अध्याय 16
‘यीशु उनसे आखिर तक प्यार करता रहा’
1, 2. यीशु ने अपने प्रेषितों के साथ आखिरी शाम कैसे गुज़ारी? ये आखिरी लम्हें उसे इतने अज़ीज़ क्यों थे?
यरूशलेम में एक घर के ऊपरी कमरे में यीशु अपने प्रेषितों के साथ इकट्ठा हुआ है। उसे मालूम है कि यह उसके चेलों के साथ उसकी आखिरी शाम है। अब अपने पिता के पास उसके लौटने की घड़ी आ पहुँची है। उसे कुछ ही घंटों में गिरफ्तार कर लिया जाएगा और उसके विश्वास की ऐसी बड़ी परीक्षा होगी, जैसी पहले कभी नहीं हुई थी। मौत उसके सिर पर मँडरा रही है। लेकिन इसके बावजूद, उसे अपनी नहीं बल्कि अपने प्रेषितों की फिक्र है।
2 दरअसल, यीशु ने प्रेषितों को पहले से बता दिया है कि वह जल्द उन्हें छोड़कर चला जाएगा। लेकिन जाने से पहले वह उनके साथ अपना आखिरी बेशकीमती वक्त गुज़ारता है। वह प्रेषितों को कुछ अहम सबक सिखाता है ताकि आनेवाले मुश्किल दौर का वे सामना कर सकें और वफादार रह सकें। यीशु की बातें प्रेषितों का दिल छू लेती हैं क्योंकि यीशु ने पहले कभी यूँ खुलकर बात नहीं की थी। मगर यीशु को खुद से ज़्यादा अपने प्रेषितों की फिक्र क्यों थी? और उनके साथ ये आखिरी लम्हें उसे इतने अज़ीज़ क्यों थे? इसका जवाब एक शब्द में दिया जा सकता है और वह है, प्यार! जी हाँ, यीशु अपने प्रेषितों से बेइंतिहा प्यार करता था।
3. हम कैसे जानते हैं कि यीशु ने चेलों को प्यार दिखाने के लिए आखिरी शाम का इंतज़ार नहीं किया?
3 बरसों बाद प्रेषित यूहन्ना ने जब परमेश्वर की प्रेरणा से उस शाम हुई घटनाओं के बारे में लिखा, तब उसने शुरूआत कुछ इस तरह की: “फसह के त्योहार से पहले यीशु यह जानता था कि इस दुनिया को छोड़कर पिता के पास जाने की उसकी घड़ी आ पहुँची है। इसलिए दुनिया में जो उसके अपने थे जिनसे वह प्यार करता आया था, वह उनसे आखिर तक प्यार करता रहा।” (यूहन्ना 13:1) यीशु ने ‘अपनों’ की खातिर प्यार दिखाने के लिए उस आखिरी शाम का इंतज़ार नहीं किया। धरती पर सेवा के दौरान उसने छोटे-बड़े कई तरीकों से अपने चेलों को प्यार दिखाया। यीशु ने जिन तरीकों से उन्हें प्यार दिखाया, उनकी जाँच करना हमारे लिए अच्छा होगा। इससे हम उसके जैसा प्यार दिखा पाएँगे और खुद को उसके सच्चे चेले साबित कर पाएँगे।
सब्र दिखाया
4, 5. (क) यीशु को अपने चेलों के साथ पेश आते वक्त सब्र से काम लेना क्यों ज़रूरी था? (ख) गतसमनी के बाग में जब यीशु ने अपने तीन प्रेषितों को सोते पाया, तब उसने क्या किया?
4 प्यार और सब्र के गुण का आपस में गहरा नाता है। पहला कुरिंथियों 13:4 कहता है: ‘प्यार सहनशील होता है।’ और सहनशीलता में सब्र से दूसरों की सहना शामिल है। अपने चेलों के साथ पेश आते वक्त क्या यीशु को सब्र से काम लेने की ज़रूरत पड़ी? जी हाँ! जैसा हमने अध्याय 3 में देखा, प्रेषितों को नम्रता पैदा करने में काफी वक्त लगा। कई बार उनके बीच यह बहस छिड़ जाती थी कि उनमें सबसे बड़ा कौन है। ऐसे में यीशु क्या करता था? क्या वह गुस्सा हो जाता या चिढ़ जाता था? बिलकुल नहीं, बल्कि वह सब्र दिखाते हुए उनके साथ तर्क करता। यहाँ तक कि अपनी मौत से पहले की शाम को जब प्रेषितों में “गरमा-गरम बहस छिड़ गयी,” तब भी यीशु ने अपना आपा नहीं खोया बल्कि प्यार से उन्हें समझाया।—लूका 22:24-30; मत्ती 20:20-28; मरकुस 9:33-37.
5 इसके बाद यीशु अपने 11 वफादार प्रेषितों के साथ गतसमनी के बाग में गया, जहाँ एक बार फिर उसके सब्र की परीक्षा हुई। वहाँ पहुँचने के बाद यीशु ने अपने 8 प्रेषितों को एक जगह रुकने को कहा और वह पतरस, याकूब और यूहन्ना को लेकर बाग में और अंदर चला गया। फिर उसने उनसे कहा: “मेरा जी बेहद दुःखी है, यहाँ तक कि मेरी मरने जैसी हालत है। यहीं ठहरो और मेरे साथ जागते रहो।” इसके बाद थोड़ा आगे जाकर वह गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगा। और बहुत देर तक प्रार्थना करने के बाद जब वह तीन प्रेषितों के पास लौटा तो उसने क्या देखा? इस नाज़ुक घड़ी में, जब उसके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा होनेवाली थी, उसके प्रेषित सो रहे थे! ऐसी लापरवाही के लिए क्या यीशु ने उन्हें फटकारा? नहीं, बल्कि उसने सब्र से उन्हें समझाया। यीशु की कही बात से पता चलता है कि वह समझता था कि उसके प्रेषित तनाव से गुज़र रहे थे और उनकी क्या कमज़ोरियाँ थीं।a उसने कहा: “दिल तो बेशक तैयार है, मगर शरीर कमज़ोर है।” इसके बाद यीशु ने उन्हें दो बार और सोते पाया, फिर भी उसने सब्र नहीं खोया।—मत्ती 26:36-46.
6. दूसरों के साथ अपने व्यवहार में हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
6 इस बात से वाकई हमारा हौसला बढ़ता है कि यीशु ने कभी अपने प्रेषितों से उम्मीद नहीं छोड़ी। यीशु का उनके साथ सब्र से पेश आना आखिरकार रंग लाया, क्योंकि इन वफादार प्रेषितों ने नम्रता और चौकस रहने की अहमियत बखूबी समझी। (1 पतरस 3:8; 4:7) यीशु की तरह हम भी दूसरों के साथ सब्र से कैसे पेश आ सकते हैं? और खासकर प्राचीनों के लिए यह गुण दिखाना ज़रूरी होता है। हो सकता है एक प्राचीन खुद अपनी चिंताओं से बेहद परेशान हो और ऐसे में संगी भाई-बहन उसके पास अपनी समस्या लेकर आएँ। या एक प्राचीन ने किसी प्रचारक को किसी मामले पर सलाह दी हो, पर वह उस पर अमल न कर रहा हो। लेकिन ऐसे में भी सब्र रखनेवाला प्राचीन हमेशा “कोमलता” से हिदायतें देगा और ‘झुंड के साथ कोमलता से पेश आएगा।’ (2 तीमुथियुस 2:24, 25; प्रेषितों 20:28, 29) इस मामले में माता-पिताओं को भी यीशु की मिसाल पर चलना चाहिए, क्योंकि बच्चे कभी-कभी सलाह मानने या सुधार करने में देर करते हैं। प्यार और सब्र का गुण माता-पिताओं की मदद करेगा कि वे बच्चों को तालीम देते वक्त कभी हार न मानें। इस तरह सब्र दिखाने का उन्हें बेशक बहुत बड़ा इनाम मिलेगा!—भजन 127:3.
उनकी ज़रूरतों का खयाल रखा
7. यीशु ने किस तरह अपने चेलों की ज़रूरतें पूरी कीं?
7 प्यार दिखाने का एक तरीका है, बिना स्वार्थ के काम करना। (1 यूहन्ना 3:17, 18) प्यार “सिर्फ अपने फायदे की नहीं सोचता।” (1 कुरिंथियों 13:5) प्यार होने की वजह से ही यीशु अपने चेलों की ज़रूरतों का खयाल रख सका। और अकसर चेलों के कहने से पहले ही वह उनकी ज़रूरतें पूरी कर देता। जैसे, एक बार जब यीशु ने देखा कि उसके चेले थक गए हैं, तब उसने उनसे कहा, “किसी एकांत जगह में चलकर थोड़ा आराम कर लो।” (मरकुस 6:31) एक दूसरे मौके पर जब उसे एहसास हुआ कि उसके चेलों को भूख लगी है, तब उसने खुद उनके लिए भोजन का इंतज़ाम किया। उसने न सिर्फ अपने चेलों का बल्कि उन हज़ारों लोगों का भी पेट भरा, जो उसकी बातें सुनने आए थे।—मत्ती 14:19, 20; 15:35-37.
8, 9. (क) हमें कैसे पता चलता है कि यीशु ने अपने चेलों की आध्यात्मिक ज़रूरत समझी और पूरी भी की? (ख) जब यीशु को सूली पर लटकाया गया तब उसने कैसे ज़ाहिर किया कि उसे अपनी माँ की बहुत फिक्र है?
8 यीशु ने अपने चेलों की आध्यात्मिक ज़रूरत भी समझी और पूरी की। (मत्ती 4:4; 5:3) सिखाते वक्त उसने अकसर अपने चेलों पर खास ध्यान दिया। उसने पहाड़ी उपदेश खासकर अपने चेलों के फायदे के लिए दिया। (मत्ती 5:1, 2, 13-16) जब वह मिसालें देता था, तो “अपने चेलों को अकेले में उन सब बातों का मतलब समझाता था।” (मरकुस 4:34) यीशु ने भविष्यवाणी की कि वह धरती पर ‘विश्वासयोग्य और सूझ-बूझ से काम लेनेवाला दास’ ठहराएगा ताकि आखिरी दिनों के दौरान उसके चेलों को आध्यात्मिक भोजन की कोई कमी न हो। यह विश्वासयोग्य दास, पवित्र शक्ति से अभिषिक्त यीशु के भाइयों के एक छोटे समूह से बना है। यह दास ईसवी सन् 1919 से लगातार ‘सही वक्त पर खाना देता’ आ रहा है।—मत्ती 24:45.
9 यीशु को अपनों की आध्यात्मिकता की कितनी परवाह थी, यह उस वक्त साफ ज़ाहिर हुआ जब उसे सूली पर लटकाया गया था। उस समय जो हुआ, उसे अपने मन की आँखों से देखने की कोशिश कीजिए। वह सूली पर दर्द के मारे तड़प रहा है। उसके हाथ-पैर पर कीले ठोंके गए हैं और उसके लिए एक-एक साँस लेना मुश्किल हो रहा है। क्योंकि साँस लेने के लिए उसे अपने पैरों पर ज़ोर डालकर खुद को उठाना पड़ता है। तब उसके शरीर के वज़न से कील से ठुके उसके पैर और भी चिर जाते होंगे। यही नहीं, उसकी पीठ जो पहले ही कोड़े खाकर बुरी तरह छिल चुकी थी, साँस लेते वक्त सूली से रगड़ खाती होगी और दर्द बर्दाश्त के बाहर हो जाता होगा। ऐसे में बात करना उसके लिए न सिर्फ मुश्किल रहा होगा बल्कि दर्दनाक भी, क्योंकि बात करने के लिए साँस लेना ज़रूरी होता है। लेकिन ऐसी हालत में भी उसने जो कहा उससे उसकी माँ मरियम के लिए उसका प्यार साफ नज़र आया। पास में खड़ी अपनी माँ और प्रेषित यूहन्ना को देखकर यीशु ने काफी ऊँची आवाज़ में कहा, जिससे आस-पास खड़े लोग भी सुन सके। उसने कहा: “हे स्त्री, देख! तेरा बेटा!” इसके बाद उसने यूहन्ना से कहा: “देख! तेरी माँ!” (यूहन्ना 19:26, 27) यीशु जानता था कि उसका वफादार प्रेषित उसकी माँ की न सिर्फ शारीरिक ज़रूरतों का बल्कि आध्यात्मिक ज़रूरतों का भी खयाल रखेगा।b
10. माता-पिता किस तरह यीशु की मिसाल पर चलकर अपने बच्चों की ज़रूरतें पूरी कर सकते हैं?
10 यीशु की इस मिसाल पर मनन करने से माता-पिताओं को बहुत फायदा हो सकता है। जो पिता अपने परिवार से वाकई प्यार करता है, वह उनकी शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करेगा। (1 तीमुथियुस 5:8) एक समझदार मुखिया अपने परिवार के साथ आराम करने और मनोरंजन करने के लिए वक्त निकालेगा। इससे भी बढ़कर मसीही माता-पिता अपने बच्चों की आध्यात्मिक ज़रूरतों को पूरा करेंगे। कैसे? वे नियमित तौर पर पारिवारिक बाइबल अध्ययन करेंगे और उनकी कोशिश रहेगी कि अध्ययन से बच्चों का हौसला बढ़े और उन्हें मज़ा भी आए। (व्यवस्थाविवरण 6:6, 7) माता-पिता अपनी बातों और मिसाल से बच्चों को प्रचार में हिस्सा लेने की अहमियत समझाएँगे, साथ ही बताएँगे कि सभाओं के लिए तैयारी करना और उसमें हाज़िर होना उनके मसीही कामों का अहम हिस्सा है।—इब्रानियों 10:24, 25.
माफ करने के लिए तैयार रहिए
11. यीशु ने अपने चेलों को माफ करने के बारे में क्या सिखाया?
11 माफ करना प्यार दिखाने का एक पहलू है। (कुलुस्सियों 3:13, 14) पहला कुरिंथियों 13:5 कहता है कि प्यार “चोट का हिसाब नहीं रखता।” कई मौकों पर यीशु ने अपने चेलों को समझाया कि माफ करना बेहद ज़रूरी है। उसने चेलों से ‘सात बार तक’ नहीं, बल्कि सतहत्तर बार तक’ यानी अनगिनत बार माफ करने की गुज़ारिश की। (मत्ती 18:21, 22) उसने चेलों को सिखाया कि अगर पाप करनेवाले को ताड़ना दी जाती है और वह उसे कबूल कर सच्चा पश्चाताप दिखाता है तो उसे माफ कर देना चाहिए। (लूका 17:3, 4) यीशु ने इस बारे में सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें नहीं कीं, बल्कि उसने ऐसा करके भी दिखाया। वाकई यीशु कपटी फरीसियों से कितना अलग था! (मत्ती 23:2-4) आइए देखें कि यीशु ने किस तरह अपने उस दोस्त को माफ किया, जिसने ऐन वक्त पर उससे मुँह मोड़ लिया था।
12, 13. (क) यीशु की गिरफ्तारी की रात को किस तरह पतरस ने उससे मुँह मोड़ लिया? (ख) जी उठने के बाद यीशु के किस रवैए से यह ज़ाहिर हुआ कि उसने दूसरों को माफ करने के बारे में सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं कीं, बल्कि माफ करके भी दिखाया?
12 यीशु, प्रेषित पतरस का बहुत करीबी दोस्त था। हालाँकि पतरस कभी-कभी उतावला हो जाता था, पर वह स्वभाव से मिलनसार और प्रेमी था। यीशु ने पतरस की खूबियों को पहचाना और उसे कुछ खास ज़िम्मेदारियाँ दीं। याकूब और यूहन्ना के साथ-साथ पतरस भी कुछ ऐसे चमत्कारों का चश्मदीद गवाह था, जो बाकी प्रेषितों ने नहीं देखे थे। (मत्ती 17:1, 2; लूका 8:49-55) जैसे हमने पहले गौर किया, पतरस उन प्रेषितों में से था, जो रात के वक्त गतसमनी के बाग में यीशु के साथ अंदर तक गया था। लेकिन जब यीशु को धोखे से पकड़वाकर गिरफ्तार किया गया, तब पतरस और दूसरे प्रेषित यीशु को अकेला छोड़कर भाग खड़े हुए। हालाँकि बाद में, पतरस ने हिम्मत दिखायी और वह उस आँगन में गया, जहाँ यीशु पर गैर-कानूनी तौर पर मुकदमा चलाया जा रहा था। मगर वहाँ पतरस घबरा गया और उसने एक बड़ी गलती कर दी। उसने तीन बार झूठ बोलते हुए कहा कि वह यीशु को नहीं जानता! (मत्ती 26:69-75) तब यीशु ने पतरस के लिए कैसा रवैया दिखाया? अगर आपके किसी जिगरी दोस्त ने आपको इस तरह दगा दिया होता, तो आप उससे कैसे पेश आते?
13 यीशु पतरस को माफ करने के लिए तैयार था। वह जानता था कि पतरस पाप के बोझ तले दबा हुआ है। ज़ाहिर है, तभी तो पतरस “और सह न सका और फूट-फूटकर रोने लगा।” (मरकुस 14:72) इसलिए बाद में जब यीशु जी उठा, तब शायद पतरस को दिलासा देने और उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए वह खुद उससे मिला। (लूका 24:34; 1 कुरिंथियों 15:5) और फिर दो महीने भी नहीं हुए थे कि यीशु ने पतरस को यरूशलेम में पिन्तेकुस्त के दिन एक बड़ी भीड़ के सामने गवाही देने का मौका देकर उसे बड़ा सम्मान दिया। (प्रेषितों 2:14-40) और यह भी गौरतलब है कि यीशु ने उन प्रेषितों के खिलाफ भी कोई मलाल नहीं रखा, जो उसे गिरफ्तारी की रात अकेला छोड़कर भाग गए थे। इसके उलट, जी उठने के बाद यीशु ने उन्हें “मेरे भाइयों” कहकर बुलाया। (मत्ती 28:10) क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि यीशु ने दूसरों को माफ करने के बारे में सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं कीं, बल्कि माफ करके भी दिखाया।
14. हमें क्यों दूसरों को माफ करना सीखना चाहिए? और हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम माफ करने के लिए तैयार हैं?
14 यीशु के चेले होने के नाते हमें दूसरों को माफ करना सीखना चाहिए। क्यों? यीशु सिद्ध था, मगर हम और हमारे खिलाफ पाप करनेवाले सभी असिद्ध हैं। हम सभी गलतियाँ करते हैं, कभी अपनी बोली में तो कभी कामों में। (रोमियों 3:23; याकूब 3:2) जब दया दिखाने का वाजिब कारण होता है और हम दूसरों को माफ करते हैं तब हमें भी परमेश्वर से अपने पापों की माफी मिलती है। (मरकुस 11:25) पर हम कैसे दिखा सकते हैं कि हमारे खिलाफ पाप करनेवालों को माफ करने के लिए हम तैयार रहते हैं? कई मामलों में, प्यार हमें उकसाएगा कि हम उनकी छोटी-मोटी गलतियों को नज़रअंदाज़ कर दें। (1 पतरस 4:8) अगर पाप करनेवाला सच्चे दिल से पछतावा दिखाता है, जैसे पतरस ने दिखाया था, तो हम बेशक यीशु के उदाहरण पर चलकर उसे माफ करने के लिए तैयार रहेंगे। उसके खिलाफ दिल में नाराज़गी पालने के बजाय हम बुद्धिमानी दिखाते हुए उसे माफ करेंगे। (इफिसियों 4:32) इससे न सिर्फ हम मंडली की शांति बरकरार रख पाएँगे बल्कि खुद अपने दिल और दिमाग की शांति बनाए रख सकेंगे।—1 पतरस 3:11.
अपना भरोसा ज़ाहिर किया
15. चेलों की खामियों के बावजूद यीशु ने उन पर भरोसा क्यों दिखाया?
15 प्यार और भरोसे का भी आपस में गहरा नाता है। प्यार “सब बातों पर यकीन करता है।”c (1 कुरिंथियों 13:7) यीशु अपने चेलों से प्यार करता था इसलिए उनके असिद्ध होने के बावजूद उसने उन पर भरोसा दिखाया। यीशु को उन पर पूरा भरोसा था, उसे यकीन था कि उसके चेले यहोवा से प्यार करते हैं और उसकी इच्छा पूरी करना चाहते हैं। उनकी गलतियों के बावजूद यीशु ने कभी उनके इरादों पर शक नहीं किया। मसलन, जब प्रेषित याकूब और यूहन्ना ने अपनी माँ के ज़रिए यह कहलवाया कि यीशु के राज में उन दोनों को दाएँ-बाएँ बिठाया जाए, तब भी यीशु ने उनकी वफादारी पर शक नहीं किया या उन्हें प्रेषित की ज़िम्मेदारी से खारिज नहीं किया।—मत्ती 20:20-28.
16, 17. यीशु ने अपने चेलों को कौन-सी ज़िम्मेदारियाँ सौंपीं?
16 यीशु ने अपने चेलों को अलग-अलग ज़िम्मेदारियाँ सौंपकर उन पर अपना भरोसा दिखाया। दो मौकों पर जब उसने चमत्कार करके ढेर सारी रोटियाँ बनायीं और भीड़ को खिलाया तब उसने चेलों को खाना बाँटने की ज़िम्मेदारी दी। (मत्ती 14:19; 15:36) आखिरी फसह मनाने के लिए यीशु ने पतरस और यूहन्ना को यरूशलेम जाकर उसकी तैयारी करने की ज़िम्मेदारी सौंपी। उन्होंने बड़े ध्यान से फसह के लिए सारी ज़रूरी चीज़ों का बंदोबस्त किया, जैसे मेम्ना, दाख-मदिरा, बिन खमीर की रोटी, कड़वा साग वगैरह। यह काम कोई मामूली काम नहीं था क्योंकि सही तरीके से फसह मनाना मूसा के कानून की एक माँग थी और यीशु को भी उस माँग को पूरा करना था। इसके अलावा, उसी शाम यीशु ने अपनी मौत की याद में एक स्मारक की शुरूआत की, जिसमें उसने दाखरस और अखमीरी रोटी का इस्तेमाल किया।—मत्ती 26:17-19; लूका 22:8, 13.
17 आगे चलकर यीशु ने अपने चेलों को और भी भारी ज़िम्मेदारी लेने के काबिल समझा। जैसा कि हमने देखा उसने इस धरती पर अपने अभिषिक्त चेलों के एक छोटे समूह को आध्यात्मिक भोजन देने की अहम ज़िम्मेदारी सौंपी। (लूका 12:42-44) यह भी याद कीजिए कि उसने अपने चेलों को प्रचार और चेले बनाने का भारी काम सौंपा है। (मत्ती 28:18-20) आज यीशु स्वर्ग में राज कर रहा है और भले ही वह हमें नज़र नहीं आता, मगर फिर भी उसने धरती पर मंडलियों की देखभाल के लिए आध्यात्मिक तौर पर काबिल ‘आदमियों को तोहफे’ के रूप में दिया है।—इफिसियों 4:8, 11, 12.
18-20. (क) हम मसीही भाई-बहनों पर अपना भरोसा और विश्वास कैसे दिखा सकते हैं? (ख) ज़िम्मेदारी सौंपने के बारे में हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? (ग) हम अगले अध्याय में किस बात पर चर्चा करेंगे?
18 दूसरों के साथ पेश आते वक्त हम यीशु की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं? मसीही भाई-बहनों पर भरोसा और विश्वास दिखाकर हम अपने प्यार का सबूत देते हैं। आइए याद रखें कि प्यार हमेशा भला सोचता है, बुरा नहीं। हो सकता है और ऐसा होगा भी कि समय-समय पर दूसरे हमें निराश कर दें, ऐसे में अगर हममें प्यार होगा, तो हम फौरन उनके इरादों पर शक नहीं करेंगे। (मत्ती 7:1, 2) अगर हम अपने भाइयों के बारे में सही नज़रिया रखेंगे, तब हम उनका हौसला बढ़ाने की सोचेंगे, उन्हें गिराने की नहीं।—1 थिस्सलुनीकियों 5:11.
19 ज़िम्मेदारी सौंपने के बारे में क्या हम यीशु की मिसाल पर चल सकते हैं? मंडली में जो भाई ज़िम्मेदारी के पद पर हैं उनके लिए यह फायदेमंद है कि वे दूसरों को उनकी काबिलीयत के मुताबिक सही काम सौंपें और भरोसा रखें कि वे उस ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाएँगे। इस तरह तजुरबेकार प्राचीन उन काबिल जवान भाइयों को ज़रूरी और अनमोल तालीम दे सकते हैं जो “ज़िम्मेदारी पाने की कोशिश में आगे” बढ़ रहे हैं। (1 तीमुथियुस 3:1; 2 तीमुथियुस 2:2) यह तालीम बहुत ही ज़रूरी है। आज यहोवा राज के काम में बढ़ोतरी ला रहा है और ज़िम्मेदारी को उठाने के लिए काबिल भाइयों की ज़रूरत है।—यशायाह 60:22.
20 यीशु ने दूसरों को प्यार दिखाने के लिए हमारे सामने एक बेहतरीन मिसाल रखी है। हम कई मायनों में यीशु के नक्शेकदम पर चल सकते हैं मगर सबसे ज़रूरी है उसके प्यार की मिसाल पर चलना। यीशु ने हमारे लिए अपनी जान देकर अपने प्यार का सबसे बड़ा सबूत दिया है। और अगले अध्याय में हम इसी बात पर चर्चा करेंगे।
a प्रेषितों के गहरी नींद में सोने की वजह सिर्फ उनकी थकावट नहीं थी। लूका की किताब में जहाँ इसी घटना का ब्यौरा दिया गया है, उसके 22:45 में बताया गया है कि उस समय “वे बेहद दुःख की वजह से पस्त हो चुके थे।”
b ऐसा लगता है कि मरियम उस समय तक विधवा हो चुकी थी और उसके दूसरे बच्चे अभी भी यीशु के चेले नहीं बने थे।—यूहन्ना 7:5.
c बेशक इसका मतलब यह नहीं कि प्यार अंधा या नासमझ होता है। दरअसल प्यार बेवजह किसी पर दोष नहीं लगाता, ना ही शक करता है। प्यार करनेवाला व्यक्ति जल्दबाज़ी में दूसरों के इरादों पर उंगली नहीं उठाता या उनके बारे में गलत राय कायम नहीं करता है।