वचन पर चलनेवाले बनो, केवल सुननेवाले नहीं
“जो मुझ से ‘हे प्रभु, हे प्रभु’ कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है।” —मत्ती ७:२१.
१. यीशु के अनुयायियों को क्या करते रहना चाहिए?
माँगते रहो। ढूँढ़ते रहो। खटखटाते रहो। प्रार्थना, अभ्यास, और पर्वत के उपदेश में लेखबद्ध यीशु के कहे अनुसार करने में नित्य लगे रहो। यीशु अपने शिष्यों को बताता है कि वे पृथ्वी के नमक हैं, जिनके पास नमक से सलोना बनाया गया एक ऐसा संरक्षक संदेश है, जिस को उन्हें कभी भी फीका बनने नहीं देना चाहिए, जिससे उसका स्वाद या उसकी संरक्षक शक्ति गँवा दी जाएगी। वे जगत की ज्योति हैं, और उन्हें मसीह यीशु और यहोवा परमेश्वर की ओर से पाए गए उजियाले को न सिर्फ़ अपनी बातों में, लेकिन अपने कामों में भी प्रतिबिंबित करना चाहिए। उनके अच्छे काम उसी तरह चमकते हैं जैसे उनके प्रबोधनकारी शब्द—और शायद वे एक ऐसी दुनिया में इस से भी ज़्यादा प्रभावकारी होंगे, जिसे दोनों, धार्मिक और राजनीतिक अगुवों के फ़रीसियों-जैसे पाखण्ड की आदत हो गयी है, जो काफ़ी कुछ कहते तो हैं, पर बहुत कम करते हैं।—मत्ती ५:१३-१६.
२. याकूब कौनसी चेतावनी देता है, लेकिन कुछ लोग ग़लत रूप से कौनसी आराम-तलब स्थिति अपनाते हैं?
२ याकूब चेतावनी देता है: “वचन पर चलनेवाले बनो, और केवल सुननेवाले ही नहीं जो अपने आप को [झूठे तर्क से, न्यू.व.] धोखा देते हैं।” (याकूब १:२२) अनेक अपने आप को इस उपदेश से, ‘एक बार बचाए गए हैं, यानी हमेशा के लिए बचाए गए हैं,’ धोखा देते हैं, मानो वे अब रिटायर होकर एक माने हुए स्वर्गीय प्रतिफल की राह देख सकते हैं। यह एक झूठा उपदेश और एक खोखली आशा है। “जो अन्त तक धीरज धरे रहेगा,” यीशु ने कहा, “उसी का उद्धार होगा।” (मत्ती २४:१३) अनन्त जीवन पाने के लिए, आपको “प्राण देने तक” खुद को “विश्वासी” साबित करना चाहिए।—प्रकाशितवाक्य २:१०; इब्रानियों ६:४-६; १०:२६, २७.
३. इसके बाद पर्वत के उपदेश में यीशु दोष लगाने के बारे में कौनसा आदेश देता है?
३ जैसे-जैसे यीशु अपने पर्वत के उपदेश को जारी रखता है, और भी बातें जमा हो गयीं, जिनका अनुपालन करने के लिए मसीहियों को यत्न करना चाहिए। प्रस्तुत है एक बात जो सरल तो लगती है, परन्तु एक ऐसी प्रवृत्ति को ग़लत ठहराती है, जिस से पीछा छुड़ाना बहुत ही मुश्किल है: “दोष मत लगाओ, कि तुम पर भी दोष न लगाया जाए। क्योंकि जिस प्रकार तुम दोष लगाते हो, उसी प्रकार तुम पर भी दोष लगाया जाएगा; और जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा। तू क्यों अपने भाई की आँख के तिनके को देखता है, और अपनी आँख का लट्ठा तुझे नहीं सूझता? और जब तेरी ही आँख में लट्ठा है, तो तू अपने भाई से क्योंकर कह सकता है, कि ला, मैं तेरी आँख से तिनका निकाल दूँ। हे कपटी, पहले अपनी आँख में से लट्ठा निकाल ले, तब तू अपने भाई की आँख का तिनका भली भाँति देखकर निकाल सकेगा।”—मत्ती ७:१-५.
४. लूका के वृत्तान्त में कौनसा अतिरिक्त उपदेश दिया गया है, और इसका अनुप्रयोग करने का अंजाम क्या होगा?
४ लूका द्वारा लिखे गए पर्वत के उपदेश के वृत्तान्त में, यीशु ने अपने सुननेवालों से कहा कि वे दूसरों की ग़लतियाँ न निकालें। उलटा, वे “रिहा करते रहें,” (न्यू.व.) यानी अपने संगी-मनुष्यों की कमियों को क्षमा करते रहें। इससे दूसरे भी उसी प्रकार करने के लिए प्रेरित हो जाते, जैसे यीशु ने कहा: “दिया करो, तो तुम्हें भी दिया जाएगा: लोग पूरा नाप दबा दबाकर और हिला हिलाकर और उभरता हुआ तुम्हारी गोद में डालेंगे, क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा।”—लूका ६:३७, ३८.
५. अपनी कमियों को देखने से दूसरों में कमियाँ देखना ज़्यादा आसान क्यों है?
५ सामान्य युग की पहली सदी में, मौखिक परंपराओं की वजह से, आम तौर से फ़रीसी दूसरों पर कठोरता से दोष लगाने के लिए प्रवृत्त थे। यीशु के सुननेवालों में जिस किसी को ऐसा करने की आदत थी, उन्हें यह रोक देना था। दूसरों की आँख के तिनके को देखना अपनी आँख का लट्ठा देखने से कितना ज़्यादा आसान है—और उस से कहीं ज़्यादा हमारे अहम् को आश्वासन देता है! जैसे एक आदमी ने कहा, “मुझे दूसरों की नुक़ताचीनी करना बेहद पसन्द है इसलिए कि इससे मूझे अच्छा लगता है!” आदतन दूसरों की निन्दा करने से शायद हमें ऐसे सद्गुण का अहसास मिले, जो अपनी उन ग़लतियों को बराबर कर देती हैं, जिनको हम छिपाना चाहते हैं। लेकिन अगर सुधार की ज़रूरत हो, तो इसे नम्रता की आत्मा में दिया जाना चाहिए। सुधार देनेवाले को हमेशा ही खुद अपनी कमियों का अहसास होना चाहिए।—गलतियों ६:१.
दोषी ठहराने से पहले, समझने की कोशिश करें
६. जब आवश्यक हो, तब हमारे न्याय किस बुनियाद पर किए जाने चाहिए, और हमें कौनसी सहायता खोजनी चाहिए ताकि ज़्यादा नुक़ताचीनी न करें?
६ यीशु जगत को दोषी ठहराने के लिए नहीं, बल्कि उसका उद्धार करने के लिए आया। उसने जब भी न्याय किया, वह उसका न था पर उन शब्दों पर आधारित न्याय था, जो परमेश्वर ने उसे कहने के लिए दिए थे। (यूहन्ना १२:४७-५०) हम जब भी न्याय करते हैं, इसे भी यहोवा के वचन के अनुरूप होना चाहिए। हमें आधिकारिक रूप से न्याय करने की मानवीय प्रवृत्ति को कुचल डालना चाहिए। ऐसा करने में, हमें लगातार यहोवा की मदद के लिए प्रार्थना करनी चाहिए: “माँगते रहो, तो तुम्हें दिया जाएगा; ढूँढ़ते रहो, तो तुम पाओगे; खटखटाते रहो, तो तुम्हारे लिए खोल दिया जाएगा। क्योंकि जो कोई माँगते रहता है, उसे मिलता है; और जो ढूँढ़ते रहता है, वह पाता है; और जो खटखटाते रहता है, उसके लिए खोला जाएगा।” (मत्ती ७:७, ८, न्यू.व.) यीशु ने भी कहा: “मैं अपने आप से कुछ नहीं कर सकता; जैसा सुनता हूँ, वैसा न्याय करता हूँ, और मेरा न्याय सच्चा है; क्योंकि मैं अपनी इच्छा नहीं, परन्तु अपने भेजनेवाले की इच्छा चाहता हूँ।”—यूहन्ना ५:३०.
७. हमें कौनसी आदत विकसित करनी चाहिए जो हमें सुनहरे नियम का पालन करने में मदद करेगी?
७ हमें लोगों पर दोष लगाने की आदत नहीं, बल्कि अपने आप को उनकी जगह में रखने के ज़रिए उन्हें समझने की कोशिश करने की आदत डालनी चाहिए—एक आसान बात नहीं, पर जिसे करना ज़रूरी है, ख़ासकर अगर हमें उस सुनहरे नियम का पालन करना है, जो यीशु ने आगे कहा: “इस कारण जो कुछ तुम चाहते हो कि मनुष्य तुम्हारे साथ करें, तुम भी उन के साथ वैसा ही करो; क्योंकि व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं की शिक्षा यही है।” (मत्ती ७:१२) तो यीशु के अनुयायियों को सुग्राही होकर दूसरों की दिमाग़ी, जज़बाती, और आध्यात्मिक हालत को पहचानना चाहिए। उन्हें दूसरों की ज़रूरतों को महसूस करना और समझना चाहिए और उनकी सहायता करने में एक वैयक्तिक दिलचस्पी लेनी चाहिए। (फिलिप्पियों २:२-४) सालों बाद पौलुस ने लिखा: “क्योंकि सारी व्यवस्था इस एक ही बात में पूरी हो जाती है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख।”—गलतियों ५:१४.
८. यीशु ने कौनसे दो रास्तों पर विचार-विमर्श किया, और उन में से एक रास्ते को अधिकांश लोग क्यों चुनते हैं?
८ “सकेत फाटक से प्रवेश करो,” यीशु ने आगे कहा, “क्योंकि चौड़ा है वह फाटक और चाकल है वह मार्ग जो विनाश को पहुँचाता है; और बहुतेरे हैं जो उस से प्रवेश करते हैं। क्योंकि सकेत है वह फाटक और सकरा है वह मार्ग जो जीवन को पहुँचाता है, और थोड़े हैं जो उसे पाते हैं।” (मत्ती ७:१३, १४) उन दिनों अनेकों ने विनाश को पहुँचानेवाले रास्ते को चुना और आज भी अनेक ऐसा ही करते हैं। चौड़ा रास्ता लोगों को जो चाहे सोचने और जैसे चाहे जीने देता है: कोई नियम नहीं, कोई वचनबद्धता नहीं, बस एक आराम-तलब जीवन-शैली, सब कुछ आसान ही आसान। “सकेत द्वार से प्रवेश करने का यत्न करो,” यह उन्हें तो नहीं चाहिए!—लूका १३:२४.
९. सकेत रास्ते पर चलने के लिए क्या आवश्यक हो जाता है, और उस पर चलनेवालों को यीशु ने कौनसी चेतावनी दी?
९ लेकिन सकेत द्वार ही अनन्त जीवन की ओर ले जानेवाले रास्ते पर खुल जाता है। यह एक ऐसा रास्ता है जिस पर आत्म-संयम ज़रूरी हो जाता है। यह शायद ऐसे अनुशासन की माँग करेगा, जिस से आपकी प्रेरणाओं की जाँच करेगा और आपके समर्पण के उत्साह का परीक्षण लेगा। जब उत्पीड़न आएगा, रास्ता कठिन बन जाता है और सहन करने की ज़रूरत होती है। यीशु उन लोगों को चेतावनी देता है जो इस रास्ते पर चलते हैं: “झूठे भविष्यवक्ताओं से सावधान रहो, जो भेड़ों के भेष में तुम्हारे पास आते हैं, परन्तु अन्दर फाड़नेवाले भेड़िए हैं।” (मत्ती ७:१५) यह वर्णन फ़रीसियों के लिए संपूर्णतया उपयुक्त था। (मत्ती २३:२७, २८) उन्होंने खुद को “मूसा की गद्दी पर” बिठाया, और परमेश्वर की ओर से बोलने का दावा करते हुए मनुष्यों की परंपराओं का अनुपालन किया।—मत्ती २३:२.
किस तरह फ़रीसियों ने “स्वर्ग के राज्य का द्वार” बन्द किया
१०. शास्त्रियों और फ़रीसियों ने कौनसे सुस्पष्ट रीति से ‘मनुष्यों के विरोध में स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करने’ की कोशिश की?
१० इसके अतिरिक्त, यहूदी याजक-वर्ग ने सकेत द्वार से प्रवेश करना चाह रहे लोगों के रास्ते में रुकावट डालने की कोशिश की। “हे कपटी शास्त्रियों और फरीसियों, तुम पर हाय! तुम मनुष्यों के विरोध में स्वर्ग के राज्य का द्वार बन्द करते हो, न तो आप ही उस में प्रवेश करते हो और न उस में प्रवेश करनेवालों को प्रवेश करने देते हो।” (मत्ती २३:१३) फ़रीसियों का तरीक़ा उसी तरह था जैसे यीशु ने चेतावनी दी थी। वे “मनुष्य के पुत्र के कारण . . . [उसके शिष्यों] का नाम बुरा जानकर काट” देते थे। (लूका ६:२२) चूँकि जन्म से अन्धे और मसीह द्वारा ठीक किए गए आदमी ने विश्वास किया कि यीशु ही मसीहा था, उन्होंने उसका नाम सभाघर में से काट दिया। उसके माता-पिता भी किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहते थे, इस डर से कि कहीं उनका नाम भी सभाघर से काट दिया जाए। इसी वजह से, यीशु को मसीहा माननेवाले दूसरे लोग इसे सब के सामने क़बूल करने के लिए हिचकिचाए।—यूहन्ना ९:२२, ३४; १२:४२; १६:२.
११. ईसाईजगत का पादरी वर्ग कौनसे पहचान देनेवाले फल उत्पन्न करते हैं?
११ “उनके फलों से तुम उन्हें पहचान लोगे,” यीशु ने कहा। “हर एक अच्छा पेड़ अच्छा फल लाता है और निकम्मा पेड़ बुरा फल लाता है।” (मत्ती ७:१६-२०) यही नियम आज भी लागू होता है। ईसाईजगत के अनेक पादरी एक कहते हैं और दूसरा ही करते हैं। हालाँकि वे बाइबल सिखाने का दावा करते हैं, वे त्रियेक और नरकाग्नि जैसी ईशनिन्दाओं में मानते हैं। अन्य लोग छुड़ौती को अस्वीकार करते हैं, सृष्टि के बजाय क्रमविकास सिखाते हैं, और मन बहलाने के लिए जनसंचार माध्यम के ज़रिए सिखाए गए लोकप्रिय तत्त्वज्ञान सिखाते हैं। फ़रीसियों के ही जैसे, आज के अनेक पादरी पैसों के प्रेमी हैं, और अपने विश्वासीगण से करोड़ों डॉलर लूट रहे हैं। (लूका १६:१४) वे सब “हे प्रभु, हे प्रभु,” चिल्लाते हैं, लेकिन उन से यीशु का जवाब यही है: “मैं ने तुम को कभी नहीं जाना, हे कुकर्म करनेवालों, मेरे पास से चले जाओ।”—मत्ती ७:२१-२३.
१२. किसी वक़्त सकेत रास्ते पर चलनेवाले कुछेक लोग अब ऐसा करने से क्यों रुक गए हैं, और इसका अंजाम क्या रहा है?
१२ आज, जो लोग किसी वक़्त सकेत रास्ते पर चला करते थे, उन्होंने अब उस पर चलना बन्द कर दिया है। वे कहते हैं कि वे यहोवा से प्रेम करते हैं, लेकिन वे प्रचार करने के उनके आदेश का पालन नहीं कर रहे हैं। वे कहते हैं कि उन्हें यीशु से प्रेम है, पर वे उनकी भेड़ों को नहीं खिला रहे हैं। (मत्ती २४:१४; २८:१९,२०; यूहन्ना २१:१५-१७; १ यूहन्ना ५:३) वे उन लोगों के साथ जूए में रहना नहीं चाहते, जो यीशु के चिह्नों पर चल रहे हैं। उन्होंने सकेत रास्ते को बहुत ही सकेत पाया। वे अच्छाई करके थक गए, इसलिए वे “निकले तो हम ही में से, पर हम में के थे नहीं; क्योंकि यदि हम में के होते, तो हमारे साथ रहते।” (१ यूहन्ना २:१९) वे फिर से अन्धकार में गए और “अन्धकार कैसा बड़ा” है! (मत्ती ६:२३) उन्होंने यूहन्ना की बिनती को नज़रंदाज़ किया: “हे बालकों, हम वचन और जीभ ही से नहीं, पर काम और सत्य के द्वारा भी प्रेम करें।”—१ यूहन्ना ३:१८.
१३, १४. अपनी ज़िन्दगी में उसकी बातों पर अमल करने के बारे में यीशु ने कौनसा दृष्टान्त दिया, और यह पलिश्तीन में रहनेवालों के लिए इतना उपयुक्त क्यों था?
१३ यीशु अपने पर्वत के उपदेश को एक प्रभावशाली दृष्टान्त देकर समाप्त करता है: “इसलिए जो कोई मेरी ये बातें सुनकर उन्हें मानता है वह उस बुद्धिमान मनुष्य की नाईं ठहरेगा जिस ने अपना घर चटान पर बनाया। और मेंह बरसा और बाढ़ें आईं, और आन्धियाँ चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं, परन्तु वह नहीं गिरा, क्योंकि उस की नेव चटान पर डाली गयी थी।”—मत्ती ७:२४, २५.
१४ पलिश्तीन में बहुत भारी बारिश के गिरने से, वेगधारा से उत्पन्न सूखी घाटियों में पानी तेज़ी से आकर क्षण भर में विनाशकारी बाढ़ बन जाता था। अगर घरों को खड़ा रहना था, तो यह ज़रूरी था कि उसकी नींव ठोस चट्टान पर हो। लूका के वृत्तान्त में दिखाया गया है कि उस आदमी ने “भूमि गहरी खोदकर चट्टान पर नेव डाली।” (लूका ६:४८) तो यीशु की बातों के आधार पर मसीही गुणों को बाँधने से प्रतिफल उस वक़्त मिलेगा जब विपत्ति की क्षण भर में पैदा होनेवाली बाढ़ आएगी।
१५. यीशु के कहे अनुसार करने के बजाय मनुष्यों की परंपराओं के अनुसार चलनेवालों का अन्त क्या होगा?
१५ दूसरा घर रेत पर बनाया गया था: “जो कोई मेरी ये बातें सुनता है और उन पर नहीं चलता, वह उस निर्बुद्धि मनुष्य की नाईं ठहरेगा जिस ने अपना घर बालू पर बनाया। और मेंह बरसा, और बाढ़ें आयीं, और आन्धियाँ चलीं, और उस घर पर टक्करें लगीं और वह गिरकर सत्यानाश हो गया।” उसी तरह उन लोगों को होगा जो “हे प्रभु, हे प्रभु,” कहते हैं, पर यीशु के कहे अनुसार करने से रह जाते हैं।—मत्ती ७:२६, २७.
“उन के शास्त्रियों के समान नहीं”
१६. पर्वत के उपदेश के सुननेवालों पर कैसा असर हुआ?
१६ पर्वत के उपदेश का असर क्या रहा? “जब यीशु ये बातें कह चुका, तो ऐसा हुआ कि भीड़ उसके उपदेश से चकित हुई। क्योंकि वह उन के शास्त्रियों के समान नहीं परन्तु अधिकारी की नाईं उन्हें उपदेश देता था।” (मत्ती ७:२८, २९) वे उस व्यक्ति से पूर्ण रूप से प्रेरित हुए जिस ने एक ऐसी आधिकारिक रीति से बातें की, जो उन्होंने पहले कभी कहीं महसूस किया न था।
१७. शास्त्रियों को अपने उपदेश को मान्यता देने के लिए क्या करना पड़ता था, और उन्होंने उद्धृत किए गए मृत बुद्धिमानों के बारे में क्या दावा किया?
१७ कोई भी शास्त्री अपने अधिकार से न बोलता था, जैसा कि इस ऐतिहासिक लेख से पता चलता है: “शास्त्री अपने उपदेशों के लिए परंपराओं से और उनके रचयिताओं से श्रेय लेते थे: और किसी भी शास्त्री के उपदेश को तब तक कोई अधिकार या महत्त्व न था जब तक उन्होंने उल्लेख नहीं किया कि . . . रब्बियों की एक परंपरा है, या . . . बुद्धिमान कहते हैं; या इसी प्रकार की कोई पारंपारिक देववाणी। बड़े हिल्लेल ने ईमानदारी से और जैसे किसी बात की परंपरा थी, उसके अनुसार सिखाया; ‘लेकिन, हालाँकि उसने उस मामले पर सारा दिन विचार-विमर्श किया, . . . उन्होंने उसका उपदेश नहीं पाया, जब तक कि उसने आख़िर में यह न कहा, यों मैं ने शेमायाह और अबतलियोन [हिल्लेल से पहले के विशेषज्ञ] से सुना।’” (जॉन लाइटफुट द्वारा लिखित, अ कॉम्मेन्टरी ऑन द न्यू टेस्टामेन्ट फ्रॉम द तालमूद ॲन्ड हेब्राइका, A Commentary on the New Testament From the Talmud and Hebraica, by John Lightfoot) बहुत पहले मरे हुए ज्ञानियों के बारे में भी फ़रीसियों ने दावा किया: “धर्मियों के होंठ, जब कोई उनके नाम में नियम के उपदेश का उल्लेख करता है—तब क़ब्र में वे साथ-साथ बोलते हैं।”—तोराह—फ्रॉम स्क्रोल टू सिंबल् इन फॉर्मेटिव जूडेइज़्म, Torah—From Scroll to Symbol in Formative Judaism.
१८. (अ) शास्त्रियों और यीशु की सिखाने की पद्धति में क्या फ़र्क़ था? (ब) यीशु की सिखाने की पद्धति किन तरीक़ों से इतनी विशिष्ट थी?
१८ शास्त्रियों ने मरे हुए आदमियों को अधिकार के तौर से उद्धृत किया; यीशु जीवित परमेश्वर की ओर से पाए गए अधिकार से बोलता था। (यूहन्ना १२:४९, ५०; १४:१०) रब्बी बन्द कुण्डों में से बासी पानी निकालते थे; यीशु भीतरी प्यास बुझानेवाला ताज़े पानी के झरनों को निकालता था। उस ने रात भर प्रार्थना की और मनन किया, और जब वह बोला, उसने लोगों की उन गहराइयों को छूआ जिनका उन्हें पहले अहसास भी न था। वह ऐसे अधिकार के साथ बोला जो वे महसूस कर सकते थे, एक ऐसा अधिकार जिसे आख़िर शास्त्री, फ़रीसी, और सदूकी भी चुनौती देने से डरते थे। (मत्ती २२:४६; मरकुस १२:३४; लूका २०:४०) इस से पहले किसी मनुष्य ने ऐसी बातें न की थीं! उपदेश की समाप्ति पर, भीड़ आश्चर्यचकित ही बैठी रही!
१९. आज यहोवा के गवाहों द्वारा इस्तेमाल किए जानेवाले तरीक़े उन तरीक़ों से किस तरह मिलते-जुलते हैं जो यीशु ने पर्वत के उपदेश में इस्तेमाल किए?
१९ आज क्या हो रहा है? घर-घर जानेवाले सेवकों के तौर से, यहोवा के गवाह समान तरीक़ों को उपयोग में लाते हैं। गृहस्थ आपको कहता है: “मेरा चर्च कहता है कि पृथ्वी को जला दिया जाएगा।” आप कहते हैं: “खुद आप ही की किंग जेम्स बाइबल में सभोपदेशक १:४ में बताया गया है: ‘पृथ्वी सर्वदा बनी रहती है।’” वह व्यक्ति चकित हो जाता है। “अजी, मुझे तो पता ही न था कि यह मेरी बाइबल में था!” एक और व्यक्ति कहता है: “मैं ने हमेशा सुना है कि पापी नरकाग्नि में जलेंगे।” “लेकिन आप ही की बाइबल में रोमियों ६:२३ में कहा गया है: ‘पाप की मज़दूरी तो मृत्यु है।’” या त्रियेक के विषय पर: “मेरा पादरी कहता है कि यीशु और उसके पिता बराबर हैं।” “लेकिन आप की बाइबल में यूहन्ना १४:२८ में कहा गया है: ‘पिता मुझ से बड़ा है।’” एक और व्यक्ति आप से कहता है: “मैं ने लोगों को कहते सुना है कि परमेश्वर का राज्य हमारे भीतर है।” आपका जवाब: “दानिय्येल २:४४ में आपकी बाइबल में कहा गया है: ‘उन राजाओं के दिनों में स्वर्ग का परमेश्वर, एक ऐसा राज्य उदय करेगा जो अनन्तकाल तक न टूटेगा . . . वह उन सब राज्यों को चूर चूर करेगा, और उनका अन्त कर डालेगा; और वह सदा स्थिर रहेगा।’ यह किस तरह आपके भीतर हो सकता है?”
२०. (अ) गवाहों के सिखाने के तरीक़े और ईसाईजगत के पादरियों के सिखाने के तरीक़े में क्या विषमता है? (ब) अब क्या करने का समय आ चुका है?
२० यीशु परमेश्वर की ओर से पाए गए अधिकार से बोलता था। यहोवा के गवाह परमेश्वर के वचन से पाए गए अधिकार से बोलते हैं। ईसाईजगत का पादरी वर्ग बाबेलोन और मिस्र के उपदेशों से दूषित धार्मिक परंपराओं के बारे में बोलते हैं। जब निष्कपट लोग अपने विश्वासों का खण्डन बाइबल में से होते हुए देखते हैं, वे चकित होते हैं और कहते हैं: ‘मुझे नहीं मालूम था कि वह मेरी बाइबल में था!’ लेकिन यह बाइबल में है। अब अपनी आत्मिक ज़रूरत के बारे में अवगत लोगों को पर्वत के उपदेश में दी गयी बातों की ओर ध्यान देने और इस तरह टिकाऊ चट्टान पर डाली गयी नींव पर बाँधने का समय आ चुका है।
पुनर्विचार के सवाल
◻ दोष लगाने के बजाय, हमें क्या करने की कोशिश करनी चाहिए, और क्यों?
◻ आज अनेक लोग चौड़े रास्ते को क्यों चुनते हैं?
◻ यीशु का सिखाने का तरीक़ा शास्त्रियों के तरीक़े से इतना अलग क्यों था?
◻ पर्वत के उपदेश के सुननेवालों पर कैसा असर हुआ?