परीक्षाओं के बावजूद, अपने विश्वास में बने रहिए!
“हे मेरे भाइयों, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इस को पूरे आनन्द की बात समझो।”—याकूब १:२, ३.
१. किसके बावजूद यहोवा के लोग विश्वास और “हृदय के आनंद के साथ” उसकी सेवा करते हैं?
यहोवा के लोग उसके साक्षी होने के नाते, उसमें विश्वास और “हृदय के आनन्द” के साथ उसकी सेवा करते हैं। (व्यवस्थाविवरण २८:४७, NW; यशायाह ४३:१०) हालाँकि वे अनेक परीक्षाओं से घिरे होते हैं, फिर भी वे उसकी सेवा करते हैं। अपने कष्टों के बावजूद, वे इन शब्दों से शांति पाते हैं: “हे मेरे भाइयों, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इस को पूरे आनन्द की बात समझो, यह जानकर, कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है।”—याकूब १:२, ३.
२. याकूब की पत्री के लेखक के बारे में क्या जानकारी है?
२ यह बात लगभग सा.यु. ६२ में यीशु मसीह के सौतेले भाई, चेले याकूब द्वारा लिखी गई थी। (मरकुस ६:३) याकूब यरूशलेम कलीसिया में एक प्राचीन था। असल में, वह, कैफा (पतरस) और यूहन्ना उस कलीसिया के मज़बूत, अच्छी तरह गड़े हुए सहारे—“खम्भे समझे जाते थे।” (गलतियों २:९) जब सा.यु. ४९ के लगभग ‘प्रेरितों और प्राचीनों’ के सामने खतना का मामला आया, तो याकूब ने शास्त्र पर आधारित ठोस प्रस्ताव रखा जिसे पहली शताब्दी के शासी निकाय ने मंज़ूर कर लिया।—प्रेरितों १५:६-२९.
३. प्रथम-शताब्दी मसीही कौन-सी कुछ समस्याओं का सामना कर रहे थे और याकूब की पत्री से हम सबसे ज़्यादा लाभ कैसे उठा सकते हैं?
३ परवाह करनेवाला एक आध्यात्मिक चरवाहा होने के नाते याकूब ‘भेड़-बकरियों की दशा भली-भांति जानता था।’ (नीतिवचन २७:२३) उसे एहसास था कि उस समय मसीही कठिन परीक्षाओं से गुज़र रहे थे। कुछ लोगों को अपने सोच-विचार बदलने की ज़रूरत थी, क्योंकि वे धनवानों का पक्ष लेते थे। अनेक सिर्फ़ नाम के लिए उपासना करते थे। कुछ अपनी बेक़ाबू ज़ुबान से दूसरों को नुक़सान पहुँचा रहे थे। उनमें संसार की आत्मा बुरे प्रभाव डाल रही थी और अनेक लोगों में न तो धीरज ही था न ही वे प्रार्थनापूर्ण थे। दरअसल, कुछ मसीहियों को आध्यात्मिक बीमारी ने घेर लिया था। ऐसे मामलों को याकूब की पत्री प्रोत्साहक ढंग से संबोधित करती है और उसकी सलाह आज भी उतनी ही व्यावहारिक है जितनी सा.यु. पहली शताब्दी में थी। हम तब इस पत्री से और भी अधिक लाभ उठाएँगे जब हम यह मानेंगे कि यह व्यक्तिगत रूप से हमारे लिये लिखी गयी है।a
जब हम परीक्षाओं का सामना करते हैं
४. परीक्षाओं को हमें किस नज़र से देखना चाहिए?
४ याकूब हमें बताता है कि हम परीक्षाओं को किस नज़र से देखें। (याकूब १:१-४) परमेश्वर के पुत्र के साथ अपने पारिवारिक रिश्ते का बखान किये बिना, वह नम्रतापूर्वक ख़ुद को ‘परमेश्वर का और प्रभु यीशु मसीह का दास’ कहता है। याकूब आत्मिक इस्राएल के “बारहों गोत्रों” को अपनी पत्री लिखता है, जो पहले सताहट की वज़ह से “तित्तर बित्तर होकर रहते” थे। (प्रेरितों ८:१; ११:१९; गलतियों ६:१६; १ पतरस १:१) मसीही होने के नाते हमें भी सताया जाता है और “नाना प्रकार की परीक्षाओं में” पड़ते हैं। लेकिन अगर हम याद रखें कि परीक्षाओं में धीरज धरने से हमारा विश्वास मज़बूत होता है, तो इनके आने को हम ‘पूरे आनन्द की बात समझेंगे।’ अगर हम परीक्षाओं के दौरान परमेश्वर के प्रति खराई बनाए रखते हैं तो यह हमें अनंत ख़ुशी देगा।
५. हमारी कैसी-कैसी परीक्षाएँ हो सकती हैं और जब हम सफलतापूर्वक उनमें धीरज धरते हैं तो क्या होता है?
५ हमारी परीक्षाओं में ऐसी तकलीफ़ें शामिल हैं जो हर मनुष्य पर आती हैं। उदाहरण के लिए, हम बीमारी से ग्रस्त हो सकते हैं। परमेश्वर अब चमत्कारिक चंगाई नहीं करता, लेकिन वह बीमारी से लड़ने के लिए बुद्धि और शक्ति के लिए की गई हमारी प्रार्थनाओं का जवाब ज़रूर देता है। (भजन ४१:१-३) उत्पीड़ित यहोवा के साक्षियों के नाते हम धार्मिकता के लिए भी सताए जाते हैं। (२ तीमुथियुस ३:१२; १ पतरस ३:१४) जब हम ऐसी परीक्षाओं का सफलतापूर्वक सामना करते हैं तो उससे हमारे विश्वास का सबूत मिलता है और यह ‘परखा’ गया होता है। और जब हमारा विश्वास जीत जाता है तो इससे “धीरज उत्पन्न होता है।” परीक्षाओं से मज़बूत हुआ विश्वास भविष्य की परीक्षाओं का सामना करने में हमारी मदद करेगा।
६. ‘धीरज अपना पूरा काम’ कैसे करता है और जब हम परीक्षाओं का सामना कर रहे हों तो कौन-से व्यावहारिक क़दम उठाए जा सकते हैं?
६ “पर,” याकूब कहता है, “धीरज को अपना पूरा काम करने दो।” अगर हम परीक्षा को अशास्त्रीय तरीक़ों द्वारा जल्द ही ख़त्म करने की कोशिश करने के बजाय उसे चलते रहने देते हैं, तो मसीही होने के नाते धीरज हमें पूर्ण बनाने का “काम” करेगा और हमें विश्वास की कमी नहीं होगी। निश्चय ही, अगर कोई परीक्षा हमारी कुछ कमियों को उजागर करती है तो हमें उसे क़ाबू में रखने के लिए यहोवा से सहायता माँगनी चाहिए। तब क्या करें जब यह परीक्षा लैंगिक अनैतिकता में शामिल होने का प्रलोभन हो? तब हम उस समस्या के बारे में प्रार्थना करें और उसके बाद अपनी प्रार्थनाओं के अनुसार काम करें। हमें शायद अपनी नौकरी बदलने की ज़रूरत पड़े या परमेश्वर के प्रति खराई बनाए रखने के लिए अन्य क़दम उठाने पड़ें।—उत्पत्ति ३९:७-९; १ कुरिन्थियों १०:१३.
बुद्धि की खोज
७. परीक्षाओं का सामना करने के लिए हमें कैसे मदद मिल सकती है?
७ याकूब हमें दिखाता है कि तब हमें क्या करना चाहिए जब समझ में न आए कि परीक्षा का सामना कैसे करें। (याकूब १:५-८) बुद्धि की कमी के कारण उसके लिए विश्वास के साथ प्रार्थना करने के लिए यहोवा हमारी निंदा नहीं करेगा। वह परीक्षा को सही नज़रिए से देखने में और उसमें धीरज धरने में हमारी मदद करेगा। संगी विश्वासियों द्वारा या बाइबल अध्ययन के दौरान शास्त्र वचनों पर हमारा ध्यान दिलाया जा सकता है। परमेश्वर के मार्गदर्शन द्वारा घटनाओं का नियंत्रित किया जाना, शायद हमें दिखाए कि हमें क्या करना चाहिए। परमेश्वर की आत्मा हमें मार्गदर्शित कर सकती है। (लूका ११:१३) ऐसे फ़ायदों का आनंद उठाने के लिए, ज़रूरी है कि हम परमेश्वर और उसके लोगों के साथ नज़दीकी से जुड़े रहें।—नीतिवचन १८:१.
८. संदेह करनेवाला यहोवा से क्यों कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेगा?
८ यहोवा हमें परीक्षाओं का सामना करने के लिए बुद्धि देता है अगर हम ‘विश्वास से मांगें, और कुछ सन्देह न करें।’ संदेह करनेवाला यहाँ-वहाँ उठनेवाली “समुद्र की लहर के समान है जो हवा से बहती और उछलती है।” अगर हम आध्यात्मिक रूप से इतने अस्थिर हैं तो हम ‘यह न समझें, कि हमें प्रभु से कुछ मिलेगा।’ हम प्रार्थना में या अन्य तरीक़ों से ‘दुचित्ते’ और “चंचल” न हों। इसके बजाय, हम यहोवा पर विश्वास रखें जो बुद्धि का स्रोत है।—नीतिवचन ३:५, ६.
धनवान और ग़रीब घमंड कर सकते हैं
९. यहोवा के उपासक होने के नाते हमारे पास क्यों घमंड करने का कारण है?
९ अगर हमारी एक परीक्षा ग़रीबी हो, तो भी हम याद रखें कि धनवान और ग़रीब मसीही, दोनों ही घमंड कर सकते हैं। (याकूब १:९-११) ज़्यादातर अभिषिक्त जन यीशु के अनुयायी बनने से पहले ग़रीब थे और दुनिया की नज़रों में उनकी कोई इज़्ज़त नहीं थी। (१ कुरिन्थियों १:२६) लेकिन वे राज्य वारिसों के अपने “ऊंचे पद पर” घमंड कर सकते थे। (रोमियों ८:१६, १७) इसके विपरीत, धनवान लोगों ने, जो कभी आदर पाते थे, मसीह के अनुयायी होने के नाते “हीन दशा” (NHT) सही क्योंकि संसार उन्हें तुच्छ समझता था। (यूहन्ना ७:४७-५२; १२:४२, ४३) लेकिन, यहोवा के सेवकों के नाते, हम सभी घमंड कर सकते हैं क्योंकि संसार की दौलत और ऊँचा पद उस आध्यात्मिक दौलत के सामने कुछ भी नहीं जिसका आनंद हम उठाते हैं। और हम कितने आभारी हैं कि हमारे बीच सामाजिक रुतबे पर घमंड करने की कोई गुंजाइश नहीं।—नीतिवचन १०:२२; प्रेरितों १०:३४, ३५.
१०. एक मसीही को, धन को किस नज़र से देखना चाहिए?
१० याकूब यह समझने में हमारी मदद करता है कि हमारी ज़िंदगी धन और दुनियावी उपलब्धियों पर निर्भर नहीं करती। जैसे कि एक फूल की सुंदरता उसे सूरज की “कड़ी धूप” में मुरझाकर मरने से नहीं बचा सकती वैसे ही एक धनवान का धन उसकी उम्र लंबी नहीं कर सकता। (भजन ४९:६-९; मत्ती ६:२७) संभवतः व्यापार में, “अपने मार्ग” पर चलते-चलते उसकी मौत हो सकती है। इसलिए, महत्त्वपूर्ण बात है “परमेश्वर की दृष्टि में धनी” होना और राज्य हितों को बढ़ाने के लिए वह सब कुछ करना जो हम कर सकते हैं।—लूका १२:१३-२१; मत्ती ६:३३; १ तीमुथियुस ६:१७-१९.
धन्य हैं वे जो परीक्षाओं में धीरज धरते हैं
११. उनके लिए क्या आशा है जो परीक्षाओं के वक़्त में भी अपने विश्वास में बने रहते हैं?
११ हम चाहे धनवान हों या ग़रीब, हम सिर्फ़ तभी ख़ुश रह सकते हैं जब हम अपनी परीक्षाओं के समय धीरज धरते हैं। (याकूब १:१२-१५) अगर हम परीक्षाओं का दृढ़ विश्वास के साथ सामना करें तो हमें धन्य कहा जा सकता है क्योंकि परमेश्वर की नज़र में जो सही है उसे करने से आनंद मिलता है। मृत्यु तक अपने विश्वास में बने रहने से, आत्मा-अभिषिक्त मसीही “जीवन का मुकुट,” यानी स्वर्ग में अमरता प्राप्त करते हैं। (प्रकाशितवाक्य २:१०; १ कुरिन्थियों १५:५०) अगर हमारी आशा पृथ्वी पर जीने की है और हम परमेश्वर पर विश्वास बनाए रखते हैं तो हम पृथ्वी पर अनंत जीवन पाने की आशा कर सकते हैं। (लूका २३:४३, NW; रोमियों ६:२३) यहोवा उन सभी के लिए कितना भला है जो उस पर विश्वास करते हैं!
१२. दुःख-तकलीफ़ों का सामना करते वक़्त हमें यह क्यों नहीं कहना चाहिए कि “मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है”?
१२ क्या यह संभव है कि ख़ुद यहोवा ही हमें दुःख-तकलीफ़ें देकर हमारी परीक्षा ले? हरगिज़ नहीं, हमें यह नहीं कहना चाहिए: “मेरी परीक्षा परमेश्वर की ओर से होती है।” यहोवा हमसे पाप करवाने की कोशिश नहीं करता, लेकिन अगर हम विश्वास में दृढ़ बने रहें तो वह निश्चय ही परीक्षाओं में हमारी सहायता करेगा और हमें बल देगा। (फिलिप्पियों ४:१३) परमेश्वर पवित्र है, इसलिए वह हमें ऐसी परिस्थितियों में नहीं डालेगा जो पाप के हमारे विरोध को कमज़ोर कर दे। अगर हम ख़ुद किसी अपवित्र परिस्थिति में पड़कर कुछ पाप कर बैठें तो हमें उस पर दोष नहीं लगाना चाहिए, “क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर की परीक्षा हो सकती है, और न वह किसी की परीक्षा आप करता है।” हालाँकि यहोवा हमारे फ़ायदे के लिए हमें अनुशासित करने को एक परीक्षा के चलते रहने की अनुमति दे सकता है, लेकिन वह दुर्भावना के साथ हमारी परीक्षा नहीं करता। (इब्रानियों १२:७-११) शैतान ग़लत काम करवाने के लिए हमें भरमा सकता है, लेकिन परमेश्वर हमें उस दुष्ट से भी बचा सकता है।—मत्ती ६:१३.
१३. क्या हो सकता है अगर हम ग़लत अभिलाषा को दिल से न निकालें?
१३ हमें प्रार्थनापूर्ण होने की ज़रूरत है क्योंकि अमुक परिस्थिति ग़लत अभिलाषा को भड़का सकती है जो हमसे पाप करवा सकती है। याकूब कहता है: “प्रत्येक व्यक्ति अपनी ही अभिलाषा से खिंचकर, और फंसकर परीक्षा में पड़ता है।” हम अपने पाप के लिए परमेश्वर पर दोष नहीं लगा सकते अगर हमने ही अपने मन में पापमय अभिलाषाओं को पनपने दिया है। अगर हम ग़लत अभिलाषा को दिल से न निकालें, तो यह ‘गर्भवती होती’ है, दिल में पनपती रहती है और ‘पाप को जनती है।’ जब पाप कर लिया जाता है तो यह “मृत्यु को उत्पन्न करता है।” ज़ाहिर है कि हमें अपने दिल की रखवाली करनी चाहिए और पापमय झुकावों का विरोध करना चाहिए। (नीतिवचन ४:२३) कैन को चेतावनी दी गई थी कि पाप उस पर हावी होनेवाला है, लेकिन उसने उसका विरोध नहीं किया। (उत्पत्ति ४:४-८) तो फिर, तब क्या जब हम अशास्त्रीय रास्ता अपनाना शुरू कर रहे हैं? हमें वाक़ई आभारी होना चाहिए जब मसीही प्राचीन हमें परमेश्वर के विरुद्ध पाप करने से बचाने की कोशिश करते हैं।—गलतियों ६:१.
परमेश्वर—अच्छी वस्तुओं का स्रोत
१४. किस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर के वरदान “उत्तम” हैं?
१४ हमें यह याद रखना चाहिए कि यहोवा परीक्षाओं का नहीं, लेकिन अच्छी वस्तुओं का स्रोत है। (याकूब १:१६-१८) याकूब संगी विश्वासियों को “प्रिय भाइयो” कहता है और यह दिखाता है कि परमेश्वर ‘हर एक अच्छे वरदान और हर एक उत्तम दान’ का देनेवाला है। यहोवा के आध्यात्मिक और भौतिक वरदान “उत्तम” या संपूर्ण हैं, जिनमें कोई कमी नहीं। ये “ऊपर” से, स्वर्ग में परमेश्वर के वासस्थान से आते हैं। (१ राजा ८:३९) यहोवा ‘ज्योतियों का पिता’ है—सूरज, चाँद और तारों का। वह हमें आध्यात्मिक रोशनी और सच्चाई भी देता है। (भजन ४३:३; यिर्मयाह ३१:३५; २ कुरिन्थियों ४:६) सूर्य की विषमता में, जिसके चलने से छाया बदलती है और जो सिर्फ़ दोपहर में ही अपनी पूरी चमक में होता है, परमेश्वर अच्छी वस्तुएँ देने के लिए हमेशा अपनी चरम सीमा पर होता है। अगर हम उसके वचन और “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” के माध्यम से प्रदान किए गए आध्यात्मिक प्रबंधों का पूरा-पूरा फ़ायदा उठाते हैं तो वह हमें निश्चय ही परीक्षाओं का सामना करने के लिये तैयार करेगा।—मत्ती २४:४५.
१५. यहोवा का एक सर्वोत्तम वरदान क्या है?
१५ परमेश्वर का एक सर्वोत्तम वरदान क्या रहा है? वह है सुसमाचार के या ‘सत्य के वचन’ के साथ काम करते हुए, पवित्र आत्मा के ज़रिए आत्मिक पुत्रों को उत्पन्न करना। जो आत्मिक जन्म लेते हैं वे “एक प्रकार के प्रथम फल” हैं जिन्हें मानवजाति में से स्वर्गीय “राज्य और याजक” बनने के लिए चुन लिया गया है। (प्रकाशितवाक्य ५:१०; इफिसियों १:१३, १४) याकूब शायद निसान १६ में, जिस दिन यीशु का पुनरुत्थान हुआ था, भेंट चढ़ाए जानेवाले जौ की पहली उपज और पिन्तेकुस्त के दिन, जब पवित्र आत्मा उँडेली गई थी, दो रोटियों की भेंट के बारे में सोच रहा होगा। (लैव्यव्यवस्था २३:४-११, १५-१७) इस प्रकार, यीशु प्रथम फल होता और उसके संगी वारिस “एक प्रकार के प्रथम फल।” अगर हमारी आशा पृथ्वी पर रहने की है, तब क्या? इस आशा को मन में रखना ‘हर एक अच्छे वरदान’ के देनेवाले पर हमारे विश्वास में बने रहने में हमारी मदद करेगा, जिसने राज्य शासन के अधीन अनंत जीवन को संभव बनाया है।
“वचन पर चलनेवाले” बनिए
१६. हमें ‘सुनने के लिए तत्पर और बोलने में धीरा और क्रोध में धीमा’ क्यों होना चाहिए?
१६ चाहे हम अभी अपने विश्वास की परीक्षाएँ झेल रहे हों या नहीं, हमारा “वचन पर चलनेवाले” बनना ज़रूरी है। (याकूब १:१९-२५) हमें परमेश्वर के वचन को “सुनने के लिये तत्पर” और उस पर चलने में आज्ञाकारी होने की ज़रूरत है। (यूहन्ना ८:४७) दूसरी तरफ़, आइए हम ‘बोलने में धीरे’ हों और बोलने से पहले सोचें कि क्या बोल रहे हैं। (नीतिवचन १५:२८; १६:२३) याकूब शायद हमसे यह निवेदन कर रहा था कि हम ऐसा कहने में जल्दबाज़ी न करें कि हमारी परीक्षाएँ परमेश्वर की ओर से आती हैं। हमें यह भी सलाह दी गई है कि ‘क्रोध में धीमे हों। क्योंकि मनुष्य का क्रोध परमेश्वर के धर्म का निर्वाह नहीं कर सकता है।’ अगर किसी के कुछ कहने पर हमें क्रोध आ जाता है, तो कोई द्वेषपूर्ण जवाब देने के बजाय आइए हम ‘ठंडे दिमाग़ से काम लें।’ (इफिसियों ४:२६, २७) एक क्रोधी आत्मा जिससे हमें समस्याएँ हों और जो दूसरों के लिए परीक्षा बन जाए ऐसा आचरण पैदा नहीं कर सकती जिसकी माँग धर्मी परमेश्वर में हमारा विश्वास करता है। इसके अलावा, अगर हम ‘बड़े समझवाले’ हैं तो हम ‘विलम्ब से क्रोध करनेवाले’ होंगे और हमारे भाई-बहन हमारे नज़दीक आएँगे।—नीतिवचन १४:२९.
१७. दिलो-दिमाग़ से बुराई को निकालने पर क्या हासिल किया जा सकता है?
१७ निश्चित ही हमें “सारी मलिनता” से शुद्ध होना चाहिए—ऐसी सभी बातों से जो परमेश्वर को घृणित लगती हैं और क्रोध भड़काती हैं। इसके अलावा, हमें ‘बैर भाव की बढ़ती को दूर करना’ ज़रूरी है। हम सबको अपने जीवन में से शरीर या आत्मा की किसी भी बुराई को दूर करना चाहिए। (२ कुरिन्थियों ७:१; १ पतरस १:१४-१६; १ यूहन्ना १:९) दुष्टता को अपने दिलो-दिमाग़ से निकालने की वज़ह से सत्य के “वचन को नम्रता से ग्रहण” करने में हमें मदद मिली है। (प्रेरितों १७:११, १२) चाहे हम कितने ही समय से मसीही क्यों न हों, हमें और ज़्यादा शास्त्रीय सच्चाई को ग्रहण करते रहना चाहिए। क्यों? क्योंकि परमेश्वर की पवित्र आत्मा द्वारा बोया गया वचन ‘नया मनुष्यत्व’ उत्पन्न करता है जो उद्धार की ओर ले जाता है।—इफिसियों ४:२०-२४.
१८. एक व्यक्ति जो केवल वचन का सुननेवाला है उस व्यक्ति से कैसे भिन्न है जो वचन पर चलता भी है?
१८ हम यह कैसे दिखाते हैं कि हम वचन के अनुसार चलते हैं? आज्ञाकारिता से ‘वचन पर चलनेवाले बनकर और केवल सुननेवाले ही नहीं।’ (लूका ११:२८) ‘चलनेवालों’ का विश्वास ऐसे काम उत्पन्न करता है जैसे मसीही सेवकाई में जोश के साथ हिस्सा लेना और परमेश्वर के लोगों की सभाओं में भी नियमित रूप से भाग लेना। (रोमियों १०:१४, १५; इब्रानियों १०:२४, २५) वचन को सिर्फ़ सुननेवाला “उस मनुष्य के समान है जो अपना स्वाभाविक मुंह दर्पण में देखता है।” वह एक नज़र डालता है, फिर चला जाता है और भूल जाता है कि उसे अपनी सूरत ठीक करने के लिए किस चीज़ की ज़रूरत है। ‘वचन पर चलनेवालों’ के नाते, हम ध्यानपूर्वक परमेश्वर की “सिद्ध व्यवस्था” का अध्ययन करते और उसका पालन करते हैं, जो उसकी सभी माँगों को शामिल करती है। इस तरह जिस स्वतंत्रता का हम आनंद लेते हैं वह पाप और मृत्यु के दासत्व के बिलकुल विपरीत है, क्योंकि यह जीवन की ओर ले जाती है। तो आइए हम ‘सिद्ध व्यवस्था पर ध्यान करते रहें,’ लगातार उसकी खोज में रहें और उसका पालन करते रहें। और ज़रा सोचिए! ‘सुनकर भूलनेवाले नहीं, पर वैसा ही काम करनेवाले’ होने के नाते, हमारे पास परमेश्वर की स्वीकृति से मिलनेवाला हर्ष है।—भजन १९:७-११.
औपचारिक भक्तों से कहीं बढ़कर
१९, २०. (क) याकूब १:२६, २७ के अनुसार, शुद्ध उपासना हमसे क्या माँग करती है? (ख) निर्मल उपासना के कुछ उदाहरण क्या हैं?
१९ अगर हमें ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करना है तो हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि सच्ची उपासना महज़ औपचारिकता नहीं है। (याकूब १:२६, २७) हम शायद यह सोचें कि हम यहोवा के स्वीकृत “भक्त” हैं, लेकिन वास्तव में महत्त्वपूर्ण यह है कि वह हमें किस नज़र से देखता है। (१ कुरिन्थियों ४:४) एक गंभीर कमज़ोरी शायद ‘जीभ पर लगाम न देने’ की हो। हम ख़ुद को धोखा दे रहे होंगे अगर हम सोचें कि परमेश्वर हमारी उपासना से प्रसन्न है अगर हम दूसरों की चुग़ली करें, झूठ बोलें या अपनी जीभ का ग़लत इस्तेमाल करें। (लैव्यव्यवस्था १९:१६; इफिसियों ४:२५) निश्चित ही, हम नहीं चाहते कि हमारी “भक्ति व्यर्थ” जाए और किसी-भी कारण से परमेश्वर को अस्वीकार हो।
२० हालाँकि याकूब ने शुद्ध उपासना के हरेक पहलू के बारे में नहीं लिखा, वह कहता है कि इसमें ‘अनाथों और विधवाओं के क्लेश में उन की सुधि लेना’ शामिल है। (गलतियों २:१०; ६:१०; १ यूहन्ना ३:१८) विधवाओं का पालन-पोषण करने में मसीही कलीसिया ख़ास ध्यान देती है। (प्रेरितों ६:१-६; १ तीमुथियुस ५:८-१०) क्योंकि परमेश्वर विधवाओं और अनाथों का रक्षक है, तो आध्यात्मिक और भौतिक रूप से उनकी मदद करने में हम जो भी कर सकते हैं, वह करने के द्वारा परमेश्वर को सहयोग दें। (व्यवस्थाविवरण १०:१७, १८) शुद्ध उपासना का यह भी अर्थ है ‘अपने आप को संसार से निष्कलंक रखना,’ उस अधर्मी मानव समाज से जो शैतान के वश में पड़ा है। (यूहन्ना १७:१६; १ यूहन्ना ५:१९) आइए हम संसार के अभक्ति के आचरण से शुद्ध रहें ताकि हम यहोवा की महिमा कर सकें और उसकी सेवा के काम आ सकें।—२ तीमुथियुस २:२०-२२.
२१. याकूब की पत्री से ही संबंधित और कौन-से सवाल हमारे ध्यान देने के योग्य हैं?
२१ याकूब की जिस सलाह पर हमने अब तक ग़ौर किया उनसे परीक्षाओं को सहने और अपने विश्वास में बने रहने में हमें मदद मिलनी चाहिए और इससे उत्तम वरदानों के प्रेममय दाता के लिए हमारी क़दरदानी और बढ़नी चाहिए। और याकूब के वचन शुद्ध उपासना करने में हमारी मदद करते हैं। और किस बात की ओर वह हमारा ध्यान खींचता है? यहोवा पर हमें सच्चा विश्वास है, यह साबित करने के लिए हम और कौन-से क़दम उठा सकते हैं?
[फुटनोट]
a इस लेख का और इसके बाद के दो लेखों का व्यक्तिगत या पारिवारिक अध्ययन करते वक़्त, आप याकूब की पत्री से विश्वास को मज़बूती देनेवाले हरेक उद्धृत भाग को पढ़ने से ख़ास लाभ उठाएँगे।
आप कैसे जवाब देंगे?
◻ परीक्षाओं का सामना करने में कौन-सी बात हमारी मदद करेगी?
◻ परीक्षाओं के बावजूद, मसीही घमंड क्यों कर सकते हैं?
◻ हम वचन पर चलनेवाले कैसे बन सकते हैं?
◻ शुद्ध उपासना में क्या शामिल है?
[पेज 9 पर तसवीर]
जब परीक्षाएँ आएँ तो प्रार्थनाओं का जवाब देने की यहोवा की शक्ति पर विश्वास रखिए
[पेज 10 पर तसवीर]
“वचन पर चलनेवाले” संसार भर में परमेश्वर के राज्य की घोषणा कर रहे हैं