विश्वास हमें धीरजवंत और प्रार्थनापूर्ण बनाता है
“तुम भी धीरज धरो, और अपने हृदय को दृढ़ करो, क्योंकि प्रभु का शुभागमन [उपस्थिति] निकट है।”—याकूब ५:८.
१. याकूब ५:७, ८ पर हमें क्यों ध्यान देना चाहिए?
यीशु मसीह की लंबे समय से इंतज़ार की गई “उपस्थिति” (NW) अब एक हक़ीक़त है। (मत्ती २४:३-१४) आज जो परमेश्वर और मसीह में विश्वास रखने का दावा करते हैं, उन लोगों के पास चेले याकूब के इन शब्दों पर ध्यान देने के पहले से कहीं ज़्यादा कारण हैं: “हे भाइयो, प्रभु के आगमन [उपस्थिति] तक धीरज धरो, देखो, गृहस्थ पृथ्वी के बहुमूल्य फल की आशा रखता हुआ प्रथम और अन्तिम वर्षा होने तक धीरज धरता है। तुम भी धीरज धरो, और अपने हृदय को दृढ़ करो, क्योंकि प्रभु का शुभागमन [उपस्थिति] निकट है।”—याकूब ५:७, ८.
२. याकूब ने जिन्हें लिखा वे किन समस्याओं का सामना कर रहे थे?
२ याकूब ने जिन्हें अपनी ईश्वर-प्रेरित पत्री लिखी थी उन्हें धीरज धरने और अनेक समस्याओं को सुलझाने की ज़रूरत थी। परमेश्वर में विश्वास रखने का दावा करनेवालों से जिन कामों की आशा की जाती है, वैसा अनेक लोग नहीं कर रहे थे। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों के हृदय में कुछ अभिलाषाएँ पैदा हो गई थीं जिनके बारे में कुछ करने की ज़रूरत थी। उन प्रारंभिक मसीहियों के बीच दोबारा शांति स्थापित करने की ज़रूरत थी। उन्हें धीरजवंत और प्रार्थनापूर्ण होने के लिए सलाह की भी ज़रूरत थी। याकूब ने उनसे जो कहा उस पर ग़ौर करते वक़्त, आइए देखें कि हम उसके वचनों को अपने जीवन में कैसे लागू कर सकते हैं।
ग़लत अभिलाषाएँ विनाशकारी होती हैं
३. कलीसिया में कलह के क्या कारण थे और हम इससे क्या सीख सकते हैं?
३ कुछ दावेदार मसीहियों में शांति नहीं थी और इसकी जड़ ग़लत अभिलाषाएँ थीं। (याकूब ४:१-३) डाह की वज़ह से गड़बड़ी थी और कुछ लोग कठोर तरीक़े से अपने भाइयों के न्यायी बन बैठे थे। ऐसा इसलिए हो रहा था क्योंकि शारीरिक सुख-विलास के प्रति लालसा उनके अंगों में लड़-भिड़ रही थी। हमें शायद ख़ुद भी मदद के लिए प्रार्थना करने की ज़रूरत हो ताकि हम प्रतिष्ठा, अधिकार और संपत्ति के लिए अपनी शारीरिक लालसाओं का विरोध कर सकें और इस प्रकार ऐसा कुछ न करें जिससे कलीसिया की शांति भंग हो। (रोमियों ७:२१-२५; १ पतरस २:११) प्रथम शताब्दी मसीहियों में लालसा इतनी हद तक बढ़ गयी थी कि यह नफ़रत और हत्यारी आत्मा तक पहुँच गई थी। क्योंकि परमेश्वर उनकी ग़लत अभिलाषाओं को पूरा नहीं करता, इसलिए वह अपने लक्ष्य तक पहुँचने की कोशिश में लड़ते रहे। अगर हमारी भी ऐसी ही ग़लत अभिलाषाएँ हैं, तो हम माँगेंगे तो सही लेकिन पाएँगे नहीं, क्योंकि हमारा पवित्र पिता ऐसी प्रार्थनाओं का जवाब नहीं देता।—विलापगीत ३:४४; ३ यूहन्ना ९, १०.
४. याकूब ने कुछ को “व्यभिचारिणियो” क्यों पुकारा और इस कथन से हमें कैसे प्रभावित होना चाहिए?
४ कुछ प्रारंभिक मसीहियों में दुनियादारी, ईर्ष्या और घमंड पाया जाता था। (याकूब ४:४-६) याकूब ने कुछेक को “व्यभिचारिणियो” कहता है क्योंकि वे संसार के मित्र थे और इस तरह आध्यात्मिक व्यभिचार के दोषी थे। (यहेजकेल १६:१५-१९, २५-४५) निश्चित ही हम अपनी मनोवृत्ति, बोलचाल और कामों में सांसारिक नहीं बनना चाहते, क्योंकि यह हमें परमेश्वर का शत्रु बना देगा। उसका वचन हमें दिखाता है कि “ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति,” (NW) पापमय मनुष्यों में बुरी मनोवृत्ति या “आत्मा” का एक भाग है। (उत्पत्ति ८:२१; गिनती १६:१-३; भजन १०६:१६, १७; सभोपदेशक ४:४) सो अगर हमें यह एहसास होता है कि हमें ईर्ष्या, घमंड या किसी तरह की बुरी मनोवृत्ति से लड़ने की ज़रूरत है तो, आइए हम परमेश्वर से पवित्र आत्मा की सहायता माँगें। परमेश्वर के अपात्र अनुग्रह से पायी गई यह शक्ति “ईर्ष्या करने की प्रवृत्ति” से बलवान है। और जबकि यहोवा घमंडी का विरोध करता है, वह हमें अनुग्रह दिखाएगा अगर हम पापमय झुकावों से लड़ें।
५. परमेश्वर के अपात्र अनुग्रह का आनंद पाने के लिए हमें किन माँगों को पूरा करना ज़रूरी है?
५ हम परमेश्वर का अपात्र अनुग्रह कैसे पा सकते हैं? (याकूब ४:७-१०) यहोवा से अनुग्रह पाने के लिए, हमें उसकी आज्ञा मानने, उसके प्रबंधों को स्वीकार करने और वह जो कुछ चाहता है उसे स्वीकार करने की ज़रूरत है। (रोमियों ८:२८) हमें इब्लीस का “साम्हना” करना या उसके ‘विरुद्ध खड़े रहना’ भी ज़रूरी है। वह ‘हमारे पास से भाग निकलेगा’ अगर हम यहोवा की विश्व सर्वसत्ता के समर्थक होने के नाते दृढ़ बने रहें। यीशु हमारी मदद के लिए तैयार है, जो इस संसार की दुष्टता के माध्यमों को हद से ज़्यादा बढ़ने नहीं देता ताकि कोई भी चीज़ हमें हमेशा के लिए नुक़सान न पहुँचाए। और यह कभी मत भूलिए: प्रार्थना, आज्ञाकारिता और विश्वास द्वारा हम परमेश्वर के निकट आते हैं और वह भी हमारे निकट आ जाता है।—२ इतिहास १५:२.
६. याकूब कुछ मसीहियों को “पापियो” क्यों पुकारता है?
६ जो लोग परमेश्वर पर विश्वास रखने का दावा करते थे उनमें से कुछ को याकूब “पापियो” क्यों कहता है? क्योंकि वे ‘लड़ाइयों’ और हत्यारी घृणा के दोषी थे जो मसीहियों के लिए अस्वीकृत मनोवृत्तियाँ हैं। (तीतुस ३:३) बुरे कामों से रंगे उनके ‘हाथों’ को साफ़ करने की ज़रूरत थी। उन्हें, प्रेरणा के स्थान, अपने “हृदय” को शुद्ध करने की ज़रूरत थी। (मत्ती १५:१८, १९, NHT) वे ‘दुचित्ते’ लोग परमेश्वर से मित्रता और संसार से मित्रता के बीच लटके हुए थे। उनके बुरे उदाहरण से चेतावनी पाकर, आइए हम चौबीसों घंटे चौकस रहें ताकि ऐसी बातों से हमारा विश्वास टूट न जाए।—रोमियों ७:१८-२०.
७. याकूब कुछ लोगों को ‘शोक करने और रोने’ के लिए क्यों कहता है?
७ याकूब अपने पाठकों से ‘दुखी होने, और शोक करने, और रोने’ के लिए कहता है। अगर वे परमेश्वर-भक्ति का शोक दिखाते, तो यह पश्चाताप का प्रमाण होता। (२ कुरिन्थियों ७:१०, ११) आज विश्वास रखने का दावा करनेवाले कुछ लोग, संसार के साथ मित्रता की खोज कर रहे हैं। अगर हममें से कोई ऐसे मार्ग पर चल रहा है तो क्या हमें अपनी कमज़ोर आध्यात्मिक दशा पर शोक नहीं करना चाहिए और हालात को सुधारने के लिए शीघ्र क़दम नहीं उठाने चाहिए? ज़रूरी बदलाव करना और परमेश्वर की क्षमा पाना, हममें हर्षोल्लास की भावना पैदा करेगा क्योंकि इससे शुद्ध अंतःकरण और अनंत जीवन की आनंदमय प्रत्याशा हमें मिलती है।—भजन ५१:१०-१७; १ यूहन्ना २:१५-१७.
एक दूसरे पर दोष मत लगाइए
८, ९. हमें क्यों दूसरों की बदनामी नहीं करनी चाहिए या दूसरों पर दोष नहीं लगाना चाहिए?
८ एक संगी विश्वासी की बदनामी करना पाप है। (याकूब ४:११, १२) फिर भी कुछ लोग संगी मसीहियों की आलोचना करते हैं, संभवतः अपनी ख़ुद की आत्म-धर्मी मनोवृत्ति के कारण या फिर वे दूसरों को नीचा दिखाकर ख़ुद को बड़ा बनाना चाहते हैं। (भजन ५०:२०; नीतिवचन ३:२९) ‘बदनामी करना’ अनुवादित यूनानी शब्द, शत्रुता की ओर इशारा करता है और बढ़ा-चढ़ाकर बोलना या झूठा दोष लगाना सूचित करता है। यह अपने भाई को कठोरता से दोषी ठहराने के बराबर है। यह व्यवस्था की ‘बदनामी करना और व्यवस्था पर दोष लगाना’ कैसे है? शास्त्रियों और फरीसियों ने ‘अच्छी तरह परमेश्वर की आज्ञा को टाल दिया’ और अपने ही स्तरों के अनुसार न्याय किया। (मरकुस ७:१-१३) इसी तरह, अगर हम एक भाई को दोषी ठहराते हैं जिसे यहोवा दोषी नहीं ठहराता, तो क्या हम ‘व्यवस्था पर दोष नहीं लगा रहे हैं’ और पापपूर्ण रूप से यह निष्कर्ष नहीं निकाल रहे कि इसमें ख़ामियाँ हैं? इसके अलावा अनुचित रूप से अपने भाई की आलोचना करने से हम प्रेम की व्यवस्था को पूरा नहीं कर रहे होंगे।—रोमियों १३:८-१०.
९ हम यह याद रखें: “व्यवस्था देनेवाला और हाकिम तो एक ही है”—यहोवा। उसकी “व्यवस्था खरी है,” उसमें कमी नहीं। (भजन १९:७; यशायाह ३३:२२) केवल परमेश्वर ही को उद्धार के लिए स्तर और नियम बनाने का हक़ है। (लूका १२:५) इसलिए याकूब पूछता है: “तू कौन है, जो अपने पड़ोसी पर दोष लगाता है?” दूसरों को दोषी ठहराने और उन्हें दंड सुनाने का हमें अधिकार नहीं है। (मत्ती ७:१-५; रोमियों १४:४, १०) परमेश्वर की सर्वसत्ता और निष्पक्षता और हमारी अपनी पापमय स्थिति पर ध्यान देना दूसरों पर आत्म-धर्मी बनकर दोष लगाने से दूर रहने में हमारी मदद करेगा।
गर्वपूर्ण आत्म-विश्वास से दूर रहिए
१०. अपने रोज़मर्रा के जीवन में हमें यहोवा को ध्यान में क्यों रखना चाहिए?
१० हमें हमेशा यहोवा और उसकी व्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए। (याकूब ४:१३-१७) परमेश्वर को तुच्छ जानते हुए एक आत्म-विश्वासी कहता है: ‘आज या कल हम किसी नगर में जाकर वहाँ एक वर्ष बिताएँगे और ब्योपार करके लाभ उठाएँगे।’ अगर हम ‘अपने लिए धन बटोरें और परमेश्वर की दृष्टि में धनी न हों,’ तो शायद कल हमारा जीवन ख़त्म हो जाए और फिर हमें यहोवा की सेवा करने का मौक़ा भी न मिले। (लूका १२:१६-२१) जैसे याकूब कहता है, हम सुबह की धुंध के समान हैं “जो थोड़ी देर दिखाई देती है, फिर लोप हो जाती है।” (१ इतिहास २९:१५) सिर्फ़ यहोवा में विश्वास रखने से हम स्थिर आनंद और अनंत जीवन की आशा कर सकते हैं।
११. यह कहने का क्या अर्थ है कि “अगर प्रभु चाहे”?
११ घमंड में परमेश्वर को नज़रअंदाज़ करने के बजाय, हमें यह कहना चाहिए: “अगर प्रभु चाहे तो हम जीवित रहेंगे, और यह या वह काम भी करेंगे।” यह कहना कि “अगर प्रभु चाहे” यह दर्शाता है कि हम उसकी मर्ज़ी के अनुसार काम करना चाहते हैं। अपने परिवार का पालन-पोषण करने के लिए व्यापार करना, राज्य कार्य के लिए यात्रा करना इत्यादि शायद आवश्यक हो। लेकिन हम डींग न मारें। “ऐसा सब घमण्ड बुरा होता है” क्योंकि यह परमेश्वर पर निर्भरता को नज़रअंदाज़ करता है।—भजन ३७:५; नीतिवचन २१:४; यिर्मयाह ९:२३, २४.
१२. याकूब ४:१७ में कहे गए शब्दों का क्या अर्थ है?
१२ प्रत्यक्षतः आत्म-निश्चितता और गर्व करने के बारे में अपनी बात पूरी करते हुए याकूब कहता है: “जो कोई भलाई करना जानता है और नहीं करता, उसके लिये यह पाप है।” हरेक मसीही को परमेश्वर पर अपनी निर्भरता को नम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं करता, “उसके लिये यह पाप है।” निश्चय ही, परमेश्वर पर हमारा विश्वास हमसे जो भी माँग करता है, उसमें चूकने पर भी यही सिद्धांत लागू होता है।—लूका १२:४७, ४८.
धनवानों के बारे में चेतावनी
१३. अपने धन का ग़लत इस्तेमाल कर रहे लोगों के बारे में याकूब क्या कहता है?
१३ क्योंकि कुछ प्रारंभिक मसीही भौतिकवादी बन गए थे या धनवानों को सराहने लगे थे, याकूब ने कुछ धनवान लोगों के बारे में कठोर बातें कहीं। (याकूब ५:१-६) ऐसे सांसारिक लोग जो अपने धन का ग़लत इस्तेमाल करते, ‘अपने आनेवाले क्लेशों पर चिल्लाकर रोते’ जब परमेश्वर उन्हें उनके कामों का बदला देता। उन दिनों में, अनेक लोगों के धन में मुख्यतः कपड़े, अनाज और दाखमधु शामिल था। (योएल २:१९; मत्ती ११:८) इनमें कुछ सड़ सकते हैं या उसे ‘कीड़े खा जाते’ लेकिन याकूब धन की व्यर्थता पर ज़ोर दे रहा है न कि उसके नाश होने के गुण पर। हालाँकि सोने और चाँदी पर काई नहीं लगती, लेकिन अगर हम इन्हें इकट्ठा करने पर लग जाएँ, तो ये ऐसी वस्तुओं की तरह बेकार हो जाएँगे जिन्हें काई लग जाती है। “काई” सूचित करती है कि भौतिक धन का सही इस्तेमाल नहीं किया गया। इसलिए, हम सभी को यह याद रखना चाहिए कि जो अपनी भौतिक संपत्ति पर भरोसा रखते हैं, उन्होंने “आग की नाईं” किसी वस्तु को ‘अंतिम युग में बटोरा है,’ जब परमेश्वर का क्रोध उन पर भड़कता है। क्योंकि हम “अन्त समय” में जी रहे हैं, तो ऐसे शब्द हमारे लिए ख़ास अर्थ रखते हैं।—दानिय्येल १२:४; रोमियों २:५.
१४. धनवान अकसर कैसा काम करते हैं, और हमें उसके बारे में क्या करना चाहिए?
१४ धनवान अकसर अपने किसानों को धोखा देते थे, जिनकी रोकी गई मज़दूरी न्याय के लिए ‘दोहाई देती थी।’ (उत्पत्ति ४:९, १० से तुलना कीजिए।) संसार के धनवान लोग “भोग-विलास में लगे रहे” हैं। सुख भोगने में हद से ज़्यादा लीन रहने से, उन्होंने हृदय को मोटा-ताज़ा, अप्रतिक्रियाशील बना लिया है और वे अपने वध होने के “दिन” तक ऐसा ही करते रहेंगे। वे ‘धर्मी को दोषी ठहराते और मार डालते हैं।’ याकूब पूछता है: ‘वह तुम्हारा विरोध नहीं करता?’ (NW) लेकिन दूसरा अनुवाद है, “धर्मी . . . वह तुम्हारा प्रतिरोध नहीं करता।” (NHT) बात चाहे जो भी हो, हमें धनवानों का पक्ष नहीं लेना चाहिए। हमें आध्यात्मिक हितों को जीवन में पहला स्थान देना चाहिए।—मत्ती ६:२५-३३.
विश्वास हमें धीरज धरने में मदद देता है
१५, १६. धीरज धरना इतना ज़रूरी क्यों है?
१५ संसार के अत्याचारी धनवानों के बारे में बताने के बाद, याकूब पीड़ित मसीहियों को धीरज धरने के लिए प्रोत्साहित करता है। (याकूब ५:७, ८) अगर विश्वासी अपनी मुश्किलों को धीरज से सहता है, तो उसे मसीह की उपस्थिति के समय अपनी वफ़ादारी का प्रतिफल दिया जाएगा, जब उन पर अत्याचार करनेवालों को दण्ड दिया जाएगा। (मत्ती २४:३७-४१) उन प्रारंभिक मसीहियों को उस किसान की तरह होना चाहिए था, जो शरद् की पहली बरसात का, जब वह बीज बो सकता है और वसंत के आख़िर में होनेवाली बरसात का, जिससे फल पैदा होता है, धीरज के साथ इंतज़ार करता है। (योएल २:२३) हमें भी धीरज धरने और अपने हृदयों को मज़बूत करने की ज़रूरत है, ख़ासकर जबसे यीशु मसीह “प्रभु का शुभागमन [उपस्थिति]” जारी है!
१६ हमें धीरजवंत क्यों होना चाहिए? (याकूब ५:९-१२) धीरज हमें उस वक़्त आँहें न भरने या दुःखी न होने में मदद करता है जब संगी विश्वासी हमें कुंठित करते हैं। अगर हम दुर्भावना से ‘एक दूसरे पर दोष लगाते हैं’ तो हम हाकिम यीशु मसीह द्वारा दोषी ठहराए जाएँगे। (यूहन्ना ५:२२) अब जबकि उसकी “उपस्थिति” शुरू हो चुकी है और वह “द्वार पर खड़ा है,” तो आइए हम अपने भाइयों के प्रति, जो विश्वास की अनेक परीक्षाओं का सामना करते हैं, धीरजवंत होकर शांति बढ़ाएँ। हमारा भी विश्वास मज़बूत होता है, जब हम याद करते हैं कि परमेश्वर ने अय्यूब को प्रतिफल दिया क्योंकि वह अपनी परीक्षाओं में धीरजवंत रहा। (अय्यूब ४२:१०-१७) अगर हम विश्वास और धीरज रखें, तो हम देखेंगे कि ‘प्रभु अत्यन्त करुणायम और दयालु है।’—मीका ७:१८, १९.
१७. याकूब क्यों कहता है कि “शपथ न खाना”?
१७ अगर हम धीरजवंत नहीं, तो हम दबाव के वक़्त शायद जीभ का ग़लत इस्तेमाल करें। उदाहरण के लिए, हम शायद जल्दबाज़ी में शपथ खाएँ। याकूब कहता है “शपथ न खाना।” वह शपथ खाने को मज़ाक बनाने के विरुद्ध चेतावनी देता है। अपनी बात को सच साबित करने के लिए बार-बार शपथ खाना भी पाखंड लगता है। इसलिए हमें सिर्फ़ सच बोलना चाहिए, हाँ की हाँ और ना की ना। (मत्ती ५:३३-३७) निश्चित ही याकूब यह नहीं कह रहा है कि अदालत में सच बोलने के लिए शपथ खाना ग़लत है।
विश्वास और हमारी प्रार्थनाएँ
१८. किन हालात में हमें ‘प्रार्थना करना’ और ‘स्तुति के भजन’ गाना चाहिए?
१८ हमारे जीवन में प्रार्थनाओं को एक मुख्य भूमिका निभानी चाहिए अगर हमें अपनी बोली पर क़ाबू पाना है, धीरज धरना और परमेश्वर पर मज़बूत विश्वास क़ायम रखना है। (याकूब ५:१३-२०) ख़ासकर परीक्षाओं के वक़्त हमें ‘प्रार्थना करनी’ चाहिए। अगर हम ख़ुश हैं, तो आइए हम ‘स्तुति के भजन गाएँ,’ जैसे यीशु और उसके प्रेरितों ने गाए थे जब उसने अपनी मृत्यु के स्मारक की स्थापना की थी। (मरकुस १४:२६ फुटनोट, NW) कई बार हम परमेश्वर के लिए ऐसी कृतज्ञता से भर जाते हैं कि हृदय में ही स्तुति के भजन गाने लगते हैं। (१ कुरिन्थियों १४:१५; इफिसियों ५:१९) और मसीही सभाओं में गीतों द्वारा यहोवा की महिमा करना क्या ही आनंद की बात है!
१९. अगर हम आध्यात्मिक रूप से बीमार पड़ जाते हैं तो हमें क्या करना चाहिए और ऐसा क़दम क्यों उठाना चाहिए?
१९ अगर हम आध्यात्मिक रूप से बीमार हैं, शायद ग़लत आचरण या नियमित रूप से यहोवा की मेज़ से न खाने की वज़ह से, तो हमारा मन गाने के लिए नहीं करता। अगर हमारी हालत ऐसी है तो हम नम्रतापूर्वक प्राचीनों को बुलाएँ ताकि वे ‘हमारे लिए प्रार्थना करें।’ (नीतिवचन १५:२९) वे ‘प्रभु के नाम से हम पर तेल भी मलेंगे।’ चोट पर आरामदेह तेल की तरह, उनके सांत्वनादायक शब्द और शास्त्रीय सलाह हताशा, शंका, डर को दूर भगाने में मदद करेंगे। ‘विश्वास की प्रार्थना के द्वारा हम बच जाएँगे,’ अगर इसे हमारे भी विश्वास का समर्थन प्राप्त हो। अगर प्राचीनों को यह पता चलता है कि हमारी आध्यात्मिक बीमारी की वज़ह गंभीर पाप है तो वे दयापूर्वक हमें हमारी ग़लतियाँ समझाएँगे और हमारी मदद करने की कोशिश करेंगे। (भजन १४१:५) और अगर हम पश्चातापी हैं, तो हम विश्वास कर सकते हैं कि परमेश्वर उनकी प्रार्थनाएँ सुनेगा और हमें माफ़ कर देगा।
२०. क्यों हमें एक दूसरे के सामने अपने पापों को मानना और एक दूसरे के लिए प्रार्थना करनी चाहिए?
२० ‘एक दूसरे के साम्हने अपने अपने पापों को मान लेने से’ आगे पाप न करने के लिए हमें रुकना चाहिए। इससे आपसी स्नेह बढ़ना चाहिए, यह ऐसा गुण है जो हमें ‘एक दूसरे के लिए प्रार्थना करने’ को उकसाएगा। हम विश्वास कर सकते हैं कि यह फ़ायदेमंद होगा क्योंकि “धर्मी जन” की प्रार्थना को—ऐसे व्यक्ति को जो विश्वास करता है और जिसे परमेश्वर धर्मी समझता है—यहोवा से बहुत सहायता मिलती है। (१ पतरस ३:१२) भविष्यवक्ता एलिय्याह की हमारी जैसी कमज़ोरियाँ थीं, लेकिन उसकी प्रार्थनाएँ प्रभावशाली थीं। उसने प्रार्थना की और साढ़े तीन साल तक बारिश नहीं हुई। जब उसने दोबारा प्रार्थना की, तो वाक़ई बारिश हुई।—१ राजा १७:१; १८:१, ४२-४५; लूका ४:२५.
२१. हम क्या कर सकते हैं अगर एक संगी मसीही ‘सत्य के मार्ग से भटक जाता है’?
२१ तब क्या जब कलीसिया का एक सदस्य ‘सत्य के मार्ग से भटक जाता है,’ सही शिक्षा और आचरण से हट जाता है? तो हम शायद बाइबल सलाह, प्रार्थना और बाक़ी साधनों से उसे उसकी ग़लत राह से वापस ला सकें। अगर हम क़ामयाब होते हैं तो यह उसे मसीह की छुड़ौती के अधीन रखता है और उसे आध्यात्मिक मृत्यु और विनाश की दंडाज्ञा से बचाता है। मार्ग से भटके हुए की मदद करने से, हम उसके अनेक पापों को ढाँप देते हैं। जब ताड़ना दिया गया पापी अपने ग़लत मार्ग को छोड़ता, पश्चाताप करता और माफ़ी माँगता है तो हम आनंद मनाएँगे कि हमने उसके पापों को ढाँपने के लिए काम किया था।—भजन ३२:१, २; यहूदा २२, २३.
हम सभी के लिए कुछ-न-कुछ
२२, २३. याकूब के शब्दों का हम पर कैसा प्रभाव पड़ना चाहिए?
२२ ज़ाहिर है कि याकूब की पत्री में हम सभी के लिए कुछ-न-कुछ लाभदायक पाया जाता है। यह हमें दिखाती है कि कैसे परीक्षाओं का सामना करें। यह पक्षपात के ख़िलाफ़ हमें सलाह देती है और सही काम करने के लिए हमें प्रोत्साहित करती है। याकूब हमसे जीभ को क़ाबू में रखने, सांसारिक प्रभाव का विरोध करने और शांति बढ़ाने का आग्रह करता है। उसके शब्दों द्वारा हमें धीरजवंत और प्रार्थनापूर्ण भी बनना चाहिए।
२३ सच है कि याकूब की पत्री पहले-पहल अभिषिक्त प्रारंभिक मसीहियों को भेजी गई थी। फिर भी हम सभी को इसकी सलाहों से अपने विश्वास में बने रहने में मदद मिलनी चाहिए। याकूब के शब्द विश्वास को बढ़ा सकते हैं जो हमें परमेश्वर की सेवा में निर्णायक क़दम उठाने के लिए उकसाता है। और यह ईश्वरीय प्रेरित पत्री क़ायम रहनेवाला विश्वास उत्पन्न करती है। यह विश्वास हमें आज, ‘प्रभु यीशु मसीह की उपस्थिति’ के दौरान, यहोवा के धीरजवंत, प्रार्थनापूर्ण साक्षी बनाता है।
आप कैसे जवाब देंगे?
◻ कुछ प्रारंभिक मसीहियों को अपनी मनोवृत्ति और आचरण को बदलने की ज़रूरत क्यों थी?
◻ धनवानों को याकूब क्या चेतावनी देता है?
◻ हमें धीरज क्यों धरना चाहिए?
◻ हमें नियमित रूप से प्रार्थना क्यों करनी चाहिए?
[पेज 19 पर चित्र का श्रेय]
Pictorial Archive (Near Eastern History) Est.
[पेज 23 पर तसवीर]
कुछ प्रारंभिक मसीहियों को संगी विश्वासियों के साथ ज़्यादा धीरजवंत होने की ज़रूरत थी
[पेज 24 पर तसवीर]
मसीहियों को धीरजवंत, प्रेममय, प्रार्थनापूर्ण होने की ज़रूरत है