“वह घड़ी आ पहुंची है”
“मेरी वह घड़ी आ पहुंची है कि जगत छोड़कर पिता के पास जाऊं।”—यूहन्ना 13:1.
1. सामान्य युग 33 के फसह के पहले यरूशलेम में किस बारे में ज़ोरों पर चर्चा हो रही है और क्यों?
सामान्य युग 29 में बपतिस्मा के बाद से यीशु की ज़िंदगी का रुख बदल गया था। अब उसकी ज़िंदगी में वो “घड़ी” आती है जब उसे मार डाला जाता, फिर उसे ज़िंदा किया जाता और उसकी महिमा होती। अब सा.यु. 33 की वसंत ऋतु है। कुछ ही हफ्तों पहले यहूदी महासभा ने मिलकर यीशु को मार डालने की ठान ली थी। मगर शायद महासभा का एक सदस्य नीकुदेमुस उनकी इस चाल के बारे में यीशु को बता देता है, क्योंकि उसका यीशु के साथ अच्छा संबंध है। इसलिए यीशु यरूशलेम छोड़कर यरदन के पार के गाँव में चला जाता है। और अब फसह का पर्व करीब है, इसलिए उस गाँव के कई लोग यरूशलेम आने लगते हैं। यरूशलेम में जहाँ देखो वहाँ यीशु की ही चर्चा हो रही है। लोग आपस में बातें कर रहे हैं: ‘तुम क्या सोचते हो? क्या वह इस पर्ब्ब में आएगा?’ ऐसी अटकलें लगाने का एक कारण यह भी है कि याजकों और फरीसियों ने लोगों को यह आदेश दे रखा है कि जिसे भी यीशु की खबर मिले वह तुरंत आकर हमें बता दे।—यूहन्ना 11:47-57.
2. मरियम के किस काम पर चेले एतराज़ करते हैं, और यीशु के जवाब से कैसे दिखता है कि उसे अपने बचे हुए कीमती समय का एहसास है?
2 अब निसान 8 शुक्रवार का दिन है। यीशु बैतनिय्याह पहुँचता है, जहाँ उसके दोस्त लाजर, मरथा और मरियम रहते हैं। यह यरूशलेम से सिर्फ 3 किलोमीटर दूर है। अभी फसह के लिए छः दिन बाकी हैं। शुक्रवार की शाम से सब्त का दिन शुरू होता है और यह शाम वह बैतनिय्याह में ही गुज़ारता है। फिर अगली शाम, यानी शनिवार को एक घटना घटती है। मरियम, यीशु को एक सुगंधित और बहुमोल इत्र लगाती है, मगर उसके चेले इस पर एतराज़ करते हैं। तब यीशु उनसे कहता है: “रहने दो। उसे रोको मत। उसने मेरे गाड़े जाने की तैयारी में यह सब किया है। गरीब लोग सदा तुम्हारे पास रहेंगे पर मैं सदा तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा।” (यूहन्ना 12:1-8, इज़ी-टू-रीड वर्शन; मत्ती 26:6-13) यीशु जानता है कि अब ‘वह घड़ी आ पहुंची है कि वह जगत छोड़कर पिता के पास चला जाए।’ (यूहन्ना 13:1) उसके पास सिर्फ पाँच दिन रह गए हैं, इसके बाद वह “बहुतों की छुड़ौती के लिये अपना प्राण” दे देगा। (मरकुस 10:45) इसलिए आगे से यीशु जो भी करता है और सिखाता है, उससे पता चलता है कि बचे हुए समय का एक-एक पल उसके लिए बहुत कीमती है। यीशु के इस रवैये से हम कितनी अच्छी बात सीख सकते हैं! आज इस दुनिया के अंत के लिए बहुत कम समय रह गया है। इसलिए हमें भी अपने हर काम से दिखाना चाहिए कि हमें इस बचे हुए समय का पूरा-पूरा एहसास है! आइए अब देखें कि अगले दिन यीशु क्या करता है।
यीशु का शानदार स्वागत!
3. (क) निसान 9, रविवार को यीशु, यरूशलेम में किस तरह प्रवेश करता है और लोग उसका स्वागत कैसे करते हैं? (ख) यीशु उन फरीसियों को क्या जवाब देता है, जो उसे भीड़ को चुप कराने के लिए कहते हैं?
3 अब निसान 9, रविवार का दिन है। यीशु यरूशलेम में आता है और एक विजयी राजा की तरह उसका स्वागत किया जाता है। ठीक जैसे जकर्याह 9:9 में बताया गया था, वह गदही के बच्चे पर बैठकर नगर के करीब पहुँचता है। बहुत-से लोग उसके मार्ग पर अपने बाहरी वस्त्र बिछाते हैं और पेड़ों की टहनियाँ काटकर बिछाते हैं और ऊँची आवाज़ में कहते हैं: “धन्य है वह राजा, जो प्रभु [यहोवा] के नाम से आता है।” इस पर कुछ फरीसी यीशु से कहते हैं कि अपने चेलों को चुप करा। मगर यीशु जवाब देता है: ‘मैं तुम से कहता हूं, यदि ये चुप रहें, तो पत्थर चिल्ला उठेंगे।’—लूका 19:38-40; मत्ती 21:6-9.
4. यीशु के यरूशलेम पहुँचते ही हर तरफ हलचल क्यों मच जाती है?
4 अभी कुछ ही हफ्ते पहले, भीड़ में से कई लोगों ने देखा था कि यीशु ने चमत्कार करके लाजर को ज़िंदा किया। वे यरूशलेम में दूसरों को उस चमत्कार के बारे में बताते हैं। इसलिए यीशु जैसे ही यरूशलेम पहुँचता है, पूरे नगर में हलचल मच जाती है। लोग एक-दूसरे से पूछते हैं: “यह कौन है?” यीशु के साथ आयी भीड़ जवाब देती है: “यह गलील के नासरत का भविष्यद्वक्ता यीशु है।” इससे फरीसी अंदर ही अंदर कुढ़ने लगते हैं और कहते हैं: “देखो, संसार उसके पीछे हो चला है।”—मत्ती 21:10, 11; यूहन्ना 12:17-19.
5. जब यीशु मंदिर में जाता है तो क्या होता है?
5 महान शिक्षक, यीशु जब यरूशलेम पहुँचता है तो हमेशा की तरह लोगों को उपदेश देने के लिए मंदिर में जाता है। उसके पास अंधे और लंगड़े आते हैं जिन्हें वह चंगा करता है। और मंदिर में लड़के यीशु के बारे में पुकारकर कहते हैं: “दाऊद के सन्तान को होशाना।” याजक और शास्त्री यह सब देखकर एकदम जल-भुन जाते हैं और एतराज़ करते हुए यीशु से कहते हैं: “क्या तू सुनता है कि ये क्या कहते हैं?” तब यीशु जवाब देता है: “हां; क्या तुम ने यह कभी नहीं पढ़ा, कि बालकों और दूध पीते बच्चों के मुंह से तू ने स्तुति सिद्ध कराई?” फिर यीशु लोगों को उपदेश देता है और साथ ही मंदिर में हो रहे कामों पर अच्छी तरह नज़र दौड़ाता है।—मत्ती 21:15, 16; मरकुस 11:11.
6. अब यीशु में कौन-सा फर्क नज़र आता है और क्यों?
6 अब ज़रा छः महीने पहले की बात याद कीजिए। यीशु जब मण्डपों के पर्व के लिए यरूशलेम आया था तो ‘प्रगट में नहीं, बल्कि मानो गुप्त होकर’ आया था। (यूहन्ना 7:10) पहले यीशु जान के खतरे का एहसास होते ही बड़ी होशियारी से बच निकलता था। मगर अब देखिए उसमें कितना फर्क है! इस बार वह खुलेआम यरूशलेम में प्रवेश करता है, जबकि उसे पकड़ने का आदेश भी दिया जा चुका है। एक बात और, पहले वह कभी सबके सामने ऐलान नहीं करता था कि वह मसीह है। (यशायाह 42:2; मरकुस 1:40-44) और ना ही वह चाहता था कि लोग उसके मसीह होने का ढिंढोरा पीटें या उसके बारे में अफवाहें फैलाएँ। लेकिन अब भीड़ खुल्लमखुल्ला यीशु को अपना राजा और छुड़ानेवाला मसीह कहकर पुकार रही है, मगर यीशु उन्हें चुप नहीं कराता। और जब धर्म-गुरु उससे भीड़ को चुप कराने के लिए कहते हैं तो वह उन्हें भी झिड़क देता है। ऐसा फर्क क्यों? क्योंकि जैसे यीशु ने अगले दिन बताया, अब “वह समय आ गया है, कि मनुष्य के पुत्र की महिमा हो।”—यूहन्ना 12:23.
साहस भरा काम और कुछ ज़रूरी उपदेश
7, 8. सामान्य युग 30 के फसह के दिन और सा.यु. 33 निसान 10 के दिन, उसने मंदिर में जो किया, उसमें हम क्या फर्क देखते हैं?
7 निसान 10, सोमवार के दिन वह फिर से मंदिर में आता है। उसने रविवार को मंदिर में जो देखा था, उसके खिलाफ वह अब कार्यवाही करता है। ‘मंदिर में जो लेन-देन कर रहे थे उन्हें वह बाहर निकालने लगता है, और सर्राफों के पीढ़े और कबूतर के बेचनेवालों की चौकियां उलट देता है। और मंदिर में से होकर किसी को बरतन लेकर आने जाने नहीं देता।’ फिर वह ऐसे गलत काम करनेवालों से कहता है: “क्या यह नहीं लिखा है, कि मेरा घर सब जातियों के लिये प्रार्थना का घर कहलाएगा? पर तुम ने इसे डाकुओं की खोह बना दी है।”—मरकुस 11:15-17.
8 गौर कीजिए, यहाँ यीशु ने वही किया जो उसने तीन साल पहले, सा.यु. 30 में फसह के पर्व के दौरान किया था। मगर अबकी बार यीशु व्यापारियों को बहुत ही कड़े शब्दों में फटकारता है। वह उन्हें ‘डाकू’ कहता है। (लूका 19:45, 46; यूहन्ना 2:13-16) वे सचमुच डाकू कहलाने के लायक थे, क्योंकि वे बलिदान के पशुओं पर ऊँचे-ऊँचे दाम लगाकर लोगों को बेहिसाब लूटते थे। जब याजक, शास्त्री और बड़े आदमी यीशु के इस काम के बारे में सुनते हैं, तो वे फिर से यीशु को मार डालने की तरकीब सोचने लगते हैं। मगर उन्हें समझ में नहीं आता कि उसका काम तमाम कैसे करें, क्योंकि भीड़ पर उसकी शिक्षा का ऐसा ज़बरदस्त असर हुआ है कि वह उसकी बातें सुनने के लिए हरदम उसे घेरे रहती है।—मरकुस 11:18; लूका 19:47, 48.
9. यीशु लोगों को कौन-सी शिक्षा देता है और उन्हें क्या करने के लिए कहता है?
9 व्यापारियों को भगाने के बाद वह मंदिर में लोगों को सिखाने लगता है। तभी वह कहता है: “वह समय आ गया है, कि मनुष्य के पुत्र की महिमा हो।” जी हाँ, यीशु जानता है कि धरती पर उसकी ज़िंदगी बस, अब चंद दिनों की रह गई है। इसके बाद वह गेहूँ के दाने का दृष्टांत देते हुए कहता है कि पहले गेहूँ का दाना भूमि में पड़ता है, फिर मर जाता है और इसके बाद ही बहुत फल लाता है। उसी तरह वह भी पहले मारा जाएगा और फिर दूसरों को हमेशा-हमेशा की ज़िंदगी देगा। इसलिए वह लोगों को एक बुलावा देता है: “यदि कोई मेरी सेवा करे, तो मेरे पीछे हो ले; और जहां मैं हूं, वहां मेरा सेवक भी होगा; यदि कोई मेरी सेवा करे, तो पिता उसका आदर करेगा।”—यूहन्ना 12:23-26.
10. अपनी दर्दनाक मौत के बारे में यीशु कैसा महसूस करता है?
10 यीशु की मौत को अब सिर्फ चार दिन रह गए हैं। वह कैसी भयानक यातनाओं से गुज़रनेवाला है और किस तरह तड़प-तड़पकर मरनेवाला है, उसके बारे में सोचते हुए वह आगे कहता है: “अब मेरा जी व्याकुल हो रहा है। इसलिये अब मैं क्या कहूं? हे पिता, मुझे इस घड़ी से बचा।” मगर उसके साथ जो होनेवाला है, उसे टाला नहीं जा सकता। इसलिए फिर वह यूँ कहता है: “मैं इसी कारण इस घड़ी को पहुंचा हूं।” जी हाँ, यीशु का यह इरादा अटल है कि चाहे उस पर जो भी बीते, वह आखिरी साँस तक परमेश्वर की मर्ज़ी के मुताबिक ही चलेगा! (यूहन्ना 12:27) हमने भी परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की ठानी है, तो आइए हम भी यीशु की तरह अपने फैसले से कभी न डगमगाएँ!
11. यीशु भीड़ को क्या समझाता है?
11 यीशु को इस बात की बेहद चिंता है कि उसकी मौत से उसके पिता के नाम पर भारी कलंक लगेगा, इसलिए वह प्रार्थना करता है: “हे पिता, अपने नाम की महिमा कर।” तभी स्वर्ग से यह आवाज़ आती है: “मैं ने उस की [अपने नाम की] महिमा की है, और फिर भी करूंगा।” इसे सुनकर मंदिर में मौजूद सभी लोग अचरज में पड़ जाते हैं। तब महान शिक्षक, यीशु भीड़ को समझाता है कि यह आकाशवाणी क्यों हुई, उसकी मौत से क्या फायदा होगा और उस पर विश्वास रखना क्यों ज़रूरी है। (यूहन्ना 12:28-36) इस तरह रविवार और सोमवार को वह वाकई बहुत व्यस्त रहा। मगर अगले दिन तो कुछ और भी सनसनीखेज़ होनेवाला है।
धर्म-गुरुओं का धिक्कारा जाना
12. निसान 11, मंगलवार के दिन धर्म-गुरु किस तरह यीशु को फँसाने की ताक में रहते हैं, मगर आखिरकार क्या होता है?
12 अब निसान 11, मंगलवार का दिन है। यीशु दोबारा मंदिर में उपदेश देने जाता है। वहाँ उसके दुश्मन भी मौजूद हैं। पिछले दिन यीशु ने मंदिर में जो कार्यवाही की थी, उसके बारे में याजक और पुरनिये उससे पूछते हैं: “तू ये काम किस के अधिकार से करता है? और तुझे यह अधिकार किस ने दिया है?” तब यीशु उन्हें ऐसा जवाब देता है कि उनकी ज़बान ही बंद हो जाती है। इसके बाद वह तीन दृष्टांत देता है। दो दृष्टांत, दाख की बारी का और एक विवाह भोज का। इन दृष्टांतों से वह धर्म-गुरुओं के पाखंड का पर्दाफाश करता है। यह सुनकर वे आग-बबूला हो जाते हैं, उनका जी करता है उसी दम उसे गिरफ्तार कर लें। मगर लोगों के डर की वजह से वे अपने आपको किसी तरह काबू में रखते हैं क्योंकि लोगों की नज़रों में तो वह भविष्यद्वक्ता है! तब वे एक चाल चलने की सोचते हैं कि वे यीशु को उसी की बातों में फँसाकर गिरफ्तार कर लेंगे। मगर एक बार फिर यीशु का जवाब उन्हें खामोश होने पर मजबूर कर देता है।—मत्ती 21:23–22:46.
13. शास्त्रियों और फरीसियों के बारे में यीशु लोगों को कैसे खबरदार करता है?
13 फरीसी और शास्त्री दावा करते थे कि वे परमेश्वर की व्यवस्था के शिक्षक हैं। मगर उनके बारे में यीशु लोगों को खबरदार करता है: “वे तुम से जो कुछ कहें वह करना, और मानना; परन्तु उन के से काम मत करना; क्योंकि वे कहते तो हैं पर करते नहीं।” (मत्ती 23:1-3) पूरी भीड़ के सामने यह उनकी कितनी बड़ी बेइज़्ज़ती थी! मगर यीशु इतने में ही चुप नहीं रहता। आज मंदिर में उसका आखिरी दिन है। इसलिए वह पूरे हिम्मत के साथ एक-एक करके उनकी सभी करतूतों का पर्दाफाश करता है और उसकी ज़ुबान से निकलनेवाला हर लफ्ज़ उन्हें कोड़े की मार की तरह लगता है!
14, 15. यीशु शास्त्रियों और फरीसियों को किस तरह धिक्कारता है और क्यों?
14 यीशु उन्हें धिक्कारते हुए छः बार यूँ कहता है: “हे कपटी शास्त्रियो और फरीसियो तुम पर हाय!” वह उन्हें इसीलिए धिक्कारता है क्योंकि वे लोगों के सामने स्वर्ग के राज्य का द्वार बंद कर देते हैं, और जानेवालों को भी अंदर जाने नहीं देते। ये एक इंसान को अपने यहूदी मत में लाने के लिए पूरी धरती और समुद्र का चक्कर लगा देते हैं और आखिर में अपनी तरह उसे भी विनाश के गड्ढे में धकेल देते हैं। ये व्यवस्था की छोटी-छोटी बारीकियों को तो बड़े ध्यान से पूरा करते हैं, हर चीज़ का दसवां अंश देते हैं, मगर “व्यवस्था की गम्भीर बातों को अर्थात् न्याय, और दया, और विश्वास को छोड़” देते हैं। ये “कटोरे और थाली को ऊपर ऊपर से तो मांजते” हैं, लेकिन “वे भीतर अन्धेर असंयम से भरे हुए [होते] हैं।” इसका मतलब है कि वे बाहर से भक्ति का दिखावा करते हैं, मगर उनका मन छल और कपट से भरा होता है। ये भविष्यद्वक्ताओं की कब्रें बनाने और उन्हें सजाने के लिए तैयार रहते हैं, जिससे लोग उनकी तारीफ करें। मगर सच तो यह है कि वे “नबियों के हत्यारों की सन्तान” हैं ( NHT)।—मत्ती 23:13-15, 23-31.
15 उनके दिल में परमेश्वर के सिद्धांतों के लिए ज़रा भी कदर नहीं है। इसीलिए यीशु उन्हें धिक्कारता है: “हे अन्धे अगुवो, तुम पर हाय।” यीशु उन्हें अंधा कहता है, क्योंकि वे यह नहीं देख पाते कि कौन-सी चीज़ ज़्यादा अहमियत रखती है। वे मंदिर में यहोवा की उपासना से बढ़कर, मंदिर पर चढ़े सोने को ज़्यादा महत्त्व देते हैं। इसके बाद वह उन्हें सबसे ज़बरदस्त और तीखी फटकार लगाता है: “हे सांपो, हे करैतों के बच्चो, तुम नरक के दण्ड से क्योंकर बचोगे?” इन कड़ुवे शब्दों से यीशु उन्हें उनकी असलियत से रू-ब-रू कराता है और कहता है कि बुराई का जो रास्ता उन्होंने इख्तियार किया है, वे उसके अंजाम सज़ा-ए-मौत से हरगिज़ नहीं बच सकते। (मत्ती 23:16-22, 33) आइए हम भी यीशु की तरह हिम्मत के साथ गवाही दें, चाहे हमें झूठे धर्मों का पर्दाफाश ही क्यों न करना पड़े।
16. जैतून पहाड़ पर यीशु कौन-सी महत्त्वपूर्ण भविष्यवाणी करता है?
16 दोपहर का समय बीता जा रहा है और यीशु मंदिर छोड़कर अपने प्रेरितों के साथ जैतून पहाड़ पर जाता है। वहाँ बैठकर वह एक भविष्यवाणी करता है, जिसमें वह मंदिर के विनाश, अपने आने के चिन्ह और इस दुष्ट दुनिया के अंत के बारे में बताता है। इस भविष्यवाणी की बड़े पैमाने पर पूर्ति आज हमारे ज़माने में हो रही है। इस शाम यीशु अपने चेलों से यह भी कहता है: “तुम जानते हो, कि दो दिन के बाद फसह का पर्ब्ब होगा; और मनुष्य का पुत्र क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिये पकड़वाया जाएगा।”—मत्ती 24:1-14; 26:1, 2.
यीशु ने ‘अपने लोगों से अन्त तक प्रेम रखा’
17. (क) निसान 14 को, फसह के दौरान यीशु बारह प्रेरितों को कौन-सा सबक सिखाता है? (ख) यहूदा इस्करियोती के चले जाने के बाद यीशु क्या करता है?
17 अगले दो दिन यानी निसान 12 और 13 को यीशु मंदिर में नहीं आता। क्योंकि निसान 14 को फसह का पर्व है और उसकी ज़िंदगी का आखिरी दिन भी। वह चाहता है कि फसह अपने प्रेरितों के साथ मनाए और इसमें कोई रुकावट न आए। क्योंकि अगर वह मंदिर में गया तो धर्म-गुरु, जो उसके खून के प्यासे हैं, ज़रूर समस्या खड़ी करेंगे। इसलिए वह निसान 12 और 13 के दिन सिर्फ अपने शिष्यों के साथ बिताता है। अब गुरुवार, निसान 14 की शाम है और यीशु अपने प्रेरितों के साथ यरूशलेम में, एक मकान में फसह मनाने के लिए इकट्ठा हुआ है। फसह के दौरान यीशु अपने बारह प्रेरितों के पाँव धोता है और उन्हें नम्रता का बहुत बढ़िया सबक सिखाता है। मगर इनमें से एक प्रेरित, यहूदा इस्करियोती धोखेबाज़ है। वह अपने गुरु को 30 चाँदी के सिक्के के लिए पकड़वाने को तैयार हो गया है, जो मूसा की व्यवस्था के मुताबिक सिर्फ एक गुलाम की कीमत है। सो उसके चले जाने के बाद यीशु अपने बाकी प्रेरितों के साथ अपनी मौत की यादगार मनाता है।—निर्गमन 21:32; मत्ती 26:14, 15, 26-29; यूहन्ना 13:2-30.
18. अपने प्रेरितों को यीशु और क्या सिखाता है और जुदाई की घड़ी को सहने के लिए वह उन्हें कैसे मज़बूत करता है?
18 इसके फौरन बाद, प्रेरितों में इस बात को लेकर गरमागरम बहस छिड़ जाती है कि उनमें सबसे बड़ा कौन है। मगर उन्हें डाँटने के बजाए यीशु धीरज के साथ समझाता है कि बड़प्पन दूसरों की सेवा करने में है। फिर वह इस बात के लिए उनकी तारीफ करता है कि उन्होंने मुसीबतों में भी उसका साथ दिया है। इसलिए वह उनके साथ राज्य की एक वाचा बाँधता है। (लूका 22:24-30) वह उन्हें एक आज्ञा भी देता है कि एक-दूसरे से प्यार करें, जैसा उसने उनसे किया है। (यूहन्ना 13:34) अब उनके बिछड़ने की घड़ी करीब आ रही है इसलिए वह उनका और भी हौसला बढ़ाता है। वह उन्हें यकीन दिलाता है कि वह उनका साथ कभी नहीं छोड़ेगा। वह कहता है कि वे हमेशा उस पर विश्वास करते रहें। साथ ही वह वादा करता है कि वह उनकी मदद के लिए पवित्र आत्मा भेजेगा। (यूहन्ना 14:1-17; 15:15) फिर वहाँ से निकलने से पहले वह अपने पिता से मिन्नत करता है: “वह घड़ी आ पहुंची, अपने पुत्र की महिमा कर, कि पुत्र भी तेरी महिमा करे।” जुदाई की घड़ी को सहने के लिए उसने वाकई अपने चेलों की हिम्मत बढ़ाई है। इसमें शक नहीं कि उसने ‘अपने लोगों से अन्त तक प्रेम रखा।’—यूहन्ना 13:1; 17:1.
19. गतसमनी के बाग में यीशु को इतनी भारी वेदना क्यों होती है?
19 अब आधी रात बीत चुकी है। यीशु अपने 11 प्रेरितों के साथ गतसमनी के बाग में आता है, जहाँ वे पहले भी कई बार आ चुके हैं। (यूहन्ना 18:1, 2) अब कुछ ही घंटों की बात है, फिर वह ज़िल्लत की मौत मरेगा। अब उस पर जो बीतनेवाला है और उसकी मौत से परमेश्वर के नाम पर जो कलंक लगनेवाला है, ये सारी बातें सोच-सोचकर वह बहुत ही व्याकुल हो जाता है। वह हृदय की ऐसी वेदना से प्रार्थना करता है कि उसका पसीना मानो लोहू की बूंदों की तरह ज़मीन पर गिरने लगता है। (लूका 22:41-44) इसके बाद वह अपने प्रेरितों से कहता है: “घड़ी आ पहुंची; . . . देखो, मेरा पकड़वानेवाला निकट आ पहुंचा है।” जब वह बोल ही रहा है कि यहूदा इस्करियोती एक बड़ी भीड़ के साथ वहाँ पहुँचता है। लोग अपने साथ मशाल और हथियार लिए उसे पकड़ने आए हैं। यीशु अब बचने की कोशिश नहीं करता बल्कि शांत खड़ा रहता है, वरना “पवित्र शास्त्र की वे बातें कि ऐसा ही होना अवश्य हैं, क्योंकर पूरी होंगी?”—मरकुस 14:41-43; मत्ती 26:48-54.
मनुष्य के पुत्र की महिमा हुई!
20. (क) गिरफ्तार होने बाद यीशु को किन यातनाओं से गुज़रना पड़ता है? (ख) मरने से पहले यीशु क्यों चिल्लाकर कहता है: “पूरा हुआ”?
20 यीशु की गिरफ्तारी के बाद झूठे गवाह उस पर इलज़ाम लगाते हैं। न्यायी पक्षपात करते हुए उसे मुज़रिम करार देते हैं। पुन्तियुस पीलातुस उसे मौत की सज़ा सुनाता है। धर्म-गुरु और भीड़ उसका मज़ाक उड़ाते हैं। सैनिक भी उसे ज़लील करते हैं और खूब यातना देते हैं। (मरकुस 14:53-65; 15:1, 15; यूहन्ना 19:1-3) और शुक्रवार दोपहर के वक्त यीशु को सूली पर कीलों से बड़ी बेरहमी से ठोक दिया जाता है। उसका पूरा शरीर बस कीलों के सहारे लटका हुआ है। इसलिए ये कील उसके हाथों और पैरों को फाड़ने लगते हैं। उसका दर्द बरदाश्त के बाहर होता है। (यूहन्ना 19:17, 18) दोपहर को लगभग तीन बजे यीशु चिल्लाकर कहता है: “पूरा हुआ।” जी हाँ, वह इस धरती पर जिस काम के लिए आया था, उसने वह सब पूरा किया! फिर वह अपने प्राण परमेश्वर को सौंपता है और सिर झुकाकर दम तोड़ देता है। (यूहन्ना 19:28, 30; मत्ती 27:45, 46; लूका 23:46) तीसरे दिन यहोवा उसे फिर से जी उठाता है। (मरकुस 16:1-6) अपने जी उठने के चालीस दिन बाद यीशु स्वर्ग लौट जाता है, जहाँ उसकी महिमा होती है।—यूहन्ना 17:5; प्रेरितों 1:3, 9-12; फिलिप्पियों 2:8-11.
21. हम यीशु के पदचिन्हों पर कैसे चल सकते हैं?
21 अभी हमने यीशु की ज़िंदगी की एक झलक देखी। उसे ध्यान में रखते हुए हम ‘उसके पदचिन्हों’ पर कैसे चल सकते हैं? (1 पतरस 2:21) आइए, उसकी तरह हम भी प्रचार काम और चेला बनाने के काम में जी-तोड़ मेहनत करें और हिम्मत के साथ परमेश्वर का वचन सुनाएँ। (मत्ती 24:14; 28:19, 20; प्रेरितों 4:29-31; फिलिप्पियों 1:14) हमेशा ध्यान रखें कि हम समय के किस मोड़ पर हैं और एक-दूसरे के लिए प्यार दिखाने और भले काम में लगे रहें। (मरकुस 13:28-33; इब्रानियों 10:24, 25) यीशु की तरह आइए हम भी ज़िंदगी का हर काम, दो खास बातों को ध्यान में रखकर करें। पहला, परमेश्वर हमसे जो चाहता है, हमेशा उसी के मुताबिक चलें और दूसरा, यह कभी न भूलें कि “अन्त” बहुत करीब है।—दानिय्येल 12:4.
आप क्या जवाब देंगे?
• जब यीशु की मौत करीब आती है तब उसकी सेवकाई में कौन-सा फर्क नज़र आता है?
• किस तरह यीशु ने ‘अपने लोगों से अन्त तक प्रेम रखा’?
• मौत से कुछ घंटे पहले यीशु के साथ जो हुआ उससे हम उसके बारे में क्या सीख सकते हैं?
• अपनी सेवकाई में हम यीशु के पदचिन्हों पर कैसे चल सकते हैं?
[पेज 18 पर तसवीर]
यीशु ने ‘उनसे अन्त तक प्रेम रखा’