अपने अंदर की आवाज़ सुनिए
“अन्यजाति लोग जिन के पास [परमेश्वर की] व्यवस्था नहीं, स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं।”—रोमियों 2:14.
1, 2. (क) बहुत-से लोगों ने कैसे दूसरों के लिए परवाह दिखायी है? (ख) बाइबल में किन लोगों की मिसाल दिखाती है कि उन्हें दूसरों की भलाई की फिक्र थी?
बीस साल का एक लड़का रेलवे प्लेटफॉर्म पर खड़ा था कि अचानक उसे मिरगी का दौरा पड़ा और वह पटरी पर जा गिरा। यह देखते ही पास खड़े एक आदमी ने अपनी बेटियों का हाथ छोड़ा और नीचे कूद गया। और जैसे ही उसने लड़के को पटरी के बीच खींचा और उस पर लेट गया, उतने में ही एक ट्रेन उसी पटरी पर तेज़ी से आकर रुकी। इस तरह, उस आदमी ने लड़के की जान बचा ली। कुछ लोग शायद उस आदमी को बहादुर कहें। मगर उसने कहा: “एक इंसान को वही करना चाहिए, जो सही है। इसलिए जब मैंने देखा कि वह लड़का मुसीबत में है, तो मैंने उसकी मदद की। मैंने दूसरों की वाह-वाही पाने के लिए ऐसा नहीं किया।”
2 आप भी शायद किसी ऐसे शख्स को जानते होंगे, जिसने अपनी जान पर खेलकर औरों की मदद की हो। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान, बहुत-से लोगों ने खतरा मोल लेकर अजनबियों को अपने घरों में छिपाया था। यही नहीं, याद कीजिए कि प्रेरित पौलुस और उन 275 लोगों के साथ क्या हुआ था। वे जिस जहाज़ पर सफर कर रहे थे, वह एक समुद्री तूफान की चपेट में आ गया और सिसिली के पास मिलिते द्वीप से थोड़ी दूरी पर टूट गया। हालाँकि मिलिते के लोग, मुसीबत में फँसे इन मुसाफिरों को नहीं जानते थे, फिर भी उन्होंने उनकी मदद की और उन पर “अनोखी कृपा” दिखायी। (प्रेरितों 27:27–28:2) बाइबल में दी एक और मिसाल पर गौर कीजिए। वह है एक इस्राएली लड़की की, जो अराम देश में बंदी थी। हालाँकि उसे अपनी जान का जोखिम नहीं उठाना पड़ा, फिर भी उसने अराम के सेनापति के लिए परवाह दिखाकर उस पर कृपा की। (2 राजा 5:1-4) इसके अलावा, यीशु की उस मशहूर कहानी को भी याद कीजिए, जो दयालु सामरी के बारे में है। जब एक याजक और एक लेवी ने रास्ते में एक यहूदी को अधमरा पड़ा देखा, तो वे उसकी मदद करने के बजाय मुँह फेरकर चले गए। मगर जब एक सामरी ने उस घायल यहूदी को देखा, तो उसने न सिर्फ उसकी मरहम-पट्टी की बल्कि उससे भी बढ़कर मदद दी। यह कहानी सदियों से, अलग-अलग संस्कृति के लोगों के दिल को छूती आयी है।—लूका 10:29-37.
3, 4. दूसरों की भलाई करने की भावना, विकासवाद के सिद्धांत के बारे में क्या बताती है?
3 यह सच है कि आज, हम ‘कठिन समयों’ में जी रहे हैं और बहुत-से लोग “कठोर” और “भलाई के दुश्मन” (आर.ओ.वी.) हैं। (2 तीमुथियुस 3:1-3) इसके बावजूद, क्या हम कई लोगों को नेकी करते नहीं देखते? हो सकता है, किसी ने हमारे साथ भी नेकी की हो। आजकल दुनिया में अपनी मरज़ी से, यहाँ तक कि अपनी जान हथेली पर रखकर दूसरों की मदद करना इतना आम हो गया है कि कुछ लोगों ने इसे “इनसानियत” का नाम दिया है।
4 दूसरों की मदद करने का यह जज़्बा, हर जाति और संस्कृति के लोगों में देखने को मिलता है। और यही बात इस दावे को झुठलाती है कि इंसान की शुरूआत विकास से हुई है। अनुवांशिक-वैज्ञानिक, फ्रांसिस एस. कॉलिन्स, जिन्होंने मानव जीन (डी.एन.ए.) पर खोज करने की अमरीकी सरकार की परियोजना में अगुवाई ली थी, कहते हैं: “दूसरों की भलाई करने की भावना, विकासवादियों के लिए एक पहाड़ जैसी समस्या खड़ी करती है। . . . क्योंकि वे मानते हैं कि हर इंसान में स्वार्थी जीन होते हैं, जो अपने ही समान और भी जीन तैयार करते जाते हैं।” डॉ. कॉलिन्स आगे कहते हैं: “कुछ शख्स तो ऐसे लोगों की खातिर कुरबान हो जाते हैं, जो उनके समूह (यानी परिवार, जाति, समाज या धर्म) के नहीं होते। यहाँ तक कि जिनके साथ उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। . . . मुझे नहीं लगता है कि डार्विन के सिद्धांत की बिना पर यह समझाया जा सकता है कि लोगों में दूसरों की भलाई करने की भावना क्यों होती है।”
“विवेक की आवाज़”
5. लोग अकसर क्या अनुभव करते हैं?
5 एक इंसान भलाई क्यों करता है, इसकी एक वजह बताते हुए डॉ. कॉलिन्स कहते हैं: “हमारे विवेक की आवाज़ बार-बार हमसे कहती है कि हम दूसरों की मदद करें, फिर चाहे इसके बदले में हमें कुछ भी न मिले।”a “विवेक” शब्द सुनते ही हमें शायद प्रेरित पौलुस की यह बात याद आए: “जब अन्यजाति लोग जिन के पास व्यवस्था नहीं, स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं, तो व्यवस्था उन के पास न होने पर भी वे अपने लिये आप ही व्यवस्था हैं। वे व्यवस्था की बातें अपने अपने हृदयों में लिखी हुई दिखाते हैं और उन के विवेक भी गवाही देते हैं, और उन की चिन्ताएं परस्पर दोष लगाती, या उन्हें निर्दोष ठहराती हैं।”—रोमियों 2:14, 15.
6. सभी इंसान, सिरजनहार के आगे जवाबदेह क्यों हैं?
6 पौलुस ने रोम के मसीहियों को लिखी अपनी पत्री में बताया कि सभी इंसान, परमेश्वर के आगे जवाबदेह हैं। क्यों? क्योंकि “जगत की सृष्टि के समय से,” कुदरत की रचनाएँ साफ-साफ दिखाती आयी हैं कि हमारा सिरजनहार सचमुच वजूद में है और उसमें क्या-क्या गुण हैं। (रोमियों 1:18-20; भजन 19:1-4) माना कि आज बहुत-से लोग, सिरजनहार के वजूद से इनकार करते हैं और बदचलनी की ज़िंदगी जीते हैं। फिर भी, परमेश्वर की यह मरज़ी है कि इंसान उसके धर्मी स्तरों को कबूल करे और अपने बुरे कामों के लिए पछतावा दिखाए। (रोमियों 1:22–2:6) यहूदियों के पास ऐसा ही करने की एक बड़ी वजह थी। उन्हें मूसा के ज़रिए परमेश्वर की कानून-व्यवस्था दी गयी थी। मगर जिन लोगों के पास ‘परमेश्वर का वचन’ नहीं था, उन्हें भी परमेश्वर के वजूद को कबूल करने की ज़रूरत थी।—रोमियों 2:8-13; 3:2.
7, 8. सही-गलत की समझ कितनी आम है, और इससे क्या ज़ाहिर होता है?
7 सभी को क्यों परमेश्वर के वजूद को कबूल करना चाहिए और इस सच्चाई के मुताबिक काम करना चाहिए, इसकी सबसे ठोस वजह यह है कि इंसानों में सही-गलत की समझ होती है। इससे ज़ाहिर होता है कि हममें ज़मीर है। ज़रा कल्पना कीजिए: कुछ बच्चे खाना लेने के लिए लाइन में खड़े हैं। तभी एक लड़का आता है और सबको धक्का मारकर लाइन में सबसे आगे खड़ा हो जाता है। इस पर दूसरे बच्चे चिल्लाने लगते हैं, ‘टीचर, देखो उसने लाइन तोड़ दी!’ अब खुद से पूछिए, ‘भला बच्चे झट-से कैसे पहचान लेते हैं कि कुछ गलत किया जा रहा है?’ वह इसलिए क्योंकि इतनी छोटी उम्र में भी उनमें नैतिकता की समझ होती है। पौलुस ने लिखा: “जब अन्यजाति लोग जिन के पास व्यवस्था नहीं, स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं।” गौर कीजिए कि यहाँ पौलुस ने “अगर कभी” शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया, मानो यह बात कभी-कभार होती है। इसके बजाय, उसने “जब” शब्द का इस्तेमाल किया, जो दिखाता है कि यह बात अकसर होती है। जी हाँ, लोग बार-बार “स्वभाव ही से व्यवस्था की बातों पर चलते हैं,” यानी उनके अंदर नैतिकता की जो समझ है, वह उन्हें परमेश्वर के लिखित नियमों के मुताबिक काम करने के लिए उभारती है।
8 नैतिकता की यह समझ कई देशों के लोगों में देखी गयी है। कैमब्रिज यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने लिखा कि प्राचीन बाबुल, मिस्र और यूनान के लोग, यहाँ तक कि ऑस्ट्रेलिया और अमरीका के आदिवासियों के जिन नैतिक मूल्यों में “बूढ़े-जवानों और कमज़ोरों के साथ भलाई करने की बात शामिल थी, उन्हीं में ज़ुल्म ढाने, कत्ल करने, धोखा देने और झूठ बोलने को गुनाह बताया गया था।” डॉ. कोलिन्स लिखते हैं: “यह देखा गया है कि सही-गलत की समझ दुनिया-भर में हर तरह के इंसान में पायी जाती है।” क्या इस बात से आपको रोमियों 2:14 याद नहीं आता?
आपका विवेक कैसे काम करता है?
9. विवेक क्या है, और यह आपको कोई फैसले लेने से पहले कैसे मदद दे सकता है?
9 बाइबल दिखाती है कि हमारा विवेक एक ऐसी अंदरूनी काबिलीयत है, जिससे हम अपने कामों की जाँच-परख करके खुद का न्याय कर पाते हैं। यह ऐसा है, मानो हमारे अंदर की आवाज़ हमें बताती है कि फलाँ काम सही है या गलत। पौलुस ने अपने अंदर की आवाज़ के बारे में कहा: “मेरा विवेक भी पवित्र आत्मा में गवाही देता है।” (रोमियों 9:1) मिसाल के लिए, जब आपको सही-गलत के बारे में कोई फैसला करना होता है, तब आपका विवेक पहले से आपको खबरदार करता है और सही राह दिखाता है। यह आपको बता सकता है कि आप जो कदम उठाएँगे, उसका क्या नतीजा निकलेगा और आप कैसा महसूस करेंगे।
10. ज़्यादातर मामलों में विवेक कब काम करता है?
10 लेकिन ज़्यादातर मामलों में, आपका विवेक आपके कुछ कदम उठाने के बाद काम करता है। दाऊद के साथ ऐसा ही हुआ था। जब वह एक भगौड़े की ज़िंदगी जी रहा था, तब एक मौके पर उसने परमेश्वर के अभिषिक्त राजा, शाऊल के खिलाफ एक ऐसा काम किया जिससे राजा का अपमान हुआ। इसके बाद, दाऊद का ‘हृदय उसे फटकारने लगा।’ (नयी हिन्दी बाइबिल) (1 शमूएल 24:1-5; भजन 32:3, 5) हालाँकि बाइबल के जिस हिस्से में यह वाकया दर्ज़ है, उसमें “विवेक” शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है, फिर भी दाऊद का ‘हृदय उसे फटकारने लगा,’ इन शब्दों से हम समझ सकते हैं कि दाऊद का ज़मीर उसे कचोट रहा था। उसी तरह, जब हम कोई गलती कर बैठते हैं, तो हमारा विवेक भी हमें धिक्कारने लगता है। मसलन, कुछ लोगों ने जब अपना कर नहीं चुकाया, तो उनका ज़मीर उन्हें इतना कोसने लगा कि उन्होंने बाद में जाकर अपना कर अदा किया। दूसरे ऐसे हैं जिन्होंने अपने जीवन-साथी से बेवफाई की, लेकिन ज़मीर के लगातार कोसने की वजह से उन्होंने अपने साथी के सामने अपना पाप कबूल किया। (इब्रानियों 13:4) ये सब दिखाता है कि जब एक इंसान अपने ज़मीर की आवाज़ सुनता है, तो उसे शांति और संतोष मिलता है।
11. ‘हमेशा अपने विवेक की आवाज़ सुनकर चलना’ क्यों खतरनाक हो सकता है? एक मिसाल देकर समझाइए।
11 अब सवाल उठता है: क्या हमें ‘हमेशा अपने विवेक की आवाज़ सुनकर चलना’ चाहिए? हालाँकि ऐसा करना फायदेमंद है, मगर कभी-कभी हमारा विवेक हमें गलत राह बता सकता है। जी हाँ, ‘हमारे भीतरी मनुष्यत्व’ की आवाज़ हमें गुमराह कर सकती है। (2 कुरिन्थियों 4:16) इसकी एक मिसाल पर गौर कीजिए। बाइबल बताती है कि स्तिफनुस, यीशु का एक पक्का चेला था और वह “अनुग्रह और सामर्थ से परिपूर्ण” था। मगर कुछ यहूदी उसे घसीटकर यरूशलेम के बाहर ले गए और उसे पत्थरवाह करके मार डाला। शाऊल (जो बाद में प्रेरित पौलुस के नाम से जाना गया) पास खड़ा तमाशा देख रहा था और स्तिफनुस के ‘मार डाले जाने में सहमत था।’ (NHT) ऐसा लगता है कि उन यहूदियों को इस बात का पूरा यकीन था कि उन्होंने बिलकुल सही काम किया, इसलिए उनके ज़मीर ने उन्हें ज़रा भी नहीं धिक्कारा। शाऊल के ज़मीर ने भी उसे नहीं धिक्कारा होगा, तभी स्तिफनुस के कत्ल के बाद वह “प्रभु के चेलों को धमकाने और घात करने की धुन में” लगा रहा। इससे साफ है कि उस वक्त शाऊल के अंदर की आवाज़ उसे सही रास्ता नहीं बता रही थी।—प्रेरितों 6:8; 7:57–8:1; 9:1.
12. किस बात का हमारे ज़मीर पर असर पड़ सकता है?
12 आखिर शाऊल के ज़मीर पर किस बात का असर हुआ होगा? शायद उस पर उसकी संगति का असर हुआ हो। इस बात को और भी अच्छी तरह समझने के लिए, आइए एक उदाहरण लें। हममें से कई लोगों ने ऐसे आदमी से फोन पर बात की होगी, जिसकी आवाज़ एकदम उसके पिता जैसी हो। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि एक बेटे को काफी हद तक अपने पिता की आवाज़ की कुछ खूबियाँ विरासत में मिलती हैं। यही नहीं, वह अपने पिता की देखा-देखी उसी के अंदाज़ में बात भी करने लगता है। उसी तरह, शाऊल पर उन यहूदियों की संगति का बुरा असर हुआ होगा, जो यीशु और उसकी शिक्षाओं से नफरत करते थे। (यूहन्ना 11:47-50; 18:14; प्रेरितों 5:27, 28, 33) जी हाँ, शाऊल का ज़मीर भी उसी अंदाज़ में बात करने लगा था, जिस अंदाज़ में उसके साथियों का ज़मीर बात करता था।
13. एक इंसान के आस-पास के माहौल का उसके ज़मीर पर कैसा असर पड़ सकता है?
13 हम जिस संस्कृति या माहौल में पलते-बढ़ते हैं, उसके मुताबिक हमारा ज़मीर भी ढल सकता है। ठीक उसी तरह, जिस तरह हम अपने इलाके की बोली या लोगों के बात करने के लहज़े को सुनकर उनके जैसे बात करने लगते हैं। (मत्ती 26:73) प्राचीन समय के अश्शूरियों के ज़मीर पर भी उनके आस-पास के माहौल का असर हुआ होगा। अश्शूरी अपनी फौजी ताकत के लिए मशहूर थे। उनकी नक्काशियाँ दिखाती हैं कि वे अपने बंदियों को बुरी तरह तड़पाते थे। (नहूम 2:11, 12; 3:1) बाइबल बताती है कि योना के ज़माने में, नीनवे के लोग “अपने दहिने बाएं हाथों का भेद नहीं पहिचानते” थे। यानी, उनके पास इस बात की कोई कसौटी नहीं थी, जो उन्हें यह बताती कि परमेश्वर की नज़र में क्या सही है और क्या गलत। ज़रा सोचिए, नीनवे के ऐसे माहौल में पलने-बढ़नेवाले हर इंसान के ज़मीर पर क्या असर हुआ होगा! (योना 3:4, 5; 4:11) उसी तरह, आज एक इंसान के ज़मीर पर उसके आस-पास के लोगों के रवैए का असर पड़ सकता है।
अपने अंदर की आवाज़ को सुधारिए
14. हमारे विवेक से कैसे ज़ाहिर होता है कि उत्पत्ति 1:27 में लिखी बात सच है?
14 यहोवा ने आदम और हव्वा को विवेक का वरदान दिया था। और हमें यह विवेक उनसे विरासत में मिला है। उत्पत्ति 1:27 हमें बताता है कि इंसान, परमेश्वर के स्वरूप में रचा गया है। इसका मतलब यह नहीं कि वह देखने में हू-ब-हू परमेश्वर के जैसा है, क्योंकि परमेश्वर आत्मा है और हम इंसान हाड़-माँस के बने हैं। इसके बजाय, इस आयत का मतलब है कि हममें परमेश्वर के गुण हैं और अच्छे-बुरे की समझ। और यह समझ, बढ़िया तरीके से काम करनेवाले हमारे विवेक से ज़ाहिर होती है। यह सच्चाई दिखाती है कि एक तरीका है, जिससे हम अपने विवेक को मज़बूत कर सकते हैं, ताकि यह और भी भरोसेमंद साबित हो। वह तरीका क्या है? अपने सिरजनहार के बारे में लगातार सीखते जाना और उसके करीब आना।
15. परमेश्वर को जानने का एक तरीका क्या है, जिससे हमें फायदा हो सकता है?
15 बाइबल दिखाती है कि यहोवा हमारा जीवनदाता है और इस मायने में वह हम सभी का पिता है। (यशायाह 64:8) इसलिए वफादार मसीहियों की चाहे स्वर्ग में या इसी धरती पर फिरदौस में जीने की आशा हो, वे परमेश्वर से प्रार्थना करते वक्त उसे अपना पिता कह सकते हैं। (मत्ती 6:9) हममें अपने पिता के और भी करीब आने, साथ ही उसके नज़रिए और स्तरों के बारे में सीखने की दिली ख्वाहिश होनी चाहिए। (याकूब 4:8) ऐसी इच्छा बहुत-से लोगों में नहीं है। वे उन यहूदियों की तरह हैं, जिनके बारे में यीशु ने कहा था: “तुम ने न कभी [परमेश्वर का] शब्द सुना, और न उसका रूप देखा है। और उसके वचन को मन में स्थिर नहीं रखते।” (यूहन्ना 5:37, 38) हमने सचमुच में परमेश्वर का शब्द या उसकी आवाज़ नहीं सुनी है, मगर हम उसके वचन को पढ़कर उसके नज़रिए के बारे में ज़रूर सीख सकते हैं। इस तरह, हम उसके जैसे बन सकते हैं और महसूस कर सकते हैं।
16. यूसुफ की कहानी कैसे दिखाती है कि अपने ज़मीर को तालीम देना और उसकी आवाज़ को सुनना निहायत ज़रूरी है?
16 अपने विवेक को तालीम देने और उसकी आवाज़ सुनने में, यूसुफ एक बढ़िया मिसाल है। जब वह पोतीपर के घर में काम करता था, तो एक दिन पोतीपर की पत्नी ने उसे अपने साथ लैंगिक संबंध रखने के लिए लुभाया। हालाँकि, उस समय तक बाइबल की एक भी किताब नहीं लिखी गयी थी और ना ही परमेश्वर ने दस आज्ञाएँ दी थीं, फिर भी यूसुफ ने जवाब दिया: “भला, मैं ऐसी बड़ी दुष्टता करके परमेश्वर का अपराधी क्योंकर बनूं?” (उत्पत्ति 39:9) यूसुफ के मना करने की वजह यह नहीं थी कि वह अपने घरवालों को खुश करना चाहता था, क्योंकि वे तो उससे बहुत दूर रहते थे। इसके बजाय, इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वह परमेश्वर को खुश करना चाहता था। यूसुफ अच्छी तरह जानता था कि शादी के बारे में परमेश्वर का क्या स्तर है। यही कि एक पुरुष की एक ही पत्नी होनी चाहिए और वे दोनों ‘एक तन’ होंगे। इसके अलावा, उसने यह वाकया भी ज़रूर सुना होगा कि जब अबीमेलेक को पता चला कि रिबका शादीशुदा है, तो उसने क्या सोचा। उसने सोचा कि अगर कोई रिबका के साथ संबंध रखेगा तो यह पाप होगा और इसका दोष उसके लोगों पर आएगा। इस वाकये के आखिर में जो नतीजा निकला, उस पर परमेश्वर ने आशीष दी। इस तरह, यहोवा ने उजागर किया कि व्यभिचार के बारे में उसका नज़रिया क्या है। इन बीती घटनाओं से वाकिफ होने की वजह से, यूसुफ के ज़मीर ने और भी बुलंद आवाज़ में उसे लैंगिक अनैतिकता को ठुकराने के लिए कहा होगा।—उत्पत्ति 2:24; 12:17-19; 20:1-18; 26:7-14.
17. पिता यहोवा के जैसे बनने के लिए हमारे पास ऐसी क्या चीज़ है, जो यूसुफ के पास नहीं थी?
17 यूसुफ की तुलना में, आज हमारे लिए अपने विवेक को तालीम देना और भी आसान है। क्यों? क्योंकि हमारे पास पूरी बाइबल है, जिससे हम अपने पिता की सोच और भावनाओं के बारे में जान सकते हैं। और यह भी कि वह किन कामों को मंज़ूरी देता है और किन कामों की मनाही करता है। इसलिए हम जितना ज़्यादा बाइबल का अध्ययन करेंगे, उतना ज़्यादा हम परमेश्वर के करीब आएँगे और उसके जैसे बनेंगे। जब हम ऐसा करेंगे, तो हमारे अंदर की आवाज़ और भी करीबी से हमारे पिता की सोच से मेल खाएगी। और हमारा विवेक ज़्यादा अच्छी तरह हमें उसकी मरज़ी के मुताबिक आवाज़ देगा।—इफिसियों 5:1-5.
18. बीते कल के असर के बावजूद, हम अपने ज़मीर को ज़्यादा भरोसेमंद कैसे बना सकते हैं?
18 लेकिन संस्कृति या माहौल का हमारे विवेक पर जो असर होता है, उसके बारे में क्या कहा जा सकता है? हो सकता है, हमारे रिश्तेदारों की सोच और उनके कामों, या फिर हम जिस माहौल में पले-बढ़े, उनका हम पर असर हुआ हो। इसलिए हमारे विवेक ने हमें साफ आवाज़ न दी हो या फिर हमें गलत राह पर ले गया हो। यह ऐसा था मानो हमारे विवेक ने उसी “लहज़े” में बात की हो, जिस लहज़े में हमारे आस-पास के लोग बात करते थे। यह सच है कि हम अपने बीते कल को नहीं बदल सकते। मगर हाँ, आज हम सही लोगों के साथ संगति करने और एक बढ़िया माहौल का चुनाव करने की ज़रूर ठान सकते हैं, जिनका हमारे ज़मीर पर अच्छा असर हो। इसके लिए एक ज़रूरी कदम है कि हम नियमित तौर पर उन वफादार मसीहियों के साथ संगति करें, जो लंबे अरसे से पिता यहोवा की तरह बनने की कोशिश कर रहे हैं। इस तरह की संगति करने का बढ़िया मौका हमें कलीसिया की सभाओं के दौरान, साथ ही उनके शुरू होने से पहले और खत्म होने के बाद मिलता है। मसीही भाई-बहनों के साथ मेल-जोल रखते वक्त, हम ध्यान दे सकते हैं कि वे कैसे बाइबल में लिखी बातों के मुताबिक सोचते हैं और काम करते हैं। हम यह भी गौर कर सकते हैं कि जब उनका ज़मीर उन्हें परमेश्वर के जैसा नज़रिया अपनाने और उसके मार्गों पर चलने को कहता है, तो वे कैसे राज़ी-खुशी उसकी बात मानते हैं। वक्त के गुज़रते, इस तरह की संगति से हम भी बाइबल के सिद्धांतों के मुताबिक अपने ज़मीर को ढाल पाएँगे, साथ ही हम और भी बेहतर तरीके से परमेश्वर के जैसे गुण दिखा पाएँगे। अगर हम ऐसा करें और अपने संगी मसीहियों का हम पर अच्छा असर होने दें, तो हमारा ज़मीर ज़्यादा भरोसेमंद साबित होगा और उसकी आवाज़ को मानना हमारे लिए और भी आसान होगा।—यशायाह 30:21.
19. हमारे विवेक से जुड़ी और किन बातों पर हमें ध्यान देने की ज़रूरत है?
19 फिर भी, कुछ लोगों को हर दिन अपने विवेक के मुताबिक काम करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता है। अगले लेख में कुछ ऐसे हालात बताए गए हैं, जिनका मसीहियों को सामना करना पड़ता है। उन हालात की जाँच करने पर, हम और भी साफ देख पाएँगे कि हमारी ज़िंदगी में विवेक की क्या भूमिका है, लोगों का विवेक एक-दूसरे से क्यों अलग हो सकता है और हम कैसे अपने विवेक के मुताबिक और भी अच्छी तरह काम कर सकते हैं।—इब्रानियों 6:11, 12. (w07 10/15)
[फुटनोट]
a इसी से मिलती-जुलती बात ओवन गिंगरिच ने भी लिखी, जो हावर्ड यूनिवर्सिटी में खगोल-विज्ञान के खोजकर्ता और प्रोफेसर हैं। उन्होंने लिखा: ‘जीव-जंतु का अध्ययन करने से हमें शायद ही इस सवाल का जवाब मिले कि इंसानों में एक-दूसरे के लिए परवाह दिखाने की फितरत क्यों होती है। क्योंकि इसका सही जवाब यह है कि परमेश्वर ने हमें कई खूबियों के साथ बनाया है और उनमें से एक है, हमारा विवेक (सही-गलत की समझ)।’
आपने क्या सीखा?
• सभी संस्कृति के लोगों में सही-गलत की समझ यानी ज़मीर क्यों है?
• हमेशा अपने विवेक की दिखायी राह पर चलने से हमें क्यों खबरदार रहना चाहिए?
• अपने अंदर की आवाज़ को सुधारने के कुछ तरीके क्या हैं?
[पेज 8 पर तसवीर]
हम अपने विवेक को तालीम दे सकते हैं