अध्याय 4
यहोवा अपने नाम को ऊँचा करता है
1, 2. नयी दुनिया अनुवाद कैसे परमेश्वर के नाम को ऊँचा उठाता है?
मंगलवार, 2 दिसंबर, 1947 की सुहानी सुबह न्यू यॉर्क के ब्रुकलिन बेथेल में अभिषिक्त भाइयों के एक छोटे-से समूह ने एक भारी ज़िम्मेदारी हाथ में ली। यह ऐसा काम था जिसमें बहुत मेहनत लगती और जिसे बड़े ध्यान से करना था। फिर भी अगले 12 साल तक वे इस काम में लगे रहे। यह काम था बाइबल का एक नया अनुवाद तैयार करना। आखिरकार रविवार, 13 मार्च, 1960 को उन्होंने यह काम पूरा कर लिया। तीन महीने बाद 18 जून, 1960 को भाई नेथन नॉर ने इंग्लैंड के मैनचैस्टर शहर में एक अधिवेशन में घोषणा की कि पवित्र शास्त्र का नयी दुनिया अनुवाद का आखिरी खंड, यानी अँग्रेज़ी में पूरी बाइबल निकाली गयी है। अधिवेशन में हाज़िर लोग इसे पाकर फूले न समाए! भाई नॉर ने कहा, ‘आज का दिन पूरे संसार में रहनेवाले यहोवा के साक्षियों के लिए एक खुशी का दिन है!’ अधिवेशन में हाज़िर लोग भी ऐसा ही महसूस कर रहे थे। इस नए अनुवाद की एक खासियत यह थी कि इसमें परमेश्वर का नाम बहुत बार आता है और यही उनके खुश होने की एक खास वजह थी।
2 बाइबल के कई अनुवादों में परमेश्वर का नाम नहीं दिया गया है। यह शैतान की एक साज़िश है, वह नहीं चाहता कि कोई भी इंसान परमेश्वर का नाम जाने। मगर यहोवा के अभिषिक्त सेवकों ने उसकी साज़िश को नाकाम करने के लिए यह कदम उठाया। उस दिन निकाली गयी बाइबल नयी दुनिया अनुवाद के ‘दो शब्द’ में लिखा है, “इस अनुवाद की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें परमेश्वर का नाम उन सभी जगहों पर डाला गया है जहाँ यह होना चाहिए।” नयी दुनिया अनुवाद में यहोवा नाम 7,000 से ज़्यादा बार आता है। वाकई, इस अनुवाद ने बेजोड़ तरीके से हमारे पिता यहोवा के नाम को ऊँचा उठाया है!
3. (क) हमारे भाई परमेश्वर के नाम के मतलब के बारे में क्या समझ पाए? (ख) निर्गमन 3:13, 14 का क्या मतलब है? (यह बक्स देखें: “परमेश्वर के नाम का मतलब।”)
3 शुरू में बाइबल विद्यार्थी सोचते थे कि परमेश्वर के नाम का मतलब है, “मैं जो हूं सो हूं।” (निर्ग. 3:14, हिंदी–ओ.वी.) इसलिए 1 जनवरी, 1926 की प्रहरीदुर्ग में लिखा था, ‘नाम यहोवा सूचित करता है कि परमेश्वर का न तो कोई आरंभ है, न अंत।’ लेकिन जब नयी दुनिया अनुवाद के अनुवादकों ने अपना काम शुरू किया तब तक यहोवा ने अपने लोगों को यह समझने में मदद दी कि उसके नाम का मतलब सिर्फ यह नहीं कि उसकी कोई शुरूआत और अंत नहीं है, बल्कि खास तौर से यह मतलब है कि वह ऐसा परमेश्वर है जिसका एक महान मकसद है और उसे पूरा करने के लिए वह कदम उठाता है। यहोवा के लोगों ने जाना कि यहोवा नाम का शाब्दिक मतलब है, “वह बनने का कारण होता है।” जी हाँ, उसने पूरे विश्व की और इंसानों और स्वर्गदूतों की सृष्टि की है (या उनके बनने का कारण हुआ)। साथ ही, समय के गुज़रते वह ऐसे कदम उठाता आया है जिससे उसका मकसद पूरा हो। मगर परमेश्वर के नाम की महिमा करना क्यों इतना ज़रूरी है और हम भी इसमें कैसे हिस्सा ले सकते हैं?
परमेश्वर का नाम पवित्र किया जाए
4, 5. (क) जब हम प्रार्थना करते हैं, “तेरा नाम पवित्र किया जाए” तो हम दरअसल क्या बिनती कर रहे होते हैं? (ख) परमेश्वर कब और कैसे अपने नाम को पवित्र करेगा?
4 यहोवा चाहता है कि उसके नाम को ऊँचा उठाया जाए। दरअसल, उसका खास मकसद यही है कि उसका नाम पवित्र किया जाए, ठीक जैसे यीशु की आदर्श प्रार्थना की पहली बिनती में कहा गया है, “तेरा नाम पवित्र किया जाए।” (मत्ती 6:9) जब हम यह प्रार्थना करते हैं तो हम असल में क्या बिनती कर रहे होते हैं?
5 जैसे हमने अध्याय 1 में सीखा, यीशु की आदर्श प्रार्थना की शुरू की तीन बिनतियाँ यहोवा के मकसद से जुड़ी हैं। एक बिनती है, “तेरा नाम पवित्र किया जाए” और बाकी दो बिनतियाँ हैं, ‘तेरा राज आए। तेरी मरज़ी पूरी हो।’ (मत्ती 6:10) जैसे हम यहोवा से कदम उठाने के लिए बिनती करते हैं ताकि उसका राज आए और उसकी मरज़ी पूरी हो, वैसे ही हम यहोवा से बिनती करते हैं कि वह अपने नाम को पवित्र करने के लिए कदम उठाए। दूसरे शब्दों में कहें तो हम यहोवा से बिनती करते हैं कि अदन में हुई बगावत के समय से उसके नाम पर जो कलंक लगाया गया है उसे मिटाने के लिए वह कदम उठाए। यहोवा हमारी प्रार्थना का कैसे जवाब देगा? वह कहता है, “मैं अपने महान नाम को ज़रूर पवित्र करूँगा, जिसका तुमने दूसरे राष्ट्रों के बीच अपमान किया था।” (यहे. 36:23; 38:23) हर-मगिदोन में यहोवा दुष्टता को मिटाकर पूरी सृष्टि के सामने अपना नाम पवित्र करेगा।
6. हम परमेश्वर का नाम पवित्र करने में कैसे हिस्सा ले सकते हैं?
6 शुरू से अब तक यहोवा ने अपने सेवकों को मौका दिया है कि वे भी उसका नाम पवित्र करने में हिस्सा लें। यह सच है कि परमेश्वर का नाम पहले से पूरी तरह पवित्र है, हम उसे और ज़्यादा पवित्र नहीं कर सकते। तो फिर किस मायने में हम इसे पवित्र कर सकते हैं? यशायाह ने कहा, “याद रखो, सेनाओं का परमेश्वर यहोवा पवित्र है।” और यहोवा ने खुद अपने लोगों के बारे में कहा, ‘वे मेरे नाम का आदर करेंगे और इसराएल के परमेश्वर के लिए श्रद्धा से भर जाएँगे।’ (यशा. 8:13; 29:23) यहोवा पवित्र है, यह याद रखने का मतलब है यह मानना कि यहोवा का नाम हर नाम से अलग और ऊँचा है, वह नाम जिन बातों को दर्शाता है उन्हें ध्यान में रखते हुए उसका आदर करना और उसके नाम को पवित्र मानने में दूसरों की मदद करना। परमेश्वर के नाम के लिए श्रद्धा दिखाने का एक खास तरीका है, यहोवा को अपना राजा मानना और पूरे दिल से उसकी आज्ञाओं को मानना।—नीति. 3:1; प्रका. 4:11.
परमेश्वर के नाम से पहचाने जाने और उस नाम की महिमा करने के लिए तैयार
7, 8. (क) परमेश्वर के लोगों को उसके नाम से पहचाने जाने में क्यों समय लगा? (ख) अब हम किस बात पर ध्यान देंगे?
7 सन् 1870 के बाद से परमेश्वर के सेवक उसका नाम अपनी किताबों-पत्रिकाओं में इस्तेमाल करते आए हैं। मिसाल के लिए, अगस्त 1879 की प्रहरीदुर्ग में और उसी साल प्रकाशित अँग्रेज़ी गीत-पुस्तक दुल्हन के गीत में यहोवा नाम का ज़िक्र किया गया था। फिर भी ऐसा लगता है कि यहोवा ने उन्हें उसके पवित्र नाम से पहचाने जाने का सम्मान नहीं दिया, क्योंकि वह चाहता था कि पहले वे इस बड़े सम्मान के काबिल बनें। यहोवा ने शुरू के उन बाइबल विद्यार्थियों को इस सम्मान के काबिल कैसे बनाया?
8 अगर हम सन् 1900 से कुछ साल पहले और कुछ साल बाद के इतिहास पर नज़र डालें तो पाते हैं कि यहोवा ने कैसे अपने लोगों को उसके नाम से जुड़ी अहम सच्चाइयाँ समझने में मदद दी। आइए ऐसी तीन सच्चाइयों पर ध्यान दें।
9, 10. (क) शुरू के प्रहरीदुर्ग के लेखों में ज़्यादातर यीशु के बारे में क्यों बताया जाता था? (ख) 1919 से क्या बदलाव आया और इसका क्या नतीजा हुआ? (यह बक्स भी देखें: “प्रहरीदुर्ग ने कैसे परमेश्वर के नाम को ऊँचा उठाया।”)
9 पहली सच्चाई, यहोवा के सेवक ठीक-ठीक समझ पाए कि उसके नाम को कितनी अहमियत दी जानी चाहिए। शुरू के वफादार बाइबल विद्यार्थी मानते थे कि फिरौती का इंतज़ाम बाइबल की सबसे अहम शिक्षा है। इसीलिए प्रहरीदुर्ग में ज़्यादातर यीशु के बारे में बताया जाता था। मिसाल के लिए, जिस साल यह पत्रिका प्रकाशित होने लगी उस साल उसके लेखों में यीशु का ज़िक्र यहोवा से 10 गुना ज़्यादा बार किया गया था। उन बाइबल विद्यार्थियों के बारे में 15 मार्च, 1976 की प्रहरीदुर्ग में कहा गया कि वे यीशु को “अधिक महत्त्व देते थे।” लेकिन कुछ समय बाद यहोवा ने यह समझने में उनकी मदद की कि बाइबल में उसके नाम को सबसे ज़्यादा अहमियत दी गयी है। यह बात जानकर बाइबल विद्यार्थियों ने क्या किया? प्रहरीदुर्ग का वही लेख बताता है कि खासकर 1919 से “वे मसीहा के पिता यहोवा का, जो स्वर्ग में रहता है, अधिक सम्मान करने लगे।” सन् 1920 से 1929 में प्रहरीदुर्ग में परमेश्वर का नाम 6,500 से भी ज़्यादा बार आया।
10 यहोवा के नाम को जितना सम्मान देना चाहिए उतना सम्मान देकर हमारे भाइयों ने दिखाया कि उन्हें वह नाम कितना अज़ीज़ है। पुराने ज़माने के मूसा की तरह वे भी “यहोवा के नाम का ऐलान” करने के लिए तैयार हो गए। (व्यव. 32:3; भज. 34:3) यहोवा ने गौर किया कि वे उसके नाम से कितना प्यार करते हैं, इसलिए उसने उन्हें आशीष दी, ठीक जैसे उसने शास्त्र में वादा किया था।—भज. 119:132; इब्रा. 6:10.
11, 12. (क) 1919 के फौरन बाद, हमारे प्रकाशनों में क्या बदलाव आया? (ख) यहोवा अपने सेवकों का ध्यान किस बात की तरफ खींच रहा था और क्यों?
11 दूसरी सच्चाई, सच्चे मसीही ठीक-ठीक समझ पाए कि परमेश्वर ने उन्हें क्या काम सौंपा है। सन् 1919 के कुछ ही समय बाद, अगुवाई करनेवाले अभिषिक्त भाइयों ने यशायाह की भविष्यवाणी का अध्ययन किया। इसके बाद से हमारे प्रकाशनों में प्रचार काम पर ज़ोर दिया जाने लगा। यह कैसे साबित हुआ कि यह बदलाव ‘सही वक्त पर दिया गया खाना’ था?—मत्ती 24:45.
12 सन् 1919 से पहले प्रहरीदुर्ग में यशायाह की किताब में लिखी इस बात पर ज़्यादा चर्चा नहीं की गयी थी: “यहोवा ऐलान करता है, ‘तुम मेरे साक्षी हो, हाँ, मेरा वह सेवक, जिसे मैंने चुना है।’” (यशायाह 43:10-12 पढ़िए।) मगर 1919 के कुछ ही समय बाद से हमारे प्रकाशनों में उन आयतों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाने लगा और सभी अभिषिक्त जनों को बढ़ावा दिया गया कि वे उस काम में हिस्सा लें जो यहोवा ने उन्हें सौंपा है, यानी उसके बारे में लोगों को गवाही दें। अगर 1925 से 1931 के सालों की ही बात करें तो उस दौरान प्रहरीदुर्ग के 57 अंकों में यशायाह के अध्याय 43 पर चर्चा की गयी और हर अंक में बताया गया कि यशायाह के शब्द सच्चे मसीहियों पर लागू होते हैं। यह साफ ज़ाहिर था कि उन सालों के दौरान यहोवा अपने सेवकों का ध्यान उस काम की तरफ खींच रहा था जो उन्हें करना था। क्यों? ताकि एक तरह से “पहले उन्हें परखा जाए कि वे योग्य हैं या नहीं।” (1 तीमु. 3:10) परमेश्वर के नाम से पहचाने जाने से पहले बाइबल विद्यार्थियों को अपने कामों से यहोवा को सबूत देना था कि वे वाकई उसके साक्षी हैं।—लूका 24:47, 48.
13. बाइबल में सबसे अहम मसले के बारे में कैसे बताया गया है?
13 तीसरी सच्चाई, यहोवा के लोग समझ पाए कि परमेश्वर के नाम को पवित्र करना कितना ज़रूरी है। सन् 1920 से 1930 के बीच उन्होंने जाना कि परमेश्वर के नाम को पवित्र करना सबसे अहम मसला है जिसे सुलझाया जाएगा। बाइबल में यह ज़बरदस्त सच्चाई कैसे बतायी गयी है? दो वाकयों पर गौर कीजिए। परमेश्वर ने जब इसराएल को मिस्र से छुड़ाया तो इसकी सबसे बड़ी वजह क्या थी? यहोवा ने कहा, ‘ताकि पूरी धरती पर अपने नाम का ऐलान करा सकूँ।’ (निर्ग. 9:16) और जब इसराएलियों ने यहोवा से बगावत की तो बाद में उसने उन पर दया क्यों की? एक बार फिर यहोवा ने वही वजह बतायी: ‘मैंने अपने नाम की खातिर ऐसा किया कि जातियों के सामने मेरे नाम का अपमान न हो।’ (यहे. 20:8-10) बाइबल विद्यार्थियों ने ऐसे वाकयों से क्या सीखा?
14. (क) 1925 के बाद परमेश्वर के लोग क्या समझ पाए? (ख) बाइबल विद्यार्थियों ने जो गहरी समझ हासिल की उसका प्रचार काम पर क्या असर हुआ? (यह बक्स भी देखें: “प्रचार करने की ज़बरदस्त वजह।”)
14 सन् 1930 से कुछ साल पहले परमेश्वर के लोगों ने करीब 2,700 साल पहले यशायाह की कही एक बात का मतलब समझा। उसने यहोवा के बारे में कहा था, “इस तरह तूने अपने लोगों का मार्गदर्शन किया कि तेरा नाम गौरवशाली ठहरे।” (यशा. 63:14) बाइबल विद्यार्थी समझ पाए कि इंसानों का उद्धार नहीं बल्कि परमेश्वर के नाम का पवित्र किया जाना ही सबसे अहम मसला है। (यशा. 37:20; यहे. 38:23) इस सच्चाई का निचोड़ देते हुए 1929 में प्रकाशित अँग्रेज़ी किताब भविष्यवाणी ने कहा, “सारी सृष्टि के सामने यहोवा के नाम को पवित्र करना ही सबसे महत्त्वपूर्ण विषय है।” इस तरह जब परमेश्वर के सेवकों की समझ में सुधार किया गया तो उनमें और जोश भर आया कि वे यहोवा के बारे में गवाही दें और उसके नाम पर लगा कलंक मिटाने में हिस्सा लें।
15. (क) 1930 के कुछ समय बाद हमारे भाई क्या समझ पाए? (ख) किस बात का समय आ गया था?
15 सन् 1930 के कुछ समय बाद हमारे भाई समझ पाए कि परमेश्वर के नाम को कितनी अहमियत दी जानी चाहिए, उन्हें क्या काम सौंपा गया है और परमेश्वर का नाम पवित्र करना कितना ज़रूरी है। अब यहोवा का समय आ गया था कि वह अपने सेवकों को सरेआम उसके नाम से पहचाने जाने का सम्मान दे। यह कैसे हुआ, इसे जानने के लिए आइए गुज़रे वक्त की कुछ घटनाओं पर नज़र डालें।
यहोवा ऐसे लोगों को चुनता है जो ‘उसके नाम से पहचाने जाते’ हैं
16. (क) यहोवा किस खास तरीके से अपने नाम को ऊँचा उठाता है? (ख) कौन सबसे पहले परमेश्वर के नाम से जाने गए?
16 यहोवा एक खास तरीके से अपने नाम को ऊँचा उठाता है। वह धरती पर ऐसे लोगों को चुनता है जो उसके नाम से पहचाने जाते हैं। ईसा पूर्व 1513 से इसराएली यहोवा के लोगों के तौर पर पहचाने गए। (यशा. 43:12) मगर उन्होंने उस करार की शर्तें नहीं मानीं जो परमेश्वर और उनके बीच हुआ था। इसलिए ईसवी सन् 33 में यहोवा के साथ उनका खास रिश्ता टूट गया। कुछ समय बाद यहोवा ने “गैर-यहूदी राष्ट्रों की तरफ ध्यान दिया ताकि उनके बीच से ऐसे लोगों को इकट्ठा करे जो परमेश्वर के नाम से पहचाने जाएँ।” (प्रेषि. 15:14) यहोवा ने जिस नए राष्ट्र को चुना वह ‘परमेश्वर का इसराएल’ कहलाया। यह राष्ट्र अलग-अलग देशों में रहनेवाले अभिषिक्त चेलों से मिलकर बना है।—गला. 6:16.
17. शैतान किस साज़िश में कामयाब रहा?
17 करीब ईसवी सन् 44 में मसीह के चेले ‘परमेश्वर के मार्गदर्शन से “मसीही” कहलाए।’ (प्रेषि. 11:26) शुरू में इस नाम से उनकी अलग पहचान होती थी क्योंकि यह नाम सिर्फ सच्चे मसीहियों के लिए इस्तेमाल होता था। (1 पत. 4:16) मगर जैसे गेहूँ और जंगली पौधों के बारे में यीशु की मिसाल से पता चलता है, शैतान ने यह साज़िश रची कि सभी नकली मसीहियों को भी मसीही पुकारा जाए और वह इसमें कामयाब हो गया। सदियों तक सच्चे मसीही झूठे मसीहियों से अलग नज़र नहीं आए। लेकिन 1914 में जब “कटाई का समय” शुरू हुआ तो वे तब से अलग नज़र आने लगे। क्यों? क्योंकि स्वर्गदूत नकली मसीहियों को सच्चे मसीहियों से अलग करने लगे।—मत्ती 13:30, 39-41.
18. हमारे भाइयों को कैसे एहसास हुआ कि उन्हें एक नया नाम अपनाना चाहिए?
18 सन् 1919 में विश्वासयोग्य दास ठहराया गया और इसके बाद यहोवा ने यह समझने में अपने लोगों की मदद की कि उसने उन्हें क्या काम सौंपा है। वे फौरन समझ गए कि घर-घर का प्रचार काम उन्हें सभी नकली मसीहियों से अलग दिखाता है। तब उन्हें एहसास हुआ कि “बाइबल विद्यार्थी” कहलाने से उनकी एक अलग पहचान नहीं होगी। उनके जीवन का खास मकसद सिर्फ बाइबल का अध्ययन करना नहीं है बल्कि परमेश्वर के बारे में गवाही देना और उसके नाम का सम्मान करना है। इस काम को ध्यान में रखते हुए उनके लिए कौन-सा नाम सही होता? इसका जवाब 1931 में मिल गया।
19, 20. (क) 1931 के अधिवेशन में कौन-सा रोमांचक प्रस्ताव पेश किया गया? (ख) हमारे नए नाम के बारे में सुनकर भाइयों को कैसा लगा?
19 जुलाई 1931 में करीब 15,000 बाइबल विद्यार्थी अमरीकी राज्य ओहायो के कोलंबस शहर में एक अधिवेशन के लिए आए। कार्यक्रम के परचे के पहले पन्ने पर अँग्रेज़ी के दो बड़े अक्षर लिखे थे, इसलिए वे यह जानने के लिए उत्सुक थे कि इनका मतलब क्या है। कुछ लोगों ने सोचा कि इन अक्षरों का मतलब है, ‘थोड़ा इंतज़ार करो’ या ‘बस देखते जाओ।’ फिर रविवार, 26 जुलाई को भाई जोसेफ रदरफर्ड ने एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें यह ज़बरदस्त बात कही गयी थी: “हम चाहते हैं कि अब से हम एक नए नाम से जाने जाएँ और उसी नाम से पुकारे जाएँ। और वह नाम है यहोवा के साक्षी।” तब वहाँ हाज़िर सब लोग समझ गए कि उन दो अक्षरों का मतलब है यहोवा के साक्षी। यह नाम यशायाह 43:10 से लिया गया था।
20 सभी लोगों ने प्रस्ताव के जवाब में ज़ोर से ‘हाँ’ कहा और वे देर तक तालियाँ बजाते रहे। कोलंबस में हाज़िर उन लोगों की ज़ोरदार आवाज़ और तालियों की गड़गड़ाहट रेडियो के ज़रिए दुनिया के आधे हिस्से तक सुनायी दी! ऑस्ट्रेलिया के रहनेवाले अर्नेस्ट और नेओमी बार्बर ने उस दिन को याद करते हुए कहा, “जब अमरीका में तालियाँ बजने लगीं तो यहाँ मेलबर्न के भाई खुशी से उछल पड़े और वे भी देर तक तालियाँ बजाते रहे। हम वह दिन कभी भूल नहीं सकते!”a
पूरी दुनिया में परमेश्वर के नाम की बड़ाई हो रही है
21. नए नाम ने कैसे भाइयों में प्रचार काम के लिए और भी जोश भर दिया?
21 जब परमेश्वर के सेवकों ने बाइबल पर आधारित नाम ‘यहोवा के साक्षी’ अपनाया, तो प्रचार काम के लिए उनके अंदर और भी जोश भर आया। अमरीका के एक पायनियर जोड़े ऐडवर्ड और जैस्सी ग्राइम्स ने, जो 1931 में कोलंबस के अधिवेशन में हाज़िर थे, कहा: “जब हम अधिवेशन के लिए घर से निकले तो हम ‘बाइबल विद्यार्थी’ थे, मगर जब हम लौटे तो हम ‘यहोवा के साक्षी’ बन गए थे। हम खुश थे कि हमें एक ऐसा नाम मिला जिससे हम अपने परमेश्वर के नाम की महिमा कर पाएँगे।” अधिवेशन के बाद कुछ साक्षियों ने परमेश्वर के नाम की महिमा करने के लिए एक नया तरीका अपनाया। वे लोगों को अपनी पहचान बताने के लिए उन्हें एक कार्ड देते थे जिसमें यह संदेश लिखा होता था: “मैं यहोवा का एक साक्षी हूँ और हमारे परमेश्वर यहोवा के राज का प्रचार कर रहा हूँ।” जी हाँ, यहोवा के लोग उसके नाम से पहचाने जाने में गर्व महसूस कर रहे थे और उस नाम के मायने दूर-दूर तक जाकर बताने के लिए तैयार थे।—यशा. 12:4.
“जब हम अधिवेशन के लिए घर से निकले तो हम ‘बाइबल विद्यार्थी’ थे, मगर जब हम लौटे तो हम ‘यहोवा के साक्षी’ बन गए थे”
22. क्या साबित करता है कि यहोवा के लोगों की एक अलग पहचान है?
22 उस घटना को हुए कई साल बीत गए जब यहोवा ने हमारे अभिषिक्त भाइयों को यह अनोखा नाम अपनाने के लिए उभारा था। सन् 1931 से क्या शैतान ऐसा कुछ कर सका कि परमेश्वर के लोगों की पहचान साफ दिखायी न दे? क्या वह हमें दुनिया के दूसरे धर्मों में मिला सका ताकि लोग देख न सकें कि हम उन धर्मों से अलग हैं? बिलकुल नहीं! इसके उलट, यह बात पहले से कहीं ज़्यादा साफ नज़र आ रही है कि परमेश्वर के साक्षियों के नाते हमारी एक अलग पहचान है। (मीका 4:5; मलाकी 3:18 पढ़िए।) परमेश्वर के नाम के साथ हम इतने करीब से जुड़ गए हैं कि आज जो भी यहोवा नाम ज़्यादा इस्तेमाल करता है उसे फौरन पहचान लिया जाता है कि वह यहोवा का एक साक्षी है। यहोवा की सच्ची उपासना, झूठे धर्मों की पर्वतमाला में छिप नहीं गयी है बल्कि यह अलग नज़र आ रही है क्योंकि यह “सब पहाड़ों के ऊपर बुलंद” की गयी है। (यशा. 2:2) आज वाकई यहोवा की उपासना और उसके पवित्र नाम को बहुत ऊँचा उठाया गया है।
23. भजन 121:5 के मुताबिक, यहोवा के बारे में कौन-सी अहम सच्चाई जानने से हमारा विश्वास मज़बूत होता है?
23 यह जानकर हमारा विश्वास कितना मज़बूत होता है कि यहोवा आज और भविष्य में भी हमें शैतान के हमलों से बचाएगा। (भज. 121:5) इसलिए हम भी भजन के एक लेखक की तरह यह मानते हैं: “सुखी है वह राष्ट्र जिसका परमेश्वर यहोवा है, वे लोग जिनको उसने अपनी जागीर चुना है।”—भज. 33:12.
a रेडियो के इस्तेमाल के बारे में ज़्यादा जानने के लिए अध्याय 7 के पेज 72-74 देखें।