“हे परमेश्वर, मुझे जांच”
“हे परमेश्वर, मुझे जांचकर मेरे हृदय को जान ले। . . . अनन्तकाल के मार्ग में मेरी अगुवाई कर।”—भजन १३९:२३, २४, NW.
१. यहोवा अपने सेवकों के साथ कैसे व्यवहार करता है?
हम सबको अच्छा लगता है कि हमारे साथ ऐसा व्यक्ति व्यवहार करे जो सहानुभूतिशील हो, ऐसा व्यक्ति जो हमारी परिस्थितियों को ध्यान में रखता हो, ऐसा व्यक्ति जो मदद करता हो जब हम से ग़लती हो जाती है, ऐसा व्यक्ति जो हम से हमारी योग्यता से अधिक माँग न करता हो। यहोवा परमेश्वर अपने सेवकों के साथ इसी तरीक़े से व्यवहार करता है। भजन १०३:१४ कहता है: “वह हमारी सृष्टि जानता है; और उसको स्मरण रहता है कि मनुष्य मिट्टी ही हैं।” और यीशु मसीह, जो अपने पिता को परिपूर्ण रीति से प्रतिबिम्बित करता है, यह स्नेही निमंत्रण देता है: “हे सब परिश्रम करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगों, मेरे पास आओ; मैं तुम्हें विश्राम दूंगा। मेरा जूआ अपने ऊपर उठा लो [अथवा, “मेरे साथ मेरे जूए के नीचे आ जाओ,” फुटनोट, NW]; और मुझ से सीखो; क्योंकि मैं नम्र और मन में दीन हूं: और तुम अपने मन में विश्राम पाओगे। क्योंकि मेरा जूआ सहज और मेरा बोझ हलका है।”—मत्ती ११:२८-३०.
२. (क) यीशु मसीह, और (ख) मसीह के अनुयायियों, के सम्बन्ध में यहोवा और मनुष्यों के दृष्टिकोण में विषमता दिखाइए।
२ यहोवा अपने सेवकों को जिस दृष्टि से देखता है वह अकसर मनुष्यों की दृष्टि से बहुत भिन्न होता है। वह मामलों को एक भिन्न दृष्टिकोण से देखता है और ऐसे पहलुओं पर ध्यान देता है जिनके बारे में शायद दूसरों को कुछ भी पता न हो। जब यीशु मसीह पृथ्वी पर था, “वह तुच्छ जाना जाता और मनुष्यों का त्यागा हुआ था।” जिन लोगों ने उस पर मसीहा के तौर पर विश्वास नहीं रखा, उन्होंने “उसका मूल्य न जाना।” (यशायाह ५३:३; लूका २३:१८-२१) फिर भी, परमेश्वर की नज़रों में, वह “[परमेश्वर का] प्रिय पुत्र” था, जिससे पिता ने कहा: “मैं तुझ से प्रसन्न हूं।” (लूका ३:२२; १ पतरस २:४) यीशु मसीह के अनुयायियों में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें तुच्छ जाना जाता है क्योंकि वे भौतिक रूप से गरीब हैं और अत्यधिक क्लेश का सामना करते हैं। फिर भी, हो सकता है कि यहोवा और उसके पुत्र की नज़रों में ऐसे जन धनी हों। (रोमियों ८:३५-३९; प्रकाशितवाक्य २:९) दृष्टिकोण में ऐसी भिन्नता क्यों?
३. (क) लोगों के बारे में यहोवा का दृष्टिकोण क्यों अकसर मनुष्यों के दृष्टिकोण से अति भिन्न होता है? (ख) हम अंदर से किस प्रकार के व्यक्ति हैं, यह जाँच करना हमारे लिए क्यों अत्यावश्यक है?
३ यिर्मयाह ११:२० [NW], उत्तर देता है: “यहोवा . . . गुर्दों और हृदय को जांच रहा है।” वह देखता है कि हम अंदर से क्या हैं, हमारे व्यक्तित्व के उन पहलुओं को भी जो दूसरों की नज़रों से छिपे हैं। अपनी जाँच में, वह उन गुणों और स्थितियों पर मुख्य ज़ोर देता है जो उसके साथ एक अच्छे सम्बन्ध के लिए अत्यावश्यक हैं, वे गुण जो हमारे चिरस्थायी लाभ के लिए हैं। हमारा यह जानना हमें आश्वासन देता है; लेकिन यह गम्भीर बात भी है। क्योंकि यहोवा ध्यान देता है कि हम अंदर से क्या हैं, हमारे लिए यह जाँचना महत्त्वपूर्ण है कि हम अंदर से क्या हैं यदि हमें उस प्रकार के व्यक्ति साबित होना है जिन्हें वह अपने नए संसार में रखना चाहता है। उसका वचन हमें ऐसी जाँच करने के लिए मदद करता है।—इब्रानियों ४:१२, १३.
परमेश्वर के विचार क्या ही बहुमूल्य हैं!
४. (क) किस बात ने भजनहार को यह घोषित करने के लिए प्रेरित किया कि परमेश्वर के विचार उसके लिए बहुमूल्य थे? (ख) ये हमारे लिए क्यों बहुमूल्य होने चाहिए?
४ अपने सेवकों के विषय में परमेश्वर के ज्ञान के विस्तार तथा गहराई पर, साथ ही उन्हें जो मदद की ज़रूरत पड़े उसे देने में परमेश्वर की असामान्य योग्यता पर मनन करने के बाद, भजनहार दाऊद ने लिखा: “मेरे लिये तो हे ईश्वर, तेरे विचार क्या ही बहुमूल्य हैं!” (भजन १३९:१७क) वे विचार, जो उसके लिखित वचन में प्रकट होते हैं, मनुष्यों के किसी भी विचार से उच्च हैं, चाहे उनके विचार कितने ही बढ़िया प्रतीत हों। (यशायाह ५५:८, ९) परमेश्वर के विचार हमें जीवन की वास्तव में महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान केंद्रित करने और उसकी सेवा में उत्साही बनने के लिए मदद करते हैं। (फिलिप्पियों १:९-११) वे हमें दिखाते हैं कि मामलों को परमेश्वर की नज़र से कैसे देखा जाए। वे हमें अपने आप से ईमानदार होने, अर्थात् यह स्वीकार करने के लिए मदद करते हैं कि हम हृदय में किस प्रकार के व्यक्ति हैं। क्या आप ऐसा करने के लिए तैयार हैं?
५. (क) परमेश्वर का वचन हमें “सबसे अधिक” किस चीज़ की रक्षा करने के लिए आग्रह करता है? (ख) कैन के सम्बन्ध में बाइबल अभिलेख हमें कैसे लाभ पहुँचा सकता है? (ग) जबकि हम मूसा की व्यवस्था के अधीन नहीं हैं, यह हमें इस बात को समझने में कैसे मदद करती है कि यहोवा को क्या बात ख़ुश करती है?
५ मनुष्य बाहरी रूप पर अधिक ज़ोर देने के लिए प्रवृत्त रहता है, लेकिन शास्त्रवचन हमें सलाह देता है: “सब से अधिक अपने मन [हृदय, NW] की रक्षा कर।” (नीतिवचन ४:२३) उपदेश और उदाहरण, दोनों के द्वारा बाइबल हमें ऐसा करने के लिए मदद करती है। यह हमें बताती है कि कैन ने केवल दस्तूर पूरा करने के लिए परमेश्वर के लिए बलि चढ़ाई जबकि अपने हृदय में वह अपने भाई हाबिल के प्रति नाराज़गी, और फिर नफ़रत से खौल रहा था। और यह हमें उसकी तरह न बनने के लिए आग्रह करती है। (उत्पत्ति ४:३-५; १ यूहन्ना ३:११, १२) यह आज्ञाकारिता के विषय में मूसा की व्यवस्था की माँग लिपिबद्ध करती है। लेकिन यह इस बात पर भी ज़ोर देती है कि व्यवस्था की सबसे बड़ी माँग थी कि यहोवा की उपासना करनेवाले लोगों को उससे अपने पूरे हृदय, मन, प्राण, और शक्ति से प्रेम करना चाहिए; और यह कहती है कि अगली सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञा थी कि वे अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करें।—व्यवस्थाविवरण ५:३२, ३३; मरकुस १२:२८-३१.
६. नीतिवचन ३:१ को लागू करने में, हमें अपने आप से कौन-से प्रश्न पूछने चाहिए?
६ नीतिवचन ३:१ में, हम से आग्रह किया जाता है कि हम न केवल परमेश्वर की आज्ञाओं को मानें, बल्कि निश्चित करें कि यह आज्ञाकारिता हमारे हृदय की वास्तविक इच्छा की अभिव्यक्ति है। व्यक्तिगत रूप से हमें अपने आप से पूछना चाहिए, ‘क्या परमेश्वर की माँगों के प्रति मेरी आज्ञाकारिता के विषय में यह सच है?’ यदि हमें एहसास होता है कि कुछ मामलों में हमारी अभिप्रेरणा अथवा सोच-विचार में कमी है—और हम में से कोई नहीं कह सकता कि हम परिशुद्ध हैं—तो हमें पूछने की ज़रूरत है, ‘स्थिति को सुधारने के लिए मैं क्या कर रहा हूँ?’—नीतिवचन २०:९; १ यूहन्ना १:८.
७. (क) मत्ती १५:३-९ में यीशु द्वारा फरीसियों की निंदा हमें अपने हृदय को सुरक्षित रखने में कैसे मदद कर सकती है? (ख) कैसी स्थितियों में हमें शायद अपने मन और हृदय को अनुशासित करने के लिए सख़्त क़दम उठाने पड़ें?
७ जब यहूदी फरीसियों ने परमेश्वर का आदर करने का ढोंग रचा जबकि वे चालाकी से आत्म-हित द्वारा प्रेरित एक रिवाज़ को बढ़ावा दे रहे थे, तब यीशु ने उन्हें कपटी कहकर उनकी निन्दा की और दिखाया कि उनकी उपासना व्यर्थ थी। (मत्ती १५:३-९) यीशु ने यह भी चेतावनी दी कि परमेश्वर, जो हृदय को देखता है, को ख़ुश करने के लिए, एक बाहरी नैतिक जीवन व्यतीत करना काफ़ी नहीं जबकि हम साथ ही साथ, कामुक विलास प्राप्त करने के लिए बारंबार ऐसे विचारों में लिप्त होते हैं जो अनैतिक हैं। हमें शायद अपने मन और हृदय को अनुशासित करने के लिए कठोर क़दम उठाने की ज़रूरत पड़े। (नीतिवचन २३:१२; मत्ती ५:२७-२९) ऐसे अनुशासन की तब भी ज़रूरत पड़ती है जब हमारी सांसारिक नौकरी, शिक्षा के विषय में हमारे लक्ष्य, या हमारे मनोरंजन के चयन, के कारण हम संसार के अनुकारक बन रहे हैं, और अपने आपको इसके स्तरों के अनुसार ढलने दे रहे हैं। ऐसा हो कि हम कभी न भूलें कि शिष्य याकूब ने उन लोगों को “व्यभिचारिणियों” के तौर पर संबोधित किया जो जताते हैं कि वे परमेश्वर के हैं, लेकिन जो संसार के मित्र बनना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि “सारा संसार उस दुष्ट के वश में पड़ा है।”—याकूब ४:४; १ यूहन्ना २:१५-१७; ५:१९.
८. परमेश्वर के बहुमूल्य विचारों से पूरा लाभ उठाने के लिए, हमें क्या करने की ज़रूरत है?
८ इन मामलों में या अन्य मामलों में परमेश्वर के विचारों से पूर्ण रीति से लाभ उठाने के लिए, हमें उन्हें पढ़ने अथवा उन्हें सुनने के लिए समय अलग से रखने की ज़रूरत है। इससे भी अधिक, हमें उनका अध्ययन करने, उनके बारे में बात करने, और उन पर मनन करने की ज़रूरत है। प्रहरीदुर्ग के बहुत-से पाठक नियमित रूप से यहोवा के गवाहों की कलीसिया सभाओं में उपस्थित होते हैं, जहाँ बाइबल की चर्चा होती है। यह करने के लिए वे अन्य कार्यों से समय निकालते हैं। (इफिसियों ५:१५-१७) और इसके बदले में उन्हें जो प्राप्त होता है वह भौतिक सम्पत्ति से कहीं अधिक मूल्यवान होता है। क्या आप भी ऐसा महसूस नहीं करते?
९. मसीही सभाओं में उपस्थित होनेवालों में से कुछ लोग अन्य लोगों से जल्दी उन्नति क्यों करते हैं?
९ लेकिन, इन सभाओं में उपस्थित होनेवाले कुछ लोग अन्य लोगों से अधिक तेज़ी से आध्यात्मिक उन्नति करते हैं। वे सच्चाई को अपने जीवन में अधिक पूर्ण रीति से लागू करते हैं। इसका कारण क्या है? अकसर, व्यक्तिगत अध्ययन में उनका परिश्रम एक मुख्य तत्त्व होता है। वे इस बात की क़दर करते हैं कि हम केवल रोटी पर जीवित नहीं रहते; प्रतिदिन आध्यात्मिक भोजन लेना उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि नियमित रूप से शारीरिक भोजन खाना। (मत्ती ४:४; इब्रानियों ५:१४) इसलिए वे हर दिन बाइबल या बाइबल को स्पष्ट करनेवाले प्रकाशनों को पढ़ने में कुछ न कुछ समय बिताने की कोशिश करते हैं। वे कलीसिया सभाओं के लिए तैयारी करते हैं, और पहले से ही पाठों का अध्ययन करते और शास्त्रवचनों को खोलकर पढ़ते हैं। वे विषय को पढ़ने से अधिक करते हैं; वे उस पर मनन करते हैं। उनके अध्ययन के नमूने में सम्मिलित है इस बात पर गम्भीर रीति से विचार करना कि वे जो सीख रहे हैं उससे उनके अपने जीवन पर क्या प्रभाव पड़ना चाहिए। जैसे-जैसे उनकी आध्यात्मिकता बढ़ती है, वे भजनहार के समान महसूस करने लगते हैं जिसने लिखा: “अहा! मैं तेरी व्यवस्था में कैसी प्रीति रखता हूं! . . . तेरी चितौनियां अनूप हैं।”—भजन १:१-३; ११९:९७, १२९.
१०. (क) परमेश्वर के वचन को कितने समय तक अध्ययन करते रहना लाभदायक होता है? (ख) शास्त्रवचन यह कैसे दिखाते हैं?
१० चाहे हम ने परमेश्वर के वचन का अध्ययन एक साल, ५ साल, या ५० साल के लिए किया हो, वह कभी भी केवल पुनरावर्ती नहीं बन जाता—यदि परमेश्वर के विचार हमारे लिए बहुमूल्य हैं। चाहे हम में से किसी ने भी शास्त्रवचन से कितना ही क्यों न सीखा हो, तो भी ऐसी अधिक बातें हैं जो हम नहीं जानते। “हे ईश्वर, . . . उनकी संख्या का जोड़ कैसा बड़ा है!” दाऊद ने कहा। “यदि मैं उनको गिनता तो वे बालू के किनकों से भी अधिक ठहरते।” परमेश्वर के विचारों को गिनना हमारे बस के बाहर है। यदि हम परमेश्वर के विचारों का वर्णन दिन भर करते और यही करते-करते सो जाते, जब हम सुबह जागते, तब भी विचार करने के लिए काफ़ी कुछ होता। इसलिए, दाऊद ने लिखा: “जब मैं जाग उठता हूं, तब भी तेरे संग रहता हूं।” (भजन १३९:१७, १८) हमारे पास अनन्तकाल तक यहोवा और उसके मार्गों के बारे में सीखने के लिए अधिक बातें होंगी। हम कभी भी उस सीमा तक नहीं पहुँचेंगे जहाँ हमें सब कुछ पता हो।—रोमियों ११:३३.
उन चीज़ों से घृणा करना जिनसे यहोवा घृणा करता है
११. न केवल परमेश्वर के विचारों को जानना बल्कि उसकी भावनाओं को महसूस करना भी क्यों महत्त्वपूर्ण है?
११ हम केवल अपने दिमाग़ को तथ्यों से भरने के उद्देश्य के साथ परमेश्वर के वचन का अध्ययन नहीं करते हैं। जैसे-जैसे हम इसे अपने हृदय की तह तक पहुँचने देते हैं, हम परमेश्वर की भावनाओं को भी महसूस करने लगते हैं। यह कितना महत्त्वपूर्ण है! यदि हम ऐसी भावनाओं को विकसित न करें, तो क्या परिणाम हो सकता है? जबकि हम शायद दुहरा सकें कि बाइबल क्या कहती है, फिर भी हम उन बातों को शायद वांछनीय समझें जो निषिद्ध हैं, या शायद हम महसूस करें कि जो माँग की जाती है वह एक बोझ है। यह सच है कि चाहे हम ग़लत चीज़ों से घृणा करें, तो भी मानव अपरिपूर्णता के कारण शायद हमें संघर्ष करना पड़े। (रोमियों ७:१५) लेकिन यदि हम जो अंदर से हैं उसे उचित बातों के सामन्जस्य में लाने की सच्ची कोशिश नहीं करते हैं, तो क्या हम यहोवा को, जो “मनों को . . . जांचता है,” प्रसन्न करने की अपेक्षा कर सकते हैं?—नीतिवचन १७:३.
१२. ईश्वरीय प्रेम और ईश्वरीय घृणा कितने महत्त्वपूर्ण हैं?
१२ ईश्वरीय घृणा ग़लत कार्य करने के विरुद्ध एक शक्तिशाली सुरक्षा है, जैसे कि ईश्वरीय प्रेम उचित कार्यों को करना सुखद बनाता है। (१ यूहन्ना ५:३) शास्त्रवचन बार-बार हमें प्रेम और घृणा दोनों को विकसित करने के लिए आग्रह करता है। “हे यहोवा के प्रेमियों, बुराई से घृणा करो।” (भजन ९७:१०) “बुराई से घृणा करो; भलाई में लगे रहो।” (रोमियों १२:९) क्या हम ऐसा कर रहे हैं?
१३. (क) दुष्ट लोगों के विनाश के सम्बन्ध में दाऊद की कौन-सी प्रार्थना के साथ हम पूर्ण रीति से सहमत हैं? (ख) जैसे कि दाऊद की प्रार्थना में दिखाया गया, वे दुष्ट कौन थे जिन्हें नाश करने के लिए उसने परमेश्वर से प्रार्थना की?
१३ यहोवा ने अपने उद्देश्य को स्पष्ट रीति से बताया है कि वह पृथ्वी से दुष्ट लोगों को उखाड़ देगा और एक नई पृथ्वी लाएगा जिसमें धार्मिकता बास करेगी। (भजन ३७:१०, ११; २ पतरस ३:१३) धार्मिकता के प्रेमी उस समय के आने के लिए तरसते हैं। वे भजनहार दाऊद के साथ पूरी तरह से सहमत हैं, जिसने प्रार्थना की: “हे ईश्वर निश्चय तू दुष्ट को घात करेगा! हे हत्यारो, मुझ से दूर हो जाओ! क्योंकि वे तेरी चर्चा चतुराई से करते हैं; तेरे द्रोही तेरा नाम झूठी बात पर लेते हैं।” (भजन १३९:१९, २०) दाऊद ख़ुद ऐसे दुष्ट लोगों का घात करने को नहीं तरसा। उसने प्रार्थना की कि पलटा यहोवा ले। (व्यवस्थाविवरण ३२:३५; इब्रानियों १०:३०) ये वे लोग नहीं थे जिन्होंने केवल किसी तरीक़े से दाऊद को व्यक्तिगत रूप से नाराज़ किया था। उन्होंने परमेश्वर का मिथ्या निरूपण किया था, और उसके नाम को व्यर्थ रीति से प्रयोग किया था। (निर्गमन २०:७) धोखे के साथ, उन्होंने उसकी सेवा करने का दावा किया, लेकिन वे अपनी योजनाओं को बढ़ाने के लिए उसके नाम को प्रयोग कर रहे थे। दाऊद को उन लोगों से कोई प्रेम नहीं था जो परमेश्वर के शत्रु होने का चुनाव करते थे।
१४. क्या ऐसे भी दुष्ट लोग हैं जिनकी मदद की जा सकती है? यदि हाँ, तो कैसे?
१४ करोड़ों लोग यहोवा को नहीं जानते हैं। उन में से बहुत लोग अनजाने में ऐसे कार्य करते हैं जिन कार्यों को परमेश्वर का वचन दुष्ट कहता है। यदि वे इस मार्ग पर बने रहे, तो वे उन लोगों में सम्मिलित होंगे जो बड़े क्लेश के दौरान मारे जाएँगे। फिर भी, यहोवा दुष्ट लोगों की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता है, और न ही हमें होना चाहिए। (यहेजकेल ३३:११) जब तक समय अनुमति दे, हम यहोवा के मार्गों को सीखने और लागू करने में ऐसे लोगों की मदद करने की कोशिश करते हैं। लेकिन तब क्या यदि कुछ लोग यहोवा के लिए अत्यधिक घृणा दिखाएँ?
१५. (क) भजनहार ने किन लोगों को ‘पक्के शत्रुओं’ के तौर पर समझा? (ख) आज हम कैसे दिखा सकते हैं कि हम उन लोगों से “बैर” करते हैं जो यहोवा के विरुद्ध विद्रोह करते हैं?
१५ उनके सम्बन्ध में, भजनहार ने कहा: “हे यहोवा, क्या मैं उन से बैर नहीं रखता जो तुझ से अति बैर रखते हैं, और क्या मैं उनके लिए घृणा महसूस नहीं करता जो तेरा विरोध करते हैं? मैं पूर्ण बैर के साथ उन से बैर रखता हूं। मैं उनको अपना पक्का शत्रु समझता हूं।” (भजन १३९:२१, २२, NW) क्योंकि वे यहोवा से अति बैर रखते थे, इसलिए दाऊद उनको घृणा की नज़रों से देखता था। धर्मत्यागी भी उन में सम्मिलित हैं जो यहोवा के विरुद्ध विरोध करके उसके लिए घृणा दिखाते हैं। धर्मत्याग, वास्तव में, यहोवा के विरुद्ध विद्रोह है। कुछ धर्मत्यागी लोग परमेश्वर को जानने और उसकी सेवा करने का दावा करते हैं, लेकिन वे उसके वचन में बताई गई शिक्षाओं अथवा माँगों को अस्वीकार करते हैं। अन्य लोग बाइबल पर विश्वास करने का दावा करते हैं, लेकिन वे यहोवा के संगठन को अस्वीकार करते हैं और सक्रिय रूप से इसके कार्य में बाधा डालने की कोशिश करते हैं। जब वे यह जानने के बाद भी कि क्या सही है, जानबूझकर ऐसी बुराई चुनते हैं, जब बुराई उनके मन में इतनी पक्की तरह से बैठ जाती है कि यह उनकी बनावट का एक अटूट भाग हो जाता है, तब एक मसीही को (‘घृणा’ शब्द के बाइबलीय अर्थ में) उन लोगों से घृणा करनी चाहिए जिन्होंने अपने आपको उस बुराई के साथ अटूट रीति से जोड़ लिया है। सच्चे मसीही ऐसे धर्मत्यागियों के प्रति यहोवा की भावनाओं को महसूस करते हैं; वे धर्मत्यागी विचारों के विषय में जिज्ञासु नहीं हैं। इसके विपरीत, वे उन लोगों के प्रति ‘घृणा महसूस करते हैं’ जिन्होंने अपने आपको परमेश्वर का बैरी बना लिया है, लेकिन वे बदला लेने का कार्य यहोवा पर छोड़ देते हैं।—अय्यूब १३:१६; रोमियों १२:१९; २ यूहन्ना ९, १०.
जब परमेश्वर हमारी जाँच करता है
१६. (क) दाऊद क्यों चाहता था कि यहोवा उसकी जाँच करे? (ख) हमारे अपने हृदय के बारे में कौन-सी बात को समझने के लिए हमें परमेश्वर से मदद माँगनी चाहिए?
१६ दाऊद किसी भी तरीक़े से दुष्टों की तरह नहीं होना चाहता था। बहुत-से लोग छिपाने की कोशिश करते हैं कि वे अंदर से क्या हैं, लेकिन दाऊद ने विनम्रता के साथ प्रार्थना की: “हे परमेश्वर, मुझे जांचकर मेरे हृदय को जान ले। मुझे परखकर मेरे अशान्त विचारों को जान ले, और देख कि मुझ में कोई दुःखद चाल तो नहीं, और अनन्तकाल के मार्ग में मेरी अगुवाई कर।” (भजन १३९:२३, २४, NW) अपने हृदय का ज़िक्र करते समय, दाऊद का अर्थ शारीरिक अंग से नहीं था। उस अभिव्यक्ति के लाक्षणिक अर्थ के सामन्जस्य में, उसने जो वह अंदर से था, अर्थात्, आंतरिक व्यक्ति की ओर संकेत किया। हम में भी यह इच्छा होनी चाहिए कि परमेश्वर हमारे हृदय को जाँचे और देखे कि कहीं हम में कोई अनुचित अभिलाषाएँ, स्नेह, मनोभावनाएँ, उद्देश्य, विचार, या हेतु तो नहीं। (भजन २६:२) यहोवा हमें निमंत्रण देता है: “हे मेरे पुत्र, अपना मन मेरी ओर लगा, और तेरी दृष्टि मेरे चालचलन पर लगी रहे।”—नीतिवचन २३:२६.
१७. (क) अशान्त विचारों को छिपाने के बजाए, हमें क्या करना चाहिए? (ख) यदि हम अपने हृदय में ग़लत प्रवृत्तियाँ पाएँ, तो क्या हमें आश्चर्य होना चाहिए और हमें इनके बारे में क्या करना चाहिए?
१७ यदि ग़लत अभिलाषाओं या ग़लत हेतुओं के कारण या हमारी तरफ़ से किसी ग़लत चाल-चलन के कारण हमारे अंदर कोई दुःखद, अशान्त विचार हैं, तो निश्चय ही हम चाहते हैं कि उस मामले को सुधारने के लिए यहोवा हमारी मदद करे। “कोई दुःखद चाल” वाक्य-रचना के बजाए, मोफ़ेट का अनुवाद “एक ग़लत मार्ग” अभिव्यक्ति का प्रयोग करता है; द न्यू इंग्लिश बाइबल कहती है: “कोई भी मार्ग जो तुझे [यानी, परमेश्वर को] दुःखी करे।” शायद हम ख़ुद भी स्पष्ट रीति से अपने अशान्त विचारों को नहीं समझते हों और इसलिए नहीं जानते कि परमेश्वर के आगे अपनी समस्या कैसे व्यक्त करें, लेकिन वह हमारी स्थिति को समझता है। (रोमियों ८:२६, २७) हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि हमारे हृदय में बुरी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं; तब भी, हमें उन्हें जाने नहीं देना चाहिए। (उत्पत्ति ८:२१) उन्हें उखाड़ने के लिए हमें परमेश्वर की मदद माँगनी चाहिए। यदि हम सचमुच यहोवा और उसके मार्गों से प्रेम करते हैं, हम ऐसी मदद के लिए उसके पास इस विश्वास के साथ जा सकते हैं कि “परमेश्वर हमारे मन से बड़ा है; और सब कुछ जानता है।”—१ यूहन्ना ३:१९-२१.
१८. (क) यहोवा कैसे अनन्तकाल के मार्ग में हमारी अगुवाई करता है? (ख) यदि हम यहोवा के निर्देशनों पर अमल करते रहे, तो हम कौन-सी स्नेही प्रशंसा प्राप्त करने की अपेक्षा कर सकते हैं?
१८ भजनहार की प्रार्थना के सामन्जस्य में कि यहोवा अनन्तकाल के मार्ग में उसकी अगुवाई करे, यहोवा निश्चय ही अपने विनम्र, आज्ञाकारी सेवकों की अगुवाई करता है। वह न केवल उनकी अगुवाई ऐसे मार्ग पर करता है जो लम्बे जीवन का अर्थ रख सकता है क्योंकि वे दुष्ट कार्य न करने के कारण समय से पहले नहीं मरते, बल्कि वह मार्ग ऐसा मार्ग भी है जो अनन्त जीवन की ओर ले जाता है। वह हमें इस बात का महत्त्व दिखाता है कि हमें यीशु के बलिदान के पापमुक्ति मूल्य की ज़रूरत है। अपने वचन और अपने संगठन के द्वारा, वह हमें अत्यावश्यक उपदेश देता है ताकि हम उसकी इच्छा करने में समर्थ हों। वह हमारे लिए स्पष्ट करता है कि उसकी मदद के प्रति हमारा अनुक्रिया दिखाना कितना महत्त्वपूर्ण है ताकि हम अंदर से वैसे व्यक्ति बने जो हम बाहर से होने का दावा करते हैं। (भजन ८६:११) और वह हमें एक धार्मिक नए संसार में परिपूर्ण स्वास्थ्य, और साथ ही उसकी, अर्थात्, एकमात्र सच्चे परमेश्वर की सेवा में प्रयोग करने के लिए अनन्तकालीन जीवन की प्रत्याशा के साथ प्रोत्साहित करता है। यदि हम निष्ठा के साथ उसके निर्देशनों के प्रति प्रतिक्रिया दिखाते रहेंगे, तो वह, वस्तुतः, हम से वैसा ही कहेगा, जैसा उसने अपने पुत्र से कहा: “मैं तुझ से प्रसन्न हूं।”—लूका ३:२२; यूहन्ना ६:२७; याकूब १:१२.
आपकी टिप्पणी क्या है?
▫ अपने सेवकों के बारे में यहोवा का दृष्टिकोण क्यों अकसर मनुष्यों के दृष्टिकोण से भिन्न होता है?
▫ परमेश्वर क्या देखता है जब वह हमारे हृदय को जाँचता है, इस बात को समझने के लिए क्या हमारी मदद कर सकता है?
▫ किस प्रकार का अध्ययन हमें तथ्यों को सीखने और अपने हृदय को सुरक्षित रखने के लिए मदद करता है?
▫ यह क्यों महत्त्वपूर्ण है कि हम न केवल यह जाने कि परमेश्वर क्या कहता है बल्कि उसकी भावनाओं को भी महसूस करें?
▫ हमें क्यों व्यक्तिगत रूप से प्रार्थना करनी चाहिए: “हे परमेश्वर, मुझे जांचकर मेरे हृदय को जान ले”?
[पेज 14 पर तसवीरें]
अध्ययन करते समय, परमेश्वर के विचारों और भावनाओं को अपना बनाने की कोशिश कीजिए
[पेज 15 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]
यहोवा के विचार “बालू के किनकों से भी अधिक ठहरते” हैं
[चित्र का श्रेय]
Pictorial Archive (Near Eastern History) Est.