आपकी सोच कौन ढालता है?
“इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो।”—रोमि. 12:2.
1, 2. (क) जब पतरस ने यीशु को खुद पर दया करने की सलाह दी, तो यीशु ने क्या कहा? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।) (ख) यीशु ने पतरस से ऐसा क्यों कहा?
यीशु के चेलों को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन्होंने सोचा कि यीशु इसराएल का राज दोबारा कायम करेगा, मगर वह तो कह रहा है कि बहुत जल्द उसे दुख सहना होगा और उसे मार डाला जाएगा। इस पर प्रेषित पतरस ने यीशु से कहा, “प्रभु खुद पर दया कर, तेरे साथ ऐसा कभी नहीं होगा।” यीशु ने उससे कहा, “अरे शैतान, मेरे सामने से दूर हो जा! तू मेरे लिए ठोकर की वजह है क्योंकि तेरी सोच परमेश्वर जैसी नहीं, बल्कि इंसानों जैसी है।”—मत्ती 16:21-23; प्रेषि. 1:6.
2 इस तरह यीशु ने साफ ज़ाहिर किया कि यहोवा की सोच और इस दुनिया की सोच में बहुत फर्क है, जो शैतान के कब्ज़े में पड़ी है। (1 यूह. 5:19) इस दुनिया में ज़्यादातर लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और पतरस ने यीशु को कुछ यही रवैया रखने का बढ़ावा दिया। लेकिन यीशु यहोवा की सोच जानता था। यहोवा चाहता था कि यीशु दुख और मौत सहने के लिए खुद को तैयार करे। यीशु ने पतरस से जो कहा, उससे साफ पता चलता है कि उसने यहोवा की सोच अपनायी और दुनिया की सोच पूरी तरह ठुकरा दी।
3. यहोवा की तरह सोचना मुश्किल क्यों है?
3 क्या हमारी सोच यहोवा की तरह है या दुनिया के लोगों की तरह? मसीही होने की वजह से हम ऐसे काम करने की कोशिश करते हैं, जिनसे यहोवा खुश होता है। लेकिन क्या हम यहोवा की तरह सोचने की पूरी कोशिश करते हैं यानी हर मामला उसकी नज़र से देखते हैं? ऐसा करना आसान नहीं है। वहीं दुनिया के लोगों की तरह सोचना बहुत आसान है, क्योंकि दुनिया की फितरत हवा की तरह चारों तरफ फैली हुई है। (इफि. 2:2) इतना ही नहीं, दुनिया के लोग अकसर स्वार्थी होते हैं, इसलिए शायद हम उनके जैसा सोचने लग सकते हैं। सच में, यहोवा की तरह सोचना बहुत मुश्किल है, लेकिन दुनिया के लोगों की तरह सोचना आसान है।
4. (क) दुनिया के मुताबिक अपनी सोच ढालने से क्या हो सकता है? (ख) हम इस लेख में किन बातों के बारे में जानेंगे?
4 अगर हम दुनिया के मुताबिक अपनी सोच ढालें, तो हम स्वार्थी बन सकते हैं। यही नहीं, शायद हम खुद ही तय करने लगें कि क्या सही है और क्या गलत। (मर. 7:21, 22) इस वजह से यह ज़रूरी है कि हम ‘इंसानों जैसी सोच’ नहीं, बल्कि ‘परमेश्वर जैसी सोच’ रखें। यही बात हम इस लेख में सीखेंगे। हम ऐसे कुछ कारणों पर गौर करेंगे कि मामलों को यहोवा की नज़र से देखना क्यों एक बंदिश नहीं, बल्कि फायदेमंद है। हम यह भी गौर करेंगे कि हम ऐसा क्या कर सकते हैं, ताकि हमारी सोच दुनिया के जैसी न हो। अगले लेख में हम जानेंगे कि कैसे हम कुछ मामलों पर यहोवा की सोच जान सकते हैं और उसके जैसी सोच रख सकते हैं।
यहोवा जैसी सोच रखना फायदेमंद है
5. कुछ लोग क्यों नहीं चाहते कि उनकी सोच पर किसी का भी असर हो?
5 कुछ लोग नहीं चाहते कि उनकी सोच पर किसी का भी असर हो। वे कहते हैं, “मुझे पता है कि मुझे क्या सोचना चाहिए।” वे शायद यह कहना चाहते हैं कि वे अपना फैसला खुद करना चाहते हैं और यह उनका हक है। वे नहीं चाहते कि कोई उन्हें बताए कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं या फिर उन पर ज़ोर डाले कि वे भी सबकी तरह बनें।a
6. (क) यहोवा ने हमें किस तरह की आज़ादी दी है? (ख) क्या हम जो चाहे वह कर सकते हैं?
6 एक अच्छी बात यह है कि यहोवा की सोच अपनाने का मतलब यह नहीं कि हमें कुछ भी करने की छूट नहीं। दूसरा कुरिंथियों 3:17 में लिखा है, “जहाँ यहोवा की पवित्र शक्ति है, वहाँ आज़ादी है।” यहोवा ने हमें यह तय करने की आज़ादी दी है कि हम कैसे इंसान बनना चाहेंगे। हम खुद चुन सकते हैं कि हमारी पसंद-नापसंद क्या होगी या हम कौन-से शौक रखेंगे। यहोवा ने हमें इसी तरह बनाया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम जो चाहे वह कर सकते हैं। (1 पतरस 2:16 पढ़िए।) जब हमें सही-गलत के मामले में फैसला करना होता है, तो यहोवा चाहता है कि हम उसके वचन के आधार पर फैसला करें। क्या ऐसा करना बंदिश है या फायदेमंद?
7, 8. क्या मामलों को यहोवा की नज़र से देखना बंदिश है? एक उदाहरण दीजिए।
7 ज़रा एक उदाहरण पर ध्यान दीजिए। माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे उसूल सिखाते हैं, जैसे ईमानदार होना, मेहनत करना और दूसरों का खयाल रखना। इन उसूलों पर चलना कोई बंदिश नहीं है। दरअसल इस तरह माता-पिता अपने बच्चों को ज़िंदगी में कामयाब होना सिखा रहे होते हैं। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं और अलग रहने लगते हैं, तब उन्हें अपने फैसले खुद करने होते हैं। अगर वे अपने माता-पिता के सिखाए उसूलों पर चलें, तो वे अच्छे फैसले कर पाएँगे। इससे वे बहुत-सी समस्याओं से बचेंगे, उन्हें ज़्यादा चिंताएँ नहीं होंगी और अपने फैसलों पर कोई पछतावा नहीं होगा।
8 अच्छे माता-पिता की तरह यहोवा भी चाहता है कि उसके बच्चे अपनी ज़िंदगी में कामयाब हों और खुश रहें। (यशा. 48:17, 18) इस वजह से वह हमें कुछ अहम सिद्धांत सिखाता है कि हमारा चालचलन और लोगों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होना चाहिए। वह चाहता है कि हम मामलों को उसकी नज़र से देखना सीखें और उसके सिद्धांतों पर चलें। ऐसा करना कोई बंदिश नहीं है। इसके बजाय इससे हम और भी समझदार बनेंगे। (भज. 92:5; नीति. 2:1-5; यशा. 55:9) हम सही फैसला कर पाएँगे और अपनी पसंद के हिसाब से जो करना चाहते हैं, वह भी कर पाएँगे। इससे हमें खुशी मिलेगी। (भज. 1:2, 3) वाकई यहोवा जैसी सोच रखने से बहुत-से फायदे होते हैं!
यहोवा की सोच सबसे बढ़कर है
9, 10. यहोवा की सोच दुनिया की सोच से बढ़कर क्यों है?
9 यहोवा के जैसी सोच रखने की एक और वजह यह है कि उसकी सोच दुनिया की सोच से कहीं बढ़कर है। यह दुनिया चालचलन के मामले में, परिवार को सुखी बनाने, अच्छा करियर बनाने और ज़िंदगी के दूसरे मामलों में बहुत-सी सलाह देती है। लेकिन ज़्यादातर सलाह यहोवा की सोच से बिलकुल अलग होती है। उदाहरण के लिए, यह बढ़ावा देती है कि लोगों को सिर्फ अपने बारे में सोचना चाहिए। दुनिया के हिसाब से लैंगिक अनैतिकता कोई गलत बात नहीं है। कई बार तो यह भी सलाह दी जाती है कि अगर शादीशुदा लोगों को लगे कि अलग होने या तलाक लेने से वे ज़्यादा खुश रहेंगे, तो उन्हें ऐसा कर लेना चाहिए, फिर चाहे इसका कोई वाजिब कारण न भी हो। ऐसी सोच बाइबल की शिक्षाओं से एकदम अलग है। लेकिन कई लोगों को लग सकता है कि आज कुछ मामलों में दुनिया की सलाह ज़्यादा फायदेमंद है। क्या यह सच है?
10 यीशु ने कहा था, “बुद्धि अपने कामों से सही साबित होती है।” (मत्ती 11:19) हालाँकि दुनिया ने तकनीकी क्षेत्र में काफी तरक्की की है, लेकिन जिन बड़ी-बड़ी समस्याओं की वजह से हमारी खुशी छिन गयी है, यह उनका कोई हल नहीं कर पायी है, जैसे, युद्ध, जाति-भेद और अपराध। इसके अलावा दुनिया का मानना है कि लैंगिक अनैतिकता में कोई बुराई नहीं। लेकिन बहुत-से लोग कबूल करते हैं कि इस वजह से परिवार तबाह हो जाते हैं, सेहत खराब होती है और लोगों को दूसरे बुरे अंजाम भुगतने पड़ते हैं। लेकिन यहोवा की सलाह मानने से क्या होता है? उसके सेवकों के परिवार ज़्यादा खुशहाल रहते हैं, उनकी सेहत अच्छी रहती है, यहाँ तक कि पूरी दुनिया में यहोवा के लोगों का आपसी रिश्ता अच्छा रहता है। (यशा. 2:4; प्रेषि. 10:34, 35; 1 कुरिं. 6:9-11) इससे साबित होता है कि यहोवा की सोच दुनिया की सोच से कहीं बढ़कर है।
11. मूसा ने किसके मुताबिक अपनी सोच ढाली थी और इसका नतीजा क्या निकला?
11 पुराने ज़माने में वफादार सेवक जानते थे कि यहोवा की सोच सबसे बढ़कर है। उदाहरण के लिए, “मूसा को मिस्रियों की हर तरह की शिक्षा दी गयी” थी, लेकिन वह जानता था कि बुद्धि यहोवा से ही मिलती है। (प्रेषि. 7:22; भज. 90:12) इस वजह से उसने यहोवा से कहा, “मुझे अपनी राहों के बारे में सिखा।” (निर्ग. 33:13) मूसा ने यहोवा के मुताबिक अपनी सोच ढाली थी, इसलिए यहोवा ने अपना मकसद पूरा करने के लिए उससे कई बढ़िया काम करवाए और उसके अनोखे विश्वास का ज़िक्र करके उसका सम्मान किया।—इब्रा. 11:24-27.
12. पौलुस ने अपने फैसले किस आधार पर किए?
12 प्रेषित पौलुस बुद्धिमान और काफी पढ़ा-लिखा था और कम-से-कम दो भाषाएँ बोलता था। (प्रेषि. 5:34; 21:37, 39; 22:2, 3) लेकिन उसने अपने ज़माने की बुद्धि का सहारा नहीं लिया। इसके बजाय उसने शास्त्र के आधार पर तर्क किया और उसके हिसाब से फैसले लिए। (प्रेषितों 17:2; 1 कुरिंथियों 2:6, 7, 13 पढ़िए।) इस वजह से उसे परमेश्वर की सेवा में बहुत कामयाबी मिली और वह उस इनाम पर आस लगाए रख पाया, जो हमेशा कायम रहेगा।—2 तीमु. 4:8.
13. यहोवा के मुताबिक अपनी सोच ढालने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
13 इन सब बातों से पता चलता है कि परमेश्वर की सोच दुनिया की सोच से कहीं बढ़कर है। परमेश्वर के स्तरों पर चलने से हम खुश रहेंगे और हमें ज़िंदगी में कामयाबी मिलेगी। लेकिन यहोवा हमसे उसकी तरह सोचने के लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं करता। “विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास” और प्राचीन भी ऐसा नहीं करते। (मत्ती 24:45; 2 कुरिं. 1:24) हमें खुद यहोवा के मुताबिक अपनी सोच ढालनी होगी। यह हम कैसे कर सकते हैं?
इस दुनिया के मुताबिक अपनी सोच मत ढालिए
14, 15. (क) मामलों को यहोवा की नज़र से देखने के लिए हमें किन बातों पर सोचना चाहिए? (ख) हमें अपने दिमाग में दुनियावी सोच क्यों नहीं भरनी चाहिए? एक उदाहरण दीजिए।
14 रोमियों 12:2 में लिखा है, “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद करो, मगर नयी सोच पैदा करो ताकि तुम्हारी कायापलट होती जाए। तब तुम परखकर खुद के लिए मालूम करते रहोगे कि परमेश्वर की भली, उसे भानेवाली और उसकी परिपूर्ण इच्छा क्या है।” इस आयत से पता चलता है कि सच्चाई सीखने से पहले चाहे जैसे भी हमारी सोच ढल गयी हो, हम उसे बदल सकते हैं और परमेश्वर जैसी सोच रख सकते हैं। हालाँकि हमारी सोच पर काफी हद तक हमारी अनुवांशिक बनावट (जीन्स) और ज़िंदगी के तजुरबे का असर होता है, फिर भी हमारी सोच बदल सकती है। जिन बातों के बारे में हम सोचते हैं, उसके आधार पर हमारी सोच बदलती है। अगर हम गहराई से सोचें कि किसी मामले में यहोवा का नज़रिया क्या है, तो हमारा यकीन बढ़ जाएगा कि उसका नज़रिया हमेशा सही होता है। तब हमारा मन करेगा कि हम हर मामले को यहोवा की नज़र से देखें।
15 लेकिन अपनी सोच यहोवा के मुताबिक ढालने के लिए ज़रूरी है कि हम “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना बंद” करें। इसका मतलब है कि हम ऐसी हर चीज़ देखना, पढ़ना और सुनना बंद कर दें, जो परमेश्वर की सोच से बिलकुल अलग है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए। एक व्यक्ति सेहतमंद रहने के लिए फैसला करता है कि वह पौष्टिक खाना खाएगा। लेकिन अगर इसके साथ वह उलटा-सीधा खाना भी खाता रहे, तो पौष्टिक खाने से कोई फायदा नहीं होगा। उसी तरह अगर हम दुनियावी सोच अपने दिमाग में भरें, तो यहोवा की सोच अपनाने की हम चाहे जितनी भी कोशिश करें, उसका कोई फायदा नहीं होगा।
16. हमें किस बात से खुद को बचाना चाहिए?
16 क्या हम दुनियावी सोच से पूरी तरह बच सकते हैं? नहीं, क्योंकि हम इस दुनिया से कहीं बाहर नहीं जा सकते। हमें हर दिन थोड़ा-बहुत दुनिया की सोच से रू-ब-रू होना पड़ता है। (1 कुरिं. 5:9, 10) कई बार प्रचार करते वक्त भी हमें गलत विचार या झूठी शिक्षाएँ सुनने को मिल जाती हैं। हम गलत सोच से पूरी तरह बच तो नहीं सकते, लेकिन हम यह ज़रूर कर सकते हैं कि उस बारे में सोचते न रहें, न ही उसे सही मानें। यीशु की तरह हमें शैतान की सोच को फौरन ठुकराना चाहिए। इसके अलावा हमें बेवजह ऐसे हालात में नहीं पड़ना चाहिए, जिनमें हम पर दुनियावी सोच का असर हो सकता है। (नीतिवचन 4:23 पढ़िए।) ऐसे कुछ हालात क्या हो सकते हैं?
17. हम उन हालात से कैसे बच सकते हैं, जिनमें हम पर दुनियावी सोच का असर हो सकता है?
17 हमें सोच-समझकर दोस्त बनाने चाहिए। बाइबल हमें आगाह करती है कि अगर हम यहोवा की उपासना न करनेवालों से दोस्ती करें, तो हम उनकी तरह सोचने लगेंगे। (नीति. 13:20; 1 कुरिं. 15:12, 32, 33) हमें मनोरंजन भी सोच-समझकर करना चाहिए। हमें ऐसा मनोरंजन नहीं करना चाहिए, जो विकासवाद, हिंसा और अनैतिकता को बढ़ावा देता है। ये बातें “परमेश्वर के ज्ञान के खिलाफ” हैं और ज़हर की तरह हैं, जिन्हें हमें अपने दिमाग में नहीं भरना चाहिए।—2 कुरिं. 10:5.
18, 19. (क) उन बातों से सावधान रहना क्यों ज़रूरी है, जिनमें दुनियावी सोच आसानी से पता नहीं चलती? (ख) हमें खुद से कौन-से सवाल करने चाहिए और क्यों?
18 कई बार कुछ बातें ऐसे पेश की जाती हैं, जिनमें दुनियावी सोच आसानी से पता नहीं चलती। हमें ऐसी सोच भाँपनी चाहिए और उसे ठुकराना चाहिए। जैसे, कुछ खबरें ऐसे पेश की जाती हैं, जिनमें दरअसल राजनैतिक विचारों का समर्थन किया जाता है। कुछ खबरों में ऐसी कहानियाँ दी जाती हैं, जिनमें दुनियावी लक्ष्यों और कामयाबियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है। कुछ फिल्मों और किताबों में बढ़ावा दिया जाता है कि पहले खुद के और अपने परिवार के बारे में सोचो। उनमें ये बातें इस तरह पेश की जाती हैं कि सुनने या पढ़ने में बहुत अच्छी लगती हैं, समझदारी की और यहाँ तक कि सही लगती हैं। लेकिन ये बातें बाइबल के मुताबिक नहीं हैं। बाइबल बताती है कि हम और हमारा परिवार तभी सच में खुश हो सकता है, जब हम सबसे पहले यहोवा से प्यार करेंगे। (मत्ती 22:36-39) इन सबके अलावा, बच्चों की ज़्यादातर कहानियाँ तो ठीक होती हैं, लेकिन कुछ कहानियाँ पढ़कर या देखकर बच्चों को गलत काम सही लगने लग सकते हैं।
19 इसका मतलब यह नहीं कि हम अच्छा मनोरंजन नहीं कर सकते। लेकिन हमें खुद से पूछना चाहिए, ‘जब किसी मनोरंजन में दुनियावी सोच सीधे-सीधे पेश नहीं की जाती, तो क्या मैं उसे भाँप लेता हूँ? क्या मैं खुद को और अपने बच्चों को इस तरह के टीवी कार्यक्रम देखने और किताबें-पत्रिकाएँ पढ़ने से रोकता हूँ? क्या मैं अपने बच्चों को कुछ मामलों में यहोवा का नज़रिया रखने में मदद करता हूँ, ताकि वे जो देखते और सुनते हैं, उससे उन पर दुनियावी सोच का असर न हो?’ अगर हम परमेश्वर की सोच और दुनिया की सोच में फर्क समझ पाएँगे, तो हम “इस दुनिया की व्यवस्था के मुताबिक खुद को ढालना” बंद कर सकेंगे।
आपकी सोच कौन ढाल रहा है?
20. यह किस बात से तय होता है कि हमारी सोच कौन ढाल रहा है?
20 हमें याद रखना चाहिए कि जानकारी पाने के सिर्फ दो ही स्रोत हैं, एक यहोवा और दूसरा शैतान की दुनिया। आपको क्या लगता है, आपकी सोच कौन ढाल रहा है? इसका जवाब होगा, वही जिससे आप जानकारी लेते हैं। अगर हम दुनिया के विचार स्वीकार करें, तो हमारी सोच दुनिया ढालेगी और हम उसके लोगों की तरह सोचेंगे और काम करेंगे। इस वजह से हमें ध्यान देना चाहिए कि हम किन बातों पर सोचते रहते हैं।
21. अगले लेख में हम क्या सीखेंगे?
21 इस लेख में हमने सीखा कि यहोवा के जैसा नज़रिया रखने के लिए हमें दुनिया की सोच से दूर रहना होगा। हमें परमेश्वर की सोच के बारे में भी मनन करना चाहिए, ताकि हमारी सोच और भी ज़्यादा उसके जैसी हो सके। अगले लेख में हम सीखेंगे कि यह हम कैसे कर सकते हैं।
a सच तो यह है कि जो हर बात में अपनी मन-मरज़ी करता है, उस पर भी किसी-न-किसी का असर होता है। उदाहरण के लिए, चाहे हम कोई बड़ी बात सोच रहे हों जैसे इंसान की शुरूआत कैसे हुई या फिर कोई छोटी बात जैसे क्या पहनना है, सब मामलों में दूसरों की राय या उनकी सोच का हम पर थोड़ा-बहुत असर होता है। लेकिन यह हमारे हाथ में है कि हम खुद पर किसकी सोच का असर होने देंगे।