०:१०; गिनती १५:३२-३६) लोग इस विधि को कैसे लागू करते थे उस पर धार्मिक अगुवे नियंत्रण रखना चाहते थे। सो सब्त के दिन एक व्यक्ति वास्तव में क्या उठा सकता है उसका निर्णय करना उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। उन्होंने नियम बनाया: दो सूखे अंजीरों से भारी कुछ नहीं। उन्होंने कील लगी हुई चप्पलें पहनने की मनाही की। उन्होंने दावा किया कि कीलों के अतिरिक्त वज़न को उठाना कार्य करना होगा! ऐसा कहा जाता है कि कुल मिलाकर, रब्बियों ने सब्त के विषय में परमेश्वर की व्यवस्था में ३९ नियमों को जोड़ा और फिर उन नियमों में अंतहीन जोड़ किए। दूसरी तरफ़, यीशु ने अंतहीन प्रतिबंधक नियमों को लगाने के द्वारा या सख़्त, अप्राप्य स्तर निर्धारित करने के द्वारा लज्जित करके लोगों को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की।—मत्ती २३:२-४; यूहन्ना ७:४७-४९.
१२. हम क्यों कह सकते हैं कि यहोवा के धार्मिक स्तरों के संबंध में यीशु विचलित नहीं हुआ?
१२ तब, क्या हमें अनुमान लगाना चाहिए कि यीशु ने परमेश्वर के धार्मिक स्तरों का दृढ़ता से समर्थन नहीं किया? निश्चय ही उसने परमेश्वर के धार्मिक स्तरों का समर्थन किया! वह समझता था कि विधियाँ अत्यधिक प्रभावशाली तब होती हैं जब मानव उन विधियों के पीछे सिद्धान्तों को हृदय से ग्रहण करें। जबकि फरीसी लोग अनगिनत नियमों द्वारा लोगों को नियंत्रित करने की कोशिश में लगे थे, यीशु ने लोगों के हृदयों तक पहुँचना चाहा। उदाहरण के लिए, वह भली-भाँति जानता था कि “व्यभिचार से बचे रहो” जैसी परमेश्वरीय विधियों के संबंध में कोई सुनम्यता नहीं है। (१ कुरिन्थियों ६:१८) सो यीशु ने लोगों को ऐसे विचारों के बारे में चेतावनी दी जो अनैतिकता की ओर ले जा सकते हैं। (मत्ती ५:२८) ऐसी शिक्षा के लिए सख़्त, सूत्रबद्ध नियमों को मात्र निर्धारित करने से कहीं ज़्यादा बुद्धि और समझ की ज़रूरत थी।
१३. (क) प्राचीनों को अनम्य विधियों और नियमों को बनाने से क्यों दूर रहना चाहिए? (ख) कौन-से कुछ क्षेत्र हैं जिनमें व्यक्ति के अंतःकरण का आदर करना महत्त्वपूर्ण है?
१३ आज ज़िम्मेदार भाई हृदय तक पहुँचने के लिए उतनी ही दिलचस्पी रखते हैं। अतः, वे मनमाने, अनम्य नियमों को निर्धारित करने या अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण और विचारों को विधि में बदलने से दूर रहते हैं। (दानिय्येल ६:७-१६ से तुलना कीजिए।) समय-समय पर, पहनावे और बनाव-श्रंगार जैसे विषयों पर कृपाशील अनुस्मारक उपयुक्त और समयोचित हो सकते हैं, लेकिन एक प्राचीन कोमल होने की अपनी प्रतिष्ठा को ख़तरे में डाल सकता है यदि वह ऐसे विषयों का राग अलापता रहता है या ऐसी बातों को थोपने की कोशिश करता है जो मूलतः उसकी व्यक्तिगत पसंद को दिखाती हैं। वास्तव में, कलीसिया में सभी को दूसरों को नियंत्रित करने की कोशिश करने से दूर रहना चाहिए।—२ कुरिन्थियों १:२४; और फिलिप्पियों २:१२ से तुलना कीजिए।
१४. यीशु ने कैसे दिखाया कि दूसरों से जो वह अपेक्षा करता है उसमें वह तर्कसंगत था?
१४ प्राचीन ख़ुद को शायद एक दूसरे विषय में जाँचना चाहेंगे: ‘मैं दूसरों से जो अपेक्षा करता हूँ क्या उसमें मैं तर्कसंगत हूँ?’ निश्चय ही यीशु था। उसने बार-बार अपने अनुयायियों को दिखाया कि वह पूरे मन से किए गए उनके प्रयासों से अधिक कुछ नहीं चाहता था और कि वह इन प्रयासों को अति मूल्यवान समझता था। उसने कम मूल्य की अपनी दमड़ियों को देने के लिए कंगाल विधवा की प्रशंसा की। (मरकुस १२:४२, ४३) उसने अपने चेलों को डाँटा जब उन्होंने मरियम के महँगे अंशदान की आलोचना की। उसने कहा: “उसे छोड़ दो; . . . जो कुछ वह कर सकी, उस ने किया।” (मरकुस १४:६, ८) जब उसके अनुयायियों ने उसे निराश किया तौभी वह कोमल था। उदाहरण के लिए, हालाँकि उसके पकड़े जाने की रात को उसने अपने तीन निकटतम प्रेरितों से उसके साथ जागते रहने और पहरा देने के लिए आग्रह किया, उन्होंने बार-बार सो जाने के द्वारा उसे निराश किया। फिर भी, उसने सहानुभूतिपूर्वक कहा: “आत्मा तो तैयार है, पर शरीर दुर्बल है।”—मरकुस १४:३४-३८.
१५, १६. (क) प्राचीनों को झुंड को दबाव में डालने या धमकाने से सावधान क्यों रहना चाहिए? (ख) दूसरों से वह क्या अपेक्षा करती थी उसमें एक वफ़ादार बहन ने कैसे समायोजन किया?
१५ सच, यीशु ने अपने अनुयायियों को ‘यत्न करने’ को प्रोत्साहित किया। (लूका १३:२४) लेकिन ऐसा करने के लिए उसने कभी उन पर दबाव नहीं डाला! उसने उन्हें प्रेरित किया, एक उदाहरण रखा, अगुवाई की, और हृदय तक पहुँचने की कोशिश की। बाक़ी का काम करने के लिए उसने यहोवा की आत्मा की शक्ति पर भरोसा किया। इसी प्रकार आज प्राचीनों को पूरे हृदय से यहोवा की सेवा करने के लिए झुंड को प्रोत्साहित करना चाहिए। लेकिन उन्हें दोष या लज्जा द्वारा धमकाने से दूर रहना चाहिए। उन्हें यह संकेत नहीं देना चाहिए कि यहोवा की सेवा में वे फ़िलहाल जितना कर रहे हैं वह कुछ तरीक़े से अपर्याप्त या अस्वीकार्य है। “ज़्यादा करो, ज़्यादा करो, ज़्यादा करो!” का एक सख़्त, दबाव डालनेवाला तरीक़ा शायद उन्हें निरुत्साहित कर देगा जो जितना उनसे बन पड़ता है उतना कर रहे हैं। कितने दुःख कि बात होगी यदि एक प्राचीन ‘प्रसन्न करने को कठिन’ होने की प्रतिष्ठा बना लेता है—कोमलता से बहुत ही भिन्न!—१ पतरस २:१८, NW.
१६ दूसरों से हम क्या अपेक्षा करते हैं उसमें हम सभी को तर्कसंगत होना चाहिए! एक बहन और उसके पति ने, बहन की बीमार माँ की देखभाल करने के लिए मिशनरि कार्य-नियुक्ति को छोड़ा, उसके बाद बहन ने लिखा: “यहाँ कलीसियाओं में हम प्रकाशकों के लिए ये समय सचमुच कठिन हैं। सर्किट और ज़िला कार्य के दौरान ऐसे कई दबावों से सुरक्षित रहने के कारण, हमें एकाएक और दुःखद रीति से इसका बोध हुआ। उदाहरण के लिए, मैं अपने आप से कहा करती थी, ‘वह बहन इस महीने सही साहित्य क्यों नहीं पेश करती? क्या वह राज्य सेवकाई नहीं पढ़ती?’ अब मुझे पता चला क्यों। [सेवा में] निकलने के लिए कुछ लोग ज़्यादा से ज़्यादा इतना ही कर सकते हैं।” हमारे भाई जो नहीं करते हैं उसके लिए उन्हें आँकने के बजाय कितना बेहतर है कि जितना वे करते हैं उसके लिए हम उनकी प्रशंसा करें!
१७. कोमलता के संबंध में यीशु ने हमारे लिए एक उदाहरण कैसे रखा?
१७ एक अंतिम उदाहरण पर विचार कीजिए कि कैसे यीशु अपने अधिकार को एक कोमल तरीक़े से काम में लाता है। अपने पिता की तरह, यीशु अपने अधिकार की ईर्ष्यालु रूप से रक्षा नहीं करता है। वह भी एक उत्कृष्ट प्रत्यायोजक है, उसने अपने विश्वासयोग्य दास वर्ग को यहाँ पृथ्वी पर “अपनी सारी संपत्ति” की देखभाल करने के लिए नियुक्त किया है। (मत्ती २४:४५-४७) और वह दूसरों के विचारों को सुनने से नहीं डरता। उसने अपने सुननेवालों से अकसर पूछा: “तुम क्या समझते हो?” (मत्ती १७:२५; १८:१२; २१:२८; २२:४२) सो मसीह के सभी अनुयायियों के बीच आज ऐसा ही होना चाहिए। कितना भी अधिकार क्यों न हो उन्हें सुनने को अनिच्छुक नहीं बनना चाहिए। माता-पिताओं, सुनो! पतियों, सुनो! प्राचीनों, सुनो!
१८. (क) हम कैसे पता लगा सकते हैं कि हम कोमलता की प्रतिष्ठा रखते हैं या नहीं? (ख) हम में से प्रत्येक जन क्या दृढ़संकल्प कर सकते हैं?
१८ निश्चित रूप से, हम में से प्रत्येक जन “कोमल होने की प्रतिष्ठा रखना” चाहता है। (फिलिप्पियों ४:५, फिलिप्पस्) लेकिन हमें कैसे मालूम हो कि हमारी ऐसी प्रतिष्ठा है? ख़ैर, जब यीशु जिज्ञासु था कि लोग उसके विषय में क्या कह रहे थे, तो उसने अपने भरोसेमंद साथियों से पूछा। (मत्ती १६:१३) क्यों न उसके उदाहरण का अनुकरण करें? जिसकी स्पष्टवादिता पर आपको भरोसा है आप उससे पूछ सकते हैं कि आप एक कोमल, सुनम्य व्यक्ति होने की प्रतिष्ठा रखते हैं या नहीं। निश्चय ही यीशु की कोमलता के परिपूर्ण उदाहरण को निकटता से अनुकरण करने में हम सभी काफ़ी कुछ कर सकते हैं! ख़ासकर यदि हमें दूसरों पर थोड़ा अधिकार प्राप्त है, तो सदा उसे कोमल तरीक़े से काम में लाते हुए, आइए हम यहोवा और यीशु के उदाहरण का हमेशा अनुकरण करें, और जहाँ उपयुक्त हो वहाँ क्षमा करने, झुकने, या सुनम्य बनने को हमेशा तत्पर हों। वाक़ई, हममें से प्रत्येक जन “कोमल स्वभाव के” होने का प्रयास करे!—तीतुस ३:२.
[फुटनोट]
a न्यू टेस्टामेन्ट वर्ड्स् (अंग्रेज़ी) पुस्तक टिप्पणी करती है: “वह व्यक्ति जो एपीआइकेस् [कोमल] है जानता है कि ऐसे समय होते हैं जब कोई बात क़ानूनी रूप से शायद पूर्णतया न्यायसंगत हो और फिर भी नैतिक रूप से पूर्णतया ग़लत। वह व्यक्ति जो एपीआइकेस् है जानता है कि विधि से ऊँची और बड़ी शक्ति के दबाव के कारण विधि में कब ढील देनी है।”
आप कैसे उत्तर देंगे?
▫ मसीही कोमल होना क्यों चाहेंगे?
▫ प्राचीन लोग क्षमा करने को तत्पर होने में यीशु का अनुकरण कैसे कर सकते हैं?
▫ हमें यीशु की तरह नम्य होने का प्रयास क्यों करना चाहिए?
▫ अधिकार प्रयोग करने के हमारे तरीक़े के द्वारा हम कैसे कोमलता प्रदर्शित कर सकते हैं?
▫ हम कैसे अपनी जाँच कर सकते हैं कि हम वास्तव में कोमल हैं या नहीं?
[पेज 14 पर तसवीर]
यीशु ने तत्परता से पश्चातापी पतरस को क्षमा किया
[पेज 15 पर तसवीर]
जब एक स्त्री ने असाधारण विश्वास दिखाया, तब यीशु ने देखा कि यह सामान्य नियम लागू करने का समय नहीं है
[पेज 17 पर तसवीर]
माता-पिताओं सुनो!
[पेज 17 पर तसवीरें]
पतियों सुनो!
[पेज 17 पर तसवीर]
प्राचीनों सुनो!